Magazine - Year 1995 - Version 2
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Language: HINDI
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विशेष संदर्भ गायत्री जयन्ती महाप्रयाण दिवस - हिमालय जैसी विराट सत्ता के चरणों में श्रद्धा-सुमन
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एक अकिंचन और अकेले व्यक्ति ने अपने एकाकी प्रयास से इतना बड़ा संगठन कैसे खड़ा किया? आज इसे एक आश्चर्य माना जाता है और यह प्रश्न प्रायः प्रत्येक नवागन्तुक के मन में उठता है, जो स्वाभाविक भी है। इसे यदि उस महापुरुष की सिद्धि कहें, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी,, पर यदि इसका लौकिक आधार ढूँढ़ना हो, तो पूज्य गुरुदेव के पिता जैसे प्यार और वंदनीय माता जी के माँ जैसे दुलार को ही प्रमुख मानना पड़ेगा। जो व्यक्ति एक बार उनसे मिल लिया, वह उन्हें आजीवन भूल नहीं पाया और सदा सर्वदा के लिए उनका ही बन कर रह गया किसी अत्यन्त निकट सम्बन्धी जैसे हर एक से बातचीत करना, घर-परिवार के बारे में पूछना, समस्याओं का ब्यौरा लेना और एक-एक का विशेषज्ञों की भाँति समाधान सुझाना-यह उन जैसे महापुरुष की ही विशेषता हो सकती है, पर जहाँ साधनों से सहायता की आवश्यकता पड़ी, वहाँ भी वे पीछे नहीं रहे, दीन-दुखियों गरीबों-असहायों की खुल कर उनने मदद की। इस संदर्भ में यहाँ एक घटना का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा।
घटना तब की है, जब गुरुदेव मथुरा में निवास कर रहे थे। उन्हीं दिनों एक रोज एक महिला अपने सर्वथा कमजोर व क्षयरोग से ग्रस्त पति का इलाज कराने हेतु चली आ रही थी, पर दुर्भाग्यवश अस्पताल में कोई भी बिस्तर खाली नहीं था, अतः डॉक्टरों ने भर्ती करने से इनकार करते हुए उसे कुछ दिन तक इन्तजार करने को कहा। महिला बिलकुल अकेली थी। जान-पहचान भी उस क्षेत्र में किसी से नहीं थी और न आस-पास कोई सगा-सम्बन्धी ही था। वह किंकर्तव्यविमूढ़ थी और परेशान भी। ऐसी स्थिति में अपने पति को पीठ पर लादे वह तपोभूमि के सामने से चली जा रही थी कि उसने रिक्शे से पूज्य गुरुदेव को उतरते देखा। उनने आज के युग की इस सावित्री की वेदना को समझा व उसे अपने साथ चलने को कहा व उसका नाम ‘सावित्री’ से ही पुकारते हुए वंदनीय माता जी से कहकर उस घीयामण्डी में ही निवास पर ही उसकी व्यवस्था कर दी और न सिर्फ ठहरने की, वरन् भोजन आदि का भी प्रबन्ध कर दिया। दो-चार दिन बाद जब अस्पताल में बैड खाली हुआ तो फिर वह वहाँ चली गयी, किन्तु इस दौरान गुरुदेव द्वारा किये उपकार और दिखायी आत्मीयता को वह नहीं भूल पायी। रह-रह कर उस देवपुरुष के दर्शन की अभिलाषा बराबर सताती रही, जिसने मौके पर उसकी सहायता की थी, पर विवशता जो थी, अपने बीमार पति को छोड़ वह कैसे आ सकती थी? आखिर कुछ दिनों बाद उसके पति को अस्पताल से छुट्टी मिली, तो वह दर्शन के लोभ का संवरण न कर सकी और दौड़ी-दौड़ी चली आयी पूज्य गुरुदेव से मिलने। अब वह एक भक्त ही नहीं समर्पित कार्यकर्ता भी बन गयी थी।
