Magazine - Year 1994 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
विकासवाद की अवधारणा मात्र चेतनात्मक ही
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मनुष्य का प्रादुर्भाव कैसे हुआ ? इस संबंध में विकासवादी अवधारणा यह है कि जीवन विकास का प्रारम्भिक चरण एक कोशि जीव था। इसी से कालक्रम में छोटे-से-छोटे जीवधारी से लेकर मानव जितना बुद्धिमान प्राणी पैदा हुआ।
यदि इस मान्यता को आधार माना गया, तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा, कि विकासवादी प्रक्रिया पूर्णतः आकस्मिक थी। जहाँ सब कुछ अकस्मात् हो रहा हो, कोई नियामक तंत्र उसके पीछे काम नहीं कर रहा हो, उसकी परिणति भी अचानक घटी दुर्घटना जैसी होनी चाहिए, पर नृतत्ववेत्ता तो मानवी विकास की एक सुसंबद्ध शृंखला ढूँढ़ने का प्रयास कर रहे हैं, यह कितना हास्यास्पद है और परस्पर विरोधी भी। यह सभी जानते हैं कि आकस्मिकता और सुसंबद्धता साथ-साथ घटित नहीं हो सकतीं। दोनोँ की प्रकृति भिन्न है। जहाँ आकस्मिकता होगी, वहाँ किसी प्रकार का नियम लागू नहीं होता, वह अनिश्चित एवं अनियमित होगी, पर जहाँ सुसंबद्धता है, वहाँ निश्चित रूप से कोई-न-कोई नियम, कोई-न-कोई तंत्र क्रियाशील होगा। इतना सब ज्ञात होते हुए भी विकासवादियों ने दोनोँ को मिलाने की गलती क्यों की ? यह तो वहीं जानें, पर “कहीं की ? यह तो वहीं जानें, पर “कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा” जैसी उक्ति को चरितार्थ करते हुए विज्ञान ने आदमी की एक विकासवादी शृंखला बना कर खड़ी कर दी। बीच-बीच में जहाँ की कड़ी नहीं मिल पायी उसकी विवेचना में एक नया सिद्धाँत गढ़ दिया। कहा कि इस मध्य प्रगति इतनी तीव्र हुई कि अगला सोपान पिछले की तुलना में एकदम बदल गया, इतना अधिक कि यह अनुमान लगा पाना कठिन हो गया कि दूसरे का आविर्भाव पहले वाले से ही हुआ हो। इस सिद्धाँत का नाम उनने “जम्प थ्योरी” रखा, पर क्रमिक विकास में आदि पूर्वजों को जहाँ-तहाँ छलाँग लगाने की विवशता क्यों आ पड़ी ? इसे बता पाने में वे असफल रहे। वस्तुतः जोड़-तोड़ का विज्ञान का यह पुराना तरीका है। जहाँ बुद्धि आगे काम नहीं करती, वहाँ तुरंत विज्ञानवेत्ता कोई-न-कोई नया सिद्धाँत खड़ा कर देते हैं ऐसा सिद्धाँत जो उनके पुराने मत का समर्थन कर सके। यहाँ भी वैसा ही किया गया, पर ऐसा करते समय कदाचित् वे यह नहीं सोच सके कि विकासवाद की इस प्रक्रिया द्वारा जीवन उत्पत्ति यदि मानी गई, तो उन प्रश्नों का उत्तर दे पाना कैसे संभव होगा, जो समय-समय पर इस संदर्भ में उठाये और पूछे जाते रहे हैं कि पहले कौन हुआ ? अण्डा या मुर्गी ? नर या नारी ? बीज या वृक्ष ?
