Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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समन्वय प्रशस्त करेगा उज्ज्वल भविष्य के पथ को
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विज्ञान और धर्म में परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है। दोनों एक दूसरे की कमी को पूरा करते हैं। एक ही दिशा धारा नेचर से सुपर नेचर की ओर प्रगति करने की है, तो दूसरा सुपर नेचुरल को प्राकृतिक डडड में व्यवहारिक डडडडड है। एक का परित्याग करने अथवा दूसरे पर हावी होने से ही टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है एवं साथ चलने पर समग्र प्रगति का द्वारा खुलता है।
एक शताब्दी पूर्व जर्मन वैज्ञानिक डॉ. ड्रापर ने अपनी प्रसिद्ध कृति “द कनफ्लिक्ट बिट्वीन साइन्स एण्ड रिलीजन” में कहा था कि धर्म और विज्ञान में अभी जो संघर्ष दिखाई पड़ रहा है, भविष्य में वह समाप्त हो जायेगा। जैसे-जैसे मनुष्य की बौद्धिक चेतना विकसित होती जायेगी, यह स्पष्ट होने लगेगा कि यह दोनों ही समूचे विश्व-ब्रह्माण्ड एवं उसमें संव्याप्त विराट् चेतना को जानने- समझाने, जीवन में उतारने एवं व्यवहारिक स्वरूप प्रदान करने की विधाएँ हैं। अभी जो वैज्ञानिक बुद्धि हड़बड़ी में अनर्थकारी अपरिमित निर्माण करने, साधन-सुविधाएँ जुटाने में निरत हैं, आगे चल कर उस पर नियंत्रण सद्भावपूर्ण विवेक बुद्धि का होगा और तब दोनों का समन्वित प्रशिक्षण नूतन मानवी सभ्यता को जन्म देगा।
वाशिंगटन विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक जॉन ई. बेन्टली का कहना है कि विज्ञान को कभी “फेथलेस फैक्ट” अर्थात् श्रद्धाविहीन तथ्य कहा जाता था, तो धर्म या अध्यात्म को “फैक्टलेस फेथ” अर्थात् तथ्य विहीन विश्वास। किन्तु आज दोनों के मध्य दूरी कम हुई है। उनमें एकत्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा है। विज्ञान की अकड़ ढीली हुई है और वह विनम्रता पूर्वक यह सिद्ध करने में जुड़ गया हे कि इस विशाल ब्रह्माण्ड में कोई दिव्य चेतना विद्यमान है जो प्रकृति पदार्थों से लेकर चेतन प्राणियों तक का संचालन नियंत्रण एवं अभिवर्धन कर रही है। श्रद्धा-विश्वास की गहनता द्वारा उसकी अनुभूति सरलता पूर्वक कोई भी कर सकता है।
मूर्धन्य चिकित्साविज्ञानी डॉ. चार्ल्ससिन्गर के अनुसार मध्यकाल में जब विज्ञान अपनी आरंभिक अवस्था में था, तब उसका धर्म या अध्यात्म से कोई विरोध न था। किन्तु जैसे-जैसे आविष्कार होते गये, कोपरनिकस, गैलीलियो, न्यूटन, मेन्डलीफ आदि वैज्ञानिकों की खोजें सामने आयीं, तर्क तथ्य एवं साक्ष्य के अभाव में धार्मिक मान्यताओं की धज्जियाँ बिखरनी आरंभ हो गयीं। भावनाओं का स्थान तर्क बुद्धि ने ग्रहण कर लिया। कल्पनाएँ प्रयोग परीक्षण की वस्तु बन गयीं और समय के साथ खरी भी सिद्ध होने लगीं। एक छोर को पकड़ लेने पर अगली कड़ी अपने रहस्य स्वयं उगलने लगती है। धर्म या अध्यात्म के साथ ऐसा नहीं हुआ। जहाँ का तहाँ पड़ा रह कर वह अपनी उपयोगिता को पानी में पड़े लोहे की तरह जंग लगाता रहा। विज्ञान बुद्धि प्रधान है तो अध्यात्म भावना प्रधान। स्वर्ग-मुक्ति संबंधी, सुख-शाँति संबंधी इसकी बातें वैज्ञानिक यंत्रों की पकड़ से बाहर हैं। ऐसी स्थिति में विज्ञान का पलड़ा भारी रहा। दूसरे, वह जो कहता है या सिद्धान्त प्रतिपादित करता है-प्रत्यक्ष कर दिखाता है। अध्यात्म गुण, कर्म, स्वभाव में श्रेष्ठता एवं चिन्तन, चरित्र, व्यवहार में उत्कृष्टता की बात करता है, पर उच्चस्तरीय व्यक्तियों के उदाहरण ढूँढ़ने पर मुश्किल से ही मिलते हैं और साथ ही मशीनें भी उनकी गहराई को कहाँ माप पाती हैं। यही वह मूल कारण है जो दोनों के मध्य की खाई को गहरी बनाते हैं।
