Magazine - Year 1997 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
एक संकल्प ने बदली जीवन धारा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
युवराज उदयभान, महाराज प्रसेनजित व महारानी बिन्दुमती के इकलौते पुत्र थे। कुमार उदयभान बचपन से ही संवेदनशील, तेजस्वी व धार्मिक प्रकृति के बालक थे। महाराज ने कुमार के लिए अच्छी से अच्छी शिक्षा की व्यवस्था की। युवक होते-होते उनकी नीति कुशलता, बहादुरी, दयालुता एवं सम्मोहक व्यक्तित्व की चर्चा सुवास बनकर वायु के साथ हर ओर फैल गयी।
विभिन्न देशों के राजा अपनी- अपनी कन्याओं के विवाह-प्रस्ताव महाराज प्रसेनजित के दरबार में भिजवाते, लेकिन हर बार यह सहज मुसकान से उन्हें टाल जाते। कुमार की संवेदनशील प्रवृत्ति उन्हें लोककल्याण के निमित्त परिव्राजक होने के लिए प्रेरित कर रही थी। वह करुणा के अवतार भगवान तथागत के धर्मचक्र प्रवर्तन हेतु समर्पित होना चाहते थे।
युवराज के इन विचारों ने महाराज एवं महारानी की चिन्ता बढ़ा दी। इकलौता पुत्र और वह भी विवाह के लिए राजी नहीं, तो उनका वंश कैसे चलेगा? यही चिन्ता उन्हें रात-दिन परेशान किये रहती। माता-पिता की परेशानी व बार-बार विवाह के लिए आग्रह को देखकर उदयभान विवाह के लिए राजी हो गये।
बसन्त ऋतु का समय था। विदर्भ की राजकुमारी भी अपनी सखियों के साथ बसन्तोत्सव मनाने आयी थी। अनेक राजकुमारियों के बीच राजकुमारी राजेश्वरी के शील, सद्गुणों एवं सौंदर्य को देखकर कुमार एवं उनके माता-पिता ने स्वीकृति दे दी। दोनों ही ओर इस विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। बारात विदर्भ पहुँची।
उन दिनों राजकीय दावतों में मद्य एवं माँस का उपयोग बहुत होता था। इसके बिना भोजन अधूरा समझा जाता था और आतिथ्य में इसका उपयोग अवश्य किया जाता था। विदर्भ के महाराज ने बारातियों का स्वागत करने के इसी उद्देश्य से बहुत सारे पशु-पक्षियों करे पिंजड़े में बन्द कर रखा था। बारात जिस मार्ग से नगर में प्रविष्ट हो रही थी, उसी मार्ग पर वे पशु-पक्षी पिंजड़े में बंधे हुए करुण क्रन्दन कर रहे थे।
दूल्हा बने उदयभान के कानों में उन दी प्राणियों के करुण क्रन्दन की आवाजें गूँजने लगीं। उनका हृदय करुणा से भर गया। उन्होंने सारथी से पूछा, इन पशुओं को पिंजड़े में क्यों डाल रखा गया है? सारथी ने उत्तर दिया युवराज! इन सभी पशुओं को महाराज ने बारातियों के आतिथ्य के लिए एकत्रित किया है।
उदयभान का हृदय विद्रोह कर उठा। उनके मुँह से सहसा ये शब्द निकले हाय! मेरे लिए इतने प्राणियों का वध? यह ठीक नहीं है। मैं विवाह के प्रेम सूत्र में बंध रहा हूँ, पर मेरे लिये इतने जीवों को कष्ट क्यों दिया जा रहा है? मेरे उल्लास की नींव यदि इतने प्राणियों के विषाद एवं क्रन्दन पर खड़ी होती है, तो क्या मैं इसे उल्लास कहूँ? नहीं। कदापि नहीं। और उन्होंने सारथी को आदेश दिया रथ घुमाया जाय।
सारथी ने कुछ साहस करके कहा, युवराज आपकी तो हजारों व्यक्ति प्रतीक्षा कर रहे हैं। रथ पीछे कैसे मोड़ा जाय। बारात बिना वर की हो जायेगी।
