Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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तप-साधना व्यक्तित्व निखारने की अलौकिक प्रक्रिया
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सोने को आग में डालकर उसमें घुसी हई मिलावट एवं कुरूपता को दूर किया जाता है। इस अग्नि-संस्कार से ही उसकी आभा निखरती है, प्रामाणिकता सिद्ध होती है। यदि तपाने के झंझट से बचने की सोचा जाय तो सोने और पीतल में कोई अन्तर ही न सिद्ध किया जा सकेगा। मनुष्य की महान विभूतियों को भी प्रकट एवं प्रखर बनाने के लिए यह आवश्यक है कि वह तप-साधना के अग्नि-संस्कार को सहन एवं स्वीकार करे। तप का अर्थ है- सदुद्देश्य के लिए उस हद तक बढ़ चलना, जिसमें भौतिक कष्टों की हँसते-खेलते उपेक्षा की जा सके। इस तथ्य को जीवन-प्रक्रिया में उतारने के लिए, आत्मबल-सम्पन्न तपस्वी जीवन की भूमिका में विकसित होने के लिए ऐसे उपचार-कर्मकाण्ड अपनाने पड़ते हैं, जो अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति में सहायक सिद्ध हो सकें। इन्हीं साधनाओं को तपश्चर्या का बहिरंग कलेवर कह सकते है।
व्रत-उपवास शीतल जल स्नान, धूप-आतप सहना, धूनी तापना, नंगे पाँवों चलना, देर तक खड़े रहना, कठोर आसन लगाकर बैठना, मौन रहना, भूमिशयन, नमक-शक्कर आदि के स्वादों का त्याग, ब्रह्मचर्य जैसे क्रिया-कलापों को तप-साधना में गिना जाता है। जो इन उपचारों को क्रियान्वित करते हैं। तपस्वी कहलाते हैं। तप-साधना की महिमा-माहात्म्य अध्यात्म शास्त्रों में भरा पड़ा है। तप के प्रताप से देवशक्तियों के द्रवित होने और अभीष्ट वरदान प्रदान करने के कितने ही पौराणिक उपाख्यान पढ़ने और सुनने को मिलते हैं। तपस्वी का सम्मान करने के लिए हमारी सहज श्रद्धा उमड़ती है। जहाँ दूसरे लोग सुख-सुविधाओं का तनिक भी त्याग नहीं कर सकते, वहाँ तपस्वी इन कष्टसाध्य क्रिया-कलापों को खुशी-खुशी अपना लेता है। उसमें संकल्पशक्ति की प्रखरता स्पष्ट है। दूसरे लोगों की तुलना में वह स्वतन्त्र निर्णय करने और जन-सामान्य के प्रचलित ढर्रे का व्यतिक्रम करने में समर्थ है। इस साहसिकता के सामने यदि मानवी श्रद्धा नत-मस्तक होती है, तो उसे सर्वथा उचित ही कहा जाएगा।
तपश्चर्या का बहिरंग ढाँचा किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, तत्त्वदर्शियों ने किस प्रयोजन की पूर्ति के लिए बनाया, इस तथ्य पर गहराई के साथ विचार करने की जरूरत है। यदि यह सब निष्प्रयोजन रहा होता, तो उसे मात्र उत्पीड़न ही कहा जाता। दूसरों की हत्या करने की तरह आत्महत्या भी अपराध है, ठीक इसी तरह अपने आपको सताना भी आत्म-उत्पीड़न ही कहा जाएगा और उसकी निन्दा की जाएगी। ऐसा हुआ भी है। पारसी धर्म में उपवास को निन्दनीय ठहराया गया है, क्योंकि इससे आत्म-कष्ट होता है। फ्रायड जैसे मनोवैज्ञानिक ब्रह्मचर्य को आत्मप्रताड़ना कहते है और उसकी ढेरों हानियाँ गिनाते हैं। सर्दी-गर्मी का दबाव, अंगों को तोड़ मरोड़, असुविधापूर्ण रहन-सहन अपनाकर जीवनी-शक्ति का अपव्यय जैसे अनेकानेक तर्क इस पक्ष में पड़ते हैं कि तप की कष्टप्रद साधना हानिकर है। ‘बुद्ध चरित्र’ में आता है कि तथागत जब कठोर उपवासों द्वारा काया को अत्यन्त दुर्बल बना चुके तो एक देवकन्या ने प्रकट होकर उन्हें मध्यम मार्ग को अपनाकर औरों को भी उसी पर चलने का उपदेश देने लगे।
