Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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आलौकिक चेतना में रमा-बसा दिव्य तीर्थ धाम
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हवाओं में काफी मात्रा में ठंड घुल चुकी थी। भगवान सूर्यदेव द्वारा उदारतापूर्वक दी गई मखमली धूप वाली चादर के बावजूद यदा कदा ठंड का तीखा अहसास देह और मन को बींध देता था। हालाँकि ठंड के इस अहसास के बाद भी वर्ष 1989 के दिसंबर महीने के ये शुरुआती दिन बड़े ही सुखद, आश्चर्यजनक एवं आनंदपूर्ण थे, क्योंकि इन दिनों आनंद के सघन घन परमपूज्य गुरुदेव की गोष्ठियों में प्रतिदिन नियमित निरंतर बरस रहे थे। गुरुदेव की ये गोष्ठियाँ हर रोज होती थी और इनमें भागीदार होने वालो के तन मन अंतःकरण आनंद की फुहारों से भीग जाते थे। यह जीवन का ऐसा अनुभूत सत्य है, जिसकी कथा अनुभूति के स्तर पर ही कही, सुनी, जानी और समझी जा सकती है।
गुरुदेव की गोष्ठियों में इंद्रधनुषी रंगों की छटा छाई रहती थी। बड़ा ही अद्भुत होता था इन रंगों का रंजन, समंजन और सामंजस्य का वैविध्य। कभी मुक्त हास्य, कभी मृदु मधुर मुस्कान कभी नीरव गाँभीर्य की चुप्पी, कभी अग्नि स्फुल्लिंगों सी उनके वचनों की दाहक ऊष्मा तो कभी किसी रहस्यमय अलौकिक लोक से अवतरित होती उनकी शब्द चेतना। कुल मिलाकर उनकी गोष्ठियों की ये कथाएँ इतनी अकथ हैं कि कथाओं के कुछ अंशों को ही कहा और सुना जा सकता है, वह भी अनुभूति रस में अपने मन प्राणों को डुबाकर। जिस दिन की अमृत कथा हम आपको सुना रहे हैं, वह दिन बड़ा ही सौभाग्यशाली था। परमपूज्य गुरुदेव साधनामय जीवन के कुछ रहस्यमय सूत्र बता रहे थे।
अपनी बातों के प्रसंग में साधना का यह नया प्रसंग जोड़ते हुए बोले, पहली बात तो तुम लोग यह जान लो कि साधना कुछ धार्मिक पुस्तकों के पढ़ने का नाम नहीं है। यह करने का नाम है। किताबों में तरह तरह की मिठाइयों के लिखे हुए नाम और उनके भाँति भाँति के चित्र पढ़ने देखने से किसी भी मिठाई का कोई स्वाद नहीं मिलता। उसके लिए हलवाई की दुकान पर जाना पड़ता है, जेब के पैसे खरच करने पड़ते हैं, तब कही मिठाई मिलती है और उसे खाकर स्वाद का आनंद मिलता है। ठीक यही बात साधना के बारे में हैं। केवल गायत्री महाविज्ञान पढ़ने से, अखण्ड ज्योति के पन्ने उलट लेने से कुछ खास होने वाला नहीं है। गायत्री महाविज्ञान में जो लिखा है, उसे भावभरी श्रद्धा एवं दृढं संकल्प के साथ लंबे समय तक करके देखो, तुम्हारी पूरी जिंदगी बदल जाएगी। यह कहते हुए वह धीरे से बोले, गायत्री महाविज्ञान में ऐसा एक अक्षर भी नहीं है, जो मेरी अनुभूतियों से न गुजरा हो। उसमें लिखी हुई कोई बात हो, चाहे चौबीस हजार के लघु अनुष्ठान के बारे में हो, उसमें लिखे हुए सारे अनुशासनों को मानते हुए ये अनुष्ठान लंबे समय तक करते जाओ, फिर देखो कैसे बदलाव नहीं आता है।
गुरुदेव के ये शब्द सुनने वालों के हृदयों को सीधे बेधते हुए अस्तित्व की गहराइयों में प्रवेश की तीव्र हलचल मचा रहे थे। तभी एक प्रश्न ने बातों की दिशा को एक नया मोड़ दिया। प्रश्न था साधना में वातावरण का बहुत महत्व बताया जाता है? इस सवाल को सुनकर गुरुदेव किंचित गंभीर हो गए। वातावरण में कुछ मिनटों तक एक रहस्यमय चुप्पी छाई रही। प्रखर आध्यात्मिक तेज से परिपूर्ण गुरुदेव के नेत्रों का प्रकाश वहाँ उपस्थित जनों पर समान रूप से बिखरता रहा। मनों में समवेत ऊहापोह थी कि अब वे क्या कहेंगे? अब कौन सा रहस्य अनावृत होगा?
