Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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परिवार में स्वर्ग जैसा वातावरण कैसे?
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ईश्वर-उपासना मानव-जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता है। आत्मिक स्तर को सुविकसित, सुरक्षित एवं व्यवस्थित रखने के लिए हमारी मनोभूमि में ईश्वर के लिए समुचित स्थान रहना चाहिए और यह तभी संभव है जब उसका अधिक चिंतन-मनन अधिक सामीप्य व सान्निध्य प्राप्त करने का प्रयास किया जाए। भोजन के बिना शरीर का काम नहीं चलता। साँस लिए बिना रक्ताभिषरण की प्रक्रिया बिगड़ जाती है। इसी प्रकार ईश्वर की उपेक्षा करने के उपरान्त आन्तरिक स्तर भी नीरस, चिंताग्रस्त, अनिश्चित, अनैतिक, अव्यवस्थित एवं आशंकित बना रहता है। यह हानि कुछ कम हानि नहीं है। दीखने वाली हानियों को लोग आसानी से समझ लेते है, पर इस जीवन के सारे आनन्द और उद्देश्य को ही नष्ट कर देने वाली हानि को हम न तो देख पाते है और न समझ पाते ही है। यह कैसे दुर्भाग्य की बात है।
मानव जीवन की प्रगति और सुख-शान्ति आँतरिक स्तर की उत्कृष्टता पर निर्भर रहती है। इस उत्कृष्टता की पुष्टि एवं अभिवृद्धि के लिए उपासना तंत्र का ऋषियों ने आविष्कार किया, भौतिक सुख-साधन बाहुल्य और बुद्धिबल के आधार पर कमाये जा सकते है, पर गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता पर निर्धारित समस्त विभूतियाँ हमारे आंतरिक स्तर पर ही निर्भर रहती है। इस स्तर को सुदृढ़ और समुन्नत बनाने में उपासना का भारी योग रहता है। इसलिए अत्यन्त आवश्यक कार्यों की भाँति ही उपासना को दैनिक कार्यक्रम में स्थान मिलना चाहिए। जिस प्रकार जीविका उपार्जन, आहार, विश्राम, सफाई, गृहस्थपालन, विद्याध्ययन, मनोरंजन आदि का ध्यान रखा जाता है वैसा ही ध्यान उपासना का भी रखा जाना चाहिए। जन-साधारण को सदाचारी और सुनियंत्रित, समाजोपयोगी रखने के विचार से सरकार जन-मानस पर कठोर नियंत्रण कायम करने के लिए विभिन्न प्रयत्न करती है। अनेकों कानून, अध्यादेश एवं नियंत्रण द्वारा लोगों को उचित दिशा में चलाने के लिए अपने दृष्टिकोण के अनुसार कुछ करने के लगी हुई है, पर सफलता बहुत ही स्वल्प-सक्रिय दृष्टिगोचर होती है। सरकारें इन दिनों व्यक्ति पर भारी नियंत्रण करने लगी हैं। अधिनायकवादी, एकत्रित सरकारें मनुष्य की भौतिक और लौकिक समस्त शक्तियों पर काबू पाने और लोगों को अपनी मनमर्जी का बनाने और चलाने का प्रयत्न करती रही है। औजार और कारतूस जिस प्रकार फैक्ट्रियों में बनते हैं, उसी प्रकार मनुष्यों के विचार और प्रवृत्तियों को भी अपनी मनमर्जी का ढाल लेने का प्रयास शासन तंत्र करता रहा है। एक हद तक उसे सफलता भी मिली है, पर यह निश्चित है कि यदि उच्च आदर्शवाद के लिए आध्यात्मिक कोमल भावनाओं के लिए अंतःकरण में कोई स्थान न रहा तो मनुष्य से यह आशा नहीं की जा सकती कि महानता के उच्च गुण उसमें कभी विकसित हो सकेंगे। आँतरिक प्रेरणा से जो प्रेम, त्याग, संयम तथा श्रेष्ठता उत्पन्न हो सकती है, वह सरकारी प्रचार या दबाव के कारण कदापि संभव न होगी। संसार की शान्ति और सुव्यवस्था इसी बात पर निर्भर है कि मनुष्य सतत् उच्चस्तरीय भावनाओं से ओत-प्रोत रहें। यह भावनाएँ भीतर से निकलती है, बाहर से नहीं थोपी जा सकतीं। अंतःकरण पर प्रभाव डालने की शक्ति श्रद्धा और विश्वास में ही सन्निहित रहती है। इसलिए जब तक इन तत्वों को नहीं जगाया जाएगा। तब तक उत्कृष्टता की अंतःप्रेरणा कहीं जाग्रत होगी और जब तक यह जागरण न होगा तब तक मनुष्य अधोगामी प्रवृत्तियों से ऊँचा न उठ सकेगा।
