Magazine - Year 1996 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
यह दिवा-स्वप्न नहीं, ‘काल’ का लीला -सन्दोह है।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
आइन्स्टाइन ने जब सापेक्षवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित किया और विश्व के रूप और उसकी क्रियाओं को गणित के आधार पर सत्य सिद्ध किया, तब से विज्ञान जगत में यह चर्चा उठ खड़ी हुई कि भूतकाल की घटनाओं को फिर से असली रूप में देखा जा सकना सम्भव है क्या? इससे पूर्व भूतकालीन घटनाओं के सम्बन्ध में मान्यता थी कि एक बार घट चुकने के बाद वे सदा के लिए समाप्त हो जाती है पर आइन्स्टाइन ने पहली बार इस संदर्भ में एक नवीन तथ्य प्रतिपादित किया कि घटनाक्रम भले ही समाप्त हो चुके हो पर उनकी तरंगें विश्व - ब्रह्माण्ड में फिर भी विद्यमान रहते हैं और यदि किसी अन्य लोक के निवासी के पास उपयुक्त साधन हो तो उनके ही सामने घटित हो रहे हों।
इस सिद्धान्त के आधार पर कुछ विज्ञानविदों ने रेडियो और टेलीविजन के सम्मिलित स्वरूप जैसे एक ऐसे यंत्र की कल्पना की थी, जिसकी सुई को यदि पीछे भूतकाल की ओर खिसका दिया जाय तो पर्दे पर सुदूरभूत के दृश्य उभरने लगें, किन्तु यह कल्पना साकार रूप में नहीं पा सकी। हां इतना अवश्य हुआ कि इसके बाद से इस बारे में विभिन्न प्रकार के सिद्धान्त प्रतिपादित किया जाने लगे और यह कहा जाने लगा कि काल अवरोध को लांघ सकना एकदम असम्भव नहीं है। मूर्धन्य विज्ञानवेत्ता जोन फोरमैन अपनी पुस्तक ‘दि मास्क ऑफ टाइम’ में इस संसार में है नहीं । यह तो मन की विभिन्न अवस्थाएं हैं मन ही समय को तीन खण्डों में बाट लेता है। समय-बोध की यह उसकी अपनी शैली है। यदि पदार्थ जगत से किसी प्रकार चेतना जगत में प्रवेश पाया जा सके, तो यह स्पष्ट अनुभव किया जा सकेगा कि वहां भौतिक जगत की तरह काल-विभाजन जैसा कुछ भी नहीं है। वहां समस्त घटनाएं इकट्ठी देखी जा सकती है । ऐसी स्थिति में उन्हें भूत, वर्तमान अथवा भविष्यत् जैसा नामकरण देने का कोई अर्थ और औचित्य रह नहीं जाता।
एस॰ ग्रीबिन अपनी रचना “टाइम वार्प्स’ में जे0 फोरमैन का समर्थन करते हुए कहते हैं कि समय के दूसरे आयाम में काल के तीनों खण्ड साथ-साथ रहते हैं। और उस भूमिका में पहुंच सकना सैद्धान्तिक रूप से सम्भव है उनका कहना है कि यहां उन आयामों द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है जो हमें ज्ञात है अर्थात् लम्बाई, ऊँचाई और गहराई। इन तक ऐ प्रारम्भिक बिन्दु द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है एक ऐसा बिन्दू , जिसमें स्थान तो होता है पर आयाम नहीं।
‘ आउटर टाइम‘ नामक अपने ग्रन्थ में एम बुल्फ लिखते हैं कि पदार्थ जगत में सरलता के लिए ‘समय’ को तीन खण्डों में बाँट दिया गया है। पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। यथार्थ में ‘समय’ एक अविच्छिन्न और अखण्ड प्रवाह है इसीलिए अंग्रेजी में इसे ‘टाइम कन्टिन्यूअम’ (ञ्जद्बद्वद्ग ष्टशठ्ठह्लद्बठ्ठह्वह्वद्व) कहा गया है बोलचाल की भाषा में जब इसके किसी खण्ड में प्रवेश की बात कही जाती है तो वस्तुतः वह सम्पूर्ण समय ही होता है जिसमें अनागत
