Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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इक्कीसवीं सदी समृद्धि का स्वर्णिम युग
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इक्कीसवीं शताब्दी की विगत दिनों उज्ज्वल भविष्य की सुखद संभावनाओं से भरा पूरा होने की घोषणा की गई है और कहा गया है कि सूक्ष्म जगत में इसका ताना-बाना बुना जा चुका है। उन सुखद संभावनाओं की सूक्ष्म हलचलों की आहट मानवी मस्तिष्कों को यदा-कदा मिलती भी रहती है। अदृश्यदर्शियों के अतिरिक्त वैज्ञानिक, विचारक, मनीषी आदि सभी इस बात से सहमत हैं कि मानवी चिंतन में इन दिनों जो विस्मयकारी परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं, आदर्शवादी कल्पनायें उठ रही हैं, उनसे यह सुनिश्चित आशा बँधी है कि आने वाला समय स्वर्णिम युग होगा।
यथार्थता में परिणत करने के लिए यह आवश्यक है कि जिस तरह वैज्ञानिक परिकल्पनाएँ मात्र स्वप्न बनकर नहीं रह जाती, वरन् प्रयोग-परीक्षणों द्वारा सिद्धान्तों में बदल जाती हैं और ठोस प्रतिफल प्रस्तुत करती हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य के अन्तराल में उमड़ रही भावनाओं, आदर्शवादी प्रेरणाओं को कार्य रूप में परिणत किया जाय। उच्चस्तरीय मस्तिष्कों द्वारा अनुभूत भविष्य का मार्गदर्शन कराने वाले दिव्य स्वप्नों, कल्पनाओं को ठोस आधार प्रदान करने के साथ ही ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किये जायँ जो दीपस्तंभ का प्रकाश बन कर असंख्यों को उत्कृष्टता की ओर कदम बढ़ाने के लिए प्रेरित, प्रोत्साहित एवं आकर्षित कर सकें। उज्ज्वल भविष्य का सशक्त आधार तभी विनिर्मित हो सकेगा।
वस्तुतः मनुष्य आशावादी एवं कल्पनाशील प्राणी है। बिना कल्पना अथवा स्वप्न के वैज्ञानिकों सहित जन सामान्य तक की गति अवरुद्ध हो जायगी। यदि यह कहा जाय कि कल्पना नहीं तो भविष्य भी नहीं, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। जिस तरह वृक्ष धरती से कितना ही रस एवं पोषक तत्व क्यों न सोख ले, परन्तु सूर्य के प्रकाश के अभाव में न तो वह विकसित हो सकता है और न ही पुष्प एवं फलों से लद सकता है, ठीक इसी तरह मनुष्य के लिए उसकी कल्पना ही वह सूर्य प्रभा है जो उच्चस्तरीय प्रेरणाओं का स्त्रोत बनती और अपने प्रकाश, गरमी और सृजनात्मक शक्ति के द्वारा भावी संभावनाओं का द्वार खोलती है। कल्पनाओं का, विचारणाओं का स्तर जितना उच्चस्तरीय होगा, मानव सभ्यता रूपी वृक्ष की जड़ें उतनी ही गहरी होती चली जायेंगी। जड़ों की गहराई पर ही तने एवं शाखा- प्रशाखाओं का भविष्य निर्भर करता है।
उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा खींच सकने का सामर्थ्य जिन दूरदर्शी मनीषियों में है, वे जानते हैं कि आज के कल्पना चित्र ही कल साकार रूप धारण करेंगे। प्रस्तुत वैज्ञानिक युग में जहाँ समय और दूरी सिमट कर मनुष्य की मुट्ठी में आ गये हैं, वह कभी किन्हीं उदात्त आत्माओं के मानस लोक की कल्पनाएँ ही थीं। समाज का जो व्यवस्थित एवं संगठित स्वरूप इन दिनों दिखाई दे रहा है, वह भी पूर्वजों के चिन्तनशील मस्तिष्क की देन है। वैज्ञानिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि क्षेत्रों में जीवन की जिन विविधताओं के दृश्य दिखाई दे रहे हैं, उनकी जड़ें भी विचारशील कल्पनाओं में सन्निहित हैं। मौसम विज्ञानी वायु मंडल में विद्यमान आर्द्रता के आधार पर यह पता लगा लेते हैं कि आने वाले दिनों में मौसम कैसा रहेगा। भविष्यदृष्टा मनीषियों का कहना है कि मानव मन में आज जो सृजनात्मक धारणायें जन्म ले रही हैं, उसके आधार पर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि भविष्य कैसा होगा?