शरीर को बलिष्ठ बनाना एक लक्ष्य है, उसकी प्राप्ति के लिए अमुक प्रकार के व्यायाम, अमुक सीमा तक किए जाने चाहिए। पर यदि कोई अत्युत्साह के आवेश में उन व्यायामों को ही चमत्कारी मान बैठे और सब कुछ छोड़कर उन्हीं को पकड़कर बैठ जाय तो इससे लक्ष्य की प्राप्ति में सहायता के स्थान पर उल्टी बाधा ही पड़ेगी। व्यायाम के साथ उपयुक्त आहार-विहार रहन-सहन दिनचर्या भी आवश्यक है। इन सब बातों की उपेक्षा करके अकेले व्यायाम पर चिपट पड़ना असन्तुलित प्रयास ही कहा जाएगा। तप-साधना में अक्सर ऐसी ही भूल की जाती है। यह भुला दिया जाता है कि इन प्रयोजनों का आविष्कार-आविर्भाव किस निमित्त किया गया है और उसका कितना उपयोग, किस दृष्टिकोण से करने पर कितना लाभ हो सकता है? यह समस्त पृष्ठभूमि ध्यान में रखते हुए ही यदि तप-साधना का अवलम्बन किया जाय तो ही वे लाभ मिल सकेंगे- जिनका वर्णन तप-साधना के महात्म्य प्रकरण में बताया गया है।
तप-साधना के समस्त उपाय-उपचार इसलिए बनाए गए हैं कि आदर्शवादी जीवन-प्रक्रिया अपनाने में स्वभावतः ही कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इन्हें हँसते-खेलते सहन करते रह सकना अपने स्वभाव का अंग बन जाय। उस तरह की कष्टसाध्य जीवन-प्रणाली अभ्यास में उतरकर सहज-स्वाभाविक बन जाय। स्पष्ट है कि न्यायोपार्जित जीविका सीमित ही रहेगी। फिर उदार व्यक्ति की अन्तरात्मा भी तो निष्ठुर पाषाण जैसी न रहेगी। उसे सत्प्रयोजनों के लिए अपनी आजीविका का एक अंश अनिवार्य रूप से खर्च करते रहना पड़ेगा। सीमित आजीविका और परमार्थ-प्रयोजनों का अतिरिक्त भार-इन दो कारणों से आदर्शवादी को प्रायः दूसरों की तुलना में आर्थिक तंगी में ही रहना पड़ता है। सादा-जीवन उच्चविचार’ का प्रथम साधना सिद्धान्त इसी आधार पर बना है। कारण कि जो भी तप-साधना अपनाना चाहते हैं, उन्हें प्रथम साधना मितव्ययिता की, सादगी की गरीबी की करनी चाहिए। इस अभ्यास से ही उसकी परिस्थितियाँ ऐसी रह सकेंगी, जिनमें तपस्वी जीवन की रीति-नीति का निर्वाह सम्भव हो सके और उसको बिना अनीति उपार्जन की अपेक्षा किए, सत्कर्मों के लिए आवश्यक खर्च में बिना कृपणता बरते, बड़ी सरलता और प्रसन्नता के साथ अपना ढर्रा चलाते रह सकना सम्भव हो जाए। तपश्चर्या के विविध अभ्यास इस प्रमुख प्रयोजन को भली प्रकार पूरा कर सकने की सफलता प्रदान करते हैं।
व्रत-उपवास में नमक-शक्कर जैसी स्वादिष्टता को छोड़ने का प्रयोजन यह है कि स्वल्प, सस्ता एवं सादा भोजन भी यदि मिलती रहे, तो वह गरीबी की स्थिति अखरे नहीं। न्यायोपार्जित आजीविका में से सत्प्रयोजनों का अंशदान निकालकर जो बच जाय, उस रूखे-सूखे को अमृत मानकर गुजर कर ली जाय। ऐसी सादगी का अभ्यस्त व्यक्ति अर्थ-प्रलोभन के लिए दुष्कर्म करने से सहज ही बच जाता है और सन्मार्ग पर चल सकने योग्य मनोभूमि को अक्षुण्ण रख सकता है। व्रत-उपवास इसी अभ्यास के लिए हैं। नमक-शक्कर जैसे स्वादों को छोड़कर रूखे पर गुजर करने का अभ्यास करना तप-साधना में सफलतापूर्वक आगे बढ़ सकने की क्षमता प्रदान करता है।
तपस्वी को इन्द्रिय लिप्साओं पर नियन्त्रण करना पड़ता है। उनके उभार मनुष्य का मस्तिष्क उद्विग्न करते हैं और उन वासनाओं की पूर्ति के लिए चिन्तन, समय, श्रम, मनोयोग, कौशल एवं धन का बहुत बड़ा अंश नष्ट करना पड़ता है। ब्रह्मचर्य की बात इसी दृष्टि से है। वैसे भी आज की परिस्थितियों में सन्तान का सीमाबंधन युग की अनिवार्य आवश्यकता है। उसकी पूर्ति के लिए ब्रह्मचर्य सर्वोत्तम उपाय है। शक्तियों को सदुद्देश्य में लगाने के लिए, जनसंख्या संकट से लड़ने के लिए ब्रह्मचर्य का श्रेष्ठतम स्थान प्राप्त है। इससे न केवल शारीरिक-मानसिक समर्थता का लाभ है वरन् उपरोक्त दो काम