Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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आतंक में स्थिरता कहाँ है?
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क्रिया की प्रतिक्रिया होने में देर तो लग सकती है, पर ऐसा नहीं समझना चाहिए कि यहाँ 'अंधेर नगरी बेबूझ राजा' का शासन चलता हैं, इसलिए एक सार्थक उक्ति प्रचलित है कि 'देर है अंधेर नहीं।' कुमार्ग पर कदम बढ़ाने वाले आज नहीं तो कल ठोकर खाए बिना नहीं रहते। कुकर्म और कुछ नहीं, मात्र कुविचारों की ही परिणति है। शरीर का अधिष्ठाता मन है। उसी क्षेत्र में आकांक्षाएँ उठती और नीतियाँ निर्धारित होती हैं। योजना भी इसी दफ्तर में बनती हैं और उसे कार्यान्वित करने के आदेश भी यहीं से निस्सृत होते हैं।
इन दिनों प्रचलनों के उलट जाने के कारण स्थिति कुछ ऐसी बन पड़ी है कि मानसिक अवांछनीयता भी स्वाभाविक जैसी लगने लगी है। वन्य प्रदेशों में रहने वाले यायावर कबीले भी अपने लोगों के बीच बढ़-चढ़कर बातें करते और अपनी-अपनी श्रेष्ठता बघारते हैं, पर सभ्य समाज के लोग उनकी वास्तविकता को समझते और वनविहार करते समय सुरक्षात्मक सावधानी बरतते हैं। अचिंत्य चिंतन से ग्रसित लोगों को भी एक प्रकार से कबाइली ही समझा जाना चाहिए और इन्हें सभ्य बनाने का प्रयास न बन पड़ता दिखे, तो कम-से-कम इतना तो करना ही चाहिए कि उनकी उच्छृंखलता उभरकर अनर्थ न रचने पाए, इस संबंध में सतर्कता बरती जाए। अनपढ़ लोग भी अविकसित बालकों की तरह होते हैं, जो उचित-अनुचित का सही निर्णय नहीं कर पाते और अक्सर ऐसी भूलें कर बैठते हैं, जिनसे उनके स्वयं का और दूसरों का अनर्थ ही होता है। बड़ी आयु हो जाने पर भी सभ्य स्तर की विचारशीलता न अपना सकने वालों की स्थिति भी ऐसी ही समझनी चाहिए। वे जितना कुछ सृजन-उत्पादन कर पाते हैं, उसकी तुलना में उत्पन्न की गई हानियाँ कहीं अधिक होती हैं।
यह सृष्टि एक व्यवस्था के अंतर्गत चल रही है। हर किसी को अपनी मर्यादा के अंतर्गत रहने में ही भलाई है, अन्यथा अनौचित्य बरतने वालों की खबर विश्व-व्यवस्था के नियंता लेते हैं और उनके लिए ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देते हैं, जिसके लिए किसी को अनाचार-प्रक्रिया नियमित रूप से जारी रख सकने का अवसर न मिले। यदि ऐसा न होता तो दुष्ट-दुरात्माओं ने अब तक सभी शांतिप्रिय लोगों को मटियामेट बनाकर रख दिया होता।
कुविचार ही प्रकारांतर से कुकर्म है और कुकर्मों की परिणति निश्चित रूप से विपत्ति एवं विक्षोभ की स्थिति पैदा किए बिना रहती नहीं। अनाचार से उत्पन्न प्रतिक्रिया कष्टकारी ही होती है, इस शाश्वत नियम को झुठलाया नहीं जा सकता। ठगों, धूर्त्तों, प्रपंचियों, अनाचारियोँ, दस्युओं, तस्करों के समुदाय समय-समय पर उभरते रहे हैं। उनने अपने-अपने समय में रोमांचकारी अनर्थ पैदा किए हैं। इतने पर भी सृष्टि के नियतिक्रम पर दृष्टि डाली जाए तो पता चलता है कि उद्दंडता का आवेश देर तक टिक नहीं सका। प्रकृति ने अपने ढंग से कुछ ही समय में उसे ठिकाने लगा दिया। रावण, वृत्रासुर, भस्मासुर, हिरण्यकश्यप, कंस, जरासंध जैसे अनाचारियों की तात्कालीन समर्थता और साधनसंपन्नता को देखते हुए ऐसा भी अनुमान लगाया गया था कि उन्हें परास्त करना कदाचित— कभी किसी के लिए संभव न होगा, पर वह आशंका सही सिद्ध नहीं हुई। सृष्टि-व्यवस्था ने ऐसे कानून बना दिए कि आततायियों को अपनी मौत मरना पड़ा और वह भी ऐसे आश्चर्यजनक ढंग से, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
