Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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मुस्कान, एक मनोवैज्ञानिक आसन
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मन-मस्तिष्क को सहज स्वाभाविक एवं संतुलित बनाये रहने के लिए हास्य-विनोद नितान्त आवश्यक है। हँसता व्यक्ति ही दूसरे को हँसाते रहने में समर्थ होता है। सुगंधित वस्तुओं के समीपवर्ती वस्तुएँ भी सुगंधित हो जाती हैं, उसी प्रकार हँसमुख स्वभाव वालों का सान्निध्य भी खिन्न और उदास चेहरों पर मुसकान बखेर देता है। प्रसन्नता-प्रफुल्लता की अभिव्यक्ति चेहरे पर खिले गुलाब पुष्प जैसी दीखती है। कुरूप शकल सूरत वाला व्यक्ति भी मुस्कान जुड़ जाने पर सुन्दर लगता और लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। मुँह लटकाये खीजते व्यक्ति को देख कर सभी उससे बचने का प्रयत्न करते हैं। अतः हँसी और मुसकान को सफलता का सूचक माना जाता है। इससे निरन्तर नयी शक्ति और स्फूर्ति उभरती रहती है। ऐसे स्वभाव वाले सदा अधिक मात्रा में अधिक अच्छे स्तर का काम करते और सफलतायें अर्जित करते हैं।
मानव जीवन को नवीन ऊर्जा, ताजगी और स्फूर्ति से भर देने वाले “हास्य की शक्ति” पर पिछले दिनों सेनफ्रांसिस्को में एक सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें विश्व के हजारों मूर्धन्य वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, मनोविज्ञानियों एवं विशेषज्ञों ने भाग लिया और अपने-अपने अनुसंधान निष्कर्ष प्रस्तुत किये। इस सम्बन्ध में सभी एकमत थे कि हँसना-मुस्कराना व्यक्ति को न केवल सदा तरोताजा बनाये रखता है वरन् यह एक मनोवैज्ञानिक आसन होने के कारण मानसिक स्वास्थ्य को भी अक्षुण्ण बनाये रखता है। हँसने से मन के तार-तार झंकृत हो उठते हैं और वहाँ विद्यमान ईर्ष्या, द्वेष, कुटिलता, दुर्भाव और तनाव रूपी विष जल कर भस्म हो जाते हैं।
सुविख्यात मनोचिकित्सा विज्ञानी ऐशले ओटाँगू ने किलकारी भरते एवं खिल-खिलाते हुए शिशुओं का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा है कि बढ़ती आयु के साथ यदि मनुष्य भी अपने अंदर उस बात सुलभ सरलता एवं निष्कपटता को बनाये रखे तो उसके चेहरे पर प्रसन्नता सदैव बनी रह सकती है। प्रफुल्लता की इस वेगवान धारा के साथ विघ्न-बाधाओं, शोक-संतापों की चट्टानें भी टूट कर उस प्रवाह के साथ बह जाती हैं चिन्तन की यह एक ऐसी विधेयात्मक दिशाधारा है जो शारीरिक-मानसिक विकास के साथ ही कार्यदक्षता को भी अनेक गुना बढ़ा देती है।
हास्य-विनोद की प्रवृत्ति मानव को ईश्वर प्रदत्त एक ऐसा वरदान है जो स्वभाव में घुल जाये तो जीवन नयी शक्ति, सबलता और सामर्थ्य से सतेज हो उठता है। इस तथ्य की पुष्टि करते हुए अनुसंधानकर्ताओं ने बताया है कि हँसने से अंतः-स्रावी ग्रन्थियों से स्रावित रसायनों में भारी फेर बदल हो जाता है। उनके अनुसार शिशुओं की मस्ती और उमंग देखते ही बनती है। इसके कारण उनकी पीयूष ग्रन्थि का स्राव और सक्रियता भी बढ़ी-चढ़ी रहती है, किन्तु शैशवकाल के पश्चात जैसे-जैसे आयु में अभिवृद्धि होती जाती है, बच्चे में क्रोध, भय, चिंता, ईर्ष्या, आवेश आदि मनोविकृतियाँ उभरने लगती हैं। प्रसन्नता घटने के साथ ही रसायनों के स्राव में न्यूनता आती जाती है जिसका प्रभाव शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य पर पड़े बिना नहीं रहता।
