Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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विश्व मनीषा द्वारा देव संस्कृति का प्रतिपादन
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भारतीय संस्कृति की सर्वोपरि विशेषता है-जीवन और जगत को देखने का उसका आध्यात्मिक एवं दार्शनिक दृष्टिकोण, वस्तु पदार्थ से उठकर उनके कारण तत्व का अनुसंधान, क्षणभंगुर-मरणशील-पार्थिव जीवन से उठकर शाश्वत-चिरन्तन, अजर-अमर जीवन, व्यक्तिगत चेतना से उठकर विश्व चेतना की अनुभूति। भौतिक सीमाओं से उठकर विश्व का संचालन करने वाली सार्वभौम शक्ति का अनुसंधान। अपने इन्हीं उदात्त दार्शनिक विचारों के कारण उसने कभी समस्त विश्व का मार्गदर्शन करने और जगद्गुरु बनने का श्रेय हस्तगत किया था तथा यहाँ की देव संस्कृति विश्व-संस्कृति बन कर प्रतिष्ठित हुई थी, जिसकी विभिन्न देशों की तत्कालीन साहित्यिक रचनाओं में स्पष्ट झलक मिलती है।
यूनानी दार्शनिक अफलातून के वार्तालाप में जो यह कल्पना की गई है कि पृथ्वी परमात्मा का शरीर है, उपनिषदों की विराट कल्पना से प्रभावित है। जो वेद के पुरुष सूक्त की ही एक प्रकार से व्याख्या है।
विभिन्न स्वाभाविक कर्मों के आधार पर यहाँ समाज को चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में बाँटा था। इसी के आधार पर अफलातून ने अपनी रचना “रिपब्लिक” में समाज को गार्जियन्स, आक्सीलरिज, क्राफ्ट्समेन एवं दास के रूप में विभाजित किया है। आगे उन्होंने यह भी लिखा है इनके कर्मों में तो भिन्नता है, किन्तु मानवोचित दृष्टिकोण से चारों समान हैं। प्लाटिनस ने अरस्तू के दर्शन की नई व्याख्या करते हुये ईश्वर का वर्णन “नेति-नेति” कहकर किया है, जो उपनिषदों के नेतिवाद से प्रभावित है।
सामर सेट मॉम के “दि रेजर्स एज” में तथा एडिथ सिल्वेल, क्रिस्टोफर, इशरवुड और गेराल्ड हर्ड की रचनाओं में भी भारतीय प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता हैं। सी. सी. जुँग ने मनोवैज्ञानिक आधारों पर भारतीय धर्म की व्याख्या करते हुए कहा कि हमें अभी तक यह ज्ञान नहीं है कि जहाँ हम अपनी तकनीकी क्षमता के सामने पूर्वी देशों की भौतिक उपलब्धियों को हेय समझते हैं वहाँ पौर्वात्य जगत विशेषकर भारतवर्ष अपने दार्शनिक एवं आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग पूर्वी देश ही प्रशस्त करेंगे।
पाश्चात्य दार्शनिक कवि टी. एस. इलियट की कविताओं में उनके हिन्दुत्व और बौद्धधर्म से प्रभावित होने का प्रमाण एवं उनके प्रति सहानुभूति का स्पष्ट परिचय मिलता है। “द वेस्ट लैण्ड” में वृहदारण्यक उपनिषद् का प्रसिद्ध अनुच्छेद मिलता है, जिसे उन्होंने उपनिषदों की तरह ‘शान्तिः-शान्तिः’ के साथ समाप्त किया है। ‘द ड्राइ सालवैजेज’ में भगवत् गीता के आधारभूत सिद्धान्त ‘निष्काम कर्म’ का ससंदर्भ प्रतिपादन मिलता है।