Magazine - Year 1995 - Version 2
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Language: HINDI
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वार्धक्य को सुखमय बनायें
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अपने देश में प्रायः पचपन-अट्ठावन साल की उम्र में सरकार अपने कर्मचारियों को रिटायर कर देती है। इस उम्र में व्यक्ति अपने नाती पोतों को भी खिला लेता है। उसके बच्चे उसका दायित्व सम्भालने योग्य हो जाते हैं। इस आयु में व्यक्ति की शारीरिक क्षमता भी परिवार के जटिल दायित्वों को निभाने में अक्षम हो जाती है। शरीर का स्वास्थ्य उम्र के तकाजे से पहले जैसा नहीं रहता, कोई न कोई शिकायत उठने ही लगती है। ऐसी स्थिति में वृद्ध व्यक्ति दिनों-दिन इस चिन्ता में घुलने लगता है कि वह अपने परिवार के लिये अनुपयोगी और भार स्वरूप हो गया है। किन्हीं बातों में उसे यह भी अनुभव होता है कि बहू ही नहीं, नाती पोते भी उसकी उपेक्षा अवहेलना करने लगे हैं। वह सोचता है कि अब मेरा अस्तित्व शून्य होता जा रहा है।
ये धारणायें जिस वृद्ध व्यक्ति में जन्मने लगती हों और जो अपने अस्तित्व को शून्य होता जा रहा अनुभव करने लगा हो, उसके दृष्टिकोण में कहीं न कहीं गलती जरूर आ रही है। अन्यथा वृद्धावस्था एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति अपने जीवन की समस्त व्यस्तताओं से अवकाश प्राप्त कर लेता है और जिन उपयोगी कार्यों को व्यस्तता के कारण वह कल पर टालता चला आ रहा था उनमें उतर का जीवन का अनदेखा आनन्द उठा सकता है। किसी विचारक ने यह बहुत ठीक ही कहा है कि “वृद्धावस्था जीवन का वह किनारा है जहाँ व्यक्ति समस्त संघर्षों को पार कर तूफानों से गुजर कर पहुँचता है और स्वयं को अधिक शान्त, अधिक सुखी तथा समाज के लिये अधिक उपयोगी बना सकता है।”
यह सच है कि व्यक्ति आजीवन समाज के लिए आवश्यक उन कार्यों को जो लोकमंगल की दृष्टि से करना चाहिए था-पारिवारिक दायित्वों की बोझिलता के कारण नहीं कर पा रहा था, इस अवकाश की आयु में उन कार्यों में लग कर जीवन रस को बदल सकता है। प्राचीन काल में प्रचलित वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की व्यवस्था का भी यही उद्देश्य था जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ज्ञानार्जन और अपनी क्षमताओं का विकास, तदुपरान्त पारिवारिक जीवन में प्रवेश और गृहस्थ के दायित्व का ग्रहण आधी आयु तक वैयक्तिक और पारिवारिक जीवन में अनेकानेक अनुभव प्राप्त हो जाते हैं। जब बच्चे अपना दायित्व सम्हालने योग्य हो जाय तो परिवार की ओर से निश्चित ही कर समाज का कार्य करना चाहिए। फिर समाज उनकी आवश्यकताओं को पूरा करता और उनके भविष्य की संरक्षण देता है।
