Magazine - Year 1993 - Version 2
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Language: HINDI
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आध्यात्मिक कामविज्ञान का ककहरा
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शरीर शास्त्र और मनोविज्ञानवेत्ता यह बताते हैं कि नर-नर का सान्निध्य, नारी-नारी का सान्निध्य मानवीय प्रसुप्त शक्तियों के विकास की दृष्टि से इतना उपयोगी नहीं, जितना भिन्न वर्ग की समीपता। विवाहों के पीछे सहचरत्व की भावना ही प्रधान रूप से उपयोगी है। सच्चे सखा सहचर की दृष्टि से परस्पर हँसते-हँसाते जीवन बिताने वाले पति-पत्नी यदि आजीवन काम सेवन न करें, संयमपूर्वक रह सकें, तो भी एक-दूसरे की मानसिक एवं आत्मिक अपूर्णता को बहुत हद तक पूरा कर सकते हैं। मनुष्य में न जाने क्या ऐसी रहस्यमय अपूर्णता है कि वह भिन्न वर्ग के सहचरत्व से अकारण ही बड़ी तृप्ति और शान्ति अनुभव करता है, जबकि अविवाहित जीवन में कोई बार सब प्रकार की सुविधाएँ होते हुए भी एक अतृप्ति और अशाँति बनी रहती है, किन्तु विवाह के बाद एक निश्चिन्तता-सी अनुभव होती है।
वस्तुतः यह एक मनोवैज्ञानिक पहलू है, जिसका तत्वदर्शन यदि समझ लिया जाय, तो वह समझते देर न लगेगी कि वैवाहिक जीवन में लोग निश्चिन्तता महसूस क्यों करते हैं। विवाह का इन दिनों एक फूहड़ अर्थ काम सेवन से लगाया जाने लगा है, पर यदि तनिक इससे ऊपर के स्तर पर उठ कर विचार करें, तो ज्ञात होगा कि इसके मूल में वह अगाध विश्वास ही आधारभूत तत्व है, जो उसे आश्वस्त करता है कि पत्नी के रूप में एक ऐसी सहचरी उसको मिली है जो उसका साथ पग-पग पर हर पल देती रहेगी। बस व्यक्ति निश्चिन्त हो जाता है और अपनी समर्थता दूनी ही नहीं दस गुनी अनुभव करता है। एकान्त के जीवन में शून्यता थी, उसकी पूर्ति तब होती है, जब यह विश्वास बन जाता है कि हम अकेले नहीं, विश्वस्त साथी को लेकर चल रहे हैं, जो हर मुसीबत में सहायता करेगी और प्रगति के हर स्वप्न में रंग भरेगी। यह आस्था मन में उतरते ही मनोबल चौगुना बढ़ जाता है और उत्साह भरी कर्मठता एवं आशा भरी चमक से जीवनक्रम में एक अभिनव उल्लास दृष्टिगोचर होता है। वह विवाह का बहुत बड़ा लाभ व पक्ष हुआ, जिसका सद्गृहस्थ अधिकाधिक फायदा उठाते हैं। यों शादी का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू भी है, जिसके द्वारा उभयपक्षीय सूक्ष्म शक्ति का अतिमहत्वपूर्ण प्रत्यावर्तन पति-पत्नी के बीच संभव है, पर यह विज्ञानपरक प्रक्रिया हर किसी के लिए शक्य नहीं। इसका लाभ तो इस विद्या का कोई निष्णात ही भली-भाँति उठा सकता है, अन्यथा इन दिनों तो यह, शक्ति की फुलझड़ी जला कर स्वयं को खोखला करने जैसा कौतुक बनकर रह गयी है।
महात्मा गाँधी कहा करते थे कि काम सेवन विवाहित जीवन में आवश्यकतानुसार मर्यादाओं के अंतर्गत होता रहे, तो उसमें कोई बड़ा अनर्थ नहीं है, पर उसे आवश्यक या अनिवार्य न माना जाय। इसमें कोई कठिनाई भी नहीं, हर एक के लिए सरल और सहज है, यदि वे अपनी मनःस्थिति को तनिक ऊँची भूमिका में ले जांय और परस्पर दो पुरुष या दो नारी की तरह घनिष्ठतापूर्वक व्यवहार करने लगें, तो कामना और वासना की वह कुदृष्टि पनप ही नहीं पायेगी, जो जनमानस में इन दिनों सन्निपात की तरह सवार देखी जाती है। उनने अपने उत्तरार्ध जीवन में इस प्रकार के कई प्रयोग भी किये और सफल रहे। अपनी इसी संरक्षित शक्ति के कारण वे चाहे जिस किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करने में सदा समर्थ सिद्ध हुए। उनके इस विलक्षण शक्ति से ही डर कर अँग्रेजों ने उनके बारे में घोषणा करवा दी थी कि कोई भी अँग्रेज उनसे आंखें न मिलाये, अन्यथा वह उसे सम्मोहित कर लेगा। यह समर्थता तब पैदा होती है, जब शक्ति का संचय हो। अपव्यय तो व्यक्ति को अपंग और असमर्थ जैसी स्थिति में पहुँचा देता है।