विगत और वर्तमान तीनों ही साथ-साथ विद्यमान होते है? यह बात और है कि एक साथ सम्पूर्ण समय से सम्बन्धित दृश्यों और घटनाओं को हम नहीं देख पाते पर रहते सब साथ - साथ ही है वे कहते हैं भूत और भविष्यत् को नहीं देख पाने का एक ही कारण है कि वे अति सूक्ष्म अवस्था में अवस्थान करते हैं जो हमारी स्थूल आंखों की दृश्य सीमा से परे होता है ठीक उसी प्रकार जिस तरह कठपुतली के नृत्य में पुतलों से बंधे धागों के न दीख पड़ने से दर्शकों को यह भ्रम हो जाता है कि निर्जीव काठ के पुतले आप -ही - आप नाच रहे हो। पतंग का धागा पतंगबाज के हाथ में होता है। पर दूर से देखने वालोँ को पतंग निराधार उड़ती दिखाई पड़ती है यही बात विगत और अनागत काल खण्डों के सम्बन्ध में भी है। संक्षेप में कहना हो तो यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार स्थूल काया में सूक्ष्म और कारण सत्ताएँ साथ-साथ गुथी होती है वैसे ही वर्तमान के साथ भूत और भविष्यत् काल भी परस्पर लिपटे होते हैं। इन्हें देखने के लिए सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता पड़ती है दिव्यदृष्टा पुरुष चूंकि इस विभूति से सम्पन्न होते हैं अस्तु वे दृष्टि -निक्षेप मात्र से ही हर किसी का अनागत, विगत और वर्तमान जान लेते हैं। इसके लिए उन्हें कुछ विशेष करने और कही अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती , सिर्फ दृष्टि को सूक्ष्म और विकसित कर लेना पड़ता है। इतना करते ही उन्हें किसी व्यक्ति वस्तु और स्थान से सम्बन्धित सम्पूर्ण समय(भूत, वर्तमान और भविष्य) अनायास ही प्रतिभासित हो उठता है विज्ञान इसी को दूसरे ‘टाइम जोन’ समानान्तर संसार’ ,’ पृथक आयाम’ जैसी भूमिकाओं में प्रवेश की संज्ञा देता है।
मूर्धन्य फ्रांसीसी दार्शनिक हेनरी लूईस बर्गसाँ ने अपनी चर्चित कृति ‘टाइम एवड फ्री विल’ में उसे ही ‘टाइम-जोन’ में पहुंचकर भविष्य की झांकी करने सम्बन्ध एक घटना का उल्लेख किया है वर्णन के अनुसार पेरिस के निकटवर्ती गांव में विमबैक नामक एक किसान एक दिन अपने खेत में काम कर रहा था। बहुत अधिक थक जाने के कारण थोड़ा विश्राम करते लगा। अचानक उसने देखा उसके खेत में एक भव्य भवन है उसके सामने घास का एक सुन्दर मैदान है मैदान के बांयी ओर रंग -बिरंगे फूलों का आकर्षक उद्यान है उद्यान के एक किनारे अख़रोट एवं सेब के कई वृक्ष लगे है? यह सब कुछ चारों ओर से ऊँची दीवार से घिरा हुआ हैं सामने एक विशाल फाटक था उसके बाहर कई गाड़ियां खड़ी थी। कुछ लोग वहां खड़े आपस में बाते कर रहे थे। तभी वह विशाल गेट खुला और उसमें से व्यक्ति बाहर आया। देखने से वह वैभवशाली प्रतीत होता था। सभी ने उसका अभिवादन किया, फिर सब अपनी-अपनी गाड़ियों में बैठकर उसके साथ चले गये। तत्पश्चात् सब कुछ सामान्य हो गया। अब वहां कोई इमारत थी, न पेड़-पौधे केवल उसका वह फार्म था, जिसमें काम कर रहा था। विमबैक को कुछ भी समझ में नहीं आया कि अभी-अभी जो कुछ उसने देखा, वह कोई स्वप्न था या आँखों का भ्रम।
