Magazine - Year 1999 - Version 2
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Language: HINDI
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जातस्य हि ध्रुवों मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च
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भारतीय-दर्शन की यह मान्यता है कि जीवात्मा अमर है और मृत्योपरांत वह अपने कर्मों के अनुसार छोटे-बड़े कृमि-कीटकों पशु-पक्षियों सहित मनुष्य योनियों में जन्म लेता है। शास्त्रों में इन योनियों की संख्या चौरासी लाख बतायी गयी है। यह भी कहा गया है कि मनुष्य को दूसरा जन्म मनुष्य योनि में ही मिलता है। इसके पीछे तर्क भी है। जीवचेतना का इतना अधिक विकास-विस्तार हो चुका होता है कि उतने फैलाव को निम्नकोटि के प्राणियों में समेटा नहीं जा सकता। बड़ी आयु का मनुष्य अपने बचपन के कपड़े पहनकर गुजारा नहीं कर सकता। यही बात मनुष्य योनि में जन्मने के उपरांत पुनः मनुष्येत्तर योनि में वापस लौटने के संबंध में लागू होती है। यह हो सकता है कि जीव क्रमिक विकास करते हुए मनुष्य स्तर तक पहुँचा हो। डार्विन का प्रख्यात विकासवादी सिद्धांत भी यही प्रमाणित करता है कि जीव एक बार जन्म लेने के उपरांत क्रमिक विकास करता है, पीछे नहीं लौटता।
कर्मफल की सुनिश्चितता की दृष्टि से देखा जाय तो जहाँ तक कर्मों का फल भुगतने की बात है, वहाँ दुष्कर्मों का दंड जितना अधिक मनुष्य जन्म में मिल सकता है, उतना पिछड़ी योनियों में नहीं। मनुष्य को शारीरिक कष्ट से भी अधिक मानसिक प्रताड़नायें सहनी पड़ती हैं। शोक, अपमान, चिंता, भय, घाटा, विछोह-वियोग आदि से वह तिलमिला उठता है, जबकि अन्य प्राणियों को शारीरिक कष्ट तो होते हैं, किंतु भावनात्मक एवं मानसिक कष्ट उतने अधिक नहीं होते, जितने कि मनुष्यों को होते हैं। अन्य प्राणियों का मानसिक विकास उतना नहीं होता। जितना मनुष्य का। उनमें उतनी पीड़ा, संवेदना नहीं होती, जितनी मनुष्य योनि में होती है। ऐसी दशा में पापकर्मों का दंड भुगतने के लिए निम्नगामी योनियों में मनुष्य को जाना पड़े, यह आवश्यक नहीं। अब तक विश्व में जितने भी प्रमाण मिले हैं, उनमें प्रत्येक ने मनुष्य योनि के अनुभवों, स्मृतियों का वर्णन किया है। निम्न योनियों की स्मृतियाँ और अनुभव किसी ने भी नहीं सुनाए हैं। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य का पुनर्जन्म योनि में ही होता है, निम्न योनियों में नहीं।
पुनर्जन्म की घटनाओं का विज्ञान की भाषा में-पैरानार्मल फिनामिना’ में अध्ययन किया जाता रहा है। वैज्ञानिकों ने इस संदर्भ में गंभीरतापूर्वक अनुसंधान किये हैं और प्रमाण जुटाये हैं। पाश्चात्य दार्शनिकों में पाइथागोरस, इमर्सन, ड्राइडन, वड्सवर्थ मैथ्यू, अर्नोल्ड, वाल्टविटमैन, शैली, ब्राउनिंग आदि ने पुनर्जन्म को सही माना है। अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिकों में सर विलियम बार्नेट, ओलीवरलॉज, सर विलियमकुक, अल्फ्रेडरसेल वालेस एवं ईवान स्टीवेस, गर्ने, मायर्ज, फ्रेंक पोडमीर, हडसन, विलियम जेम्स आदि प्रमुख हैं, जिन्होंने तथ्यों के साथ इस बात का प्रतिपादन किया है कि मनुष्य का पुनर्जन्म होता है। इस संदर्भ में पाश्चात्य देशों में कितने ही शोध-संस्थान एवं संस्थाएँ कार्यरत हैं। उनकी अब तक की खोजें इस सिद्धान्त की पुष्टि करती हैं कि मनुष्य का पुनर्जन्म मनुष्य योनि में ही होता है। इस संबंध में वहाँ अनेकों प्रामाणिक ग्रंथों का भी प्रकाशन हुआ है।