“रिपोर्ट्स फ्राम दि ट्वैन्टी फर्स्ट सेंचुरी” नामक पुस्तक में सोवियत संघ के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक द्वय डॉ. एम वेसीलीव एवं एस गुश्चेव ने इस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। उसके अनुसार भविष्य निर्माण में इन दिनों प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से विश्व की कितनी ही मूर्धन्य प्रतिमायें ऋषि मनीषी एवं विचारक निरत हैं और अपनी साहसिक योजनाओं को कार्य रूप में परिणत करने में सक्रिय हैं। जिनकी मानसिक चेतना का तनिक भी विकास हुआ है, वे जानते हैं कि प्रचलित वर्तमान ढर्रे की विचारधारा से भी आगे की सुखद समुन्नत संभावनाओं की कल्पना की जा सकती है और तदनुरूप साधन उपकरण जुटाये जा सकते हैं। बौद्धिक एवं भावना क्षेत्र में चल रही इस द्रुतगामी उथल-पुथल में उज्ज्वल भविष्य के संकेत सन्निहित हैं। यह एक सुनिश्चित तथ्य है।
इन वैज्ञानिकों का कहना है कि लम्बी अवधि से जिन वस्तुओं के सम्बन्ध में मनुष्य कल्पना करता आया है, उनमें से अधिकाँश अब मूर्त्त रूप ले चुके हैं, अथवा ले रहे हैं। कल की कल्पनाएँ आज वास्तविकता बनती जा रही हैं। विश्व प्रसिद्ध घटनाएँ जिनकी कभी मात्र कल्पना तक की जाती थी, अब वे साकार रूप ले चुकी हैं। अग्नि एवं विद्युत का आविष्कार, लोहे का उत्पादन, भाप इंजन की खोज, परमाणु ऊर्जा का नियंत्रण, कृत्रिम उपग्रहों द्वारा ग्रह पिण्डों पर आवागमन आदि के सपने आज सबके सामने मूर्तिमान रूप में दिख रहे हैं। कभी समय था कि मनुष्य का एक मात्र अस्त्र तराशा हुआ पत्थर होता था। हजारों वर्ष पश्चात काँस्य युग आया और फिर लौह युग और अब हम परमाणु युग में रह रहे हैं जिनमें आणविक ऊर्जा का शांतिपूर्वक सृजनात्मक उपयोग भी किया जा रहा है। युगाँतरकारी सभी घटनायें यह सिद्ध करती हैं कि यदि हम में से प्रत्येक सुदूर भविष्य के समुज्ज्वल पक्ष का चिंतन करना आरंभ कर दे और उसके कल्पना चित्रों को मन में गहरी जड़ें जमाने दें, तो कोई कारण नहीं कि अगले ही दिनों वह कठिन श्रम, सत्प्रयोजनों एवं अध्यवसाय से जुड़कर वास्तविकता का रूप ग्रहण न कर ले और इक्कीसवीं सदी में प्रगति की उच्चस्तरीय संभावनायें साकार रूप में सामने खड़ी न दीखने लगें।
विज्ञजनों का मत है कि वर्तमान समय की विस्फोटक समस्याओं में से ऐसी एक भी नहीं है जिनका प्रयत्नशील मनुष्य समाधान न ढूँढ़ सके। जनसंख्या की अभिवृद्धि की ज्वलन्त समस्या को ही लें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि अब अधिक अभिवृद्धि की गुंजाइश नहीं दीखती। हममें से प्रत्येक विचारशील अब इस तथ्य से अवगत हो चुका है कि यदि अगले दिनों धरती पर मनुष्य को रहना है तो उस पर अधिक भार नहीं लादा जा सकता। डी. मैन्देलयेफ जैसे विख्यात विचारशीलों का कहना है कि इस सम्बन्ध में मनुष्य की मूर्च्छना जगी है और वह बहू प्रजनन जैसी कष्टकारक प्रक्रिया से पीछे हटने लगा है।