यह व्यवस्था जब से लुप्त हुई और समाज का ढाँचा बदला तब से वृद्ध व्यक्तियों के सामने अपने वर्तमान के निर्वाह, भविष्य की सुरक्षा और प्रतिष्ठा को बनाये रखने की समस्या उत्पन्न हो गयी है। वृद्ध काल को जीवन का प्रशान्त किनारा कहा जरूर गया है और वह उतना सच भी है पर व्यक्ति इस किनारे पर जितना व्यग्र चिंतित और निराश हो कर उतरता है-लगता है उन्होंने अपने जीवन को बिताने में, इस किनारे पर उतरने से पहले ही कोई त्रुटि कर दी है और वे इस किनारे पर उतरना नहीं चाहते लगता है जबरन ही उतारे जा रहे हैं। जबरन उतारे जाने का अर्थ यह है कि परिवार के जो दायित्व उन पर निर्भर नहीं करते, वे उन्हें ओढ़े रहना चाहते हैं। उदाहरण के लिये वे चाहते हैं कि उनके बच्चे अब भी उनका आदेश उसी प्रकार मानें जिस प्रकार कि छोटी आयु में मानते थे। वे कहे तो खायें, वे कहें तब सोये और वे कहें तब जागें। अर्थात् उनकी आज्ञाओं का अनिवार्य रूप से पालन किया जाय जब उनकी संतान ज्ञान और अनुभव की दृष्टि से शून्य थी तब पिता के स्निग्ध संरक्षण और मार्ग दर्शन की आवश्यकता आज्ञाकारिता की अपेक्षा रखते हुए पूरी की जाती रहे, यही ठीक था। पर इस उम्र में जबकि उनकी संतानें भी माता-पिता बन चुकी हैं और वे अपनी संतानों के प्रति वही दायित्व निभा रहे हैं जो कभी उनके आज के वृद्धों ने निभाये थे, जब उनसे वह अपेक्षा करना कि वे पूर्ववत् ही आज्ञाकारी रहें, अत्युक्तिपूर्ण है। लकीर के फकीर बनने की आशा वयस्क संतानों से करना गलत है। जबकि वृद्ध व्यक्ति अपने अहं की तुष्टि उसी में देखता है और किसी कारण उचित न लगने के कारण वयस्क पुत्र-पुत्रियाँ वृद्ध माता-पिता के निर्देशों का अक्षरशः पालन नहीं करते तो वे अपनी उपेक्षा निरादर होता अनुभव करने लगते हैं।
सारा दोष वृद्धजनों का ही है यह नहीं कहा जा रहा है। वृद्ध व्यक्तियों को अपनी समस्या का स्वयं हल करने के उद्देश्य से पहले अपने दृष्टिकोण और व्यवहार में परिवर्तन करना चाहिए जहाँ उचित हो वहाँ परामर्श दें, आज्ञा नहीं। क्योंकि युवा पुत्रों को भी अपना अस्तित्व बोध होने लगता है और वे परामर्श के रूप में ही अपने माता-पिता की बातों को स्वीकार कर सकते हैं। यों तो वयस्क संतानें स्वयं ही यह अपेक्षा करती हैं कि वह अपने वृद्ध अभिभावकों के अनुभवों से लाभ उठाये उनके संचित ज्ञान और निष्कर्षों का प्रयोग स्वयं भी करें। पर वह ग्रहण उसी दिशा में किया जा सकता है जबकि परामर्श के रूप में दिया गया हो। इस तथ्य को ऋषि महर्षियों ने पहले ही अनुभव कर लिया था। शास्त्रकारों ने कहा भी है कि युवा पुत्र से पिता, मित्र की तरह व्यवहार करें।
सामान्यतः वृद्धावस्था के सम्बन्ध में यह कल्पना की जाती है कि उस समय हम परवश हो जायेंगे, हमारा कोई आर्थिक आधार नहीं रहेगा, परिवार के लिये हम महत्त्वहीन हो जायेंगे। आदि-आदि बातें जो वृद्ध आयु के सम्बन्ध में सोची जाती हैं निराधार और भ्रामक होती हैं। बार-बार उनकी पुनरावृत्ति हो उन्हें समस्या बना देती है जैसे कि सोचा जाता है हम परवश हो जायेंगे इसका मतलब है कि व्यक्ति का आत्म विश्वास टूटने लगता है। आत्मविश्वास एक ऐसी शक्ति है जो अनायास और स्वयं के अतिरिक्त किसी अन्य द्वारा छीनी ही नहीं जा सकती बल्कि उसे स्वयं ही खोया, फेंका जाता है। परवश होने की आशंका के स्थान पर वह व्यक्ति यह उज्ज्वल पक्ष बार-बार ध्यान में लाये कि मेरे अनुभवों से लाभ उठाने के लिये अब मेरे बेटे पोते या पास पड़ोस के व्यक्ति मुझसे और अधिक आशा पूर्वक अपेक्षा करेंगे। तो परवशता के स्थान पर मार्ग दर्शन की एक नयी क्षमता का विकास होगा।