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात दार्शनिक एवं गणितज्ञ बर्ट्रेण्ड रसेल ने अपनी कृति-”रिलीजन एण्ड साइन्स” में विज्ञान और धर्म के सामाजिक जीवन के दो प्रमुख आधार बताये हैं। इनमें से एक आंतरिक एवं मानसिक विकास के लिए स्थायी सुख-शाँति के लिए आवश्यक है तो दूसरा भौतिक अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए। एक पक्ष की उपेक्षा कर देने अथवा दूसरे को अधिक महत्व देने से असंतुलन उत्पन्न हो जाता है और जीवन के समग्र विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। पिछले दो महायुद्ध इस बात के साक्षी हैं कि एकाँगी वैज्ञानिक प्रगति किस कदर मनुष्य को दिग्भ्रांत कर उसके स्वयं के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा देती है। एकाकी धर्म या अध्यात्म भी आज के प्रगतिशील जीवन की उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। चिकित्सा, परिवहन, उद्योग, शिल्प, इंजीनियरिंग, टेक्नोलॉजी जैसे महत्वपूर्ण विधाओं के बिना आज जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। दोनों का समन्वित विकास की अभीष्ट है।
मनुष्य पूर्णतः अध्यात्म जीवी है और आध्यात्मिक मूल्यों के आधार पर ही उसके व्यक्तित्व का मूल्याँकन होता है। वैज्ञानिक खोजों और उसकी मशीनी माप-तौल के द्वारा उसका मूल्याँकन संभव नहीं। इस से मात्र जीवन में सुखकारी साधन-सुविधाएँ जुट सकती हैं, कठिनाइयों को सरल मनाया जा सकता है, परन्तु सुरदुर्लभ मानव जीवन उतने तक ही सीमित नहीं है। पूर्णता की सत्य की तृप्ति उसका लक्ष्य है। प्राकृतिक रहस्यों का उद्घाटन, जड़ पदार्थों का विश्लेषण जीवन का एक अधूरा पक्ष है जिससे मात्र कलेवर की जानकारी डडड मिलती है। उसमें सन्निहित चेतन सत्ता की डडड सामर्थ्य का परिचय अंतराल की गहराई में प्रविष्ट करके ही प्राप्त किया जा सकता है।
इस संदर्भ में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के विख्यात डडड डॉ. आर्थर जेम्स का कहना है कि अध्यात्म तथा विज्ञान में अब परस्पर सहयोग के डड दृष्टिगोचर होने लगे हैं कि भौतिक जगत में डडड ऊर्जा का ही खेल चल रहा है और वह अध्यात्म जगत में संव्याप्त चेतन ऊर्जा का ही एक डड है। भौतिक ऊर्जा उसी से उत्पादित, संचालित एवं नियंत्रित है। उनकी यह मान्यता प्रकारान्तर छान्दोग्य उपनिषद् के सूत्र सर्व खिल्विदं ब्रह्म’ की पुष्टि करती है जिसके अनुसार एक ही परम डडड से पृथ्वी जल, अग्नि, ईथर, वायु जीवन डड और मन-मस्तिष्क की उत्पत्ति हुई है।
अर्थशास्त्र का ‘स्व’ और विज्ञान जगत की भौतिक डडड दोनों एक हैं। एक के बिना दूसरे की गति डडड। यही बुद्धि की, भावनाओं की, इच्छा-आकाँक्षाओं की शक्ति का स्रोत है। विज्ञानवेत्ता मेरीबेकर के अनुसार विज्ञान मस्तिष्कीय चेतना द्वारा मैटर पर आधिपत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यदि उसकी परिधि को बढ़ाया, विकसित किया एवं उच्च आयामों में प्रवेश करने दिया जा सके तो वही “दिव्य चेतन मस्तिष्क” के विकास में सहायक हो सकती है। सत्य का उद्घाटन उसी के द्वारा संभव है।
सहस्राब्दियों से अध्यात्मवेत्ता जिस परम सत्य की खोज करते आ रहे हैं, विज्ञान ने उसे “टेक्नीकल ट्रुथ” के रूप में जान लिया है। यह वह अवस्था या सिद्धान्त है जिसके द्वारा भविष्य में नूतन आविष्कार संभव हो सकेंगे। इससे वैज्ञानिक मन को अंतर्मन की गहराई में प्रवेश करने और उसमें समाविष्ट शक्ति स्रोतों के उद्घाटन में सहायता मिलेगी। कैंनन स्ट्रीकर इसी तथ्य को अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अब यह स्पष्ट हो गया है कि अकेले पदार्थ जगत की खोज ही पर्याप्त नहीं है। विज्ञानवेत्ताओं का ध्यान चेतना की ओर मुड़ा है। कारण मात्र विज्ञान के सहारे न तो कला की, मैत्री अथवा अन्यान्य जीवन मूल्यों की व्याख्या विवेचना बन पड़ती है और न ही वह यह बताने में समर्थ है कि घृणा या प्रेम में से दयालुता या क्रूरता में से किसे अपनाया जाय। वह केवल इच्छा-आकाँक्षाओं की पूर्ति के साधनों के बारे में बता सकता है, पर यह निर्णय करते अभी उससे नहीं बन पड़ता कि इनमें से महत्वपूर्ण एवं अनुकूल कौन है? यह निर्णय करना विवेक-बुद्धि का काम है।
मनीषियों का मत है कि विवेक बुद्धि स्वामी है तो विज्ञान दास। उसका निर्माण प्रज्ञा की उथली परत तर्क बुद्धि से कल्पना शक्ति से हुआ है। सत्य का आधार प्रज्ञा है कल्पना नहीं। विज्ञान के प्रयोक्ता को गहराई में प्रवेश कर इसी को आश्रय लेना होगा। तब वह प्रकृति पदार्थों तक सीमित न रहकर चेतना क्षेत्र की रहस्यमयी शक्तियों से संबंध स्थापित कर लेगा। तर्क बुद्धि विवेक बुद्धि में, कल्पना शक्ति भावनाशक्ति में समाहित हो जायेगी और इनके समन्वय से जिस नये विज्ञान का जन्म होगा वह सत्य के बहुत समीप होगा। विश्व ब्रह्माण्ड की अद्भुत रहस्यमयी परतों का उद्घाटन तभी संभव है।