Magazine - Year 1992 - Version 2
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Language: HINDI
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अनुशासित जीवन ही सृष्टा को प्रिय!
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सृष्टि का प्रत्येक घटक नियामक सत्ता के अनुशासन में बँधा निरन्तर गतिशील है। सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी सहित समस्त ग्रह गोलक एक नियम व्यवस्था और विधान के अनुसार काम करते हैं। पेड़ों का उगना, फलना, फूलना, ऋतुओं का परिवर्तन, जीवों का जन्म-मरण आदि भी एक विशेष नियम की प्रेरणा से नियत विधान के अनुसार होता है। संसार की प्रत्येक छोटी से लेकर बड़ी घटनाओं के पीछे एक नियामक विधान ही काम करता है। समूचे विश्व-ब्रह्माण्ड का संचालन नियमन करने वाला विधान पिण्ड व अणु-परमाणु में भी करते देखा जा सकता है। हर अणु अपने में गतिशील है, उसके भी चारों ओर कई परमाणु चक्कर लगाते हैं। मनुष्य का जीवन भी इस विश्व नियम से अलग नहीं है, वरन् जीवन की प्रत्येक गतिविधि का नियमन भी इसी से होता रहता है।
प्रख्यात दार्शनिक इमैनुअल काण्ट ने अपने ग्रंथ में लिखा है कि आकाश के नक्षत्रों से लेकर अणु-परमाणु के कार्यकलाप एवं संसार की प्रत्येक घटना के पीछे-मनुष्य की प्रत्येक क्रिया के पीछे एक अमर चेतना का नियमित विधान काम कर रहा है। जिस तरह किसी ग्रह के पथ भ्रष्ट हो जाने पर सृष्टि में खलबली मच जाती है, उसी प्रकार विश्व-नियम नियति के विधान के विरुद्ध चलने पर मनुष्य के आँतरिक जीवन में भी भयंकर संघर्ष उत्पन्न हो जाता है। उसका परिणाम बाह्य जीवन में विनाश या हानि के रूप में ही प्राप्त होता है। इतिहास साक्षी है कि जब कभी किसी ने विश्वव्यापी नैतिक विधान को अनुशासन को तोड़ने का प्रयत्न किया है, तो उसकी प्रतिक्रिया कुछ ऐसी उत्पन्न हुई कि बड़े से बड़े दिग्गज को भी धराशायी होना पड़ा और यह सोचने का बाध्य होना पड़ा कि कोई नियामक सत्ता हमसे भी प्रबल है जो हमारे कर्मों का लेखा जोखा रखती है। वस्तुतः विश्व नियम, नियति चक्र, शान्ति और विकास का रास्ता है, जिसके अनुसार चलने पर मनुष्य के स्वास्थ्य एवं प्रतिभा का विकास होता है और जीवन में उत्कृष्टता प्राप्त होती है।
संसार में काम करने वाला नैतिक विधान एक विवेकपूर्ण तथ्य है जो विभिन्न शक्तियों, पदार्थों क्रियाओं में संतुलन पैदा करता है। प्रत्येक क्रिया और उसकी प्रतिक्रिया विश्व नियामक तथ्यों की प्रेरणा से ही होती है। मन के सूक्ष्म भाव, संकल्प-विकल्प, उतार-चढ़ाव उनमें संतुलन-असंतुलन भी इसी विश्व नियम की प्रतिक्रिया के अंग हैं। सुप्रसिद्ध मनीषी एडिंगटन का कथन है कि “जिस तरह मनुष्य के कार्य-कलापों के पीछे मन की शक्ति कार्य करती है, ठीक इसी तरह सृष्टि के मूल में भी एक चेतन सत्ता कार्य करती है, जो पूर्ण व्यवस्थित और नियामक है। सर्वप्रथम स्थूल दृष्टि से देखने पर जड़ जगत का कार्य भी एक मशीन की तरह दिखाई देता है, किन्तु गंभीर विचार चिन्तन द्वारा देखा जाय तो मालूम पड़ता है कि जगत और इसके प्रत्येक क्रियाकलाप के पीछे एक महान चेतन सत्ता काम कर रही है। भारतीय मनीषियों ने तो इस तथ्य की अनुभूति बहुत पहले प्राप्त करली थी, पाश्चात्य मनीषी उसकी पुष्टि कर रहे हैं।’
