Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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विभूतियों का जागरण करने वाली योगसाधना
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सामान्य अर्थों में योग का अर्थ है- जोड़-मिलना साधना के क्षेत्र में यह शब्द आत्मा और परमात्मा को मिलाने वाली पुण्य प्रक्रिया के रूप में प्रयुक्त होता है। इसे सद्ज्ञान और सत्कर्म का समन्वय भी कह सकते हैं। धन और ऋण तार मिलने से विद्युत धारा प्रवाहित होती है। दोनों तारों में बहती तो वह पहले से ही है, पर परिचय तभी मिलता है जब दोनों का मिलन हो। संसार में सबसे बड़ा दुःख वियोग है। प्रियजनों से बिछुड़ जाने पर जितना कष्ट होता है, उतना अन्यत्र कहीं भी- कभी नहीं होता। आत्मा को अपने परमप्रिय परमात्मा से विलग होने पर अहर्निश पग-पग पर कुकर्म घेरते हैं और शोक-सन्ताप दुःख देते हैं। इस दुःख-सन्ताप का सुख और शान्ति में परिवर्तन, वियोग को योग में बदलने पर ही होता है।
मोटे शब्दों में भौतिक और अध्यात्म का समन्वय योग कहा जा सकता है। साधनों की कमी नहीं। निर्धन कहलाने वाले व्यक्ति के पास भी शरीर, मन, बुद्धि, प्रतिभा आदि साधन होते हैं। सहयोग, प्रभाव, संपर्क भी हर किसी को न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध रहता ही है। धन तथा अन्य साधन भी कमोबेश होते ही हैं। यह सब मिलाकर इतना हो जाता है कि इतने को ही यदि उचित रीति-नीति से उचित प्रयोजनों में संलग्न किया जा सके तो आश्चर्यजनक प्रतिफल दृष्टिगोचर हो सकते हैं। पर यह होता अत्यन्त विचित्र है। यह सभी साधना आदर्शवादी लक्ष्य के अभाव में ऐसे ही अस्त-व्यस्त होते रहते हैं और उस अपव्यय के फलस्वरूप चित्र-विचित्र कुपरिणाम उत्पन्न होते रहते हैं। अपनी ही क्षमता अपनी ही विनाश में संलग्न रहे, तो इसे अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारना ही कहा जाएगा।
साधना और सत्प्रयोजन का समन्वय हो सके तो उसे व्यावहारिक जीवन का योग कहा जाएगा। इस सुयोग की व्यवस्था जिनने भी बनाई होगी, वे स्वल्प साधनों से भी आशातीत प्राप्ति कर सकने में समर्थ हुए होंगे। जिन्हें यह सन्मार्ग नहीं मिला जो साधनों को, अपनी चित्तवृत्तियों को बालक्रीड़ा के मनोविनोदों में गँवाते रहे और दुर्जनों की भांति उन्हें दुष्कर्मों में नष्ट करते रहे, ऐसे मनुष्यों की जीवन-सम्पदा सुरदुर्लभ होते हुए भी अभिशाप-दुर्भाग्य हो सिद्ध होती रहेगी।
योगाभ्यास का आरम्भ चित्त-वृत्तियों के निरोध से आरम्भ होता है। महर्षि पतंजलि ने अपने योगदर्शन के प्रथम पाद के द्वितीय सूत्र में योग की व्याख्या करते हुए उसे चित्तवृत्तियों को रोकने की प्रक्रिया बताया है। आमतौर से इसका अर्थ चित्त-निरोध एकाग्रता का अभ्यास समझा जाता है, लेकिन यह अभ्यास योग का बहुत छोटा अंश है- इसे योग का भौतिक भाग कह सकते हैं। एकाग्रता की आवश्यकता अध्यात्म साधना में ही नहीं, भौतिक कार्यों में भी पड़ती है। अनेकों ऐसे व्यक्ति भी उसमें पारंगत होते हैं, जिनका साधना से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। सरकस के नट-नर्तकों का सारा खेल एकाग्रता की ही सिद्धि पर टिका होता है। वैज्ञानिक, कलाकार, चित्रकार, मूर्तिकार, साहित्यकार आदि अपने-अपने विषयों में तन्मय हो सकने की विशेषता उत्पन्न करते और सफल होते है। निशानेबाजी की प्रतियोगिता एकाग्रता के बली पर ही जीती जाती है। ऐसे ही दूसरे ढेरों काम हैं, जिनसे लोग एकाग्रता सम्पादित करते हैं और चमत्कारी सफलताएँ प्राप्त करते हैं। आध्यात्मिक साधनाओं में भी इस विशेषता की आवश्यकता पड़ती है। इतना होते हुए भी मात्र इसी विशेषता के आधार पर किसी को योगी नहीं कहा जा सकता।