आज यही हो रहा है। दृष्टि कुदृष्टि में बदल जाने के कारण विवाह, पवित्र पाणिग्रहण न होकर दोहाकर्षण बनकर रह गया है। यह विवाह घृणित ही नहीं, अगरिमामय भी है। इससे वैवाहिक जीवन अनेकों ऐसे संकट उठ खड़े होते हैं, जिससे जीवन-शकट का अविरल-तरल की तरह लुढ़कना असंभव हो जाता है। अतः विवेकवान पुरुष रूप-रंग, शोभा-सौंदर्य के आधार पर उत्पन्न हुए आकर्षण को क्षणभंगुर आवेश मात्र मानकर उससे स्वयं बचते और दूसरों को बचने की सलाह देते हैं। उनके इस तथ्य पद यदि गहराई से विचार किया जाय, तो इसके पीछे सक्रिय उद्दीपनों के माध्यम से ही ‘मस्तिष्क संदेश कोशिकाओं तक जा पहुँचते हैं। इस प्रकार समूचे कायिक ढाँचे को सुदृढ़ चिकित्सकीय गुणवत्ता प्रदान करने की प्रक्रिया स्वतः संचालित हो उठती है।
यद्यपि अमेरिकन मेडिकल साइंस के चिकित्सा विज्ञानियों ने सिमोंटोन जैसे ‘समग्रधर्मी चिकित्सक’ के प्रति अविश्वास प्रकट किया है और इसे चिकित्सा सिद्धान्त के विपरीत बताया है। उनका कहना है कि यदि यह चिकित्सा पद्धति लोकप्रिय बनती चली गयी तो चिकित्सा जगत की पारंपरिक मान्यताओं को गहरा आघात पहुँचेगा। फिर भी इस चिकित्सा पद्धति का प्रचार-प्रसार दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। डॉक्टरों के रंग-बिरंगे साइनबोर्डों को देखा जाय तो प्रतीत होता है कि साइको न्यूरो इम्यूनोलॉजी (पी.एन.आई.) बिहेवियर थेरेपी और न्यूरो इम्यूनो मोडयूलेशन जैसी मनःचिकित्सा विद्याओं का प्रचलन ही अब द्रुतगति से हो रहा है।
महान चिकित्सा विज्ञानी सिमोंटोन के मतानुसार इच्छा-शक्ति की सामर्थ्य के अनुरूप ही व्यक्ति के चिन्तन में विवेकशीलता और संयमशीलता का अभ्युदय हो उठता है। ऐसी स्थिति में मस्तिष्क रसायन न केवल प्रतिरक्षा तंत्र का ही नियंत्रण करते हैं वरन् उस तंत्र को अनुप्राणित कर सकने की क्षमता भी रखते हैं। इन रासायनिक संदेशों का मूलभूत प्रयोजन समूची काया को जीवाणु, विषाणु और संक्रामकता के बारे में सूचित करने का है। इन प्रतिरक्षा कोशिकाओं का सीधा स्थापित हो जाता है। रोगी का मानसिक संतुलन बढ़ता-उत्साह-उमंग को प्रादुर्भाव होता और आरोग्य लाभ मिलने लगता है। सिमोंटोन की इस नयी अवधारणा को “स्वायत्त चेतना प्रतिरक्षा तंत्र” के नाम से जाना गया है। चेतना का सहज स्वाभाविक गुण स्नेह-सद्भाव और संयम का होता है। ईर्ष्या, द्वेष और असंयम बरतने पर तो मस्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता और एक विशिष्ट प्रकार के हारमोन्स का स्राव होने लगता है जो रोगों की उत्पत्ति का कारण बन जाता है।
सन् 1973 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हैल्थ, अमेरिका के सुप्रसिद्ध न्यूरो फामोक्लोजिस्ट डॉ. केडेंसपर्ट ने लम्बे समय तक प्रयोग परीक्षण के उपरान्त एक ही निष्कर्ष निकाला है कि व्यक्ति की भाव-संवेदनाएँ कुंठित होने के कारण कुछ ऐसे “न्यूरोपेप्टाइडस” का शरीर में निर्माण होना आरंभ हो जाता है जिनसे मानसिक संतुलन गड़बड़ाता और विविध विधि रोगों की उत्पत्ति का कारण बनता है। पर्ट का कहना है कि व्यक्ति की संकल्पशीलता से चिन्तन को विधेयात्मक दशा मिलती और उक्त हारमोन्स के स्रवण पर काबू पाया जा सकता है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए मानसिक स्तर की स्वस्थता अति आवश्यक है। मनःसंस्थान को निरोग रखने के लिए उनने संवेग, अहं और तर्क जैसे तीन घटकों को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना है। इच्छा-शक्ति के द्वारा इन पर नियंत्रण करके प्रतिरक्षा चेतना तंत्र को आवश्यकतानुसार सक्रिय और शिथिल बना सकना सरल भी है और संभव भी। अत्याधुनिक विज्ञान की भाषा में इस स्वायत्त प्रतिरक्षा चेतन तंत्र को दिव्य बोध अर्थात् छठी इन्द्रिय के नाम से भी संबोधित किया जाने लगा है। इसे सुविकसित एवं सुव्यवस्थित स्तर का बना लेने पर ही समग्र स्वास्थ्य संवर्धन का सत्प्रयोजन पूरा हो सकता है।
चिकित्सा विज्ञान की इन नवीनतम खोज को लोकोपयोगी बनाने के लिए जरूरी है कि जनमानस के भावनात्मक परिष्कार का उपक्रम बिठाया जाय। जिससे लोगों का प्रसुप्त संकल्प बल उभरे, मनोबल बढ़े और आरोग्यवर्धक परिस्थितियाँ विनिर्मित होती जांय। स्वास्थ समुन्नत जीवनी शक्ति संपन्न पीढ़ी ही नवयुग के महामानव तैयार करेगी।