Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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ईश्वर पासे फेंकने वाला बाजीगर नहीं है
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वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ मनीषियों द्वारा चेतन सत्ता का प्रतिपादन विज्ञान सम्मत ढंग से अब किया जाने लगा है। आधुनिक विज्ञानवेत्ता ऐसी संभावना प्रकट करने लगे है कि निकट भविष्य में ईश्वर का अस्तित्व वैज्ञानिक आधार पर भी प्रमाणित हो सकेगा। जो आधार विज्ञान को अभी प्राप्त हो सके है, वे अपूर्णता के कारण आज ईश्वर का प्रतिपादन कर सकने में समर्थ भले ही न हों, पर उसकी संभावना से इन्कार कर सकना उनके लिए भी शक्य नहीं।
ईश्वर के अस्तित्व को केवल इसी आधार पर नास्तिकों द्वारा अस्वीकार किया जाता है कि उसका कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। अल्प विकसित विज्ञान की ओर से भी चेतन सत्ता का अनस्तित्व सिद्ध करने के लिए ढेरों तर्क दिये जाते रहे हैं। पर जब हमारे साधन ही स्वल्प हो जिनके आधार पर उस तत्व का प्रत्यक्षीकरण करना संभव है, अथवा हम अज्ञात की कल्पना तत्व होता ही नहीं। यह बात हमारे जीवन व्यवहार में देखने को मिलती भी रहती हैं। यह एक मानी हुई बात है कि वे सभी वस्तुएँ जो प्रत्यक्ष अनुभव में नहीं आते, फिर भी इनका अस्तित्व है। इसी प्रकार परमात्म सत्ता के अस्तित्व से मात्र इस आधार पर इन्कार करना अनुपयुक्त है कि वह इन्द्रियों और यंत्रों की पकड़ में नहीं आता।
ख्यातिलब्ध वैज्ञानिक पास्कल कहते थे कि “जो तत्व हमारी पकड़ में नहीं आया, उसके संबंध में यह सोचना गलत है कि उसका अस्तित्व हैं ही नहीं।” अब से कुछ शताब्दियों पूर्व भाप, बिजली पेट्रोल, रेडियो, एटम, ईथर आदि शक्तियों की कहीं चर्चा तक नहीं था। भूतकाल में भी कभी उनकी उपस्थिति देखी नहीं गई थी। इन शक्तियों की कल्पना जब किन्हीं मस्तिष्कों में उदय हुई तब भी कोई ऐसे प्रमाण नहीं थे जिनसे उसकी उपस्थिति निश्चित रूप से सिद्ध की जा सके। फिर भी अनस्तित्व से अस्तित्व की संभावना स्वीकार की गई और खोजें चल पड़ी। विभिन्न आविष्कार इस प्रकार प्रकट हुए है।
उपरोक्त खोजें जड़ जगत की है। चेतन जगत संबंधी खोज तो अभी प्रारंभिक अवस्था में है। विज्ञान अब धीरे-धीरे ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने की स्थिति में पहुँचता जा रहा हैं। मिल, हेल्स, होल्ट्स, लाँग हक्सले आदि वैज्ञानिकों ने परमसत्ता के अस्तित्व के बारे में जो कुछ लिखा है, वह अब बहुत पुराना हो गया है। उनकी वे युक्तियाँ जिनके आधार पर ईश्वर का खण्डन किया जाय करता था, अब असामयिक होती जा रही है। डा0 क्लिण्ट ने अपनी पुस्तक “थीइज्म” में इन युक्तियों का वैज्ञानिक आधार पर ही खण्डन करके रख दिया है।
इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जेम्स जीन्स ने “दि न्यू बैक ग्राउण्ड आफ साइन्स” नामक पुस्तक में यह उल्लेख किया है-”उन्नीसवीं सदी में विज्ञान का मूल विषय भौतिक जगत था लेकिन अब प्रतीत हो रहा है कि वही सब कुछ नहीं है। “इससे आगे भी कोई सर्वोच्च सत्ता विद्यमान है। अपनी दूसरी पुस्तक-”दि मिस्टीरियस यूनिवर्स” में उन्होंने लिखा है “वैज्ञानिक विषय के संदर्भ में हमने जो पूर्व में मान्यता बना ली है अब उसकी पुनः परीक्षण की आवश्यकता है। जड़ जगत को जो प्रधानता दे बैठे थे अब प्रतीत हो रहा हैं कि वह गौण है। उनके अनुसार विज्ञान जगत अब पदार्थ सत्ता नियन्त्रण करने वाली चेतन सत्ता की ओर उन्मुख हो रहा हे और यह खोजने में लगा हैं कि हर पदार्थ को गुण-धर्म की रीति-नीति से नियन्त्रित रखने वाली व्यापक चेतना का स्वरूप क्या है ? पदार्थ को स्वसंचालित अचेतन सत्ता समझने की प्रचलित मान्यता अब इतनी अपूर्ण है कि उसके आधार पर प्राणियों की चिंतन क्षमता का कोई समाधान नहीं मिलता। अब वैज्ञानिक निष्कर्ष आणविक हलचलों के ऊपर शासन करने वाली एक अज्ञात नियामक चेतन सत्ता को समझने का प्रयास गंभीरतापूर्वक कर रहे है। दार्शनिक काँट का यह कथन सचाई के बहुत निकट है कि “विश्व की रचना में प्रयुक्त हुई नियमबद्धता और बुद्धिमत्ता को देखते हुए ईश्वर की सत्ता स्वीकार की जा सकती है।”
