Magazine - Year 2000 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
चिरपुरातन, फिर भी चिरनवीन वास्तुशास्त्र
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
भारतीय संस्कृति का पुरातन अतीत आध्यात्मिक ज्ञान की आभा से प्रदीप्त रहा है। जिसकी प्रकाश रश्मियाँ सारे विश्व में उजियारा किया करती थीं। यहाँ के महर्षिगणों का पुरुषार्थ केवल आत्मोत्कर्ष तक सीमित न था, बल्कि वे मानवीय जीवन को भौतिक रूप से भी सुँदर व समुन्नत बनाने के लिए प्रयासरत थे। इसी के अंतर्गत उन्होंने नानाप्रकार की विद्याओं व कलाओं का सृजन किया था। इनमें से वास्तुकला अर्थात् भवननिर्माण के ज्ञान विज्ञान की खोज उनकी उल्लेखनीय उपलब्धि थी।
वैदिक काल में वास्तुशास्त्र को उपवेद के रूप में मान्यता मिली थी। इसे स्थापत्य वेद भी कहा जाता था। वास्तुकला का सर्वप्रथम उल्लेख विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में मिलता है। इसमें वास्तु -स्थापत्य का उल्लेख कई जगह पर हुआ है। ऋग्वेद में कई जगह ( ) वास्तोस्पति नामक देवता का उल्लेख है। जिसका गृह निर्माण से पूर्व आह्वान किया जाता था। मत्स्यपुराण एवं वृहतसंहिता में वास्तु के 26 आचार्यों का उल्लेख है। जिनमें प्रायः सभी वेदकालीन महर्षि है। इनके नाम भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजित, विपालाक्ष, पुरंदर ब्रह्म कुमार, नदीश, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्व, शुक्र, बृहस्पति, मनु, पराशर, कश्यप, भारद्वाज, प्रहाद, अगस्त्य और मार्कण्डेय है।
इनमें विश्वकर्मा और मय सर्वाधिक प्रचलित आचार्य है। विश्वकर्मा को देवताओं का वास्तुविद् और मय को असुरों का वास्तुविद् माना गया है। वैदिक काल में जन्में वास्तुशास्त्र का रूप वेदाँत के समय स्थिर हुआ। पुराणों और आगमों में इसका विकास हुआ। बाद में वास्तुविद्या के आचार्यों ने इसे अलग शास्त्र का रूप दिया। महाभारत काल में इसके पूरी तरह से विकसित होने के प्रमाण है। वैदिक काल में इसे पूरी तरह से विकसित होने के प्रमाण हैं। वैदिक काल में रचित इस शास्त्र की दिशा व दशा 13 वीं शताब्दी तक अच्छी रही । इसके बाद इसमें भटकाव का दौर आया और यह विद्या लुप्तप्राय सी हो गई।
पिछले दो तीन दशकों से यह उपेक्षित कला पुनः प्रकाश में आ रही है। आज इसकी उपयोगिता एवं वैज्ञानिकता पर नए सिरे से व्यापक शोधकार्य चल रहा है। इसी के परिणामस्वरूप आज पूरे विश्व में स्थापत्य वेद के महत्व को नई दृष्टि से देखा व समझा जा रहा है। 20 जनवरी 1114 ई.में लास एंजेल्स (संयुक्त राज्य अमेरिका) के कारीगरों ने अथर्ववेद के स्थापत्यशास्त्र पर आधारित विश्व का प्रथम भवन-निर्माण करने का दावा किया। इस भवन के इंजीनियर श्री मोरिस थिंलडर हैं और इसके स्वामी श्री किरीट कुमार पटेल है। अग्नि पुराण, मयतत, भुवन प्रदीप, विश्वकर्मा प्रकाश, नारदशास्त्र आदि ग्रंथों पर यहाँ व्यापक शोधकार्य चल रहा है। डेढ़ सौ वर्ष पूर्व टाबलर हेमल्टिन ने भारतीय वास्तुविद्या पर सात सौ पृष्ठों का एक ग्रंथ लिखा था, ‘आर्किटेक्टर थ्रू एज’ जो बाद में 1163 में प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ को आज भी पश्चिम के वास्तुविद् शास्त्र की तरह पढ़ते हैं।