अमेरिका के वर्जीनिया यूनिवर्सिटी में कार्यरत मूर्धन्य वैज्ञानिक डॉ. स्टीवेन्सन ने भारत सहित संसार भर के विभिन्न क्षेत्रों से पुनर्जन्म से संबंधित सैकड़ों घटनाएँ एकत्रित की हैं। देवसंस्कृति में तो आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म एवं कर्मफल की सुनिश्चितता पर आदिकाल से ही आस्था है। बैंगलोर स्थित ‘राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान ‘ के सुप्रसिद्ध मनोविज्ञानी डॉक्टर पसरीचा ने इस संबंध में गहन अध्ययन किया है और डॉ. स्टीवेंसन के निर्देशन में पुनर्जन्म संबंधी प्रामाणिक घटनाओं को एकत्रित किया और डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की है।
संकलित घटनाओं में से एक उदाहरण उत्तराखण्ड के पासौली गाँव की मालती शंकर नामक बालिका का है, जिसका पूर्वजन्म का नाम कृष्णा था और वह चमोली की रहने वाली थी। दो वर्ष की मालती ने एक दिन यह कहकर अपने माता-पिता को अचंभे में डाल दिया कि वह यहाँ से चार मील दूर चमोली की रहने वाली है। उसके पिता पान का व्यापार करते हैं। वह अपने परिवार तथा अपनी मृत्यु का विस्तृत वर्णन भी सुनाती कि किस तरह से उसका भरा-पूरा परिवार था और कैसे उसकी शिव मंदिर में जल चढ़ाने के लिए पानी भरते समय कुएँ में डूबकर असमय मृत्यु हुई थी। उसकी इन तोतली बातों को उसके माता-पिता अनसुनी करते रहते। प्रायः ऐसी घटनाओं को बाल-सुलभ बातें मानकर उन पर ध्यान नहीं दिया जाता और कालांतर में विस्मृत के गर्त में छिप जाती हैं। आयुवृद्धि के साथ मालती भी पिछले जन्म की बातें भूल जाती और सहज जीवनक्रम चलता रहता।
किंतु एक दिन घटनाक्रम ने नया मोड़ लिया, जब बलदेव नामक चमोली गाँव का एक व्यक्ति पासौली आया। समीप में ही खेल रही मालती की नजर उस पर पड़ी और उसने उसे चाचा कहकर संबोधित किया। बलदेव के यह कहने पर कि वह उसे नहीं जानता, उसने उसके परिवार की एक-एक बात बताकर उसे अचंभित कर दिया।
बलदेव इस घटनाक्रम को भूला नहीं। अपने गाँव वापस पहुँचने पर उसने स्वर्गीय कृष्णा के माता-पिता से संपर्क किया और उन्हें सारे घटनाक्रम से अवगत कराया। उत्सुकतावश परिवार के सदस्य पासौली आये तो उन्हें देखते ही मालती पहचान गयी और अपनी पूर्व जन्मदात्री माँ से लिपटकर रोने लगी। परिवार के अन्य सदस्यों से मिलकर उसकी प्रसन्नता देखते ही बनती थी। उनके द्वारा पूछे गये सभी प्रश्नों के उत्तर संतोषजनक ढंग से देने पर सबको यह विश्वास हो गया कि यह लड़की पूर्वजन्म की कृष्णा ही है। बाद में डॉक्टर पसरीचा एवं अन्य वैज्ञानिकों ने भी तथ्य की गहराई में प्रवेश कर इस घटना की पुष्टि की है।