किसकी बारात और किसका विवाह। मुझे इस तरह का विवाह नहीं करना। तुम जल्दी ही राजधानी लौट चलो। उदयभान के कहने पर सारथी ने रथ मोड़ लिया और वापस चल पड़ा। बारातियों में खलबली मची गयी। कोई भी नहीं जान सका कि क्या हुआ? सबने अपने-अपने अनुमान लगाये, लेकिन उदयभान के इतने गहरे अहिंसक मनोभावों की तह में कोई नहीं पहुँच सका। एक ओर महाराज प्रसेनजित दौड़े, दूसरी तरफ से कन्या के पिता और पारिवारिक लोग।
उदयभान के रथ को रोका गया और सबने हाथ जोड़कर कारण जानना चाहा। कुमार ने अत्यन्त विनीत स्वर में कहा, इसमें न तो कन्या-पक्ष की कोई गलती है और न ही मेरे पिताजी की, किन्तु मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण इतने निरीह प्राणियों की बलि हो। सुख जैसे मुझे प्यारा है, वैसे संसार के प्रत्येक प्राणी को। सिर्फ जीभ के क्षणिक स्वाद व तृप्ति के लिए इतना बड़ा प्राणि वध किसी भी तरह व कदापि उचित नहीं है। मेरी अन्तरात्मा इसे स्वीकार नहीं करती।
उदयभान को लाख समझाया गया, पर वे विवाह के लिए राजी नहीं हुए। वे बोले, जो समाज कुरीतियों एवं दुष्प्रवृत्तियों में इतना डूबा हो, उसमें मुझे ऐश्वर्य-विलास का जीवन जीने का कोई हक नहीं। मेरा स्थान तो तथागत के श्रीचरणों में है। मैं आज से अपना जीवन लोककल्याण के लिए समर्पित करता हूँ।
राजकुमारी राजेश्वरी युवराज उदयभान को पति के रूप में पाकर अपने को धन्य मान रही थी। आज का दिन उसके लिए उल्लास का दिन था, किन्तु उसे क्या पता था कि उसकी आशाओं पर इस तरह पानी फिर जायेगा। जब उसे बताया गया कि कुँवर उदयभान विवाह-मण्डप की ओर बढ़ते हुए वापस लौट गये और लाख मनाने पर भी वे नहीं माने, तब यह सुनकर राजेश्वरी मूर्छित होकर जमीन पर गिर पड़ी।
काफी देर पश्चात् जब उसे होश आया, तो उसको समझाया गया और सारी स्थिति से अवगत कराया गया। उसकी माता ने समझाया, बेटी राजेश्वरी! तुम्हारा विवाह तो हुआ नहीं और जब तक विवाह नहीं हो जाता, स्त्री स्वतंत्र होती है। घबराओ नहीं, तुम्हें एक से बढ़कर एक युवराज मिल जायेंगे। चिन्ता छोड़ो, इस तरह अपने आप को किसी के साथ बाँधकर मिटाया तो नहीं जा सकता।
राजेश्वरी ने कुछ सोच-विचार कर शान्त स्वर में जवाब दिया, माताजी विवाह क्या सिर्फ अग्नि की परिक्रमा देने मात्र से थोड़े ही हो जाता है। उदयभान तो मुझे ब्याहने के उद्देश्य से आये थे। इससे बढ़कर और क्या विवाह होगा। वे मुझे छोड़कर संसार के समस्त प्राणियों को अभयदान देने का संकल्प लेकर गये हैं। उन्होंने युगावतार भगवान तथागत के धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया है। इससे बढ़कर अच्छी बात और क्या हो सकती है। वे स्वयं का कल्याण तो कर ही रहे हैं, साथ ही संसार का भी। मैं भी महात्मा बुद्ध की शरण में जाकर आत्मनो मोक्षार्थ जगद्हिताय के जीवन मंत्र की साधना करूँगी । अपने इसी निश्चय के साथ राजकुमारी भी लोककल्याण की साधना में लग गयी।