Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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परम सत्ता से (Kavita)
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दूर हम से हो गया जो तत्व, फिर उससे मिला दो।
लिपट आत्मा से गये भ्रम जाल, उनका तल हिला दो॥
कण्टकों में ही उलझ कर, रह गये हैं पंख प्यारे।
चमन तक पहुँचे नहीं पग, पंथ में ही दाँव हारे॥
है जरूरत इसलिये, अंतर कमल दल को खिला दो॥
कंठ पाकर भी न गाया, परम प्रभु का रूप या गुण।
कर कहाँ पाया हृदय, आकर्षणों का श्राद्ध तर्पण॥
जो जहर मीरा गयी पी, आज हम सबको पिला दो॥
पा गये जिस पंथ चलकर, राम की तुलसी कबीरा।
मिल गया जिस कुँज बन में, सूर को गोपाल हीरा॥
अब रहा जाता नहीं उस पंथ, हमको भी चला दो॥
मिलन में बाधक हुए हैं, स्वार्थ और दुर्बुद्धि अपने।
खींच लेते पाँव हैं, संसार को दिग्भ्रान्त सपने॥
राम! फिर से आओ, यह दुष्वृत्ति की लंका जला दो॥
ईंट भी जोड़ी नहीं, कहता रहा मेरा भवन है।
स्वर्ण धन की बात क्या, धरती मेरी, मेरा गगन है॥
मिलन के बाधक इसी, अभिमान का हिमगिरि गला दो॥
अब तलक सीमित रहा-सुत, पुत्रि, बनिता और भाई।
इन तलक ही प्रेम उमड़ा, इन तलक ही पीर आई॥
पर लगें अपने सभी परमार्थ की गंगा न्हिला दो॥
हो गयी संसार में आकर सुनहरी कांति मन की।
हो सका कब रोज प्राची में ऊगौ, आभा गमन की॥
किंतु तड़प प्राण अब, इस तेज के कुछ कण दिला दो॥
—माया वर्मा