Magazine - Year 1992 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
सौंदर्य का बलिदान राष्ट्र के लिये!
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कौन उसे नहीं पाना चाहता? लेकिन इस ‘उस’ का मतलब नृत्य संगीत की सुरम्यकला नहीं और न उसके वे समस्त सद्गुण जिनसे उसका विशाल हृदय सरोवर लबालब भरा है। सब ओर तो उसके शरीर को पाने के लिए कुचक्र रचे जा रहे थे। इन कुचक्र रचने वालों में बड़े-बड़े सामन्त, राज घराने के लोग स्वयं सम्राट भी हैं। इस विस्तृत गणना में हैं तो वे भी जिन्हें समाज के रूप में सम्मान करता धर्म के वे तथाकथित अधीश्वर भी जिनकी पुष्पित वाणी, चरित्र निष्ठ का गुणगान करती नहीं अघाती। बिस्तर में लेटी मुदाल यह सब सोचते-सोचते तड़प उठी जैसे बिस्तर से लाखों-लाख सुइयाँ निकलकर उसके बहुकोमल शरीर में चुभ गई हों।
देश के कर्णधार, मार्गदर्शक और प्रभावशाली लोग ही चरित्र भ्रष्ट हो गए तो फिर सामान्य प्रजा का क्या होगा? अभी वह इसी चिंता में डूबी थी कि किसी ने द्वार पर दस्तक दी। मुदाल न दरवाजा खोला तो सामने खड़े सम्राट बिन्दुसार को देखते ही स्तम्भित रह गई।
“इस प्रकार असमय आने का कारण महाराज?” न चाहते हुए भी मुदाल को प्रश्न करना पड़ा।
बड़ा विद्रूप उत्तर मिला-”मुदाल! तुम्हारे रूप और सौंदर्य पर सारा देश मुग्ध है। त्यागी, तपस्वी तुम्हारे लिए सर्वस्व न्यौछावर कर सकते हैं फिर मेरे ही यहाँ आने का कारण क्यों पूछती हो भद्रे?”
“सम्राट! सामान्य प्रजा की बात आप छोड़ दीजिए। आप तो इस देश के कर्णधार हैं। सामान्य जनमार्ग भ्रष्ट हो जाए तो उन्हें सुधारा भी जा सकता है, पर यदि समाज के शीर्षस्थ लोग ही चरित्र भ्रष्ट हो जायँ तो वह देश खोखला हो जाता है, ऐसे देश, ऐसी जातियाँ, अपने अस्तित्व की रक्षा भी नहीं कर पातीं। इसलिए आपका इस समय यहाँ आना अशोभनीय ही नहीं सामाजिक अपराध भी है।”
अधिकार और अहंकार के तीव्र विष ने जिसके अन्तःकरण को मूर्छित कर दिया हो, उसे बोध के स्वर भी कहाँ जीवन दे पाते हैं। मुदाल की सीधी-सरल संवेदना से विगलित वाणी भी बिन्दुसार को विष बुझे तीर की तरह लगी। वे तड़प कर बोले “मुदाल। हम तुम्हारा उपदेश सुनने नहीं आये हैं। तुम राजनर्तकी हो तुम्हारा सर्वस्व हमारे आधीन है। धर्म क्या है अधर्म क्या है? यह सोचना तुम्हारा काम नहीं है।”
“नर्तकी भर होती तब तो आपका कथन सत्य था महाराज!” मुदाल की गम्भीरता अब दृढ़ता और स्वाभिमान में बदल रही थी “किन्तु मैं मनुष्य भी हूँ और मनुष्य होने के नाते समाज के हित-अहित की बातें सोचना भी मेरा धर्म है। मैं सत्ता को दलित करके अपने देश वासियों को मार्ग भ्रष्ट करने का पाप अपने सिर कदापि नहीं ले सकती।”
स्थिति बिगड़ते देखकर सम्राट बिन्दुसार ने बात का रुख बदल दिया। पर वे अब भी इस बात को तैयार न थे कि एक साधारण नर्तकी उनकी वासना का दमन कर जाए और मुदाल का कहना था कि विचारशील और सत्ता रूढ़ का पाप सारे समाज को पापी बना देता है। इसीलिए चरित्र को वैभव के सामने झुकाया नहीं जा सकता। मुदाल ने बहुतेरा समझाया पर सम्राट का रौद्र रूप कम न हुआ। स्थिति अनियन्त्रित होते देख वह बोली “यदि आप साधिकार चेष्टा करना ही चाहते हैं तो तीन दिन और रुकें मैं रजोदर्शन की स्थिति में हूँ। आज के चौथे दिन आप मुझे “चैत्य सरोवर” के समीप मिलें। आपको यह शरीर वहीं समर्पित होगा।”
तीन दिन बिन्दुसार ने कैसे बिताए यह वही जानते होंगे। चौथे दिन चन्द्रमा की स्निग्ध ज्योत्सना में अगणित उपहारों के साथ सम्राट बिन्दुसार चैत्य विहार जा पहुँचे। उनके मन में वासना की अगणित उद्दाम लहरों के बीच मनोभव क्रीड़ा कर रहा था। पास पहुँचते ही जैसे इस क्रीड़ा पर अकस्मात वज्राघात हुआ। कामुकता स्तब्ध रह कई। मुदाल का शरीर उपस्थित था पर उसमें जीवन नहीं था। पास में एक पत्र पड़ा हुआ था-अक्षर कह रहे थे “सौंदर्य राष्ट्र के चरित्र से बढ़कर नहीं, चरित्र की रक्षा के लिए यदि सौंदर्य का बलिदान किया जा सकता है तो उसके लिए मैं सहर्ष प्रस्तुत हूँ”। शव देखने से लगता था मुदाल ने विषपान किया है।
इस बलिदान ने बिन्दुसार के मूर्च्छित अन्तःकरण को झकझोर कर जगा दिया। उन्होंने अपने साथ लिए वे उपहार पास में ठहरे भगवान तथागत को समर्पित किए। अब वे आत्म सौंदर्य की साधना में लग चुके थे।