विकासवादी इन प्रश्नों का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे सकें। सच तो यह है कि जीव उत्पत्ति संबंधी वर्तमान धारणा के आधार पर इन सवालोँ का उत्तर दे पाना कठिन ही नहीं, असंभव भी है। असंभव इसलिए कि मुर्गी के बिना अण्डे की कल्पना नहीं की जा सकती और यदि क्रमिक विकास से मुर्गी आविर्भूत हुई भी, तो बिना मुर्गे के अंडा कैसे पैदा हो ? आकस्मिक प्रक्रिया मुर्गे को कब जन्म देगी ? देगी भी या नहीं ? इसमें सदा संदेह बना रहता है। ऐसा ही संशय नारी-नर एवं दूसरे जीवों के युग्मों के संबंध में पैदा होना स्वाभाविक है। यह भी शक अस्वाभाविक नहीं कि जिस तरह हर प्राणी के जोड़े आज दुनिया में मौजूद, वह सब किसी आकस्मिक प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न हुई हैं ? इसे कोई विवेकशील व्यक्ति शायद ही स्वीकार कर सके। जो भी हो, कुछ क्षण के लिए यदि सृष्टि विकास संबंधी प्रचलित मत को अंगीकार कर भी लिया जाय, तो इस आधार पर वास्तविक आरंभिक मनुष्य (होमो इरेक्टस) का जो समय जीव विज्ञानियों ने निर्धारित किया है, वह दस लाख वर्ष से अधिक नहीं है, जबकि हाल की खोजों से इसका स्पष्ट खंडन होता है। सन् 1960 में अफ्रीका के तीन भिन्न स्थानों में तीन अलग प्रकार के अवशेष मिले। वैज्ञानिक विधि द्वारा जब इनकी आयु आँकी गई, तो प्राप्त उम्र की संगति वर्तमान सिद्धाँत द्वारा निर्धारित वय से किसी प्रकार नहीं बैठी। इससे स्पष्ट है कि सत्य और सिद्धाँत में कहीं कोई भूल अवश्य है, जिसका कारण प्राप्त जीवाश्मों (फोसिल्स) के अध्ययन से धीरे-धीरे स्फुट होने लगा। प्रथम अवशेष केन्या के रुडोल्ड बेसिन में मानवी खोपड़ी एवं कुछ अस्थियों के रूप में प्राप्त हुआ। इसकी आयु वैज्ञानिकों ने 20 लाख 60 हजार वर्ष बतायी। इसका संपूर्ण आकार-प्रकार आधुनिक मनुष्य से एकदम मिलता-जुलता था। एक मात्र खोपड़ी ही ऐसी थी, जो कुछ छोटी थी। द्वितीय गवेषणा दक्षिणी अफ्रीका में स्वाजीलैण्ड एवं नैआल की सीमाओं के बीच एक गुफा के रूप में हुई। इस कंदरा से जो हड्डियाँ पायी गई, वह आधुनिक मानव जैसी थी। इनके अस्तित्व के बारे में विशेषज्ञों का मत है कि वे आज से करीब एक लाख वर्ष ईसा पूर्व कहाँ निवास करते थे। तीसरा प्रमाण तंज़ानिया से प्राप्त हुआ। यहाँ से उपलब्ध हुए नमूनों में मानवी जबड़े और दाँत प्रमुख थे। इनकी आयु 30 लाख 75 हजार वर्ष आँकी गई।
इन साक्षियों से विकासवादियों को गहरा धक्का लगा, कारण कि अनुमान और सबूत में अवधि संबंधी इतना भारी अंतर होगा, इसकी उनने कल्पना तक नहीं की थी। दूसरे, वे इतने विकसित बुद्धि वाले होंगे, इसका भी अंदाज नहीं था, किन्तु अन्वेषण से यह भ्रम दूर हुआ और वे अनुमानित से भी अधिक बुद्धिमान निकले। प्राप्त औजारों से इसकी पुष्टि भी हो गई। उपकरणों में कई ऐसे मिले, जिन्हें देखकर अनुसंधानकर्ता चकित हुए बिना न रह सके। गोमेद पत्थर की बनी सुन्दर कलाकृति युक्त छुरियाँ ऐसी ही थीं। इनकी धार अब भी इतनी तेज थी कि उनसे कागज के टुकड़े आसानी से किये जा सकें। इसके अतिरिक्त उपलब्ध प्रमाणों से यह स्पष्ट विदित होता है कि धर्म के प्रति उनकी दृढ़ आस्था थी और वे मरणोत्तर जीवन पर भी विश्वास करते थे। भारतीयों की तरह उनमें अस्थि विसर्जन की भी प्रथा प्रचलित थी। इसकी पुष्टि बालक की उन हड्डियों से हो गई, जो एक बंद पात्र में पायी गई। विशेषज्ञों का यह सुनिश्चित मत है कि तब उनमें भाषा का विकास हो चुका होगा और उनके बीच कोई-विकसित बोली, बोली जाती होगी। कारण बताते हुए वे कहते हैं कि मरणोत्तर जीवन जैसे गंभीर एवं सूक्ष्म विषय को भाव-भंगिमाओं, मुद्राओं अथवा अर्थहीन ध्वनियों से अभिव्यक्त कर पाना संभव नहीं। यह शक्य तभी हो सकता है, जब विचार-विनिमय संबंधी कोई बोली अथवा भाषा हो। गिनती भी तब प्रचलन में आ चुकी थी, ऐसा विज्ञानों का मानना है।
