Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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शरीर तथा मन चुस्त एवं तनाव रहित रहें!
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योग एक ऊंची आध्यात्मिक प्रक्रिया का नाम है जिसमें आत्मसत्ता को परमात्मा सत्ता के साथ जुड़ने का स्वयं को महत् चेतना में विसर्जित कर तद्रूप बनने का प्रयास किया जाता है। इस शब्द का पिछले दिनों इस सीमा तक दुरुपयोग हुआ है कि यह योग से बदल कर योगा हो गया एवं पश्चिम जगत में एक फैशन के रूप में प्रचलित हुआ। देव संस्कृति के महत्वपूर्ण प्रतिपादनों को विश्वभर में व्यापक कर जन-जन तक पहुँचाना एक पुण्य है किंतु जब यही विकृति रूप में पहुँचे पढ़े लिखे समझकर व्यक्ति भी जब मात्र नेति धौति, वस्ति, बंध, मुद्राओं को समग्र योग का पर्याय मानने लगें तो ऐसे समूह के दिमाग की सफाई की आवश्यकता है।
गत दो दशकों में बायोफिडबैक प्रक्रिया के अनुसंधान ने एक महत्वपूर्ण आयाम योग चिकित्सा में जोड़ा है कि मन को साधना व अपनी गतिविधियों को नियंत्रित कर पाना संभव है। इस पर जो अविश्वास करते थे, उनके लिए बायोफीडबैक यंत्र विविध रूपों सामने आ गए जिसे अब भली प्रकार दर्शाया जा सकता है कि शरीर क्रियाओं में परिवर्तन क्यों व कैसे लाया जाता है?
शरीर शास्त्रियों को जब क्रियायोग की यह विशेषता ज्ञात हुई, तो उनने इनका परीक्षण रोगियों पर आरंभ किया। किरोव स्टेट यूनिवर्सिटी, अलमाअता (यू.एस.एस.आर) के चिकित्सा शास्त्रियों ने इसके लिए कुछ उच्च रक्तचाप के मरीजों को चुना और बायोफीड बैक यंत्रों के माध्यम से आत्म नियंत्रण द्वारा अपने रक्तचाप को नियंत्रित करने का उन्हें प्रशिक्षण दिया। कुछ दिनों के प्रशिक्षण के उपरान्त वे इसे भली-भाँति सीख गये और अपनी इच्छानुसार इसे नियंत्रित करने में निष्णात हो भी गये, किन्तु प्रशिक्षकों ने देखा की इस ऐच्छिक नियंत्रण से उन्हें क्षणिक लाभ पहुँचाया था। नियंत्रण हटते ही स्थिति पुनः पूर्ववत् हो जाती। अस्तु उनने इसके साथ ध्यान परक योग क्रियाओं को भी सम्मिलित कर दिया, तो पाया कि हाइपर टेंशन के रोगी कम से कम एक वर्ष के लिए अपनी तकलीफ से मुक्ति पा लेते है। इस संदर्भ में “योगाएण्ड बायोफीडबैक इन दि मैनेजमेंट ऑफ हाइपरटेंशन” नाम शीर्षक से “दि लैन्सेटनामक” पत्रिका में अभी कुछ दिनों पूर्व एक लेख छपा था जिसमें योगाभ्यास के विभिन्न शरीर-क्रियाओं व प्लाज्मा कार्टीसाल जैसे रक्त स्रावों पर प्रभावों की चर्चा की गई थी, कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के साथ यदि इस प्राचीन स्वास्थ्य संवर्धन पद्धति को भी जोड़ा ज सकें, तो इसकी लाभकारी परिणति और भी अनेक गुनी बढ़ी जायेंगी।
अब तो इससे संबंधित बायो एनर्जेटिक्स नामक एक स्वतंत्र उपचार पद्धति का विकास हो गया है। इसके अतिरिक्त जर्मनी के डा. इड़ा राल्फा ने भी एक नई चिकित्सा प्रणाली आरम्भ की है, जो राल्फिंग पद्धति कहलाती है। उपचार विज्ञान की इन दोनों विधाओं में मूल रूप से अष्टाँग योग के आसनों पर ध्यान केन्द्रित कर रुग्णों को आरोग्य-लाभ देने की एक अन्य शाखा में मनः कायिक रोगियों को आटोजैनिक ट्रेनिंग द्वारा रिलेक्सेशन (शिथिलीकरण) का अभ्यास कराया जाता है। इससे भी मूल भूमि का यौगिक क्रियाओं की ही होती है।
स्वास्थ्य-संरक्षण की इस विधा को देश विदेश के अनेक चिकित्सकों-विद्वानों ने स्वयं पर भी आजमाया और उसे लाभों को अनुभव किया है। इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइन्सेज, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के डायरेक्टर एवं “ए मेनुअल ऑफ साइंस एण्ड फिलासॉफी ऑफ योगा” के मूर्धन्य लेखक के0 एन॰ उडुपा अनेक प्रकार की मनोकायिक बीमारियों के शिकार थे। टै्रक्वलाइजर्स का सेवन करते रहे पर शिवाय सुस्ती के इससे और कोई लाभ नहीं मिला। किसी योग विशेषज्ञ की सलाह से उनने योगासनों का अभ्यास आरम्भ किया। उनके आश्चर्य की सीमा न रहीं जो फायदा महीनों के औषधि सेवन से नहीं रहीं। जो फायदा महीनों के औषधि सेवन से नहीं हुआ वह एक सप्ताह के यौगिक अभ्यास में ही अनुभव होने लगा। अभ्यास जारी रखा। शिकायतें धीरे-धीरे कम होती गयी और समाप्त हो गयी। इसके अतिरिक्त उन्हें जो अन्य लाभ प्राप्त हुए, वह थे- कार्यक्षमता में बढ़ोत्तरी तथा बुढ़ापे के लक्षणों यथा बालों का झड़ना-उनका श्वेत होना, त्वचा पर झुर्रियाँ पड़ना आदि में घटोत्तरी। इन उपलब्धियों से उनके शोध क्षेत्र में परिवर्तन आगया वे अब वनौषधियों व ध्यानयोग के शरीर विज्ञान पर संभावित प्रभावों का अध्ययन करने लगें। उनका कहना है कि उन्हें जो सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि योगाभ्यास से प्राप्त हुई, वह थी मन-मस्तिष्क की ताजगी।
इस विषय के निष्णातों का कथन है कि व्यायाम और योगाभ्यास में एक मूलभूत अन्तर है कि व्यायाम स्थूलतापरम होता है, जबकि योगासन सूक्ष्म क्रियापरक। इस अन्तर के कारण ही दोनों से मिलने वाले लाभों में व्यतिरेक दिखाई पड़ता है व्यायाम में एक ही क्रिया की आवृत्ति बारंबार होती है, तथा यह अधिक थकाने वाला होता है, तथा यह उपभोग भी अधिक होता है। इससे बाह्य शरीर संगठन सुन्दर क्रिया और अंतःस्रावी ग्रन्थियों को प्रभावित करने का प्रश्न आता है, वहाँ यह अक्षम साबित होता है, जबकि दूसरी ओर योगाभ्यासों से स्थूलता तो नहीं बढ़ती किन्तु अंतःस्रावी ग्रन्थियों को नियंत्रित कर यह शरीर-फिजियोलॉजी को सुव्यवस्थित बनाये रहता है, किन्तु अंतःस्रावी ग्रन्थियों को नियंत्रित कर यह शरीर-फिजियोलॉजी को सुव्यवस्थित बनाये रहता है, फलतः व्यक्ति हर वक्त स्फूर्ति का एहसास करता है। इसमें ऊर्जा उपभोग भी न्यूनतम होता है, क्योंकि योगासनों में एक ही क्रिया की पुनरावृत्ति के स्थान पर शरीर को एक निश्चित अवधि तक अवस्था विशेष में रखा जाता है, जिससे शारीरिक-मानसिक शक्ति का संरक्षण होता है। सामान्य कसरत से ऐच्छिक माँस-पेशियां में रक्त प्रवाह बढ़ता है, जबकि यौगिक क्रियाएं उन समस्त अंग-अवयवों को प्रभावित, उत्तेजित करती हैं, जो प्राणदायी हैं। रक्त प्रवाह भी उनमें बढ़ाती है। इस प्रकार प्राणायाम से यदि फेफड़ों में रक्त-संचार बढ़ता है, तो सर्वांगासन से अंतःस्रावी ग्रन्थियों का रक्त-प्रवाह तेज होता है। इस तरह हम देखते हैं कि साधारण योग-क्रियाओं द्वारा अंतरंगों को सीधे प्रभावित कर उनकी सक्रियता को आसानी से बढ़ाया जा सकता है। फिर भी इन सभी को उचित मार्गदर्शन में किया जाना चाहिए।
ज्ञातव्य है कि शरीर-क्रिया का आयु से गहरा संबंध है। यदि आन्तरिक अवयव ठीक रहें, वे सुव्यवस्थित ढंग से काम करते रहें, तो स्वास्थ्य उत्तम बना रहता है, जिसका सीधा प्रभाव आयुष्य पर पड़ता है। इसके नियमित अभ्यास से अनेकों ने आयु बढ़ायी है। इन्हीं में से एक इंग्लैण्ड के प्रख्यात पत्रकार चार्ल्स हेनरी अर्नाल्ड। सन् 1996 में 110 में वर्ष की आयु पूर्ण कर जीवेम् शरदः शतम् के श्रुतिवचन को सार्थक करते हुए उन्होंने महाप्रयाण किया। इस आयु में भी उनका स्वास्थ्य, याददाश्त, आँखों की रोशनी सामान्य व्यक्ति से अच्छे थे। बिना किसी व्याधि के कष्ट के वे चिरनिद्रा में सो गए।
इन दिनों तनावजन्य व्याधियों का बाहुल्य है। चिकित्सा वैज्ञानिकों का मत कि ये प्रायः से 40 से 50 वर्ष की आयु में होती देखी जाती है। इस अवधि में रक्तचाप,रक्तावरोध, मधुमेह, मोटापा, पेप्टिक अल्सर, पित्ताशय व गुर्दे की पथरी का शिकार हो कष्ट पाता व मृत्यु को प्राप्त होता है। यदि इस स्थिति के आने के पूर्व ही योग विज्ञान के प्रचलित अनुशासनों का अवलम्बन लिया जा सके तो स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रखना संभव है। योग उपचार के रूप में एक वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति को अपनाया जा सके तो लम्बे समय तक निरोग रह जीने का आनन्द लिया जा सकता है।