Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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जितने दिन भी जियें, शान के साथ
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मनुष्य की स्थायी रूप से युवा बने रहने की इच्छा सदैव से रही है। अपने यौवन को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए शारीरिक-मानसिक दृष्टि से सक्षम बने रहने और उस आधार पर भौतिक जगत पर विजय प्राप्त करने की आकांक्षा प्रत्येक नर-नारी में बलवती देखी जाती है। किंतु यह एक-प्राकृतिक नियम है कि जिसका जनम होता है उसे एक दिन मृत्यु की गोद में भी अवश्य जाना पड़ता है, साथ ही इससे पूर्व उसे वार्धक्यजन्य कष्टों को झेलना पड़ता है। प्रयत्न करने पर भी जरावस्था से बच पाना संभव नहीं हो पाता। यह बात अलग है कि वृद्धावस्था में भी मानसिक प्रखरता को बनाये रखकर युवावस्था की तरह ही जीवन का पूरा-पूरा लाभ उठाया जा सकना संभव है। संसार में कितने ही महामानव हुए है। जिन्होंने ढलती उम्र में भी मानसिक प्रसन्नता और उत्साह को बनाये रखा और देश, समाज एवं संस्कृति की सेवा करते हुए समूची मानव जाति के लिए अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया।
आयु से संबंधित शरीर यंत्र रचना का उत्तम ज्ञान प्राप्त करने तथा दीर्घायुष्य के लिए मनुष्य के प्रयत्न उतने ही पुराने हैं जितनी कि उसकी उत्पत्ति। आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में भी मेर्लिन से लेकर के गलिओस्ट्रो, ब्राउनसेकार्ड और वोरोनोक चार्ल्ट्नस जैसे मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने सदा युवा बने रहने के स्वप्न को साकार करने का प्रयास किया, किंतु वे सब असफल ही रहे। किसी को भी उस सर्वोच्च गूढ़ रहस्य को ढूंढ़ने में सफलता नहीं मिली किंतु फिर भी वैज्ञानिक इसको अधिक आवश्यक मानते रहे और विविध प्रकार के सौंदर्य प्रसाधनों से लेकर महँगे टानिकों, औषधियों की खोजकर मनुष्य के चेहरे पर कृत्रिम तरुणाई उभरने का असफल प्रयत्न करते रहे हैं। इस आधार पर पुरुष हो या स्त्री इस प्रकार अपने आपको तरुण बनाये रखने का प्रयास तो करते हैं, पर इंद्रियों पर संयम नहीं रख पाने के परिणाम स्वरूप अनेकानेक बीमारियों से पीड़ित होकर समय से पूर्व ही काल के ग्रास बन जाते हैं। इसके लिए मनोवैज्ञानिक, स्वास्थ्य विज्ञानी एवं चिकित्साशास्त्री वातावरण की विषाक्तता, कुपोषण, मनोविकार, चिंता, आर्थिक सुरक्षा का अभाव, सामर्थ्य से अधिक काम, नैतिक अनुशासन का अभाव और हर प्रकार से असंयमित जीवन को प्रधान कारण मानते हैं, तो कुछ कहना है कि दीर्घायुष्य वंशानुगत होता है । पर प्रायः देखा गया है कि दीर्घायु की परंपरा वाले परिवार का कोई सदस्य यदि घिचपिच वाले बड़े नगरों में निवास करने लगता है, असंयम को अपनाता है तो एक अथवा दो पीढ़ियों में ही उनकी दीर्घायु में न्यूनता आने लगती है।
मनीषियों का कहना है कि दीर्घायु प्राप्त करने अथवा हमेशा युवा बने रहने के लोभ में औषधियों का आँख मूँद कर उपयोग करना अवाँछनीय होगा। मनुष्य के दीर्घायु होने की कामना तभी की जा सकती है जबकि वह अपनी युवावस्था की दीर्घकालिक बनाये रखने में सफल हो। वृद्धावस्था में वृद्धि लाना तो एक अभिशाप ही होगा। एक वृद्ध व्यक्ति जो कि अपना भार स्वयं वहन करने में असमर्थ होता है, अपने परिवार और समाज के लिए भारभूत मालूम पड़ता है यदि सभी व्यक्ति शतायु बने रहेंगे तो समाज का युवा वर्ग इस भारी बोझ को सहन करने में असमर्थ रहेगा। आयु में वृद्धि करने से पूर्व इंद्रियों और मानसिक गतिविधियों को मौत के हौवे दिखाकर शरीर को संरक्षण दिलाने के बारे में कोई विधि खोजनी होगी। इसके लिए यह आवश्यक है कि रोगियों, आशक्तों, पागलों, सनकियों एवं शारीरिक-मानसिक रूप से लकवाग्रस्त व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि न हो। इसके अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति को दीर्घायुष्य बनाना भी विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता। मनुष्यों के गुणों का मूल्याँकन किये बिना ही केवल उनकी संख्या में वृद्धि करने के भयंकर परिणामों से सभी भली प्रकार से परिचित हैं। जो व्यक्ति दुखी, स्वार्थी, मूर्ख और निकम्मे है, उनकी आयु में कुछ वर्ष और जोड़ने से क्या लाभ ? शतायु व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि करना तब तक उचित नहीं कहा जा सकता जब तक कि उनके बौद्धिक और नैतिक पतन के मार्ग को अव( न कर दिया जाय और वृद्धावस्था से जुड़े रोगों से संरक्षित न कर दिया जाय।
वस्तुतः पुनः यौवन की कल्पना को तब तक साकार नहीं किया जा सकता जब तक कि उसका उद्देश्य मनुष्य के आँतरिक कायाकल्प से संबद्ध नहीं होगा। स्मरण शक्ति एवं इंद्रियों की यौवनोचित शक्ति को बनाये रखना मात्र ही युवावस्था की सही पहचान नहीं है, स्टेनेच, वोरोनोक आदि वैज्ञानिक मनीषियों ने पुनर्यौवन की व्याख्या करते हुए बताया है कि मनुष्य की सामान्य स्थिति में सुधार हो, वह अपने को शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ, शक्तिशाली, ओजस्वी-तेजस्वी और प्रसन्नचित्त अनुभव करे, उसमें मानवोचित सद्गुणों का विकास हो और वह अपनी क्षमताओं का विवेकपूर्वक इस्तेमाल करने की स्थिति में हो, तो उसे पुनर्यौवन की संज्ञा दी जा सकती है।
प्राचीनकाल में चिकित्सा क्षेत्र के अंधविश्वासों में एक मान्यता यह भी प्रचलित थी कि वृद्धावस्था से जीर्ण शरीर को युवा बनाने के लिए किसी नव युवक के रक्त को उसके शरीर में पहुँचाना आवश्यक है। इस मान्यता के आधार पर पोप इन्नोसेन्ट-अष्टम की धमनियों में तीन नवयुवकों का रक्त आधान किया गया, किंतु इस क्रिया के पश्चात् ही उनका निधन हो गया। निश्चित ही यह समाधान विज्ञान सम्मत तो था नहीं। इस घटना के बाद इस युक्ति को दुबारा नहीं आजमाया गया। इसके पश्चात् चिकित्सकों की दृष्टि अंतःस्रावी ग्रंथियों पर गयी। ब्राउन सिकार्ड जैसे प्रसिद्ध वैज्ञानिकों ने टेस्टिकल-अर्थात् अंडकोष के ताजे सारतत्व को अपने शरीर में प्रवेश करा कर पुनर्यौवन प्राप्त करने का प्रयास किया। इस शोध से उन्हें प्रसिद्धि भी खूब मिली । यद्यपि इस घटना के बाद उनकी अल्पकाल में ही मृत्यु हो गयी थी, किंतु एक विश्वास जिसमें अण्डकोष को नये यौवन प्राप्ति का माध्यम समझा गया, जीवित रहा। ब्राउन सिकार्ड के इस कार्य को वोरोनोक ने और आगे बढ़ाया। उसने अण्डकोष के सारतत्व को इंजेक्शन द्वारा शरीर में पहुँचाने की अपेक्षा अकाल वृद्धों अथवा वृद्ध पुरुषों के अण्डकोषों के स्थान पर गोरिल्ला व चिंपांजी के अण्डकोषों का प्रत्यारोपण किया। यह प्रत्यारोपण सफल तो रहा, किंतु मनुष्य के शरीर में अंडकोष अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सके। ऐसे प्रत्यारोपण के कोई स्थायी सत्परिणाम भी नहीं निकले।
मनुष्य अमरता की प्राप्ति के प्रयासों से कभी निराश होने वाला नहीं है, किंतु शरीर से अमरता की प्राप्ति एक असंभावित तथ्य है, क्योंकि हमारे अंगों की बनावट और उनके क्षय होने के कुछ सुनिश्चित प्राकृतिक नियम है। हाँ वह अपनी वास्तविक शारीरिक आयु को कुछ सीमा तक कम करने में और अपने अंतिम समय-जो कि एक ध्रुव सत्य है, को विलंबित करने में सफलता भी प्राप्त कर ले, पर उसका क्षय अवश्यम्भावी है। अपने मस्तिष्क और व्यक्तित्व का मूल्य उसे अपनी मृत्यु के द्वारा ही चुकाना पड़ता है। किंतु ऐसी मान्यता है कि हारमोन्स और औषधियों की सहायता से मानव वृद्धावस्था को रोग और पीड़ा रहित बना सकेगा। इस संदर्भ में वैज्ञानिकों ने गहन खोजें की हैं और बहुत कुछ सफल भी हुए हैं।