सन् 1970 में जब दक्षिण अफ्रीका की उक्त गुफा का पता चला, तो एड्रियान बोजियर एवं पीटर व्यूमोण्ट नामक शोधकर्ताओं ने इसका गहराई से निरीक्षण किया। फलस्वरूप लगभग 3 लाख मानव निर्मित वस्तुएँ प्राप्त हुई इसके अतिरिक्त विभिन्न जंतुओं की जली हड्डियां मिलीं। लकड़ी के कोयले युक्त राख की एक पर्त भी पायी गई। इसी के नीचे बालक का कंकाल दबा पड़ा था। वैज्ञानिकों के अनुसार यह दोनों परतें दो भिन्न युगों को निरूपित करती हैं। राख वाली सतह अपेक्षाकृत आधुनिक है। इसकी आय का हिसाब लगाते हुए वैज्ञानिक बताते हैं कि यह करीब 60 से 70 हजार वर्ष ईसा पूर्व की है, जबकि नर-कंकाल युक्त निचली सतह एक लाख वर्ष (ईसा पूर्व) पुरानी है।
इससे पहले तक प्राणि विज्ञानियों के एक वर्ग का अनुमान था कि ईसा पूर्व 75 हजार वर्ष पहले मनुष्य की जिस प्रजाति का अस्तित्व रहा होगा, वह निण्डरथल किस्म (आदि मानव की एक विशेष प्रजाति) का मनुष्य होगा, किंतु गुफा के अन्दर के अवशेष से जो कुछ विदित हुआ, उससे उनकी इस मान्यता को जबरदस्त आघात लगा। अनुसंधानकर्त्ताओं का कहना है कि यह अवशेष निश्चय ही आधुनिक मानव (होमो सेपियंस सेपियन्स) के हैं, जबकि विकासवादी प्रथम वास्तविक मनुष्य (होमो इरेक्ट्स) की उत्पत्ति ही दस लाख वर्ष पूर्व मानते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान स्वरूप को प्राप्त करने में उन्हें कई हजार वर्ष और लगे होंगे। ऐसा अनुमान है कि 35-40 हजार वर्ष ईसा पूर्व के आस-पास ही वे संभवतः आधुनिक रूप को प्राप्त कर सकें हों। मानव विज्ञानियों के हिसाब से भी लगभग इतना ही समय होमो सेपियन्स सेपियन्स के प्रादुर्भाव का हुआ है, जबकि शोधकर्ताओं के अन्वेषणों से इस प्रजाति की उपस्थिति एक लाख वर्ष ईसा पूर्व सिद्ध हो चुकी है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यथार्थ और अनुमान के बीच कोई बड़ी त्रुटि रह गई है। इस संबंध में एक प्रमुख शोधकर्ता बोजियर का कहना है कि हम बंदर को मनुष्य का पूर्वज मान बैठे हैं, यही शायद हमारी सबसे बड़ी गलती है और इसी कारण सबसे बड़ी गलती है और इसी कारण अनुमान तथा प्रमाण के बीच इतना बड़ा व्यतिरेक पैदा हुआ है। वे कहते है कि आधुनिक अनुसंधान में अब तक जितनी वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं, वे अब अनुमान से तीन गुना पुरानी साबित हुई हैं। तीर-धनुष, जिनके बारे में पूर्व उनका विकास हुआ होगा, अब पाषाण तीरों की उपलब्धि से यह स्पष्ट हो गया अस्तित्व में थे।
ऐसे ही अन्य स्थानों से प्राप्त साक्ष्य भी वर्तमान अवधारणा को हतोत्साहित करते हैं। सत्य तो यह है कि हम एक सर्वथा मिथ्या मान्यता अपनाये हुए हैं। इस सिद्धाँत के आधार पर सृष्टि विकास की कभी भी भली - भाँति व्याख्या नहीं की जा सकती। यदि प्राणियों को विकासवादी प्रक्रिया की परिणति कहा गया और मनुष्य को बंदर की औलाद माना गया, तो समुद्र में अब भी अनेक ऐसे जीव (सी अर्जिन, सी, कुकुँबर, जेलीफिश) मौजूद हैं, जिनकी वंशावली तो क्या, पूर्वजों तक का भी पता नहीं है। ऐसे में विज्ञान की यह शाखा अधूरी-असमर्थ ही नहीं, अविश्वसनीय भी साबित होती है। जिस विज्ञान के पास सभी सवालों का तर्क संगत जवाब नहीं, उसके कोई कैसे स्वीकार करे ?