भारत के अतिरिक्त अन्य एशियाई व अफ्रीकी देशों में वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों को प्राचीनकाल से ही मान्यता मिलती आई है। लैटिन में वास्तुशास्त्र को ‘जिमोमेंशिया’ कहा जाता है। अरब में इसे ‘रेत का शास्त्र कहा जाता है। तिब्बत में वास्तुशास्त्र को बागुवातंत्र कहा गया है। अफ्रीका के वास्तुशास्त्र में वायु,अग्नि,पृथ्वी व जल का विचार ब्रह्मांड के चार मूल रूपों में किया गया है। चीन, हाँगकाँग और दक्षिण पूर्व एशिया में वास्तुशास्त्र को फेंगसुई कहते हैं। वहाँ की 10 प्रतिशत जनता फेंगसुई के आधार पर ही अपने भवन, दुकान व होटलों का निर्माण करती है। चीनी भाषा में ब्रह्मांड की शक्ति ‘द्वि’ है और व्यक्ति की आत्मिक शक्ति का नाम ‘ची’ है। इन दोनों को जोड़ने वाले सुम का नाम ‘ताओ’ है। इन दोनों शक्तियों का परस्पर संतुलन ही जीवन का प्राणतत्व है। द्वि ही भूमि वन कक्ष आदि की शक्ति -स्रोत मानी जाती है। चीनी वास्तुशास्त्र ‘फेंगसुई’ में दोनों शक्तियों ‘याँग’ और ‘यिन’ का भी उल्लेख है। याँग ब्रह्मांड में व्याप्त धनात्मक शक्ति है, ‘जिसका संबंध स्वर्ण पौरुष (घनत्व) और ऊष्मा से है। ‘यिन’ ब्रह्मांड की ऋणात्मक शक्ति है। इसका संबंध नारीत्व, पृथ्वी, शीतलता व तमस से है। चीनी विचारकों के अनुसार यिन-याँग का संतुलन ही पारिवारिक जीवन की सुख -समृद्धि का आधार है।
भारत में वास्तुशास्त्र पंचमहाभूतों (अग्नि, जल, आकाश,पृथ्वी और वायु) तथा आठ दिशाओं पर आधारित है। इन पंचमहाभूतों से उचित तालमेल बिठाते हुए भवन के माध्यम से कैसे इनसे अधिकाधिक लाभान्वित हुआ जाए यही वास्तुविद्या का प्रमुख विषय है। भवन निर्माण का आधार भूमि है। अतः भवननिर्माण के लिए उत्तम भूखण्ड के चयन पर विशेष ध्यान दिया जाता है। निवासस्थल का भूखंड तक अपनी स्थिति के अनुरूप वास्तु के प्रभावों को ग्रहण करते हैं। अफ्रीका का ही उदाहरण लें। इसका भूखंड त्रिकोणात्मक है। पूर्वोत्तर भाग खंडित है। और उत्तर दक्षिण भी कटा हुआ है। मध्य -पश्चिम में असंतुलित फैलाव है। दक्षिण व पश्चिम दिशा में महासागर है,जो दूर-दूर तक फैले हैं। पूर्व और उत्तर में पर्वत है,कही मैदान भी है, तो वहाँ की भूमि ऊबड़ खाबड़ है। वास्तु के अनुसार इन दोषों का परिणाम कलह क्लेश होना चाहिए। वस्तुस्थिति भी यही है अफ्रीका में जब तब युद्ध हिंसा अकाल, महामारी, जैसी आपदाएँ आती है। जहाँ भूखंड के आकार -प्रकार शुभ है, तो वहाँ इसके शुभ परिणाम भी है।
वास्तुशास्त्र के अनुसार भूखंड के चुनाव पर विशेष ध्यान देना चाहिए। वास्तु सिद्धांतों में भवन के चारों ओर तथा भवन के मध्य खुला आकाश रहना आवश्यक कहा गया है। इसके अनुसार भवन में जल संसाधनों के स्थानों पर भी ध्यान दिया गया है। इस क्रम में अग्नि के सभी उपकरणों की स्थापना आग्नेय कोण में निर्देशित है। वायु के उचित आगमन के लिए खिड़कियों व रोशनदानों का भी बाहुल्य होना चाहिए। इन तत्वों की परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया के अनुरूप इनमें संतुलन बिठाया जाता है। यदि विपरीत तत्वों में संतुलन न बिठाया गया, तो अशुभ परिणाम आते हैं।