वृद्ध आयु को समस्याग्रस्त बनाने का मूल कारण है। निराशावादी चिंतन। शरीर साथ नहीं देगा तो शरीर के साथ की बात युवावस्था में भी किसी के लिये निश्चित और अटल संभावना नहीं है। कब कोष्ठ रोग आ घेरे, कब कौन दुर्घटना हो जाय, कब प्राण पखेरू उड़ जाय इसका निश्चित पता ठिकाना युवावस्था और बाल्यकाल में भी कहाँ रहता है? लेकिन उस समय आशावादी और उज्ज्वल पक्षों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखने के कारण उत्साह बना रहता है। यह भी तथ्य है कि निराशा तथा अवसाद, युवावस्था में भी आक्रमण कर दें तो उस समय उत्साही से उत्साही युवक भी निरुत्साही और वार्धक्य के शिकार हो जाते हैं।
सुनी सुनायी बातें और बनी बनायी धारणायें व्यक्ति को उत्तरकाल में साहसहीन बना देती हैं, साथ ही निराश भी। नयी परिस्थितियाँ भया वह रूप इसी कारण ले लेती हैं। अन्यथा बचपन से किशोर में और किशोर से यौवन में प्रवेश करते समय भी परिस्थितियाँ बदली थीं तब तो इतनी चिंता नहीं हुई थी। एकाकी जीवन का छोड़कर परिवार बसाने, पत्नी के साथ रहने की घड़ियों में भी परिस्थितियाँ बदली तब मनोबल क्यों नहीं टूटा? एकमात्र कारण है उन अवस्थाओं के सम्बन्ध में ऐसी कोई धारणा प्रचलित नहीं है जैसी कि वृद्धावस्था के सम्बन्ध में। उन धारणाओं की पुष्टि करते हुए ही व्यक्ति अपना साहस, अपनी आशा और अपना उत्साह खोने लगता है।
वृद्धावस्था को सुख पूर्वक व्यतीत करने के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है कि इस सम्बन्ध में प्रचलित पूर्व धारणाओं, और भ्रामक विचारधाराओं का शिकार न हुआ जाय। तथ्य और वस्तुस्थिति को विवेकपूर्ण दृष्टि से ग्रहण करने पर व्यक्ति का सामान्य साहस, आत्म विश्वास और भविष्य के प्रति आस्था मजबूत होती है तथा उसकी आशा, उत्साह और संजीदगी को बल मिलता है। तदुपरान्त बदलती हुई अवस्था के साथ बदलती परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढालने का प्रयत्न किया जाय तो वृद्धावस्था में वह आनन्द उठाया जा सकता है जो पिछले समूचे जीवन में कभी मिला नहीं।
वृद्धावस्था को सुख पूर्वक व्यतीत करने के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है कि इस सम्बन्ध में प्रचलित पूर्व धारणाओं, और भ्रामक विचारधाराओं का शिकार न हुआ जाय। तथ्य और वस्तुस्थिति को विवेकपूर्ण दृष्टि से ग्रहण करने पर व्यक्ति का सामान्य साहस, आत्म विश्वास और भविष्य के प्रति आस्था मजबूत होती है तथा उसकी आशा, उत्साह और संजीदगी को बल मिलता है। तदुपरान्त बदलती हुई अवस्था के साथ बदलती परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढालने का प्रयत्न किया जाय तो वृद्धावस्था में वह आनन्द उठाया जा सकता है जो पिछले समूचे जीवन में कभी मिला नहीं।