ऐसी थी उनकी प्रेम भरी आत्मीयता जो पतंग और पतंगबाज के परस्पर सम्बन्ध की तरह लोगों को अदृश्य स्नेह-सूत्र में बाँध लेती थी। इस स्नेह-बन्धन में उनकी चिरसंगिनी स्नेह सलिला माता जी का अनन्य योगदान रहा है। आगन्तुकों को अपने हाथों से खाना बना कर, परोस कर अपने सम्मुख बिठाकर प्यार से खिलाना, भले ही कितनी ही रात को परिजन क्यों न आये हों। इस क्रम में ऋषि-युग्म एक बात का विशेष ध्यान रखते थे कि स्वयं कष्ट भले ही उठा लें, पर आने वाले को किसी प्रकार की कठिनाई न होने पाये इसका बराबर ख्याल रखते थे। जहाँ मातृत्व भरा समन्वय हो, भला व्यक्ति उसे कैसे भुला सकता है? प्रत्यक्ष मिलन के बाद सम्बन्ध सूत्र को पत्राचार के माध्यम से यथावत् बनाये रखा जाता अथवा यों कहा जाय कि उसे और प्रगाढ़ बनाने के लिए पत्र व्यवहार का सिलसिला आरम्भ होता। परिजन इस प्रकार से चिट्ठी लिखते, मानो वह अपने सगे माता-पिता के सामने दिल को अनावृत्त कर रहे हों। ऐसी बातें जिसे अपने सगे सम्बन्धी के सामने प्रकट करने में संकोच या झिझक होती, उन्हें वे दिल खोल कर लिखते उनका उत्तर भी पूज्य गुरुदेव की ओर से इतना स्नेह भरा आता, जिसे पढ़ कर आनन्द से उनकी आंखें भर आतीं और प्रायः लोग सोचते कि ऐसा क्या भी हो सकता है। कोई सर्वथा पराया व्यक्ति इतना प्यार लुटा सकता है? पर सच्चाई तो हस्तामलकवत थी, उसे झुठलाया कैसे जाता! पत्र की पहली ही पंक्ति-आत्मस्वरूप लोगों को भाव-विभोर बना डालती और एक ऐसे स्नेह पाश में बाँध लेती, जो कदाचित् ही टूटता। फिर पत्रों के माध्यम से मार्गदर्शन का क्रम आरम्भ होता। यह मार्गदर्शन विभिन्न विषयों से सम्बन्धित होता यथा आत्मिक उन्नति के लिए साधना का निर्धारण, व्यक्तिगत एवं पारिवारिक समस्याओं का निराकरण तथा अपने कुछ समय निकाल कर लोक मंगल हेतु उसका नियोजन। इतना ही नहीं, वे लोगों के स्वास्थ्य का भी पूरा-पूरा ध्यान रखते और जिन्हें आवश्यक समझते उनके पास वे विशेष बलपूर्वक स्वनिर्मित जड़ी-बूटियों का रसायन भी भेजते। यदा-कदा यदि कोई बीमार और अशक्त परिजन मथुरा उपस्थित नहीं हो पाता, और दीक्षा का आग्रह करता डाक द्वारा दीक्षा की सामग्री, जिसमें रोली, कलावा-चन्दन अक्षत, माला, आदि सम्मिलित होते, उसे भेज कर एक निश्चित मंगल तिथि बता देते और उक्त दिन उपवास रख कर उन्हें धारण कर लेने को कह देते। यही परिजन के लिए उनके द्वारा दी गयी दीक्षा होती। कष्ट कठिनाइयों में उनका सूक्ष्म संरक्षण और सहायता मिलती,, सो अलग। जहाँ इतना अपनत्व दिखाया जा रहा हो, वहाँ लोगों का जुड़ना उसका और संगठनात्मक स्वरूप ग्रहण करना स्वाभाविक ही था, हुआ भी ऐसा ही।
यों तो मिशन का सूत्रपात उसी दिन हो गया था जिस दिन गुरुदेव 1926 में हिमालयवासी दिव्य सत्ता से साक्षात्कार हुआ था, पर प्रकट रूप में इसकी आधारशिला सन् 1940 की बसंत पंचमी पर ही रखी गई, जब से अखण्ड-ज्योति पत्रिका का नियमित प्रकाशन आरंभ हुआ एवं धर्मतंत्र से लोकशिक्षण की प्रक्रिया का शुभारम्भ। यह योजना उनके दिमाग में बहुत पहले ही बन चुकी थी कि आगे चलकर उन्हें नव निर्माण योजना की विशाल मुहिम खड़ी करनी है और उसके माध्यम से व्यक्ति एवं समाज को दिशा देनी है। अतः इसके अनुरूप पात्रता का विकास भी उन्होंने आवश्यक समझा, क्योंकि इसे वे भली−भाँति समझते थे कि जब तक संचालक का व्यक्तित्व खरा और प्रामाणिक नहीं होगा, तब तक कोई बड़ा संगठन खड़ा करने की आशा दुराशा मात्र ही होगी। इस बात की सच्चाई वे भूतकालीन