चित्त-निरोध का अर्थ है-मन की अस्त-व्यस्त उछल-कूद को नियंत्रित करके किसी विशेष प्रयोजन में लगे रहने का अभ्यास। यह जरूरी भी है और सराहनीय भी, पर इससे योगसाधना का प्रयोजन पूरा नहीं होता। आत्मिक प्रगति के लिए मात्र चित्त की नहीं-गहराई में उतरकर चित्तवृत्तियों के निरोध की बात सोची जानी चाहिए। चित्त-निरोध और चित्तवृत्तियों के बीच का अन्तर प्रत्येक विचारशील के मन-मस्तिष्क में स्पष्ट रहना चाहिए।
कितने ही महान साधक–साधिकाएँ ऐसी हुई हैं, जिनमें एकाग्रता कम चंचलता अधिक थी। मीरा, चैतन्य, रामकृष्ण परमहंस, सूरदास आदि भक्त शिरोमणि स्तर के समझे जाने वाले श्रेष्ठ साधना प्रयोजनों को एकाग्रता की नहीं वरन् व्याकुलता की सिद्धि थी। लक्ष्य के प्रति व्याकुलता का भी उतना ही मूल्य है, जितना एकाग्रता का। स्वामी विवेकानन्द से किसी ने पूछा कि ईश्वर-प्राप्ति की सम्भावना किस स्तर की मनोभूमि में होती है? इसका उत्तर देने के लिए उन्होंने बात को फिर कभी के लिए टाल दिया। एक दिन वे उस प्रश्नकर्ता को अपने साथ नदी स्नान के लिए ले गए। उसे भी अपने साथ पानी के भीतर चलने के लिए कहा। कंठ तक पानी में उतर जाने पर उनने जिज्ञासु की गर्दन पकड़ ली और उसे बलपूर्वक पानी में डुबो दिया। जब वह घबराया तो उन्होंने उसे छोड़ दिया। इस विचित्र व्यवहार का करण पूछने पर स्वामीजी ने उत्तर दिया कि यही तुम्हारे उस दिन के प्रश्न का उत्तर है। जिसमें तुमने ईश्वर को प्राप्त करने की मनःस्थिति के बारे में पूछा था। डूबते समय तुम्हें अपनी प्राण-रक्षा के लिए उत्कट प्रयत्न करने के अतिरिक्त और किसी बात का ध्यान नहीं था। ठीक यही स्थिति साधक की होनी चाहिए, उसे ईश्वरप्राप्ति के लिए इतनी व्याकुलता हो कि अन्य कोई बात सूझ ही न पड़े। इस प्रसंग में उस एकाग्रता का समर्थन है, जो व्याकुलता के कारण उत्पन्न हुई हो।
किन चित्तवृत्तियों का निरोध करना होगा, इसका संकेत पातंजलि योग दर्शन के प्रथम पाद के सूत्र ६ में दिया गया है। इसमें कहा गया है- प्रमाण, विपर्यय, किल्प, निद्रा, स्मृति। प्रायः यही पाँच प्रकार की चंचलताएँ मन पर छाई रहती हैं और उसे उच्च उद्देश्यों से विरत करके पशु-प्रवृत्तियों में उलझाती है। प्रमाणवृत्ति उसे कहते है- जो इन्द्रिय विषयों के पूर्वाभ्यास से सम्बन्धित विषयों के प्रसंग सामने आने पर उभरती है। विपर्यय कहते हैं- प्रतिकूल ज्ञान को। वस्तुस्थिति की जानकारी न होने से चित्त कस्तूरी के हिरण की तरह मृगतृष्णा में मारे-मारे फिरने वाले हिरण की तरह उद्विग्न फिरता है। विकल्प का अर्थ है- भव आशंका, सन्देह, अशुभ सम्भावना आदि कुकल्पनाओं से उत्पन्न कातरता। निद्रा का अर्थ है- आलस्य, प्रमाद, उपेक्षा, अवसाद, अनुत्साह। स्मृति वे यादें हैं, जो निकृष्ट योनियों में रहते समय अभ्यास में बनी रहीं, स्वभाव का अंग रहीं। उनकी छाया मनुष्य योनि में भी छायी रहती है और उसके फलस्वरूप कई कार इतने जोर से उभरती है कि विवेक-मर्यादाओं के बाँध तुड़वाकर वैसा करा लेती है, जिसके सम्बन्ध में सीधा पश्चात्ताप करना ही शेष रह जाता है।
जिस युग में, जिस समाज में, जिस वातावरण में हम रहते हैं, उसमें अवांछनीय प्रचलनों की कमी नहीं। उनका आकर्षण मन को अपनी ओर खींचता-लुभाता रहता है। पानी स्वभावतः नीचे गिरता है। अधिकांश लोग अवांछनीय गतिविधियाँ अपनाकर अनुपयुक्त जीवन जीते हैं। इसमें वे तात्कालिक लाभ भी पाते हैं, पीछे भले ही उन्हें दुष्परिणाम भुगतने पड़ें। इस तत्काल लाभ की बात सहज ही मन को आकर्षित करती है और दबी हुई दुष्प्रवृत्तियाँ उभर कर उस मार्ग पर घसीट ले जाती हैं, जो मनुष्य जैसे विवेकवान प्राणी के लिए अशोभनीय है।