सभी के चिंतन की इन कड़ियों को उनके शब्दों ने एक आँतरिक झंकार के साथ बिखरा दिया। वह बोल रहे थे, बेटा, वातावरण का महत्व असाधारण और अद्भुत है, परंतु इसे ग्रहण करने के लिए इसे धारण करने के लिए भी योग्यता चाहिए। अब देखो, साधना के लिए सबसे अच्छा वातावरण हिमालय का माना जाता है, पर हिमालय जाने वाले, वहाँ रहने वाले सभी उसका लाभ कहाँ उठा पाते हैं? मैं जब हिमालय गया तो वहाँ देखा, दो साधु वेशधारी थोड़ी सी जमीन के लिए झगड़ा कर रहे हैं। यहाँ तक कि नौबत सिर फुटब्बल की आ गई। एक तरफ हिमालय में ऐसे लोभी लालची, द्वेष दुर्भाव से ग्रस्त लोग, दूसरी ओर उच्च साधनासंपन्न ऋषि और महायोगी भी हैं, जिन्होंने हिमालय के वातावरण में अपने को पूरी तरह से डुबा दिया है।
यह कहते हुए उन्होंने अद्भुत रहस्य उद्घाटित किया। वे बोले, बेटा, मैंने तुम लोगों को साधना का वातावरण प्रदान करने के लिए शाँतिकुँज बनाया है। यह अद्भुत, संस्कारवान स्थान है। यहाँ हिमालय का स्थूल रूप तो नहीं है, पर तुम लोग साधना की गहराई में उतर सको तो देख पाओगे कि मैंने यहाँ हिमालय की समूची चेतना को उतार दिया है। यहाँ पर साधना करने वालों को शीघ्र, अद्भुत एवं चमत्कारी परिणाम मिलें, इसके लिए मैंने और माताजी ने अपने जीवन भर की तपस्या लगा दी है। यही नहीं हिमालय में रहने वाले ऋषि, मुनि एवं महायोगी भी यहाँ अपनी छाया रखते हैं। शाँतिकुँज समूची धरती पर ऐसा विरल दिव्य धाम है, जो बसा तो इसी धरती पर है, पर जिसकी चेतना पूरी तरह अलौकिक हैं।
इन शब्दों को कहते हुए उनमें एक विचित्र भाव परिवर्तन झलका। एक पल को वहाँ सन्नाटा पसर गया। वह थोड़ा खिन्न मन से बोले, मैंने थाली परोसकर रख दी है, पर तुम लोग खा भी नहीं सकते। यहाँ रहने वालों को देखकर मुझे तरस आता है। आ तो गए हैं, पर साधना करने की लगन ही है। घर से यह कहकर आए थे कि गुरुजी का काम करेंगे और साधना करेंगे। माँ-बाप को रुलाया, रिश्ते नातेदारों को दुखी किया, पर यहाँ आकर इंचार्ज बनने के फेर में पड़ गए। जो कुँवारे हैं, वह शादी के लिए परेशान हैं। जिनकी शादी हो गई, उन्हें बच्चा चाहिए। जिनके एक बच्चा है, तो उन्हें एक की बजाय दो चाहिए। कार्यकर्ता, स्वयंसेवक बनने में शान नहीं महसूस करते, इंचार्ज बनना चाहते हैं। मैनेजर बनने के लिए परेशान हैं।
इन शब्दों में गुरुदेव की गहरी पीड़ा, सघन करुणा झलक रही थी। इन शब्दों में अपने बच्चों के लिए उनकी टीस और दर्द था। बिना किसी विराम के वह कह रहे थे, वातावरण का लाभ लेने के लिए उसमें अपने मन को डुबाना पड़ता है। दुनिया की चिंता छोड़कर अपने भाव उसमें भिगोने पड़ते हैं। वातावरण के प्रवाह में अपने प्राणों को प्रवाहित करना पड़ता है। ऐसा करो, फिर बताओ कि शांतिकुंज का वातावरण चमत्कारी है या नहीं। तुम लोगों के पास काम ज्यादा हो, लगातार अनुष्ठान न कर सको, तो कम से कम चौबीस घंटे सोते-जागते यही सोचो कि शाँतिकुँज में चारों ओर गुरुजी का तप प्राण बिखरा पड़ा है और हम उसे अपने रोम-रो से, साँस-साँस से ग्रहण धारण कर रहे हैं। गुरुजी की तपस्या हमारे आँतरिक जीवन को दिव्य और बाहरी जीवन को नैतिक व निर्मल बना रही है, इस भाव में दो साल जीकर देखो, फिर देखो इसके चमत्कार।
अरे बेटा, शाँतिकुँज साधारण जगह नहीं है। यह शिव की काशी हैं। जहाँ माता जी के रूप में स्वयं माता अन्नपूर्णा रहती है। स्वयं हम रहते हैं। हम दोनों की देह रहे या न रहे, पर हम दोनों यहाँ सदा सर्वदा रहेंगे। हम दोनों अपने इस दिव्य धाम को कभी किसी भी हाल में छोड़ने वाले नहीं हैं। शांतिकुंज तो महाकाल का घोंसला है। यहाँ महाकाल स्वयं रहते हैं। सृष्टि की अनंत दैवी एवं दिव्य शक्तियाँ यहाँ हमेशा क्रियाशील रहती है। जो साधना करेगा, वही इस रहस्य को जान पाएगा। यहाँ छोटी सी भी तप साधना बड़े भारी परिणाम देगी। करके तो देखो, मन को मथने वाली गुरुदेव की इन बातों ने अंतःकरण में हलचल मचा दी। इतने वर्षों के बाद भी उस हलचल के स्पंदन अभी भी महसूस हो रहे हैं। यदि ऐसा ही कुछ आपको भी महसूस हो रहा है, तो परमपूज्य गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य करके सत शिष्य के कर्तव्य निर्वहन में जुट जाइए। महासिद्ध के शिष्यों को साधक तो होना ही चाहिए। इसी में हमारी शान हैं।