पंचतत्वों के प्रभाव को अनुकूल करने के साथ दिशाओं के निर्धारण में उत्तरी ध्रुव से आने वाले चुँबकीय प्रवाह और पूर्व से आने वाली सूर्य रश्मियों को घर के भीतर समेटने और उससे लाभ उठाने की कला का विचार भी इस शास्त्र में निहित है। भवननिर्माण इस तरह किया जाता है कि चुँबकीय शक्ति उत्तरी ध्रुव की ओर प्रवाहित होती है। इसी सिद्धांत के अनुसार वास्तुशास्त्र के अनुरूप भवननिर्माण में समस्त वजनी वस्तुएँ पश्चिम में रखने का विधान है।
भवन निर्माण में दिक् सामुख्य कि अंतर्गत पूर्व दिशा सर्वाधिक महत्व की है। जिसका सूर्योदय से सीधा संबंध है। प्रातः कालीन सूर्य रश्मियों में अल्ट्रावायलेट किरणों का बाहुल्य रहता है। मध्याह्न में रेडियोधर्मितापूर्ण किरणों का सूर्यास्त के समय इन्फ्रारेड किरणों की प्रधानता रहती है। प्रातः कालीन किरणें लाभदायक होती है। मध्याह्न व सूर्यास्त कालीन किरणें क्रमशः हानिकारक जिनसे बचाव के लिए पूर्व उत्तरी हिस्सा नीचा बनाने का विधान है। पूर्व उत्तर में अधिक खिड़की-दरवाजे अभीष्ट है व दक्षिण पश्चिम में कम। आग्नेयकोण में रसोई घर बनाने का विधान है,क्योंकि इस दिशा में सूर्य रश्मियों और शुद्ध वायु का बाहुल्य रहता है।
वास्तुशास्त्र में चुँबकीय उत्तर क्षेत्र को कुबेर का स्थान माना गया है। यह भी सलाह दी जाती है कि जब कोई व्यापारिक वार्ता या परामर्श में भाग ले तो उत्तर की ओर मुख करना सर्वाधिक लाभप्रद होगा। इसका कारण यही है कि इस ओर चुँबकीय तरंगें विद्यमान रहती है, जो मस्तिष्क को अधिक सक्रिय करती है और शुद्ध वायु की उपलब्धि के कारण ऑक्सीजन की अतिरिक्त मात्रा मस्तिष्क को सक्रिय कर स्मरणशक्ति बढ़ाती है, जो सब मिलकर व्यक्ति की व्यापारिक व अन्य तरह की प्रगति को अधिक सुनिश्चित करती है।
वास्तुशास्त्र की वैज्ञानिक से कही अधिक महत्वपूर्ण इसमें निहित धार्मिक एवं आध्यात्मिक तत्व है। यही भारतीय संस्कृति का जीवन प्राण भी है। यतोडभ्युदयनिः श्रेयससिद्वि स धर्म अर्थात् जिससे मानव की साँसारिक उन्नति और आध्यात्मिक प्रगति सिद्ध हो, वही धर्म है। यही कारण है कि वास्तुविद्या में भूमिपूजन से लेकर गृहप्रवेश तक सभी क्रियाओं में धार्मिक भावनाएँ जुड़ी है। आखिर वैज्ञानिकता एवं आध्यात्मिकता के मेल मिलाप से ही तो संपूर्ण सुख शाँति और समृद्धि संभव है।
तिरूपति में भगवान वेंकटेश का मंदिर ऐश्वर्य की दृष्टि से संसार का सबसे बड़ा धर्मस्थल हैं । इसके अन्य जो भी कारण हों वास्तुविदों के अनुसार प्रमुख कारण उसका निर्माण वास्तु सिद्धांतों के अनुसार हुआ है। तीन ओर पहाड़ियों से घिरा यह मंदिर पूर्वमुखी है। मंदिर के अधिष्ठाता देव बालाजी की मूर्ति पश्चिम में प्रतिष्ठित है। वह भी पूर्वोन्मुखी है। उत्तर में आकाशगंगा तालाब है। अर्थात् मंदिर का निर्माण शत प्रतिशत वास्तु नियमों के अनुसार किया गया है।