यथार्थता इतनी है कि मानव आरम्भ से ही मानव था और आगे भी वह वही बना रहेगा। इसी स्वर में स्वर मिलाते प्रागैतिहासविद् पीटर ब्यामोण्ट कहते हैं कि हम लाख दुराग्रह पालें और आदमी को बंदर की संतान सिद्ध करें, पर उपलब्ध प्रमाण यह मानने के लिए बाधित ही करेंगे कि वर्तमान धारणा बेबुनियाद ही नहीं, बेतुकी भी है। जैसे-जैसे खोज कार्य आगे बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे इस बात की संभावना भी बढ़ती जा रही है कि आज नहीं तो कल हमें इस तथ्य को स्वीकारना ही पड़ेगा कि मनुष्य शुरू से ही मनुष्य था और बंदर, बंदर। न बंदर से मनुष्य का उद्भव हुआ है, न अमीबा से जीव विकास। यह ठीक है कि आरम्भ में कल्पना की नींव से ही काम चलाना पड़ता है पर वे कहते हैं कि कल्पना का आधार अभी तक मान्य है, जब तक प्रमाण अनुपलब्ध हों। उपलब्ध साक्ष्य के आगे इसका कोई महत्व रह नहीं जाता।
इस प्रकार दृष्टि पसार कर देखा जाय, तो पायेंगे कि हम धीरे-धीरे उसी बिंदु की ओर अग्रसर होते चले जा रहे हैं, जहाँ से इस बात की दृढ़तापूर्वक घोषणा की जा सके कि सृष्टि ईश्वर की संरचना है और यहाँ के प्राणी उसके संकल्प के परिणाम। इस निर्णय से कदाचित् किसी विज्ञानवेत्ता को आपत्ति हो और वह विकासवाद के समर्थन में जिराफ जैसे जंतुओं का उदाहरण सामने रखते हुए यह कहे कि उसकी लंबी गर्दन विकासवादी प्रक्रिया का नतीजा है, तो यह किसी प्रकार स्वीकार्य नहीं होगा। लंबी गर्दन परिस्थिति के दबाव (ऊँचे-ऊँचे वृक्षों की पत्तियाँ खाने के प्रयास में पड़ने वाला खिंचाव) का परिणाम हो सकता है, पर यह बदलाव जर्म सेल (जनन कोशिका) में किस प्रकार पहुँच गया ? यह समझ से परे है। अफ्रीका के जंगलों में रहने वाले जनजाति कबीले के लोग भी अपने अंगों को दबाव और खिंचाव के द्वारा घटाते-बढ़ाते रहते हैं। सिर के ऊपर धात्विक छल्ले कस कर वे उसके स्वाभाविक गोलाकार को लंबा कर लेते हैं। ऐसे ही कानों और होठों में वजन लटका कर उन्हें बड़ा लेते हैं, पर उनके बड़े कान, लटकते होंठ और लंबा सिर उनकी संतानों में नहीं देखे जाते। उनमें उक्त अंग स्वाभाविक आकार के ही होते हैं। अस्वाभाविक रूप देने के लिए उनको वैसा ही उपक्रम अपनाना पड़ता है, जैसा पिता ने अपनाया था। यदि ऐसे उपायों से कायान्तर को संतति में ले जा पाना संभव होता, तो यहाँ भी वैसा होना चाहिए था पर ऐसा होता कहाँ देखा जाता है ? ऐसे में यह अंगीकार कर लेने में ही समझदारी होगी कि जिराफ की लंबी गर्दन प्रकृति प्रदत्त है, वह किसी अभ्यास एवं आदत की फलश्रुति नहीं।
इतना स्पष्ट हो जाने के उपरान्त फिर यह कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि मानव का आदि रूप भी वैसा ही था, जैसा वर्तमान में है और दूसरे जीव भी प्राकट्य के बाद से अपने-अपने आदिम स्वरूप को ही अपनाये हुई हैं। आगे भी वे अपने मूल रूप में बने रहेंगे - इसमें दो मत नहीं। केवल मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है, जिसमें परिवर्तन की संभावना शेष है और विकास की भी गुंजाइश बाकी है, पर यह सब मानसिक स्तर पर ही संपन्न हो सकेगा। उसकी चेतनात्मक प्रगति शुरू से होती आयी है। आगे भी वह जारी रहेगी तब तक जब तक मानव अपने चरण लक्ष्य को प्राप्त न कर ले। यही उसकी अंतिम मंजिल होगी और चेतनात्मक विकासवाद का आखिरी सोपान भी इस सर्वोच्च सोपान पर पहुँचना ही मानवी जीवन का उद्देश्य होना चाहिए ? जहाँ पहुँच कर कही अन्यत्र जाना और कुछ अतिरिक्त प्राप्त करना शेष नहीं रहा जाता। उत्कर्ष के इस बिन्दु पर प्रतिष्ठित होना विकासवादी अवधारणा द्वारा ही संभव है, पर यह अवधारणा चेतनात्मक ही होनी चाहिए पंचभौतिक काया वाली नहीं।