एवं गाँधी जी जैसे समकालीन व्यक्तियों के जीवन में भी देख-समझ चुके थे। अतः उन्होंने वरीयता एवं अनिवार्यता को समझते हुए स्वयं को साधना और तपश्चर्या की अग्नि में तपा कर खरे सुवर्ण की भाँति प्रामाणिक प्रखर बनाया, ऐसा जिसका अन्दर बाहर एक-सा हो, कथनी और करनी में एकरूपता हो। आज कल अधिकांश संगठन इसलिए असफल हो जाते हैं, क्योंकि संचालक का व्यक्तित्व इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता। वे जैसा कहते हैं, वैसा करते नहीं अथवा बाहर से जैसा उपक्रम अपनाते देखे जाते हैं भीतर से उनका व्यक्तित्व वैसा होता नहीं। गुरुदेव इस व्यतिरेक से बचे और हर क्षण मनसा-वाचा कर्मणा में अटल एकरूपता के साथ-साथ ब्राह्मणत्व जीवन में कैसा उतारा जाता है। प्रस्तुत कर रहे। जहाँ इतनी विश्वसनीयता, एकरूपता व प्रामाणिकता हो, उसके एक इशारे पर जन-समूह और जनसहयोग का इकट्ठा होना क्यों असंभव होना चाहिए? क्यों कठिन होना चाहिए?
हुआ भी ऐसा ही। उनके इशारे भर की देर थी, और देखते-देखते विशाल साधना सुविधा युक्त सृजन सेनानी चतुरंगिणी सेना की तरह आ जुटे। भौंरे भी उन्हीं फूलों के आस-पास मंडराते हैं, जो सुवासित होते और सुगन्ध बिखेरते हैं। सर्वथा गंधहीन और दुर्गन्धयुक्त फूलों से तो वे भी किनारा काट जाते हैं, फिर परम पूज्य गुरुदेव के सम्बन्ध में ही ऐसा क्यों होता? वे तो मलयानिल की तरह अपनी खुशबू यत्र-तत्र-सर्वत्र दसों दिशाओं में बिखेर रहे थे, जिससे खिंची-घिसटती उच्चस्तरीय आत्माएँ अनायास उनकी मादकता के वशीभूत हो चली आ रही थी। यह क्रम उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक तथा उसके बाद भी चलता रहा है।
इस दिशा में जो और माध्यम उनके चिरसहचर रहे, वह थे उनकी प्रखर लेखनी और ओजस्वी। लेखनी ने जहाँ मुर्दों में प्राण फूँकने जैसा काम किया, वहीं उनकी वाणी ने दृश्य-श्रव्य माध्यमों से सम्मोहन जैसी स्थिति पैदा कर दी। लेखनी एक और सुषुप्तों को झकझोरती-जगाती रही, तो वाणी जाग्रतों को अपनी ओर खींचती, बुलाती और मिलती रही। यही कारण है कि 50 वर्ष की
स्वल्पावधि में भी उनने इतना बड़ा संगठन खड़ा कर दिया, जिसे अभूतपूर्व और ऐतिहासिक ही कहा जा सकता है। इसके पीछे उनके हिमालय जैसा विराट् और सागर जैसा विशाल व्यक्तित्व और कर्तव्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका मानी जाय तो कोई अतिरंजना नहीं होगी।
दोनों ही किशन के संस्थापक संचालक हमारे बीच प्रत्यक्षतः नहीं हैं आज यह बात निश्चित ही मन को सालती है, पीड़ा पहुँचाती है, पर हृदय के इस संताप में स्वाति की शीतल-वर्षा तभी हो पायेगी, जब हम उनके कथनानुसार उनके कार्य को अग्रगामी बनाने में प्राणपण से निरन्तर जुटे रह कर उनका वह स्वप्न साकार कर पायेंगे, जिसके लिए उन्होंने मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की कल्पना की थी। यही हमारी उनके प्रति सच्ची, श्रद्धांजलि होगी। आज गुरुसत्ता के महाप्रयाण की पावन वेला (2 जून गायत्री जयंती 1990) में यदि उनके प्रति श्रद्धा यही संकल्प बनकर उतरे तो आगामी छह माह जो प्रथम पूर्णाहुति (आँवलखेड़ा, आश्वमेधिक अनुष्ठान) के प्रयाज के हैं, में हमारे सक्रियता वह सब दिखा कर सकती हैं जिसकी कि अपेक्षा उनने हमसे रखी है।