पुनर्जन्म की कितनी ही घटनाएँ समय-समय पर प्रकाश में आती रहती हैं। पिछले दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया’ नामक दैनिक समाचार पत्र में गोपाल नामक एक ढाई वर्षीय बच्चे का विवरण छपा था। उसके पिता आसफ अली रोड, दिल्ली के एक पेट्रोल पंप पर काम करते हैं। एक दिन गोपाल अपने पिता से कहने लगा कि वह मथुरा के एक प्रतिष्ठित परिवार का सदस्य-शक्तिप्रसाद है। सन् 1948 में जब वह पैंतीस वर्ष का था, तो आपसी प्रतिद्वंद्विता में उसके भाई ने गोली मारकर उसकी हत्या कर दी थी। पिता को उसकी इन बातों पर पहले विश्वास नहीं हुआ, लेकिन जब गोपाल जिद करने लगा तो उसे मथुरा लाया गया, जहाँ उसके द्वारा बताये गये सभी विवरण सही पाये गये।
इसी तरह की एक अन्य घटना श्रीलंका की है, जो इन दिनों सर्वत्र चर्चा का विषय बनी हुई है। इसी वर्ष जनवरी मध्य में कई समाचारपत्रों ने श्रीलंका के नुवारा एलिया जिले के एक किसान परिवार में जन्मे लगभग दो वर्षीय बालक के पुनर्जन्म का विवरण प्रकाशित किया है। ‘सामंत नुवान बंडारा विजेबाहु’ नामक यह बालक अपने को पूर्वजन्म का श्रीलंका का पूर्व राष्ट्रपति आर. प्रेमदास बताता है साथ ही वह यह भी विस्तारपूर्वक बताता है कि किस तरह बाबू नामक आत्मघाती तमिल हमलावर ने उसकी हत्या की थी। सर्वविदित है कि एक मई 1993 को इसी नाम के एक आत्मघाती हत्यारे ने बम विस्फोट करके तत्कालीन राष्ट्रपति प्रेमदास को मार डाला था। इसके चार साल पश्चात् दो सितम्बर सन् 1997 को विजबाहु का जन्म हुआ। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार इस बच्चे की शक्ल-सूरत प्रेमदास के दो वर्ष की आयु की फोटो से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। अपनी दिनचर्या, पूर्व के पारिवारिक सदस्यों के नाम आदि वह सुस्पष्ट रूप से पत्रकारों को बताता है। उसकी दिनचर्या ऐसी रहती है मानो कोई वह बड़ा-बुजुर्ग व्यक्ति हो। प्रतिदिन सुबह तीन बजे उठकर बौद्ध प्रार्थना-पंचशील करना उसकी दिनचर्या का प्रमुख अंग है। ऐसी ही दिनचर्या दिवंगत राष्ट्रपति आर. प्रेमदास की भी रहती थी।
इस घटना का परामनोवैज्ञानिक के द्वारा विश्लेषण किया गया है। तथ्यों को सत्य पाकर वे भी हतप्रभ हैं व सोचने पर विवश हो गए हैं कि आत्मा के अस्तित्व को विज्ञान जब प्रमाणित करेगा तब की बात अलग है, प्रत्यक्ष प्रमाण स्वतः ही अब पुनर्जन्म व आत्मा की निरंतर यात्रा सिद्ध कर रहे हैं।
इस संदर्भ में योगवासिष्ठ 6/1/50/39 में उल्लेख है-
काले काले चिता जीवस्त्वयोन्यो भावयति स्वयम्।
भाविताकारवानंतर्वासनाकलिकोदयात्॥
अर्थात् अपने भीतर की वासना को मूर्तरूप देने की इच्छा से आकार धारण करने के लिए जीव अपना शरीर बदलता रहता है।
यों तो पुनर्जन्म के उदाहरण भारत में विशेषकर हिंदू समाज में समय-समय पर मिलते रहते हैं, जिनमें पिछले जन्मों की स्मृतियों को प्रमाणित करके मूर्धन्य अनुसंधानकर्ता इस तथ्य की यथार्थता सिद्ध करते हैं। मुस्लिम व ईसाई समुदाय में यद्यपि पुनर्जन्म की नहीं माना जाता, किंतु परामनोविज्ञानी संस्थाओं ने उन संप्रदायों में भी इस प्रकार की घटनाओं का घटित होना ढूँढ़ निकाला है, जो गीताकार के “वाससंसि जीर्णानि यथा विहाय” के कथन का सत्यापन करती हैं।