ऐसे हैं, जिन्हें आत्मिक प्रगति एवं सामाजिक स्थिरता की दृष्टि से सर्वोच्च स्थान दिया जा सकता है। कामुकता पर नियंत्रण करने की प्रवृत्ति को, ब्रह्मचर्य व्रत को इसीलिए सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। पतिव्रत-पत्नीव्रत आदि के बन्धन इसी दृष्टि से हैं। गृहस्थ आरंभ में रहते हुए भी अधिकाधिक संयम बरतने का निर्देश इन्हीं कारणों से है। ब्रह्मचर्य की तप-साधना अकारण नहीं है। उसके पीछे जिस उद्देश्य की पूर्ति का समावेश है- उसे ध्यान में रखकर चला जाय तो अपना और अपने प्रभाव क्षेत्र का आत्मिक स्तर बढ़ता चला जाएगा।
वाणी का मौन या सीमित व उपयोगी शब्दों का उच्चारण एवं मंत्र-जप ये दोनों ही प्रयोजन वाणी पर नियंत्रण करने की दृष्टि से हैं। आवेशग्रस्त, कटु, दुर्वचन न बोलें, छल, व्यंग्य, तिरस्कार एवं गिराने वाले शब्दों का उच्चारण न करें। उच्चारण का प्रत्येक शब्द श्रेयस्कर सदुद्देश्य के लिए बोला जाय, तो उसमें स्नेह-सौजन्य का समुचित समावेश होगा।
जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए जहाँ एक पक्ष व्यक्तिगत जीवन को श्रेष्ठ, संयमी, सदाचारी बनाने का है वही दूसरा पक्ष यह भी है कि अपनी विभूतियों का समर्पण लोकमंगल के लिए किया जाय, मात्र संयमी-सदाचारी तो पेड़-पत्थर भी होते है। वे किसी का कुछ बिगाड़ते नहीं और न अनैतिक आचरण करते हैं। मनुष्य की मर्यादा की रक्षा इसी में है कि वह स्वयं के देवत्व का विकास करते हुए अपनी दैवी विभूतियों को लोकहित में प्रयोग करे।
मनुष्य जीवन इसीलिए मिलता है कि इस सृष्टि को सुरम्य, समुन्नत बनाने के लिए अपनी सम्पदाओं एवं विभूतियों को इसी दिशा में अधिकाधिक नियोजित किया जाय। स्वार्थ की पशु-प्रवृत्ति से ऊँचा उठकर परमार्थ की पुण्य प्रवृत्ति में संलग्न होना ही तपस्वी जीवन की सार्थकता का उज्ज्वल पक्ष है। इस दिशा में जो जितना चल सका समझना चाहिए कि उसने तप-साधना के लक्ष्य को समझा और उसे पूरा करने की दूरदर्शिता का परिचय दिया। तपस्वी जीवन की रीति-नीति अपनाने के लिए जिस साहसिकता का परिचय देना पड़ता है, वह है- दुनियादारी से भिन्न प्रकार की रीति-नीति अपनाने में भय या संकोच न अनुभव करना।
सर्दी-गर्मी सहना, भूमि पर सोना जैसे कठोर कर्म इस मनः स्थिति को विकसित करते हैं कि कष्ट-सहिष्णुता को तपस्वी जीवन की अनिवार्य साधना माना जाय। आत्मसाधना के लिए सर्वस्व का उत्सर्ग करना ही पड़ता है। त्याग-बलिदान का परिचय दिए बिना आत्मकल्याण की साधना में एक इंच भी प्रगति नहीं हो सकती। अपनी अमीरी और महत्त्वाकाँक्षाओं को जनकल्याण के लिए समर्पित किए बिना तप-साधना सम्भव नहीं हो सकती। पहाड़ जैसे वैभव के ढेरों में से राई-रत्ती दान-पुण्य करते रहने का कृपण-प्रदर्शन लोगों को बहकाने और आत्मप्रवंचना करने के लिए ही उपयुक्त हो सकता है सच्चे तपस्वी को तो त्याग-बलिदान के अन्तिम चरण तक पहुँचना पड़ता है। उसकी निष्ठा और श्रद्धा का परिचय तो अपनी सम्पदा एवं सामर्थ्य का किस सीमा तक विसर्जन किया जा सका-इसी कसौटी पर कसने के बाद प्राप्त होता है।
अनिवार्यतम निर्वाह के अतिरिक्त अपनी समस्त सुख-सुविधाओं को, सम्पत्तियों और विभूतियों को विश्व-मानव के लिए समर्पित करना ही तप-साधना का श्रेष्ठतम स्वरूप है। आत्मकल्याण की साधन इससे कम साहस में हो ही नहीं सकती। कहना न होगा कि तप-साधना से निखरा हुआ व्यक्तित्व अपने आप में एक देवता होता है और उसके अपने ही चमत्कार-वरदान इतने अधिक होते हैं कि तपस्वी को देवोपम सिद्ध पुरुष की संज्ञा दी जा सके।