मानव जीवन की प्रगति उसके सद्गुणों पर निर्भर है। जिनके गुण-कर्म स्वभाव का निर्माण एवं विकास ठीक प्रकार हुआ है, वे सुसंयत व्यक्तित्व वाले सज्जन मनुष्य अनेकों बाधाओं और कठिनाइयों को पार करते हुए अपनी प्रगति का रास्ता ढूँढ़ ही लेते है। विपरीत परिस्थितियों एवं बुरे स्वभाव के व्यक्तियों को भी सुसंस्कृत मनुष्य अपने प्रभाव एवं व्यवहार से बदल सकता है और उन्हें अनुकूलता में परिणत कर सकता है। इसके विपरीत जिसके स्वभाव में दोष दुर्गुण भरे पड़े होंगे वह अपने दूषित दृष्टिकोण के कारण अच्छी-खासी मनोभूमि को भी दूषित कर देगा। संयोगवश उन्हें अनुकूलता द्वारा सुविधा प्राप्त भी हो तो दुर्गुणों के आगे वह देर तक ठहर न सकेगी। दूषित दृष्टिकोण जहाँ भी होगा वहाँ नारकीय वातावरण बना रहेगा। अनेकों विपत्तियाँ वहाँ से उपजती रहेंगी।
इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हर किसी की निजी व पारिवारिक जीवन में सद्गुणों की जननी आस्तिकता को धैर्य, विवेकपूर्वक अपनाने का प्रयत्न करना चाहिए। ईश्वर का भय मनुष्य को नेक रास्ते पर चलाते रहने की दिशा में सबसे बड़ा नियंत्रण है। राजकीय कानून या सामाजिक दण्ड की, दुस्साहसी लोग उपेक्षा करते रहते है। अपराधों और अपराधियों का बाहुल्य पुलिस और जेल का भय भी इन्हें कम नहीं कर पाता। पर यदि किसी को ईश्वर पर पक्का विश्वास हो, अपने चारों ओर प्रत्येक प्राणी में, कण-कण में ईश्वर को समाया हुआ देखे, तो उसके लिए किसी के साथ अनुचित व्यवहार कर सकना संभव नहीं होगा। कर्मफल की ईश्वरीय अविचल व्यवस्था पर जिसे आस्था होगी वह अपना भविष्य अंधकारमय बनाने के लिए कुमार्ग पर बढ़ने का साहस कैसे कर सकेगा। दूसरे को ठगने या परेशान करने का अर्थ है-ईश्वर को ठगना या परेशान करना। ऐसी भूल उससे नहीं हो सकती, जिसके मन में ईश्वर का विश्वास और कर्मफल की अनिवार्यता का निश्चय गहराई तक जमा हुआ है।
सच्चरित्रता को आस्तिकता का पर्यायवाची शब्द माना जा सकता हैं। ढोंग जैसी झूठी भक्ति, जिसमें साढ़े तेईस घण्टे पाप करते रहने और आधे घण्टे पूजा-पत्री करके सारे पापों से छुटकारा मिलने की प्रवंचना सिखाई जाती है, उपहासास्पद हो सकती है। इसी प्रकार देवदर्शन से सफल मनोरथ सहज ही पूरे हो जाने की मान्यता भी एक प्रकार की धृष्टता कही जा सकती है, पर सच्चे अध्यात्म का, सच्ची आस्तिकता का महत्व किसी भी प्रकार कम नहीं होता। ईश्वर-विश्वास का, आस्तिकता का प्रतिफल एक ही होना चाहिए, सन्मार्ग का अवलम्बन और कुमार्ग का त्याग जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म और कर्तव्य का अनुशासन स्थापित करने के लिए ईश्वर-विश्वास से बढ़कर और कोई प्रभावशाली माध्यम हो नहीं सकता।