इक्कीसवीं शताब्दी में रहने वाली जनशक्ति के लिए भोजन, वस्त्र एवं आच्छादन जैसी अनिवार्य जीवनोपयोगी सुविधा-साधन जुटाए जायेंगे। इसी तरह मिलजुल कर सहकारी ढंग से विविध क्षेत्रों में महा क्रान्तिकारी उपलब्धियाँ हस्तगत कर ली जायेंगी। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना ही सर्वत्र सभी मनुष्यों में सक्रिय दिखाई देगी। जिस तरह आधुनिक रासायनिक उद्योग ने “माल्थस सिद्धान्त” और उसके साथ ही “हासमान उर्वरता” के उस निराशावादी सिद्धान्त को झुठला दिया है जिसे कभी एक अकाट्य नियम के रूप में जाना जाता था। उसी प्रकार अगले दिनों किसी को भी भूखा न रहना पड़ेगा। विशेषज्ञों के अनुसार तब विविध तकनीकों के प्रयोग से रेगिस्तानों को भी उर्वर बनाया तथा कृषि उत्पादन को सात गुना अधिक बढ़ाया जा सकेगा। उस क्षेत्र का विस्तार करके उसमें 14-15 गुना तक की अभिवृद्धि की जा सकेगी। इस तरह मनुष्य को खाद्यान्नों में किसी प्रकार की कमी के बारे में चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी ।
वैज्ञानिकों का कहना है कि चूँकि मनुष्य अभी अपने वास्तविक वैज्ञानिक कौशल एवं पुरुषार्थ का सही मूल्याँकन नहीं कर सका है इसलिए समस्याएँ जटिल और भयावह दीखती हैं। किन्तु जब उसे इसके सुनियोजन की कला ज्ञात हो जायेगी तो न केवल धरती और रेगिस्तान में वरन् समुद्र में भी वह खेती कर सकेगा और अधिक जनसंख्या के लिए भी पर्याप्त भोजन व्यवस्था जुटा लेगा। इस तरह निर्वाह समस्या सुलझा लेना एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना होगी।
बादलों का पानी, सूर्य की रोशनी, पूर्वजों की सम्पदा तो अनायास मिल सकती है, पर ज्ञान तो हमें स्वयं उपार्जित करना पड़ता है। उसे अभ्यास में उतारने के लिए भी अपनी ही चेष्टा काम आती है।
आर्थिक क्षेत्र की तरह ही सामाजिक एवं राजनीतिक आदि क्षेत्रों में भी महाक्रान्तियाँ उठ खड़ी होंगी। युद्धोन्मादियों का समय रहते विवेक जगेगा और अणु-आयुधों के शस्त्रीकरण प्रतियोगिता में लगने वाले श्रम, साधन, समय और पूँजी की बरबादी रुकेगी और उस बचत का उपयोग शान्तिपूर्ण रचनात्मक कार्यों में होने लगेगा।
स्वर्णिम युग का शुभारंभ हो चुका है। अब वैज्ञानिक बुद्धि, प्रतिभा एवं क्षमता तथा भौतिक साधनों का उपयोग केवल विकासोन्मुखी प्रगतिशील प्रयोजनों के लिये ही होगा और मनुष्य के भौतिक एवं साँस्कृतिक जीवन में संव्याप्त होकर उसका रूपांतरण कर महानता की ओर मोड़ेगा। यह मात्र मनीषियों की संकल्पना भर नहीं, वरन् महाकाल द्वारा निर्धारित उज्ज्वल भविष्य की सुनिश्चित संभावना है जो अगले ही दिनों साकार होकर रहेगी।