वैज्ञानिक मनीषी हर्बर्ट स्पेन्सर ने अपनी पुस्तक “फर्स्ट प्रिंसिपल” में कहा है कि “एक ऐसी विश्वव्यापी चेतन तत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता जी साधारणतया सभी प्राणियों में विशेषकर मानव में जीवन की एक सुरम्य प्रक्रिया का निर्धारण करती है। प्राचीनकाल के धार्मिक या दार्शनिक जिस प्रकार उसका विवेचन करते रहे है भले ही वह संदिग्ध हो, पर उसका अस्तित्व असंदिग्ध रूप से है और वह ऐसा है जिसका गंभीर अन्वेषण होना चाहिए।
इस संदर्भ में सर ए0एस॰ एडिंग्टन का कथन है-”भौतिक पदार्थों के भीतर एक चेतन शक्ति काम कर रही है जिसे अणु प्रक्रिया का प्राण कहा जा सकता है। हम उसका सही स्वरूप और क्रिया-कलाप अभी नहीं जानते पर यह अनुभव करते है कि संसार में जो कुछ हो रहा है- वह अनायास, आकस्मिक या अविचारपूर्ण नहीं है उनके अनुसार चेतन सत्ता ही जड़ जगत की उत्पत्ति का मूल कारण है। जे0बी0एस॰ हेल्डेन भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे है कि पदार्थ या शक्ति ही इस संसार का समग्र स्वरूप नहीं है। उनका कहना है कि एक समष्टिगत मनः तत्व समस्त विश्व पर नियन्त्रण किये गये हुए है। डा0 गार्ल भी मानते हैं कि संसार का मुख्य तत्व पदार्थ नहीं वरन् वह चेतन सत्ता है जो समझती, अनुभव करती, सोचती, याद रखती, और प्रेम करती है। मृत्यु के उपरान्त जीवन की पुनरावृत्ति का सनातन क्रम उसी के द्वारा गतिशील रहता चला आ रहा है।
संसार के प्रमुख विज्ञानवेत्ताओं के सम्मिलित निष्कर्ष व्यक्त करने वाले ग्रन्थ “दी ग्रेट डिजाइन” में प्रतिपादन किया गया है कि यह संसार निर्जीव यंत्र नहीं है। यह सब अनायास ही नहीं बन गया है। चेतन और अचेतन हर पदार्थ में एक ज्ञान शक्ति काम कर रही हैं उसका नाम भले ही कुछ हो। प्रसिद्ध वैज्ञानिक एल्फ्रेड रसेल वैलेस ने भी अपनी पुस्तक “सोशल इनवाइरन-मेण्ट एण्ड मोरेल प्रोग्रेस” में यह स्पष्ट किया है कि चेतना ही जड़ पदार्थों को गति प्रदान करती है।
विश्व विख्यात अणु विज्ञानी आइन्स्टीन के परमाणु प्रक्रिया का विशद् विवेचन करने के उपरान्त अपने निष्कर्ष को घोषित करते हुए कहा है “मुझे विश्वास हो गया है कि जड़ प्रकृति के भीतर एक ज्ञानवान चेतना भी काम कर रही है। इस अविज्ञात सृष्टि के अद्भुत रहस्यों के मूल में वह ईश्वरीय शक्ति ही परिलक्षित होती है। ईश्वर मात्र पासे फेंकने वाला बाजीगर नहीं है।” अब विज्ञान भी इस बात का समर्थन कर आइंस्टीन के कथन की पुष्टि कर रहा है कि सम्पूर्ण सृष्टि का नियमन एक अदृश्य चेतन सत्ता कर रही है।
ईश्वर की मान्यता सृष्टि का सर्वोच्च विज्ञान है और परम सत्य की खोज विज्ञान का का इष्ट। वैज्ञानिक ने समर्थ सत्ता के औचित्य को ज्ञान के अगाध विस्तार और मानवीय विवेक के आधार पर ही स्वीकार किया है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन से एक बार उनके एक मित्र ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा-”आप वैज्ञानिक होकर भी ईश्वर में आस्था रखते हैं? उसकी प्रार्थना किया करते है? यदि भगवान सचमुच है तो वह क्या है? इस पर न्यूटन ने गंभीरतापूर्वक उत्तर दिया-’ज्ञान’। उन्होंने कहाँ-हमारा मस्तिष्क ज्ञान की खोज में जहाँ पहुँचता है वही उसे एक शाश्वत चेतना का ज्ञान होता है। कण-कण में जो ज्ञान की अनुभूति भरी हुई है, वह परमात्मा का ही स्वरूप है। सृष्टि का कोई कण चेतना से वंचित नहीं, परमात्मा इसी रूप में सर्वव्यापी है। ज्ञान की ही शक्ति से संसार का नियंत्रण होता है, विनाश करना चाहो तो भी ज्ञान की ही आवश्यकता होती है। परमसत्ता अपने इस रूप के कारण ही सर्वशक्तिमान है।”