अँग्रेजी की यह उक्ति प्रसिद्ध है “हँसो और मोटे होओ।” यह एक तथ्य भी है कि सदैव प्रसन्न रहने वालों के पास बीमारी नहीं फटकती। सामान्यजनों की तुलना में वे स्वस्थ एवं दीर्घजीवी भी होते हैं। इस संदर्भ में कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. मैरियान क्लीव्य डायमाण्ड ने गहन अनुसंधान किया है। उनका निष्कर्ष है कि प्रेम सद्भावयुक्त हँसती खिल-खिलाती जिन्दगी जीने से मस्तिष्क के सेरिब्रल कार्टेक्स की सघनता बढ़ जाती है, फलस्वरूप आकर्षक व्यक्तित्व के साथ-साथ स्वस्थ एवं दीर्घायु का दोहरा लाभ मिलता है। हँसते-हँसाते रहने वाले एवं उदासीन तथा खीजते रहने वाले व्यक्तियों के तुलनात्मक अध्ययन के अतिरिक्त उनने इस तरह के अनेकों प्रयोग मानवेत्तर प्राणियों पर भी किये और सफलता पाई। परीक्षणोपरान्त पाया गया है कि जिन जीवधारियों को हंसी-खुशी के खुले वातावरण में स्वतंत्रतापूर्वक उछलने-कूदने दिया गया, वे लम्बी अवधि तक जीवित रहे। किन्तु जिन्हें तरह-तरह के बन्धनों से जकड़ कर भयभीत, उद्विग्न अथवा उदासीनता के माहौल में रहने को विवश किया गया, खीझते-झुंझलाते रहने वाले वे प्राणी असमय ही दम तोड़ गये।
इसी तरह का एक प्रयोग-परीक्षण चूहों के दो समूहों पर किया गया। इसके लिए दो कटघरे लिये गये। पहले बड़े आकार वाले कटघरे में चूहों के तीन परिवारों को रखा गया जिसमें उनके उछल कूद करने का मनोरंजन का साधन भी जुटाया गया था। दूसरे छोटे कटघरे में केवल चूहे के एक ही परिवार को अकेला रखा और उसके साथ वातावरण भी उदासी का था। परखने के बाद देखा गया कि दूसरे की तुलना में पहले वाले कठघरे के चूहों के मस्तिष्क का सेरिब्रल कार्टेक्स वाला भाग अपेक्षाकृत 16 गुना अधिक मोटा था। इन चूहों को जीवन अवधि में भी अभिवृद्धि आँकी गई और वे एक हजार दिन तक जीवित रहे। दूसरे समूह वाले चूहे मात्र 766 दिन तक ही जीवित रहे। इनमें से कुछ मरणासन्न चूहों को जब प्रसन्नता वाला वातावरण प्रदान किया गया तो क्रमशः उनकी मस्तिष्कीय क्षमता बढ़ती गयी और वे 904 दिन तक की लम्बी आयु का उपभोग कर सके। डॉ. डायमाण्ड का कहना है कि जब मूक समझे जाने वाले विवेकहीन प्राणियों की प्रसन्न रहने से जीवनी शक्ति बढ़ सकती है तो कोई कारण नहीं कि सृष्टि का मुकुटमणि कहा जाने वाला विवेकवान मनुष्य हास्य-विनोद भरा हलका-फलका जीवन क्यों नहीं जी सकता और दीर्घायु का आनन्द क्यों नहीं उठा सकता है।
अमेरिका के अनुसंधानकर्ता चिकित्सा विज्ञानियों का मत है कि हँसने-मुस्कराने से शरीर की रोग प्रतिरोधी प्रणाली सशक्त बनती है और प्रसन्नता की इस मनःस्थिति में दर्द एवं तनाव दूर करने वाले मस्तिष्कीय रसायनों का स्तर बढ़ जाता है। इसका प्रभाव समूचे स्नायु तंत्र पर पड़ता है जिससे काया का प्रत्येक अंग- अवयव सक्रिय एवं जीवंत हो उठता है। जैसे ही हँसी का फुहारा फूटता है, पुष्प की तरह चेहरा खिल उठता है। उस समय श्वास-प्रश्वास की क्रिया में तीव्र परिवर्तन होता है। इनका प्रभाव हृदय की ओर प्रवाहित होने वाले रक्त पर पड़ता है ओर उसमें प्राणवायु का अधिकाधिक संचार होने लगने से अतिरिक्त जीवनीशक्ति का लाभ भी हँसने वाले को मिलता है। हास्य-विनोद का, प्रसन्नता प्रफुल्लता का जिसे जितना अधिक अवसर मिलता है, उसकी शारीरिक-मानसिक शक्तियों का विकास भी उसी अनुपात में बढ़ा-चढ़ा होता है।