योगसाधना का मूल उद्देश्य इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों के साथ प्रचण्ड संघर्ष करना है। जिस महाभारत में कृष्ण और अर्जुन ने सम्मिलित भूमिका निबाही थी, वह आत्मपरिष्कार में योगसाधना के साथ पूरी तरह सम्बन्धित है। कौरव दल इन्हीं कुसंस्कारों का नाम है, जो निकृष्ट योनियों से साथ चले आ रहे है और वातावरण में घुसी अवांछनीयता के कारण भड़कते हैं। कौरवों ने पाण्डवों की सारी सम्पदा हथिया ली थी। उसे वापस लेने के लिए युद्ध करना पड़ा। आत्मिक गरिमा पर असुरता आच्छादित हो रही है। उसके इस चंगुल से छुड़ाने के लिए विरोध- प्रतिरोध का, महाभारत करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह गया था। योगाभ्यास में भी इसी विरोध-प्रतिरोध का, विरोध-संघर्ष का उल्लेख है। इसमें आत्मा और परमात्मा का सद्ज्ञान- सत्कर्म का, साधना एवं सत्प्रयोजन का समन्वय कर देने पर विजय सर्वथा निश्चित हो जाती है।
योग के इस दार्शनिक पक्ष को परिपुष्ट करने के लिए कतिपय कृत्यों का अवलम्बन लेना पड़ता है। पहलवान बनने के लिए व्यायामशाला में सिखाए जाने वाले दण्ड-बैठक आदि कर्मकाण्डों को पूरा करना पड़ता है, साथ ही ब्रह्मचर्य, पौष्टिक आहार, मालिश आदि की विधि-व्यवस्था अपनानी पड़ती है। इन अभ्यासों से अंतरंग में छिपी बलिष्ठता उभरती है और मनुष्य कुछ ही समय में पहलवान स्तर का बनता चला जाता है। योगाभ्यास की निर्धारित गतिविधियाँ अपनाने का प्रतिफल कुछ ऐसा ही है।
इन अभ्यासों को उपयोगिता और आवश्यकता दोनों हैं। शास्त्रकारों ने योग-साधना का माहात्म्य भी बताया है और उसके स्वरूप एवं तत्त्वदर्शन को समझाने का प्रयत्न करते हुए कहा है-
अभ्यासात्कादिवर्णनियथा शास्त्राणि बोधयेत्।
तथा योग सामासाद्य तत्त्वज्ञानचलभ्यते।
जैसे क-ख-ग से अक्षरारम्भ का अभ्यास करते हुए शास्त्रज्ञ, विद्वान बन जाते हैं, वैसे ही योग का अभ्यास करते-करते तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाता है।
ज्ञान और कर्म के उभययुग्मों के समन्वय को योग से योग की प्राप्ति कहा जाता है-
योगेन योगो ज्ञातव्यो योगो योगात्प्रवर्तते।
योऽप्रमत्तस्तु योगे ने सायोगी रमते चिरम्-महायोग विज्ञान
योगसाधना से ही योग को जानना चाहिए। साधना से ही योग की प्राप्ति होती है। जो सावधानी से योग-साधना में निरत है, वहीं चिरकाल तक आनन्द पाता है।
योगसाधना के प्रभाव से (१) अणिमा, (२) लघिमा, (३) महिमा, (४) गरिमा, (५) प्राप्ति, (६) प्रकाम्य, (७) वशित्व, (८) ईशित्व- जैसी अलौकिक सिद्धियों के मिलने का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है। ये सिद्धियाँ पढ़ने-सुनने में अतिरंजित लगती है, परन्तु इनके पीछे एक सुनिश्चित विज्ञान निहित है। सुनिश्चित वैज्ञानिक कारणों से अतिरंजित लगने वाली ये सिद्धियाँ सहज उपलब्ध हो जाती है। दूसरे शब्दों में इन्हें मनुष्य की चेतना-क्षमता का भौतिक वस्तुओं पर नियंत्रण भी कहा जा सकता है।
वैसे भी आत्मसत्ता, ब्रह्मसत्ता की प्रतिनिधि है। प्रतिनिधि ही नहीं अंश और प्रतीक भी है। बाधा इतनी मात्र है कि भ्रान्तियों के कारण अथवा प्रमाद के कारण अथवा इस तथ्य को न जानने के कारण आत्मचेतना का ऐसा विकास सम्भव नहीं है। यदि इस आत्मचेतना को जाग्रत किया जा सके और योगाभ्यास तथा तप-साधन के द्वारा उसका विकास किया जा सके, तो उस जाग्रति के द्वारा जो कुछ इन्द्रियातीत है, वह सहज ही इन्द्रियगम्य बन सकता है। बुद्धि की सीमा के बाहर लगने वाली अगणित अलौकिक विभूतियाँ सहज हो उपलब्ध हो जाती है।