Magazine - Year 1994 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
भक्त की इच्छा भगवान ने कब पूरी नहीं की ?
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
‘पानी’! कल दस गज दूर था यानी उनके यहाँ से, किंतु दूरी तो शरीर की शक्ति, पहुँचने के साधन पर निर्भर है। दस कोस भी दस कदम जैसे होते हैं स्वस्थ, सबल व्यक्ति के लिए और आज के युग में वायुयान के लिए तो दस योजन भी दस कदम ही है। किंतु रुग्ण-असमर्थ के लिए दस कदम भी दस योजन बन जाते हैं-यह तो सबका प्रतिदिन का अनुभव हैं।
‘पानी’ ! तीव्र ज्वराक्राँत वह तपस्वी-क्या हुआ जो उससे दस गज दूर ही पर्वतीय जली स्त्रोत है। वह तो आज अपने आसन से उठने में भी असमर्थ है। ज्वर की तीक्ष्णता के कारण उसका कण्ठ सूख गया है। नेत्र जले जाते हैं। वह अत्यंत व्याकुल है।
‘पानी’! ओह, पानी देने भी आज रामसिंह नहीं आया। उसने पड़े-पड़े ही एक ओर देखा। उसका आसन के पास पड़ा तूँबा जल रहित है और अभी तो कहीं किसी के आने की आहट नहीं मिलती।
पास की पहाड़ी पर कुछ घर हैं पर्वतीय लोगों के। उन भोले ग्रामीणों की श्रद्धा है इस तपस्वी में। उनमें से एक व्यक्ति रामसिंह तो प्रायः दिन में दो-तीन बार यहाँ हो जाता है और स्थान स्वच्छ कर जाता है । जल भर कर रख जाता है। कोई और सेवा हुई तो उसे भी कर जाता है। इन महापुरुष की सेवा करने का उसे सौभाग्य मिलता है, यही क्या कम है। लेकिन रामसिंह के अपने भी तो काम है। उसके पशु हैं, बाल-बच्चे हैं, कुछ खेत हैं और फिर कल रात उसे भी ज्वर हो गया था। उसे आज अपने में देर हो रही है, इसमें कोई अद्भुत बात तो नहीं है।
‘पानी !’ तपस्वी का कंठ सूख रहा है। उसकी बेचैनी बढ़ रही है। उसे बहुत तीव्र ज्वर है और ज्वर की प्यास-रामसिंह नहीं आया ? दो क्षण पश्चात् ही उसने इधर-उधर नेत्र घुमाए।
‘पानी’! प्यास! रामसिंह! लगा तपस्वी मूर्छित हो जाएगा। उसका गौरवर्ण । मुख ज्वर के कारण लाल हो रहा है। उसके अरुणाभ नेत्र अंगार से जल रहे हैं।
“रामसिंह! तो तू रामसिंह का चिंतन और उसकी प्रतीक्षा कर रहा है।” “पता नहीं क्या हुआ आप चाहें तो इसे ज्वर की विक्षिप्तता कह सकते हैं, आपको मैं रोकता नहीं।” “तू रामसिंह के भरोसे यहाँ आया था। धिक्कार है तुझे नीलकंठ।”
हाँ तपस्वी का नाम नीलकंठ है। यह दूसरी बात है कि उसे यहाँ कोई इस नाम से नहीं जानता। सच तो यह कि कोई उसका नाम या परिचय जानता ही नहीं। जानने पूछने का साहस नहीं हुआ किसी को। किंतु नाम की बात छोड़िए तपस्वी संभवतः ज्वर से उन्मत्त हो गया है। वह बारबार इस कठोर भूमि पर मस्तक पटक रहा है। अपने मुख पर तमाचे मारता जा रहा है-’तू अब रामसिंह की प्रतीक्षा करने लगा है। तुझे अब आशुतोष प्रभु का भरोसा नहीं रहा और तू चला है उपासना करने ? उपासक बना बैठा है तू इस अरण्य में। नेत्रों से अश्रुधारा चल रही है। मुख लाल लाल हो गया है, किंतु विक्षिप्त हो उठा है, वह तो।
आज जिसे नीलकंठ कहते हैं स्वर्गाश्रम से लगभग सात साढ़े सात मील दूर मणिरत्नकूट पर्वत के चरणों में चारों ओर पर्वतमालाओं से घिरा स्थल तो वही था, किंतु तब उसका कोई नामकरण नहीं हुआ था। बात जो शताब्दियों पूर्व की है यह।
