Books - आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति
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Language: HINDI
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संयम है प्राण- ऊर्जा का संरक्षण, सदाचार ऊर्ध्वगमन
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संयम- सदाचार के प्रयोग चिकित्सा की आध्यात्मिक प्रक्रिया के आधार हैं। इन्हीं के बलबूते आध्यात्मिक चिकित्सा के संरजाम जुटते और अपना परिणाम प्रस्तुत करते हैं। हालाँकि चिकित्सा की अन्य विधियाँ इन प्रयोगों के बारे में मौन हैं। लेकिन अगर इन्हें ध्यान से परखा जाय तो इनमें भी किसी न किसी स्तर पर यह सच्चाई झलकती है। रोगी का रोग निदान करने के बाद प्रायः सभी चिकित्सक खानपान के तौर- तरीके और जीवनशैली के बारे में निर्देश देते हैं। इन निर्देशों में प्रकारान्तर से संयम- सदाचार ही अन्तर्निहित रहता है। तनिक सोचें तो सही- कौन ऐसा चिकित्सक होगा जो अपने गम्भीर रोगी को तला- भुना खाना, मिर्च- मसालेदार गरिष्ठ चीजों के उपयोग की इजाजत देगा। यही क्यों रोगियों के साथ राग- रंग एवं विलासिता के विषय भोग भी वर्जित कर दिये जाते हैं।
चिकित्सा की कोई भी पद्धति रोगियों के जीवनक्रम का जिस तरह से निर्धारण करती है, प्रकारान्तर से वह उन्हें संयम- सदाचार की सिखावन ही है। इस सिखावन की उपेक्षा करके कोई गम्भीर रोग केवल औषधियों के सहारे ठीक नहीं होता है। इसमें इतना जरूर है कि इन चिकित्सकों एवं रोगियों की यह आस्था रोग निवारण तक ही किसी तरह टिक पाती है। रोग के लक्षण गायब होते ही फिर वे भोग- विलास में संलग्न होकर नये रोगों को आमंत्रित करने में जुट जाते हैं। जबकि आध्यात्मिक चिकित्सा की जीवन दृष्टि एवं जीवनशैली संयम- सदाचार के प्रयोगों पर ही टिकी है। आध्यात्मिक चिकित्सकों ने इन प्रयोगों को बड़ी गहनता से किया है। इसकी विशेषताओं एवं सूक्ष्मताओं को जाना है और इसके निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं।
आध्यात्मिक चिकित्सकों के लिए संयम- सदाचार प्राण ऊर्जा को संरक्षित, संग्रहीत व संवर्धित करने की वैज्ञानिक विधियाँ हैं। आमतौर पर संयम और सदाचार को एक विवशता के रूप में जबरदस्ती थोपे गये जीवन क्रम के रूप में लिया जाता है। कई लोग तो इन्हें प्रवृत्तियों के दमन के रूप में समझते हैं और पूरी तरह से अवैज्ञानिक मानते हैं। आध्यात्मिक चिकित्सकों का कहना है कि ऐसे लोग दोषी नहीं नासमझ हैं। दरअसल इन लोगों को प्राण ऊर्जा के प्रवाह की प्रकृति, उसमें आने वाली विकृति एवं इसके निदान- निवारण की सूक्ष्म समझ नहीं है। ये जो भी कहते हैं अपनी नासमझी की वजह से कहते हैं।
बात समझदारी की हो तो संयम- प्राण ऊर्जा का संरक्षण है और सदाचार उसका उर्ध्वगमन है। ये दोनों ही तत्त्व नैतिक होने की अपेक्षा आध्यात्मिक अधिक है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अकेले प्राण ऊर्जा का संरक्षण पर्याप्त नहीं है, इसका ऊर्ध्वगमन भी जरूरी है। हालाँकि अकेले संरक्षण हो तो भी व्यक्ति बीमार नहीं होता, पर यदि बात प्राण शक्ति से मानसिक सामर्थ्य के विकास की हो तो इसका ऊर्ध्वगमन भी होना चाहिए। आयुर्वेद के कतिपय ग्रंथ इस बात की गवाही देते हैं कि जिस भी व्यक्ति में प्राणों का ऊर्ध्वगमन हो रहा है, उसके स्नायु वज्र की भाँति मजबूत हो जाते हैं। उसकी धारणा शक्ति असाधारण होती है। वह मनोबल व साहस का धनी होता है।