प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने जीवन को सार्थक एवं भविष्य को उज्ज्वल बनाने की आधारशिला-आस्तिकता को जीवन में प्रमुख स्थान देने का प्रयत्न करें। ईश्वर को अपना साथी-सहचर मानकर हर घड़ी निर्भय रहे और सन्मार्ग से ईश्वर की कृपा एवं कुमार्ग से ईश्वर की सजा प्राप्त होने के अविचल सिद्धान्त को हृदयंगम करता हुआ अपने विचारों और आचरणों को सज्जनोचित बनाने का प्रयत्न करता रहे। इसी प्रकार जिसे अपने परिवार में, स्त्री-बच्चों से सच्चा प्रेम हो उसे भी यहीं प्रयत्न करना चाहिए कि घर के प्रत्येक सदस्य के जीवन में किसी न किसी प्रकार आस्तिकता का प्रवेश हो। परिवार का बच्चा-बच्चा ईश्वर-विश्वास बने।
अपने परिवारों के लोगों के शरीर और मन को विकसित करने के जिस प्रकार भोजन और शिक्षण की व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार आत्मिक दृष्टि से स्वस्थ बनाने के लिए घर में बाल वृद्ध सभी की उपासना में निष्ठा एवं अभिरुचि बनी रहे। इसके लिए समझाने-बुझाने का तरीका सबसे अच्छा है। गृहपति का अनुकरण भी परिवार के लोग करते है, इसलिए स्वयं नित्य नियमपूर्वक नियत समय पर उपासना करने के कार्यक्रम को ठीक तरह निबाहते रहा जाए। घर के लोगों से जरा जोर देकर भी उनकी ढील पोल को दूर किया जा सकता है। आमतौर से अच्छी बातें पसन्द नहीं की जाती और उन्हें उपहास-उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता हैं। यही वातावरण अपने घर में भी घुसा हुआ हो सकता है। पर उसे हटाया तो जाना ही चाहिए। देर तक सोना, गंदे रहना, पढ़ने में लापरवाही करना, ज्यादा खर्च करना, बुरे लोगों की संगति आदि बुराइयाँ घर के किसी सदस्य में हो तो उन्हें छुड़ाने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है क्योंकि यह बातें उनके भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाली, अहितकर सिद्ध हो सकता है। उसी प्रकार नास्तिकता दुर्गुणों को भी हटाने के लिए घर के लोगों को जरा अधिक सावधानी और सफाई से कहा-सुना जाए, तो भी उसे उचित ही माना जाएगा। अपने कुटुम्ब की सबसे बड़ी सेवा सह हो सकती है कि प्रत्येक परिजन को आस्तिक एवं उपासक बनाया जाए। उस मार्ग को अपनाकर वे अपना भविष्य उज्ज्वल बना सकते है। आस्तिकता धर्म के प्रति विश्वास को जन्म देती है और इस विश्वास पर सुदृढ़ रहने वाला अपने कर्तव्यों पर भी स्थिर रह श्रेष्ठ नागरिक बनता है। फलस्वरूप उसका शरीर, मन, परिवार, व्यवहार, लोक-परलोक सभी कुछ आनन्दमय बनता है। जो लड़कियाँ आस्तिकता के विश्वास को बचपन से ही मन में जमा लेंगी तो वे ससुराल जाने पर पतिव्रत धर्म का भी पालन करेंगी और उस घर के प्रत्येक सदस्य के साथ सद्व्यवहार करना धर्म-कर्तव्य मानेगी। ऐसी दशा में वहाँ वे आँखों का तारा ही बनकर रहेगी। सभी उन्हें दुलार करेंगे और दुःख-दर्द में पलकों की छाया किए रहेंगे। जो गौरव पिता के प्रचुर दहेज देने से भी लड़कियों को ससुराल में नहीं मिल सकता, वह उनके सद्गुणों के द्वारा मिल जाता है। सद्गुण धर्म-विश्वासों के फलस्वरूप ही उत्पन्न होते है और धर्म-विश्वासों को आस्तिकता की देन ही कहा जा सकता है। इस प्रकार जिस कन्या को उनके माता-पिता ने आस्तिकता की, उपासना की शिक्षा दी है, उन्होंने उसका भविष्य आनन्दमय बनाने के लिए सबसे बड़ी सम्पत्ति वसीयत कर दी है। इसके विपरीत जिन लड़कियों की उच्छृंखलता, नास्तिकता, विलासिता और असहिष्णुता के वातावरण में पलने दिया है, वे जहाँ कहीं भी रहेगी, नरक उत्पन्न करेंगी उसमें भी जलेगी और सारे परिवार को भी जलाती रहेंगी। ऐसी आदतों की अभ्यस्त लड़कियों का अहित उन अभिभावकों ने ही किया होता है, जिन्होंने बचपन से उन्हें धार्मिक मान्यताओं से, पूजा-उपासना से वंचित रखा है संभव है। ऐसा उन्होंने प्यारवश किया हो, पर वस्तुतः वह परिणाम में शत्रुता के समान ही अहितकर सिद्ध होता है।
