Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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चक्रों के ज्ञान-विज्ञान पर अब जा रहा है सबका ध्यान
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साधना-विज्ञान में चक्रों के रूप में जिन सूक्ष्म-संस्थानों का उल्लेख हुआ है, उनके बारे में मर्मज्ञों का कथन है कि ये वास्तव में दिव्य शक्तिकेन्द्र है। उन केन्द्रों को साधना उपचारों के माध्यम से जब उत्तेजित किया जाता है, तो जाग्रत होने पर वे साधकों को ऐसी ऊर्जा ओर अनुभूति से ओत−प्रोत करते है, जिसे साधारण कहना चाहिए। इस क्षेत्र में दीर्घकालीन अनुसंधान के उपरांत अब विज्ञान भी उन्हें ऐसे संस्थान के रूप में स्वीकारने लगा है, जहाँ से उत्सर्जित शक्ति को म नहीं नहीं, पदार्थ स्तर पर भी जाँचा-परखा जा सके।
शरीरवेत्ताओं का कहना है कि स्थूल दृष्टि से चक्रों पर विचार करें और शरीर में उनकी ढूँढ़ खोज करे, तब तो शायद निराश होना पड़े, कारण कि साधना विज्ञान में उनका जो स्वरूप बतलाया गया है, वह स्थूल न होकर सूक्ष्म है। इतने पर भी शरीरशास्त्र ने कुछ ऐसे नाड़ीगुच्छक ढूँढ़ निकाले हैं, जिनकी चक्रों के गोचरस्वरूप के रूप में चर्चा की जाती है, पर चह उनकी स्थूल अभिव्यक्तियाँ ही हैं यह कहना कठिन है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि चक्रों की अवधारणा कोई कल्पना- जल्पना न होकर एक सच्चाई है।
इण्टरनेशनल एसोसिएशन फॉर रिलीजन एण्ड पैरासाइकोलॉजी’ के अध्यक्ष एवं जापान के मूर्धन्य परामनोविज्ञानी डॉ. हिरोषी मोटोयामा ने विगत पन्द्रह वर्षों में इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये है। शोधों के दौरान उनने यह जानने का प्रयास किया कि चक्रों की वास्तविक सत्ता है या नहीं? यदि है तो स्वसंचालित तंत्रिका तंत्र एवं भीतरी अंगों से उनका क्या संबंध है? इसके लिए ऐसे साधकों का चयन किया गया, जो लम्बे समय से योगाभ्यास में निरत थे एवं साधना के दौरान जिन्हें चक्रों की अनुभूतियाँ हुई थी। उक्त अध्ययन में पाया गया कि जाग्रत चक्रविशेष से संबद्ध कायिक प्रणालियों की गतिविधियों में भी स्पष्ट अंतर होता है यह भी उपर्युक्त मान्यता की ही पुष्टि करता है कि चक्रों का अस्तित्व है।
अपने शोधपूर्ण निबंध 'ए इकोफिजियोलॉजिकल स्टडी ऑफ योग’ में डॉ. मोटोयामा लिखते है कि चक्र वस्तुतः चेतन के भिन्न -भिन्न चक्रों में प्रतिष्ठित साधक अलग-अलग प्रकार की चेतनात्मक अनुभूतियाँ करते हैं। आज्ञाचक्र में अवस्थान करने वालों का अनुभव अनाहत में आरूढ़ साधक से भिन्न होगा। इसी प्रकार अन्य चक्रों के संबंध में भी है। वे कहते है कि ये संस्थान भिन्न-भिन्न चेतना आयामों के प्रतिनिधि केन्द्र तो हैं, पर इसका यह मतलब नहीं कि इनका प्रभाव सिर्फ सूक्ष्म स्तर तक ही सीमित है। स्थूल स्तर पर भी ये मनोशारीरिक गतिविधियों को प्रभावित करते हैं ऐसा अध्ययनों से विदित हुआ है।
योगविद्या के निष्णातों का कथन है कि मानवी चिंतन, चेतना से प्रभावित है। व्यक्ति का चेतनात्मक स्तर जितना उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट होगा, उसके चिंतन और क्रिया−कलाप भी तद्नुरूप ही भले बुरे होंगे। शरीरशास्त्री इसकी व्याख्या शरीर संरचना और उनकी गतिविधियों के आधार कर करते है अर्थात् अंतःस्रावी रसों में न्यूनाधिकता, गुणसूत्रों या बीजकोशों में पायी जाने वाली असामान्यताएँ वे आधार है, जो व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव को प्रभावित करते हैं- उनका ऐसा मत है। चेतना विज्ञानियों का अभिमत है कि चूँकि चेतना, काया का सर्वप्रमुख और अविनाशी तत्व है, इसलिए यह मानना ही उचित होगा कि शरीर के विकास का संचालक और नियंत्रक वही है। वह यदि अनगढ़ और अपरिष्कृत है, तो यह संभव है कि उससे नियंत्रित अंग-अवयव भी विकारग्रस्त हो। इस प्रकार स्वस्थ अवयव प्रकारांतर से यही सिद्ध करते हैं कि उनकी चेतना उतनी परिष्कृत है, जितनी अंगों के स्वस्थ विकास के लिए अभीष्ट हो। डॉ. मोटोयामा कहते हैं कि इसके आगे के विकास परिष्कार से अंगों की गतिविधियाँ भी तद्नुरूप और अधिक नियमित, संतुलित एवं उच्चस्तरीय हो जाती है यह वास्तव में और कुछ नहीं, दिव्यजागरण की स्थिति है। इस प्रकार शरीर स्तर पर सूक्ष्म शक्ति संस्थानों के प्रभाव को बनाकर उनने यह साबित करने को प्रयास किया है कि चक्रों की सत्ता और महत्ता दोनों यथार्थ हैं।
इसके लिए ‘चक्रयंत्र’ नामक एक ऐसे उपकरण का उनने विकास किया, जिसके माध्यम से चक्रों की सक्रियता के दौरान शरीर के विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र के भीतर होने वाले परिवर्तनों का पता लगाया जा सके। यह यंत्र प्रकाश प्रतिरोधक एवं सीसे के आवरण से युक्त किसी टेलीफोनबूथ की भाँति होता हैं इसमें ऊपर नीचे दायें बायें चारों ओर खिसकने वाले ताँबे के इलेक्ट्रोडयुक्त खण्ड होते है, ताकि आवश्यकतानुसार आगे-पीछे कर इन्हें व्यक्ति के वाँछित भाग पर केंद्रित इलेक्ट्रोड के मध्य एक अति संवेदनशील विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न किया जाता है। शरीर से उत्सर्जित किसी भी महत्वपूर्ण ऊर्जा के फलस्वरूप यह अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्र प्रभावित होता है जिसे मापकर चक्रों की उपस्थिति एवं उनकी सक्रियता निष्क्रियता का प्रमाण प्रस्तुत किया जा सकता है।
किसी चक्र विशेष की जाँच के लिए ध्यान मुद्रा में बैठे हुए साधक से लगभग १६ से. मी. की दूरी पर उक्त चक्र के सम्मुख उपकरण का ताँबे का इलेक्ट्रोड रखा जाता है। इलेक्ट्रोड में विद्युत चुंबकीय क्षेत्र पैदा करने के लिए उसके पार्श्व में एक फोटो इलेक्ट्रिक सेल होता है। ध्यानस्थ साधक जब सम्पूर्ण एकाग्रता के साथ उस चक्र पर ध्यान केन्द्रित करता है, तो चक्रयंत्र से जुड़े उपकरणों में स्फुट परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है इस बदलाव को ध्यान आरंभ करने से पूर्व, मध्य में एवं ध्यान के पश्चात ना लिया जाता है। उपकरण के अत्यंत सूक्ष्मप्रवर्द्धक जुड़े होने के कारण शक्ति के सूक्ष्मातिसूक्ष्म उत्सर्जन को रिकॉर्ड कर पाना संभव होता है। इसके साथ ही त्वचा, हृदय, रक्त जैसे अवयवों एवं उसकी विद्युतीय गतिविधियों का भी अध्ययन किया जाता है, ताकि चक्र उद्दीपन के दौरान उत्पन्न होने वाली ऊर्जा के प्रभावों को जाना जा सके एवं उसकी तुलना तथा व्याख्या की जा सके।
डॉ. मोटोयामा ने अपने प्रयोगों में तीन प्रकार के लोगों का चुनाव किया पहली श्रेणी में उन्हें रखा गया, जो योगाभ्यास से सर्वथा अपरिचित थे। दूसरी श्रेणी उन लोगों की थी, जो साधारण दर्जे के योगाभ्यासी थे और हलका-फुलका अभ्यास किया करते थे। तीसरा वर्ग सही अर्थों में साधकों को था। जब पहली श्रेणी के लोगों को चक्र पर ध्यान करने को कहा गया, तो पाया गया कि उनके सम्मुख रखे चक्रयंत्र में किसी प्रकार की कोई हलचल नहीं हुई अर्थात् विद्युतीय गतिविधियों में कोई अन्तर परिलक्षित नहीं हुआ। दूसरे वर्ग