इस सच्चाई को और अधिक व्यापक ढंग से जानना चाहे तो संयम का अर्थ है- अपने जीवन की शक्तियों की बर्बादी को रोकना। बूँद- बूँद करके उन्हें बचाना। इस प्रक्रिया में इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम व विचार संयम को प्रमुखता दी जाती है। जहाँ तक सदाचार का प्रश्र है तो यह आध्यात्मिक शक्तियों के विकास के लिए किया जाने वाला आचरण है। यह किसी तरह की विवशता नहीं बल्कि जीवन के उच्चस्तरीय प्रयोजनों के प्रति आस्था है। जिनमें यह आस्था होती है वे शुरुआत में भले ही जड़ बुद्धि हों लेकिन बाद में प्रतिभावान् हुए बिना नहीं रहते। उनकी मानसिक सामर्थ्य असाधारण रूप से विकसित होती है।
अभी कुछ दिनों पूर्व साइकोन्यूरो इम्यूनोलॉजी के क्षेत्र में एक प्रयोग किया गया। यह प्रयोग दो विशिष्ट वैज्ञानिकों आर. डेविडसन और पी. एरिकसन ने सम्पन्न किया। इस प्रयोग में उन्होंने चार सौ व्यक्तियों को लिया। इसमें से २०० व्यक्ति ऐसे थे, जिनकी अध्यात्म के प्रति आस्था थी जो संयमित एवं सदाचार परायण जीवन जीते थे। इसके विपरीत २०० व्यक्ति इनमें इस तरह के थे जिनका विश्वास भोगविलास में था, जो शराबखानों व जुआघरों में अपना समय बिताते थे। जिनकी जीवनशैली अस्त- व्यस्त थी। इन दोनों तरह के व्यक्तियों का उन्होंने लगातार दस वर्षों तक अध्ययन किया।
अध्ययन की इस प्रक्रिया में उन्होंने देखा कि जो व्यक्ति संयम, सदाचार पूर्वक जीते हैं, वे बीमार कम होते हैं। उनमें मानसिक उत्तेजना, उद्वेग एवं आवेग बहुत कम होते हैं। ऐसे व्यक्ति प्रायः तनाव, दुश्चिंता से मुक्त होते हैं। यदि इन्हें कोई बीमारी हुई भी तो ये बहुत जल्दी ठीक हो जाते हैं। चाट लगने पर या ऑपरेशन होने पर उनकी अपेक्षा इनके घाव जल्दी भर जाते हैं। इसके विपरीत असंयमित एवं विलासी मनोभूमि वालों की स्थिति इनसे ठीक उलटा पायी गयी। इनकी जीवनी शक्ति नष्ट होते रहने के कारण इन्हें कोई न कोई छोटी- मोटी बीमारियाँ हमेशा घेरे रहती हैं। छूत की बीमारियों की सम्भावना इनमें हमेशा बनी रहती है। तनाव, दुश्चिंता, उत्तेजना, आवेग तो जैसे इनका स्वभाव ही होता है। कोई बीमारी होने पर अपेक्षाकृत ये जल्दी ठीक नहीं होते। एक ही बीमारी इन्हें बार- बार घेरती रहती है। चोट लगने या ऑपरेशन होने पर इनके घाव भरने में ज्यादा समय लगता है। इस स्थिति को एक दशक तक परखते रहने पर डेविडसन व एरिकसन ने यह निष्कर्ष निकाला कि संयम- सदाचार से व्यक्ति में प्रतिरोधक क्षमता में असाधारण वृद्धि होती है। इसी कारण उनमें शारीरिक व मानसिक रोगों की सम्भावना कम रहती है। यदि किसी तरह से कोई रोग हुआ भी तो इनसे छुटकारा जल्दी मिलता है।
इस क्रम में इस वैज्ञानिक दृष्टि की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टि कहीं ज्यादा गहरी व सूक्ष्म है। हमने परम पूज्य गुरुदेव के जीवन में इस सत्य की अनुभूति पायी है। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में उन्होंने तो केवल अपने संकल्प से अनगिनत लोगों को रोग मुक्त किया। पर अखण्ड ज्योति संस्थान के निवास काल में रोग निवारण की इस प्रक्रिया को वे थोड़े अलग ढंग से सम्पन्न करते थे। इसके लिए वे रोगी का पहना हुआ कपड़ा माँगते थे, और उसके प्राणों के सूक्ष्म परमाणुओं का परीक्षण आध्यात्मिक रीति से करते थे। बाद में स्थिति के अनुरूप उसकी चिकित्सा करते थे।
ऐसे ही एक बार उनसे गुजरात के देवेश भाई ने अपने किसी रिश्तेदार के बारे में उन्हें लिखा। ये रिश्तेदार कई बुरी आदतों का शिकार थे। हालाँकि इनका स्वास्थ्य काफी अच्छा था। गुरुदेव ने देवेश भाई से इनका पहना हुआ कपड़ा मँगाया। कपड़े के आध्यात्मिक परीक्षण के बाद उन्होंने देवेश भाई को चिट्ठी लिखी कि तुम्हारे इन रिश्तेदार के जीवन के दीये का तेल चुक गया है और अब शीघ्र ही इनकी ज्योति बुझने वाली है। गुरुदेव के इस पत्र पर देवेश भाई को यकीन ही नहीं हुआ। क्योंकि ये रिश्तेदार तो पर्याप्त स्वस्थ थे। देवेश भाई गुरुदेव की इस चिट्ठी को लेकर सीधे मथुरा पहुँचे। सामने मिलने पर भी गुरुदेव ने अपनी उन्हीं बातों को फिर से दुहराया। सभी को अचरज तो तब हुआ जब ये रिश्तेदार महोदय पंद्रह दिनों बाद चल बसे। इस पर गुरुदेव ने उन्हें पत्र लिखकर कहा- यदि जीवनीशक्ति बिल्कुल भी न बची हो और संयम- सदाचार की अवहेलना के कारण जीवन के पात्र में छेद ही छेद हैं; तो आध्यात्मिक चिकित्सा असम्भव है। आध्यात्मिक चिकित्सा के लिए आध्यात्मिक जीवनशैली को अपनाना बेहद जरूरी है।