अपने परिवारों के लोगों के शरीर और मन को विकसित करने के जिस प्रकार भोजन और शिक्षण की व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार आत्मिक दृष्टि से स्वस्थ बनाने के लिए घर में बाल वृद्ध सभी की उपासना में निष्ठा एवं अभिरुचि बनी रहे। इसके लिए समझाने-बुझाने का तरीका सबसे अच्छा है। गृहपति का अनुकरण भी परिवार के लोग करते है, इसलिए स्वयं नित्य नियमपूर्वक नियत समय पर उपासना करने के कार्यक्रम को ठीक तरह निबाहते रहा जाए। घर के लोगों से जरा जोर देकर भी उनकी ढील पोल को दूर किया जा सकता है। आमतौर से अच्छी बातें पसन्द नहीं की जाती और उन्हें उपहास-उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता हैं। यही वातावरण अपने घर में भी घुसा हुआ हो सकता है। पर उसे हटाया तो जाना ही चाहिए। देर तक सोना, गंदे रहना, पढ़ने में लापरवाही करना, ज्यादा खर्च करना, बुरे लोगों की संगति आदि बुराइयाँ घर के किसी सदस्य में हो तो उन्हें छुड़ाने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है क्योंकि यह बातें उनके भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाली, अहितकर सिद्ध हो सकता है। उसी प्रकार नास्तिकता दुर्गुणों को भी हटाने के लिए घर के लोगों को जरा अधिक सावधानी और सफाई से कहा-सुना जाए, तो भी उसे उचित ही माना जाएगा। अपने कुटुम्ब की सबसे बड़ी सेवा सह हो सकती है कि प्रत्येक परिजन को आस्तिक एवं उपासक बनाया जाए। उस मार्ग को अपनाकर वे अपना भविष्य उज्ज्वल बना सकते है। आस्तिकता धर्म के प्रति विश्वास को जन्म देती है और इस विश्वास पर सुदृढ़ रहने वाला अपने कर्तव्यों पर भी स्थिर रह श्रेष्ठ नागरिक बनता है। फलस्वरूप उसका शरीर, मन, परिवार, व्यवहार, लोक-परलोक सभी कुछ आनन्दमय बनता है। जो लड़कियाँ आस्तिकता के विश्वास को बचपन से ही मन में जमा लेंगी तो वे ससुराल जाने पर पतिव्रत धर्म का भी पालन करेंगी और उस घर के प्रत्येक सदस्य के साथ सद्व्यवहार करना धर्म-कर्तव्य मानेगी। ऐसी दशा में वहाँ वे आँखों का तारा ही बनकर रहेगी। सभी उन्हें दुलार करेंगे और दुःख-दर्द में पलकों की छाया किए रहेंगे। जो गौरव पिता के प्रचुर दहेज देने से भी लड़कियों को ससुराल में नहीं मिल सकता, वह उनके सद्गुणों के द्वारा मिल जाता है। सद्गुण धर्म-विश्वासों के फलस्वरूप ही उत्पन्न होते है और धर्म-विश्वासों को आस्तिकता की देन ही कहा जा सकता है। इस प्रकार जिस कन्या को उनके माता-पिता ने आस्तिकता की, उपासना की शिक्षा दी है, उन्होंने उसका भविष्य आनन्दमय बनाने के लिए सबसे बड़ी सम्पत्ति वसीयत कर दी है। इसके विपरीत जिन लड़कियों की उच्छृंखलता, नास्तिकता, विलासिता और असहिष्णुता के वातावरण में पलने दिया है, वे जहाँ कहीं भी रहेगी, नरक उत्पन्न करेंगी उसमें भी जलेगी और सारे परिवार को भी जलाती रहेंगी। ऐसी आदतों की अभ्यस्त लड़कियों का अहित उन अभिभावकों ने ही किया होता है, जिन्होंने बचपन से उन्हें धार्मिक मान्यताओं से, पूजा-उपासना से वंचित रखा है संभव है। ऐसा उन्होंने प्यारवश किया हो, पर वस्तुतः वह परिणाम में शत्रुता के समान ही अहितकर सिद्ध होता है।