के लोगों परी इस प्रयोग में विद्युतिक गतिविधियाँ स्पष्ट देखी गई। ध्यान से पूर्व, मध्य में एवं आज्ञाचक्र पर ध्यान के पश्चात् बड़ी मात्रा में विद्युतीय तरंगों की विद्यमानता का संकेत मिला, जो इस बात का प्रमाण था कि चक्र सक्रिय दशा में है, किंतु उसमें नियंत्रण का अभाव था, इसलिए एकाग्रता की जाँच चक्रयंत्र द्वारा की गई, तो उसके गर्भाशय के आस-पास के स्वाधिष्ठान चक्र वाले हिस्से की ऊर्जा में एक अव्यवस्था दिखलाई पड़ी। यह इस बात की सूचक थी कि वह क्षेत्र रोगग्रस्त है, वहाँ के किसी न किसी अंग में कोई व्याधि है।
चक्र संबंधी इस शोध के दौरान कुछ असाधारण तथ्य भी देखे गए। जब एक साधक पर मणिपुर चक्र संबंधी प्रयोग किया जा रहा था, तो एकाग्रता केक दौरान उस क्षेत्र में व्यापक स्तर पर ऊर्जा की उपस्थिति दर्ज की गई। इसके अतिरिक्त उसे एक अतीन्द्रिय ऊर्जा के उत्सर्जन की भी प्रतीति हुई, किंतु इस असाधारण अनुभूति कि दौरान शरीर के अन्दर विद्युतीय क्रिया−कलाप सूचित करने वाले यंत्रों की हलचल बिल्कुल समाप्त हो गई, जो आश्चर्यजनक था। अनुभूति खत्म होते ही वे फिर गतिशील हो उठे।
इसकी संभावित व्याख्या करते हुए शोधकर्ता कहते है कि शायद अनुभूति के दौरान इतनी प्रचण्ड मानसिक ऊर्जा निकलती हो कि वहाँ पहले से व्याप्त शारीरिक ऊर्जा उसके प्रभाव में आकर निष्प्रभावी बन जाती हो, अतएव उपकरण कुछ क्षण के लिए उसकी उपस्थिति रिकॉर्ड नहीं कर पाते। अनुभूति के विलुप्त होते ही जब यथास्थिति बनती, तो यंत्र पुनः सक्रिय हो उठते।
इसकी पुष्टि के लिए एक अन्य परीक्षण किया गया। इसके लिए अनाहत चक्र पर ध्यान के अभ्यासी साधक का चयन किया गया। जब वह शरीर मन से पूर्णतया तनावमुक्त हो गया, तो संबद्ध भागों में विद्युतिक क्रियाशीलता में वृद्धि देखी गई। इसके पश्चात उससे अनाहत चक्र पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा गया, साथ ही ऐसी व्यवस्था की गई कि जैसे उसे अतीन्द्रिय उत्सर्जन का अनुभव हो, वैसे ही वह बगल के उपकरण का स्विच दबा दे। इससे एक चार्ट पर नियत चिन्ह के उभरते समय चक्र यंत्र के प्रकाश निरोधक कक्ष में स्थित फोटो इलेक्ट्रिक सेल ने एक मद्धिम प्रकाश की उपस्थिति का संकेत दिया। यंत्र के मॉनीटर ने भी अत्यंत उच्च विद्युतीय शक्ति की सूचना दी।
उपर्युक्त प्रयोग इस तथ्य की ओर इंगित करते हैं कि चक्रों की ऊर्जा का रूपांतरण प्रकाश, विद्युत जैसे भौतिक रूपों में भी संभव है। इससे योगियों के उस कथन की पुष्टि होती है कि चक्र मनः शक्ति को मनःशक्ति में रूपांतरित करने के केन्द्र हैं। यहाँ डॉ. मोटोयामा का मत है कि यदि इस दिशा में और गहन शोधें की जा सकें, तो भौतिकी के ‘ऊर्जा संरक्षण सिद्धांत (लॉ ऑफ कंजर्वेशन ऑफ एनर्जी) की वर्तमान मान्यता में संशोधन अनिवार्य हो जाएगा।
यू. पी. एल. ए. अमेरिका के किनसिलओलाॅजिस्ट वैलरी हण्ट एवं सहकर्मियों ने भी अपने अनुसंधान में चक्रों के स्पष्ट प्रमाण प्राप्त किए हैं। उनके प्रयोग में एक व्यक्ति की गहन पेशीय मालिश की गई, इतनी कि अवचेतन की गहराइयों में विद्यमान तनाव भी निकल जाए। शोधकर्ताओं का दावा है कि इस प्रकार की मालिश से चक्रों की सक्रियता बढ़ती है। इस तरह आठ नौ घंटे की अनवरत मालिश से जब चक्र पूर्णरूपेण उत्तेजित हो जाते हैं, तो आरम्भ, मध्य और अंत में उनके रंगों में आने वाले बदलाव को मशीन के पर्दा पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। शोधकर्मी वैज्ञानिकों का कहना है कि पेशीय मालिश के