लगभग एक वर्ष बाद उसको अपने इस दिव्य -दर्शन की बात याद आती है। अब उसकी समझ में आया कि वह कोई भ्रांति नहीं वरन् एक भविष्य दर्शन था। उक्त फार्म उससे पेरिस के एक उद्योगपति ने खरीद लिया था और उसमें हू-ब-हू वैसा ही महल बनवाया, जैसा उसने दिव्य-दर्शन में देखा था। वैसा ही बगीचा , फलों के वही सब पेड़ उसी कार का भव्य फाटक और यहां तक मालिक भी वही व्यक्ति था, जिसे उसने उक्त झांकी के दौरान देखा था।
इसी प्रकार की एक घटना की चर्चा डॉ0 गोपनीय कविराज ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति और साधना ‘ (द्वितीय खण्ड ) में की है प्रसंग एक उच्चस्तरीय साधक का है। जो साधना के दौरान एक भिन्न ‘टाइम-जोन- में विचरण करने लगता था। पर यह बात नहीं कि इस मध्य उसे अपना स्थूल अस्तित्व विस्मित हो जाता है उसे इसकी भिज्ञता बराबर बनी रहते और बीच-बीच में उसी परीक्षा भी करता रहता । वर्णन इस प्रकार है-
उक्त साधक मध्यरात्रि में साधना किया करता था। साधना के लिए जब वह आसन पर बैठता, तो थोड़ी ही देर में अत्यन्त स्निग्ध और उज्ज्वल प्रकाश पुँज से वह घिर जाता और इसके साथ ही उसे ऐसा प्रतीत होने लगता जैसे वह किसी अपरिचित स्थान में पहुंचकर एक नूतन एवं अज्ञात मार्ग में धवल चाँदनी में चल रही हों। ज्योत्सना खूब तीव्र और प्रखर थी। पर वह सूर्य किरणों की तरह ऊष्मा युक्त एवं कष्टकारक नहीं थी। उसमें चांदनी से भी अधिक शीतलता और उज्ज्वलता थी, इतनी कि सब कुछ दूर-दूर तक स्पष्ट रूप से देखा जा सके और पुस्तक भी आसानी से पढ़ी जा सके।
उस प्रकाशमय राज्य में एक शुभ्र अट्टालिका बनी थी। उधर आने के लिए मानों उसे कोई मौन प्रेरणा देता पर उस विशाल दूरी के आगे साधक कुछ असमंजस में पड़ गया किन्तु फिर भी वहां पहुंच गया। वह कैसे पहुंचा चलकर या बैठे-बैठे स्वतः? उसकी कुछ समझ में नहीं आया। वहां पहुंचने पर उसके मन में विचार उठा कि क्या वह सचमुच साधना के आसन से उठकर यहां इस अविज्ञात स्थान में आ गया है? यह प्रश्न उठते ही उसके आसन को टटोल कर देख, मालूम पड़ा कि वह थिवत् अपने स्थान और आसन पर विराजमान है। वह सम्पूर्ण रूप से चैतन्य है। यह समाधि अवस्था भी नहीं है उस दिन की यात्रा यही समाप्त हो गई।
दूसरी रात पुनः साधना के दौरान साधक उसी प्रकाश लोक में पहुंच गया। सामने शुभ्र स्फटिक निर्मित वह भव्य भवन था। भवन इतना आकर्षक था कि वह उसे लिपिबद्ध करना चाहता था। इस हेतु आज पहले से ही अपने पार्श्व में कागज, कलम लेकर बैठा था। भवन पर एक विहंगम दृष्टि डाली और उसका वर्णन कागज में संजोने के लिए कलम उठायी। यह उपक्रम करते ही धीरे-धीरे वह दिव्य प्रकाश और भवन तिरोहित हो गये। उसे ज्ञात हुआ कि उसने अनुचित किया।