तब की बात, जब ये नेपाली कोठी, धर्मशाला, दुकानें, कुछ भी नहीं थी। पाकर, अश्वत्थ के युग्मतरु भी नहीं थे। केवल दोनों जल धाराएँ थीं जो आज भी नीलकंठ के चरणों को दोनों ओर से धोती हुई एक में मिलकर आगे बढ़ जाती हैं। तब पाइप लगाकर धारा को नल का रूप देने की व्यवस्था नहीं थी। तब तो उसमें पत्तों की राशि पड़ी रहती और सड़ा करती।
आज भी नीलकंठ में यदा-कदा रीछ रात में आ जाते हैं। शेर और चीते वहाँ से सौ-दो सा गज तक पर्यटन कर जाते हैं। उस समय तो वन्य पशुओं का आवास था नीलकंठ। केवल दिन में पर्वत शिखरों पर स्थित पर्वतीय जन अपने पशुओं को लेकर वहाँ आते थे। ऐसे जंगल में एक दिन एक लंबे दुबले गौरवर्ण तरुण ने पता नहीं कहाँ से आकर आसन लगा दिया। वह वहीं आ जमा, जहाँ आज भगवान नीलकंठ विराजमान हैं। उस समय तो वहाँ ठिकाने की समतल भूमि भी नहीं थी।
बिखरे घुँघराले केश, प्रलंब बाहु, अरुणाभ! सुदीर्घ नेत्र पता नहीं क्या था उस तरुण में कि वन्य पशुओं ने प्रथम दिन से ही उसे अपना सुहृद मान लिया। भालुओं के बच्चे रात में कभी-कभी उसके तूँबे का जल लुढ़का दिया करते थे-इससे अधिक उसे किसी ने कभी तंग नहीं किया। उसके समीप शेर या चीते के जोड़े रात्रि में चाहे जब निःशंक आ बैठते थे।
तूँबा और कौपीन इनके अतिरिक्त उसके पास तो कंद खोदने के लिए भी कुछ नहीं था। किंतु जो इस प्रकार सर्वात्मा पर अपने को छोड़ देता है, परमात्मा उसकी उपेक्षा कर दे तो उसे परमात्मा कहेगा कौन ? पर्वतीय जन उसके आस-पास का स्थान आकर स्वच्छ कर जाने लगे और उनमें से कभी कभी और कभी किसी की गाय का दूध उसकी स्वीकृति पाकर सफल हो जाता है। दूध के अलावा उसने कभी कुछ लिया ही नहीं।
ऋतुएँ आयीं और गयीं। उसे करना क्या था भला, भजन, साधन को छोड़कर तपस्वी और क्या करेगा ? तप-साधन कुछ भी हो प्रारब्ध का भोग तो सभी को भोगना पड़ता है। एक वर्ष में जब जल मलिन हुआ, पत्ते सड़े, मच्छरों का अखण्ड-संकीर्तन अन्य वर्षों से बहुत बढ़ गया और पिस्सुओं की संख्या भी पर्याप्त हो गयी, एक दिन तपस्वी रुग्ण हो गया। उसे हड्डी-हड्डी कंपित कर देने वाला शीत लगा और ज्वर हो गया।
ज्वर आया और आता रहा। इधर कई दिनों से वह इतना अशक्त हो गया है कि अपने आसन से खिसक भी नहीं सकता। पास के पर्वत शिखर पर कुछ घर है। उनमें से एक घर रामसिंह का है। रामसिंह उसके लिए जल भर जाता है, स्थान स्वच्छ कर जाता है, कुछ आवश्यक सेवा-कार्य कर जाता है। किन्तु उसके भी बाल बच्चे हैं पशु हैं, खेत हैं और कल रात उसे भी ज्वर हो गया। उसे आने में देर होना कहाँ कैसे अनुचित या अस्वाभाविक कहा जा सकता है।
पैरों की आहट से तपस्वी की तन्मयता टूटी। उसने देखा रामसिंह अपनी मैली मोटी चद्दर पूरे शरीर पर लपेटे उसके पास खड़ा है। रामसिंह। अटकते हुए उसने कहा- “तुमको भी ज्वर हो गया दीखता है। तुम तत्काल घर लौट जाओ।” “जल रखकर अभी चला जाता हूँ। रामसिंह ने तपस्वी के चरणों पर मस्तक रखा और फिर तूँबा लेने बढ़ा। “उसे छुओ मत!” उसने रोक दिया मुझे जल नहीं चाहिए। दूसरे लोगों से कह देना, आज इधर कोई न आये।
“जो आज्ञा, प्रभु”! सरल रामसिंह ने फिर प्रणाम किया और वह लौट चला। उसने तो साधु संतों की आज्ञा मानना सीखा है। उसे बात का सीधा अर्थ ही समझ में आता है। महात्मा लोगों के चित्त का क्या ठिकाना वे पता नहीं कब कैसे रहना चाहते हैं। उनकी आ बिना प्रतिवाद के मान लेनी चाहिए वह तो अब इतना ही जानता है।