भारतीय दर्शन पग-पग पर इस विधायक सत्ता को स्वीकार करके ही आगे बढ़ता है। उसके अनुसार नियति चक्र, विश्व नियम, नैतिक विधान एक विवेकपूर्ण व्यवस्थित सुनियोजित तथ्य है, जिसका स्वभाव सत्यं शिवं सुन्दरम् की रचना, सर्जना करना है। यह उतना ही सत्य है जितना विश्व और मानवी काया में काम करने वाली अमर चेतना, साथ ही वह उतना ही सूक्ष्म और दुरूह भी है। इसे जानना समझना उसी तरह कठिन है जैसे शरीर में आत्मा को जानना। यही कारण है कि अधिकाँश लोग इसे समझ नहीं पाते, विशेषकर व्यक्ति अपने सीमित ज्ञान और तुच्छ दृष्टिकोण से इस असीमित सर्वव्यापी तथ्य को बहुधा समझ नहीं पाते।
मनीषियों का कहना है कि विश्व विधान, नियति चक्र की अनुभूति के लिए विवेकयुक्त निरपेक्ष बुद्धि की आवश्यकता है। अविवेकी मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं के नियम, मूल विधान को समझने की बात तो और भी कठिन है। इसी तरह के अज्ञानी जन जीवन की बाह्य घटना और उसके अच्छे बुरे परिणामों से ही सुखी-दुखी होते रहते हैं। वे नहीं समझते कि उन्हें सुधारने के लिए ही दुख एवं कष्ट दण्ड रूप में किसी नियत की प्रेरणा से मिलते हैं। इसी तरह अच्छे कार्यों का परिणाम सुख-शान्ति प्रफुल्लता-प्रसन्नता, उल्लास, वरदान के रूप में मिलते हैं।
गंभीरतापूर्वक विचार करने पर भौतिक बाह्य जगत के प्रत्येक क्रियाकलाप के अंतर्गत एक शक्ति काम करती हुई मालूम पड़ेगी। एक नियत विधान के अनुसार संसार के कार्यों का नियमन, संचालन होता दिखाई देगा। आग छूने पर प्राण हरण कर लेती है। बर्फ ठंडी लगती है। कदाचित ग्रह-नक्षत्र आपस में टकरा जायं तो विश्व में खलबली मच जाय। इसी तरह कई नियम देखे जा सकते हैं। ये बाह्य जगत में काम करने वाले नियम भौतिक नियम कहलाते हैं। सूक्ष्म जगत में काम करने वाले नैतिक नियम कहलाते हैं। प्रत्यक्ष रूप में किसी इन्द्रिय के संयोग से इनको नहीं जाना जा सकता है, किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर इन्हें भी उसी तरह जाना जा सकता है जैसे किसी भौतिक नियम को।
नियति चक्र के विश्व विधान के अनुरूप चलने पर ही मनुष्य की उन्नति,विकास तथा समृद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। इसके विरुद्ध चलने पर ही किसी को असीम दुख, परेशानी, विपरीतताओं का सामना करना पड़ता है। नियंता के अनुशासन के विपरीत चलना, विश्व-नियम का उल्लंघन करना अपनी अवनति और पतन को निमंत्रण देना है। नियति चक्र किसी के सुख दुख का ध्यान नहीं रखता, वह एक नियम है जो सब पर समान रूप से लागू होता है। यह दुधारी तलवार है, सामने चलाकर जीवन के रण में विजय पायी जा सकती है और विपरीत दिशा में चलाकर अपना ही नाश किया जा सकता है। बुरे आचरण करना, बुरे कर्म करना, सामाजिक मर्यादाओं के विरुद्ध चलना, वर्जनाओं का उल्लंघन करना अपने लिए ही बुरा परिणाम पैदा करता है। ऐसी स्थिति में सुखमय, शुभ हितकर परिणामों की आशा करना व्यर्थ है। बुराई का परिणाम कालान्तर में बुरा ही होता है।