अगली रात पुनः वह उस मन्दिर के निकट पहुंचा और उसकी सीढ़ियों में जा बैठा। मन्दिर के चारों ओर बड़े-बड़े स्तम्भ थे । उनके बीच-बीच में कमल फूल की पंखुड़ियां लगी थी। कुल मिलाकर दृश्य अत्यन्त अद्भुत था। मन्दिर के अन्दर की कोई भी वस्तु बाहर से दिखाई नहीं पड़ती थी बाहर से उसे विदित होता था जैसे दरवाजे पर कोई श्वेत पर्दा पड़ा हो कई दिनों के इन्तजार के उपरान्त पर्दा बीच से खुल गया और उसमें से एक अत्यंत लावण्यमयी षोडशी बाहर आयी। उसने साधक से भीतर आने के लिए कहा साधक यंत्रवत अन्दर प्रवेश कर गया। फिर दोनों के मध्य देर तक वार्तालाप हुआ। साधक अपने गुरु के दर्शन की तीव्र इच्छा रखता था वह बार-बार उस देवी से अपने आराध्य देव के दर्शन करा देना का आग्रह करता और और देवी पुनः-पुनः उसे आश्वस्त करती हुई कहती -अधीरता त्यागो और शान्त एवं स्थिर बनो दर्शन अवश्य होगे। पर साधक में इतना धैर्य नहीं था, कि वह इन्तजार कर से उसने मन्दिर का परित्याग कर दिया। बाहर निकला तो देखा कि पवित्र के दोनों और छोटी-छोटी वेदियों में कितने ही लोग ध्यानस्थ थे कदाचित् यह सभी अपने कोई-न-कोई मनोरथ की पूर्ति के निमित्त यहां समाधिस्थ थे।
मन्दिर एक पर्वत के निकट नदी किनारे बना था। नदी में जल प्रवाहित हो रहा पर उसमें कल-कल ध्वनि नहीं थी। वृक्षों पर कितने ही पक्षी थे, किन्तु सब मानो मौन थे। वायु बहती थी परन्तु उसके बहने से वृक्षों की टहनियों ओर पत्ते की आवाज नहीं होती थी। वहां बातचीत के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती दृष्टि निक्षेप से ही एक दूसरे का भाव ज्ञान हो जाना
इसी प्रकार के कितने ही विचित्र और विलक्षण अनुभव उक्त साधक को साधना के दौरान उस नये आयाम में हुए उसमें से सम्पूर्ण का वर्णन करना न तो यहां अभीष्ट है न आवश्यक । उद्देश्य मात्र यहां इतना बनाना है कि इस स्थूल जगत की तरह कितने ही सूक्ष्म लोक है जो सब भौतिक संसार से एकदम स्थूल शरीर से कहा जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।
अपने स्थान में रहते हुए ही उन लोकों में प्रवेश पाया जा सकता है। इन लोकों को कितनी ही श्रेणियां है। सब की अपनी-अपनी अद्भुतताएं और विचित्रताएं हैं इन्हीं में से एक वह है जिसमें व्यक्ति वस्तु एवं स्थान से सम्बन्धित भूत और भविष्य की जानकारी अर्जित की जा सकती है। जब कभी व्यक्ति अनायास अथवा प्रयासपूर्वक इस लोक में प्रविष्ट होता है तब वह कितनी ही प्रकार की अविज्ञात जानकारी अर्जित कर लेता है कारण कि घटनाएँ घटने के बाद सर्वथा समाप्त नहीं हो जानी वरन् एक ऐसे आयाम में प्रवेश कर जाती हैं जहाँ भूत भविष्य और वर्तमान जैसा कुछ होता नहीं अपितु वहां समय एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में रहता है।