घटना सन् 1951 की है। उत्तरप्रदेश के बरेली जिले के करीम उल्लाह नामक एक पाँच वर्षीय बालक ने अपने पिछले जन्म की बातें बताकर सबको अचंभे में डाल दिया। यह घटना तब घटी जब करीम उल्लाह के पिता इश्मतुल्लाह अंसारी, जो कि एक अध्यापक थे, अपने इस बेटे के साथ बरेली के ही एक प्रतिष्ठित मुस्लिम श्री इकराम अली के यहाँ ईद मिलने गये। इनके दो बेटे थे-एक पाकिस्तान में, दूसरा भारत में उन्हीं के साथ रहता था, जिसका नाम था-मोहम्मद फारुक। फारुक की मृत्यु सन् 1954 में हो गयी थी।
श्री अंसारी इकराम अली के यहाँ बच्चों को पढ़ाते भी थे। जैसे ही उस दिन वे अपने बेटे के साथ उनके मकान में प्रविष्ट हुए, करीम उल्लाह कहने लगा कि यह तो हमारा अपना मकान है। उसने बताया कि पूर्वजन्म में वह मोहम्मद फारुक के नाम से इस घर का सदस्य था। उसने अपनी सभी वस्तुओं को पहचाना। अपनी पूर्व पत्नी श्रीमती फातिमा बेगम को भी पहचाना। उससे बातें भी लहजे में कीं तथा कई ऐसे रहस्यों को उद्घाटित किया जिसे केवल फारुक स्वर्गीय मोहम्मद फारुक और उनकी पत्नी बेगम फातिमा ही जानती थी। उसने यह भी बताया कि उसके पास एक बंदूक थी, साथ ही यह रहस्योद्घाटन भी किया कि किस तरह पाँच हजार रुपये उसने भाई के पास पाकिस्तान भेजे व बैंक के निजी खाते में मृत्यु के समय भी तीन हजार रुपये जमा थे। इस तरह की कितनी ही गुप्त बातें बतायीं, जिसे इकराम अली के परिवार ने सही पाया। यह बात भी सामने आयी कि सन् 1954 में मोहम्मद फारुक की मृत्यु हुई थी और उसी वर्ष करीम उल्लाह का जन्म उसी शहर में हुआ था। पुनर्जन्म की यह घटना तब वाराणसी से निकलने वाले समाचार पत्र-संसार के दिनाँक 3/7/59 के अंक में विस्तारपूर्वक छपी थी।
इसके अतिरिक्त कई अन्य समाचारपत्रों ने भी इसे प्रकाशित किया था।
अनुसंधानकर्ताओं ने पुनर्जन्म के अनेकों प्रमाण जुटाये हैं, किंतु इनमें से सर्वाधिक महत्व और प्रामाणिक एडगर केसी के कथनों को माना गया है, जिसने ऐसे विवरण बताये हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि सत्कर्मों या दुष्कर्मों का फल इसी या दूसरे जन्म में अवश्य मिलता है। उन्होंने जो प्रमाण जुटाये थे उनमें से अधिकाँश कष्ट पीड़ित, विकलांग एवं रोगी थे। उन्हें यह व्यथा क्यों झेलनी पड़ी, इस संदर्भ में जो विवरण एवं तथ्य सामने आये, वे सत्य थे। इनकी प्रामाणिकता में बताये गये घटनाक्रम को खोज कर्ताओं ने एकदम सही पाया। इसी प्रकार पूर्वजन्म, कर्मफल पर तथा रोग-चिकित्सा पर केसी ने प्रकाश डाला हैं। वह जो भी स्थान, वस्तुएँ व्यक्ति, सम्बन्धियों की सूचना देता, वे सही पाये गये। वे सभी प्रायः इतनी दूर के होते थे कि सोचा भी नहीं जा सकता था कि उनमें किसी प्रकार कोई छल, कपट अथवा अविश्वास किया गया है। सारी कसौटियाँ किया गया है। सारी कसौटियाँ यही प्रमाणित करती हैं कि पुनर्जन्म ध्रुव सत्य है। शरीर नष्ट होने पर आत्मा नष्ट नहीं होती। वह अनेकों स्मृतियाँ अपने में सँजोये रहती है।
निश्चित ही पुनर्जन्म की मान्यता जितनी सत्य है, उतनी ही लोकोपयोगी भी। आत्मा की अमरता और मरणोपरान्त पुनः शरीर धारण में यदि आस्था बनी रहे, तो व्यक्ति दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाकर कर्मफल और ईश्वर में विश्वास बनाये रह सकता है और निकृष्ट कर्मों से विरत रहकर श्रेष्ठ कर्मों में लगा रह सकता है।