शारीरिक आयु भौतिक जगत की भौतिक घड़ियों के द्वारा मापी जाती है। मनुष्य की आयु को दिनों और वर्षों में नापा जाता है। शैशवकाल, बाल्यावस्था और किशोरावस्था की अवधि लगभग 18 वर्षों में समाप्त हो जाती है। परिपक्वता और वृद्धावस्था 50-60 वर्षों में प्राप्त होती है। इस प्रकार मनुष्य का जीवन अल्प अवधि में विकसित तो हो जाता है, पर उसकी पूर्णता और क्षय को एक लंबी अवधि का मार्ग पार करना होता है। यही वह आयु है जिसे पुनर्यौवन प्रदान करने की आवश्यकता होती है। यह तभी संभव है जब तद्नुरूप ही जीवनक्रम अपनाया जाय, समय आने से पूर्व शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से व्यवस्थित तैयारी कर ली जाय, तब बुढ़ापे में भी युवावस्था जैसी सक्रियता को बराबर बनाये रखा जा सकता है।
समय की गति सदा सर्वदा से एक ही जैसी निरंतर रही है, किंतु बालकों, व्यवसायियों, व्यस्त व्यक्तियों और रोगियों के द्वारा उसकी गति में अंतर का अनुमान लगाया जाता है। बाल्यकाल के दिनों का मलय बहुत ही अधिक समझा जाना चाहिए। प्रत्येक क्षण का उपयोग शिक्षण के लिए किया जाना चाहिए। इस अवधि में जो समय नष्ट हो जाता है उसकी क्षतिपूर्ति होना संभव नहीं बच्चों को पेड़-पौधों की तरह या छोटे-छोटे पशुओं की तरह विकसित करने की अपेक्षा उन्हें प्रबुद्ध प्रशिक्षण का एक अच्छा पात्र समझा जाना चाहिए। इस प्रशिक्षण में शिक्षा के अतिरिक्त शारीरिक और मनोवैज्ञानिक ज्ञान गंभीर रूप से दिया जाना आवश्यक है जिसकी कि आधुनिक शिक्षा में अवहेलना ही की जाती है। परिपक्वता के बाद का उतना शारीरिक महत्व नहीं होता, इस अवधि में ऐन्द्रिय और मानसिक परिवर्तन नहीं होते। अतः इस अवधि को रचनात्मक कार्यों के द्वारा सदुपयोग करना चाहिए। वृद्धावस्था की समीपता आने पर मनुष्य को अपनी कार्यशक्ति को न तो विराम ही देना चाहिए और न ही निवृत्त होना चाहिए, कारण निष्क्रियता, आलस और अकर्मण्यता से अशक्ति की प्राप्ति होती है। युवकों की अपेक्षा वृद्धों पर अवकाश के बड़े बुरे परिणाम देखने को मिले हैं। जिन वृद्धों की शक्ति में ह्रास का अनुभव हो रहा हो उन्हें विश्राम के बजाय उनकी योग्यतानुसार काम दिया जाना चाहिए। उनकी मंदगति को कुछ मनोवैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर प्रोत्साहित करना उपयोगी होगा। यदि दिनचर्या मानसिक और तात्विक रूप से व्यवस्थित एवं व्यस्तता पूर्ण बना ली जाय, तो कोई कारण नहीं कि वृद्धावस्था में भी मनुष्य नवयुवकों से भी बाजी मार ले।
शारीरिक आयु की मान्यता के आधार पर हम अपनी क्रियाओं के संबंध में कुछ नियम बना सकते हैं। एन्द्रिय और मस्तिष्कीय विकास में परिवर्तन होता रहता है। वे अटल नहीं होते। अपनी इच्छाशक्ति के द्वारा उनमें परिवर्तन किया जा सकता है। मनुष्य जीवन एक गाढ़े द्रव पदार्थ की तरह है जो कि भौतिक रूप से निरंतर बहता ही रहता है। वह अपनी दिशा को बदल ही नहीं सकता, वरन् नूतन प्राणचेतना फूँक कर वाँछित दिशा में प्रगति भी कर सकता है। जीवन में वृद्धि करने और युवकों जैसा सक्रिय जीवन जीने में सक्षम हो सकते हैं।
वस्तुतः आयु को अधिक लंबी बनाने में मनुष्य का शरीर के प्रति अवास्तविक मोह ही काम करता है। वह बहुत दिन जीना चाहता है, पर यह भूल जाता है कि जराजीर्ण रुग्ण और भारभूत जीवन बहुत समय तक जीने में अपने को और दूसरों को परेशान करने के अतिरिक्त और कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता।
आत्मा अजर-अमर है-इस मान्यता को अपनाकर दीर्घजीवन का उद्देश्य आध्यात्मिक दृष्टि में किया जाता है। पर शरीर के लिए यह असंभव है कि वह अजर या अमर बन सके। प्रकृति नियमों का परिपालन करते हुए हम जितने दिन जी सकें उसी में संतोष करना चाहिए।
ऊँचे और अच्छे कामों में व्यस्त रह कर हम सामान्य जीवन को भी बहुत लंबा बना सकते हैं। आद्याशंकराचार्य, विवेकानंद, आदि कितने ही व्यक्ति स्वल्प काल तक जीवित रहे, पर इतने महत्वपूर्ण कार्य इतनी अधिक मात्रा में कर सके कि उस थोड़े जीवन पर भी गर्व किया जा सकता है। हमें लंबी जिंदगी पाने के फेर में आकाश-पाताल के कुलावे मिलाने की अपेक्षा इतने में ही संतोष करना चाहिए कि जितने भी दिन जियें शानदारी से जियें और इस तरह जियें जिसे दूसरे लोग अनुकरणीय और सराहनीय कह सकें।