“मैं रामसिंह की प्रतीक्षा कर रहा था और वह आया”। रामसिंह के पीठ फेरते ही वह धीरे-धीरे बुदबुदाया। मेरे प्राण आशुतोष प्रभु की प्रतीक्षा करेंगे और वे दयामय नहीं पधारेंगे। परंतु इस अधम नीलकंठ के प्राणों ने उनकी प्रतीक्षा की कहा है।
‘पानी’ ! उसके होठों से अब यह शब्द नहीं निकल रहा था, क्योंकि उसने तो अब दाँत-पर दाँत दबा लिए थे। किन्तु उसके भीतर ज्वर का भीषण दाह पानी की माँग अत्यन्त प्रबल हो गई थी। उसके प्राणों में छटपटाहट चल रही थी।
“अब तो भगवान सदाशिव के कर कमलों से गंगाजल पीना है।” उसका संकल्प स्थिर हो गया। उसने दैहिक व्यथा की सर्वथा उपेक्षा कर दी”- वह यहाँ प्राप्त हो या कैलाश के दिव्य धाम में।”
जब कोई हठी इस प्रकार हठ कर बैठे, किसी के प्राण सचमुच उस चन्द्र मौलि के लिए ही आकुल हो उठें, कोई उसी विश्वनाथ पर भरोसा करके अड़ जाय-वह अपार करुणार्णव वृषध्वज उससे पल भर भी दूर कहाँ रहता है। द्रौपदी के कृष्ण व गजराज के त्राता की तरह वह तुरंत भागा चला आता है।
रामसिंह कठिनता से अपने घर के मार्ग से चौथाई दूर गया होगा- अरण्य वृषभ के घंटे से निकली दिव्य प्रणव ध्वनि से पूरित हो गया। बाल शशंक की मृदु किरणें मूर्छितप्राय तपस्वी के भाल पर पड़ी और साथ ही पड़ा एक अमृत स्यन्दीकर। विभूति भूषण कृत्तिवास प्रभु स्नेहपूर्वक देखते हुए कह रहे थे-’वत्स’ ?
ज्वर, ज्वर की ज्वाला और तृषा-अरे, उन सदाशिव के सामने तो कराल काल की ज्वाला भी शाँत हो जाती है। दूर भागती है। ताप की ज्वाला उन पर्वतीनाथ के श्रपदों से। तपस्वी के प्राण आप्लावित हो गए। उसने नेत्र खोले और वैसे ही मस्तक धर दिया उन सुरासुरवन्दित श्री चरणों पर।
“वत्स! गंगाजल लाया हूँ मैं ।” तपस्वी को स्तवन करने का समय नहीं मिला। भगवान शिव के
हाथों में उनका सुधा वारिपूरित खप्पर आगे बढ़ चुका था। तपस्वी ने मस्तक उठाया और प्रभु ने खप्पर उसके होठों से लगा दिया।
ठस घटना की वर्षों बीत गए। एक दिन भगवान आदि शंकराचार्य जब उत्तराखण्ड की ओर पधारे, ऋषिकेश आने पर पता नहीं कि प्रेरणा से वे गंगा पर होकर चलते गए पर्वतों में और वर्तमान नीलकंठ स्थान पर पहुँचे। उन्होंने दोनों पर्वतीय लघु जलधाराओं के संगम के समीप सिद्धवटी देखा और प्रसन्न हो गए। आचमन करने के पश्चात् सिद्धवटी के समीप आसीन हुए।
“यहाँ तो भगवान शिव का स्वयम्भूलिंग है।” सहसा भगवान शंकराचार्य ने नेत्र खोले और आसन से उठ खड़े हुए। उनकी ध्यान दृष्टि के समक्ष वर्षों पूर्व घटी इस घटना का हर चित्र स्पष्ट हो गया था। उनके निर्देश पर तरुमूल के समीप एकत्र मिट्टी साथ के सेवकों ने दूर की और उसके नीचे से श्यामवर्ण भगवान शिव का बाणलिंग प्रकट हो गया। आदि शंकराचार्य ने उस शिवलिंग का श्रद्धासिक्त अर्चन करते हुए शिष्यों को तपस्वी नीलकंठ की कथा कह सुनायी।
कथा सुनाने के पश्चात् वह बोले-भक्ति का मूल विश्वास है। इसी विश्वास के बल पर प्रभु यहां अपने आराधक के लिए व्यक्त हुए और लिंग रूप में उसी की श्रद्धा स्वीकार करके सदा के लिए स्थित हो गए। आज से यह शिवलिंग ‘नीलकंठ’ नाम से पूजित होगा और यह क्षेत्र नीलकंठ कहा जाएगा। भगवान शंकराचार्य ने साथ के जनों को उस समय सूचित किया था।