रावण का त्रैलोक्यविजयी पराक्रम, स्वर्णखचित दुर्ग और लंकावासियों का सहयोग-समर्थन देखते हुए यह अनुमान लगा सकना कठिन था कि इतने विशालतम सरंजाम को रीछ-वानरों की एक छोटी-सी टुकड़ी बिस्मार करके रख देगी। पैदल चलने वाले दो तपस्वी बालक इतने समर्थ समुदाय को धराशाई करके दिखा देंगे। हिरण्यकश्यप को वरदान था कि वह दिन में, रात में, खुले में, बंद में, मनुष्य से, पशु से, मारा न जा सकेगा, पर विधाता की व्यवस्था का परिणाम ये निकला कि किसी नृसिंह वेशधारी का अद्भुत प्राकट्य हुआ और उसने उस महाबली का नखों से पेट फाड़कर अंत कर दिया। बलिष्ठता की असीम परिधि भी उसकी रक्षा कर सकने में समर्थ न हो सकी। किसी समय मधु-कैटभ, महिषासुर, शुंभ-निशुंभ की तूती बोलती थी और उन्हें निरस्त किए जाने की संभावना किसी ओर से भी दिखाई नहीं पड़ती थी, फिर भी एक आश्चर्य हुआ कि देवताओं की संघशक्ति महाकाली के रूप में प्रकट हुई और उसने उस भयावह परिकर को देखते-देखते समाप्त करके रख दिया।
पिछली शताब्दियों में तैमूर लंग, सिकंदर, चंगेज खाँ, नादिर शाह, हिटलर, मुसोलिनी आदि का आतंक ऐसा रहा है कि उनका स्मरण करने वालों तक में रोमांच हो आते हैं। विश्वविजय की उनकी योजना अपने समय में ऐसी ही लगती थी कि वे उपलब्ध साधनों के बल पर जो कुछ चाहते हैं, वही करके रहेंगे, पर परिस्थितियाँ आश्चर्यजनक ढंग से बदलीं और विश्वविजेता बनने का सपना संजोकर चलने वाले सृष्टि-व्यवस्था के सामने टिक न सके। ऐसे कारण उभरे, ऐसा माहौल बना कि जो कुछ नियोजित था, वह सब कुछ उलट गया और आतंकवाद को इस प्रकार भागना पड़ा, मानो उसे ऐसी ही किसी और भी समर्थ सत्ता ने पूर्व से ही नियोजित करके रखा था। विश्व-व्यवस्था के सूत्र-संचालन करने वाली सत्ता में इतनी सामर्थ्य है कि किसी भी छोटी-बड़ी अवांछनीयता के विरुद्ध वह ऐसी परिस्थितियाँ खड़ी कर दे कि विनाश को हार माननी पड़े और विकास अपनी निर्धारित सृजन-प्रक्रिया के निमित्त मंथर या द्रुतगति से आगे बढ़ सके।
नियति की सारी व्यवस्था यही बताती है कि स्रष्टा का मन और नियोजन यही है कि संसार में सौम्य, सदाशयता बनी रहे— बढ़े और फले-फूले। बीच-बीच में चुनौतियोँ की तरह उद्दंडता भी उभरनी तो आवश्यक है, ताकि सौम्य तत्त्वों को असंभावित उपेक्षा जैसी विसंगतियों से बचाया जा सके। इसी आधार पर लंबे समय से यह विश्व-व्यवस्था अपनी समर्थता और सुस्थिरता का परिचय देती रही है। अन्यथा वज्रपात, उल्कापात जैसे अनर्थ मिल-जुलकर इस विश्ववैभव को कब का समाप्त कर चुके होते। भूकंपों, ज्वालामुखियों, बाढ़, सूखा, दुर्भिक्ष, महामारी आदि विभीषिकाएँ इस धरती पर से जीवन का अस्तित्व मिटा देने में ही सफल हो गई होती। उद्दंडों ने विनाश तो बहुत किया है। समय-समय पर उनने अपने उभार से यह आतंक भी प्रस्तुत किया है कि जो श्रेष्ठ एवं शाश्वत है, उसे अधिक दिन स्थित न रहने दिया जाएगा, किंतु वह आशंका सदा निर्मूल ही होती रही है।
चूहों की, खरगोशों की, सूकरों की जन्मदर जितनी तेजी से बढ़ती है, उसे देखकर गणितज्ञों के सिर चकराने लगते हैं। वह सोचते हैं की यही क्रम निर्बाध गति से चलता रहे, तो यह अवांछनीय उत्पादन कुछ ही वर्षों में समूची धरती को घेर लेगा, अन्य किसी प्राणी को रहने की गुंजाइश ही न रहेगी; परंतु मनुष्य के गणित से स्रष्टा का अंकगणित, रेखागणित, बीजगणित भिन्न है। वह अतिवादियों पर नियंत्रण रखने के लिए अपने अंकुश को धारदार बनाए रहता है और सुखी मात्र वही रहता है, जो सृष्टी की सुस्थिरता में सहायक एवं सौम्य सृजन की सुव्यवस्था करने में संलग्न होता है।