प्रारंभ में चक्र असमान तथा छोटे मालूम पड़ते है। उस समय उनका रंग गहरा या मटमैला होता है। मालिश की समयावधि बढ़ने के साथ-साथ उनका आकार विस्तार भी बढ़ता गया, रंग चमकीला होता गया एवं तरंगें अधिक व्यापक एवं घनीभूत हो गई। लगभग आधी अवधि की मालिश में चक्रों के मूल रंग नीले, पीले, नारंगी, लाल आदि उभरकर सामने आ जाते है। छठवें घंटे में सभी चक्रों का रंग नीला भासने लगता है। सातवें तथा आठवें घण्टे में इनका मूल रंग एक बार पुनः झलकता है, पर इस बार वे हलके एवं सम्मिश्रित होते है। इस समय तक वे अपनी उच्चतम आवृत्तियों में आ जाते है। यह क्षण अद्भुत आनन्द का होता है।
हण्ट का प्रयोग अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इससे न सिर्फ एनर्जी लेवल स्तर के चक्रों की पुष्टि होती है, अपितु यह इस तथ्य को भी साबित करता है कि व्यक्ति के मानसिक और भावनात्मक अवस्था का रंगों से सुनिश्चित संबंध है। इसके अतिरिक्त योगियों और मनोवेत्ताओं के इस कथन को भी पुष्ट करता है कि शरीर से ही संबद्ध प्रत्यक्ष ज्ञान के अधिक सूक्ष्म स्तरों का अस्तित्व वास्तव में है। यद्यपि इसे यथार्थ में यह सामान्य प्रत्यक्ष ज्ञान की ही सूक्ष्म स्तर पर विकास की एक अवस्था है।
इस प्रकार षट्चक्रों की शरीर स्तर पर सिद्धि संभव हो जाती है। ‘थ्योरिज ऑफ द् चक्राज ब्रिज टू हाइयर कांशसनेश नामक शोध प्रबंध में डॉ. मोटोयामा लिखते हैं कि यह ऐसे केन्द्र हैं,जिनका कोई भौतिक अस्तित्व या आकार न होने पर भी उनके अपने विशिष्ट कार्य हैं, ये सशक्त भौतिक एवं मानसिक ऊर्जा के उत्पादनकर्ता है, जिसका मनुष्य के शरीर, मन और भावनाओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है। वे कहते है कि चक्र वास्तव में ऐसे संघनित ऊर्जा क्षेत्र हैं, जिसकी घनीभूत शक्ति एक अदृश्य आवरण के भीतर अत्यंत छोटी परिधि में सीमाबद्ध मानी जा सकती है। मुर्गी के अण्डे की तरह जब तक उसके ऊपरी आच्छादन को तोड़ा नहीं जाता, तब तक ऊर्जा से मुक्त नहीं हो पाती। ध्यान के माध्यम से साधक जब उस घेरे को तोड़ने में सफल होता है तो वहाँ पर ऊर्जा का तीव्र विस्फोट होता है जो मन को इन्द्रियातीत अनुभूतियों से भर देता है शरीर और अप्रभावित नहीं करते और उनमें स्फुट परिवर्तन दृश्यमान होता है।
चक्र क्या है? इसकी अतीन्द्रिय व्याख्या करनी हो, तो यही कहना पड़ेगा कि ये चेतना को व्यापक और विस्तृत बनाने वाले ऐसे संस्थान है, जहाँ व्यष्टि ओर समष्टि सत्ता की पृथकता समाप्त होकर अद्वैत का उदय होता है। इसकी शरीर स्तर पर विवेचना करते हुए विज्ञानवेत्ता इसे मात्र ऊर्जा स्तर (एनर्जी लेवल )भर मानते हैं, पर दोनों प्रकार की मान्यताओं में एक समानता अवश्य है, दोनों ही इसे शक्ति के प्रचण्ड स्रोत के रूप में स्वीकारते हैं। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है। कि विज्ञान अब योगियों के निष्कर्षों के अधिक निकट पहुँचता जा रहा हैं। संभव है वह अपने अगले चरण में शरीरशास्त्रियों एवं मनोवेत्ताओं के उन जिज्ञासाओं के भी समाधान तलाश ले कि भौतिक और मानसिक स्तर पर इस शक्ति के प्रादुर्भाव का आधार क्या है एवं हमारे मन शारीरिक स्तर व्यवहार तथा अनुभव को नियंत्रित करने हेतु यह शक्तियाँ किस प्रकार कार्य करती हैं? इस दिशा में अभी गहन शोध की आवश्यकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि विज्ञान अपने बढ़ते कद के साथ उन ऊँचाइयों को स्पर्श कर सकेगा, जहाँ इन गूढ़ प्रश्नों का हल ढूँढ़ा जा सके।