कहा भी गया है-”बोये बीज बबूल के आम कहाँ से होय”। अर्थात् बबूल के बीज बोने पर कांटेदार वृक्ष पैदा होना सुनिश्चित है। इसी प्रकार किसी भी तरह अनैतिक या बुरा कार्य करने पर शारीरिक अथवा मानसिक रोग या बाह्य दण्ड अथवा विपत्तियों का सामना करना भी एक सुनिश्चित तथ्य है। नैतिक मर्यादाओं के विरुद्ध, नियति चक्र के विपरीत आचरण करने पर मनुष्य का मनोबल क्षीण हो जाता है। कई तरह के कुविचार, कुकल्पनाएं मन में घुस जाती हैं जिनसे बाह्य जीवन भी प्रभावित होता है और उसके फलस्वरूप कई दुष्परिणाम भी भुगतने पड़ते हैं। मानसिक द्वन्द्वों में मनुष्य घुल-घुलकर विनाश को प्राप्त होने लगता है। अनैतिक आचरण से मनुष्य का विवेक, नैतिक बुद्धि प्रबल नहीं होती और उसे उचित-अनुचित का भी ध्यान नहीं रहता। फलस्वरूप गलत निर्णय होते हैं और इससे मनुष्य भयंकर दुखद परिस्थितियों में पड़ जाता है।
मनुष्य अपनी चालाकी, चतुराई, कूटनीति के द्वारा भौतिक जगत के सामाजिक राजनीतिक दंड से बच सकता है, किन्तु नियंता की निगाह से विश्व-विधायक के दंड से वह नहीं बच सकता। यह दंड उसे देर-सबेर भोगना ही पड़ता है। अनैतिक कार्यों के लिए अन्तर्द्वंद्व आत्म भर्त्सना होने लगती है। समय-समय पर उसका दुष्परिणाम तो मिलता ही है। असंयमी, दुराचारी, शरीर के साथ ज्यादती करने वाले इन कामों के लिए अपने को स्वतंत्र मान सकते हैं, किन्तु नियति के दंड स्वरूप अस्वस्थता, रोग, दुर्बलता का दंड उन्हें भोगना ही पड़ता है। संसार की कोई शक्ति उन्हें भोगना ही पड़ता है। संसार की कोई शक्ति उन्हें इससे नहीं बचा सकती। अत्याचार, अनाचार, स्वेच्छाचार का परिणाम विनाश, असफलता, हानि के रूप में ही मिलते हैं, तो अच्छे कार्य, सदाचार, पुण्य-परमार्थ के कार्यों के परिणाम सुख-शान्ति एवं जनसहयोग के रूप में मिलते हैं। बुरे कार्यों के परिणाम बुरे और अच्छे कार्यों के परिणाम अच्छे के रूप में ही मिलते हैं, यह एक निश्चित तथ्य है। दुनिया की खुली पुस्तक में यह सहज ही पढ़ा जा सकता है।
संसार का सबसे विकसित और उत्कृष्ट प्राणी होने के नाते मनुष्य को कार्य करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। वह कुछ भी कर सकता है, किन्तु नैतिक तथ्य, नियति चक्र और विश्व-नियम के विरुद्ध करने की छूट उसे नहीं है। इस पर तो उसे दंड मिलना अवश्यम्भावी ही है, वह इससे बच नहीं सकता। मनुष्य जैसा कर्म करेगा, वैसा ही परिणाम उसे प्राप्त रहेगा, यह ध्रुवसत्य है। ईश्वरीय अनुशासन में रहने और तद्नुरूप मर्यादित जीवन जीने में ही हम सबका कल्याण सन्निहित है।-