चिकित्सा की कोई भी पद्धति रोगियों के जीवनक्रम का जिस तरह से निर्धारण करती है, प्रकारान्तर से वह उन्हें संयम- सदाचार की सिखावन ही है। इस सिखावन की उपेक्षा करके कोई गम्भीर रोग केवल औषधियों के सहारे ठीक नहीं होता है। इसमें इतना जरूर है कि इन चिकित्सकों एवं रोगियों की यह आस्था रोग निवारण तक ही किसी तरह टिक पाती है। रोग के लक्षण गायब होते ही फिर वे भोग- विलास में संलग्न होकर नये रोगों को आमंत्रित करने में जुट जाते हैं। जबकि आध्यात्मिक चिकित्सा की जीवन दृष्टि एवं जीवनशैली संयम- सदाचार के प्रयोगों पर ही टिकी है। आध्यात्मिक चिकित्सकों ने इन प्रयोगों को बड़ी गहनता से किया है। इसकी विशेषताओं एवं सूक्ष्मताओं को जाना है और इसके निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं।
आध्यात्मिक चिकित्सकों के लिए संयम- सदाचार प्राण ऊर्जा को संरक्षित, संग्रहीत व संवर्धित करने की वैज्ञानिक विधियाँ हैं। आमतौर पर संयम और सदाचार को एक विवशता के रूप में जबरदस्ती थोपे गये जीवन क्रम के रूप में लिया जाता है। कई लोग तो इन्हें प्रवृत्तियों के दमन के रूप में समझते हैं और पूरी तरह से अवैज्ञानिक मानते हैं। आध्यात्मिक चिकित्सकों का कहना है कि ऐसे लोग दोषी नहीं नासमझ हैं। दरअसल इन लोगों को प्राण ऊर्जा के प्रवाह की प्रकृति, उसमें आने वाली विकृति एवं इसके निदान- निवारण की सूक्ष्म समझ नहीं है। ये जो भी कहते हैं अपनी नासमझी की वजह से कहते हैं।
बात समझदारी की हो तो संयम- प्राण ऊर्जा का संरक्षण है और सदाचार उसका उर्ध्वगमन है। ये दोनों ही तत्त्व नैतिक होने की अपेक्षा आध्यात्मिक अधिक है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अकेले प्राण ऊर्जा का संरक्षण पर्याप्त नहीं है, इसका ऊर्ध्वगमन भी जरूरी है। हालाँकि अकेले संरक्षण हो तो भी व्यक्ति बीमार नहीं होता, पर यदि बात प्राण शक्ति से मानसिक सामर्थ्य के विकास की हो तो इसका ऊर्ध्वगमन भी होना चाहिए। आयुर्वेद के कतिपय ग्रंथ इस बात की गवाही देते हैं कि जिस भी व्यक्ति में प्राणों का ऊर्ध्वगमन हो रहा है, उसके स्नायु वज्र की भाँति मजबूत हो जाते हैं। उसकी धारणा शक्ति असाधारण होती है। वह मनोबल व साहस का धनी होता है।
इस सच्चाई को और अधिक व्यापक ढंग से जानना चाहे तो संयम का अर्थ है- अपने जीवन की शक्तियों की बर्बादी को रोकना। बूँद- बूँद करके उन्हें बचाना। इस प्रक्रिया में इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम व विचार संयम को प्रमुखता दी जाती है। जहाँ तक सदाचार का प्रश्र है तो यह आध्यात्मिक शक्तियों के विकास के लिए किया जाने वाला आचरण है। यह किसी तरह की विवशता नहीं बल्कि जीवन के उच्चस्तरीय प्रयोजनों के प्रति आस्था है। जिनमें यह आस्था होती है वे शुरुआत में भले ही जड़ बुद्धि हों लेकिन बाद में प्रतिभावान् हुए बिना नहीं रहते। उनकी मानसिक सामर्थ्य असाधारण रूप से विकसित होती है।
अभी कुछ दिनों पूर्व साइकोन्यूरो इम्यूनोलॉजी के क्षेत्र में एक प्रयोग किया गया। यह प्रयोग दो विशिष्ट वैज्ञानिकों आर. डेविडसन और पी. एरिकसन ने सम्पन्न किया। इस प्रयोग में उन्होंने चार सौ व्यक्तियों को लिया। इसमें से २०० व्यक्ति ऐसे थे, जिनकी अध्यात्म के प्रति आस्था थी जो संयमित एवं सदाचार परायण जीवन जीते थे। इसके विपरीत २०० व्यक्ति इनमें इस तरह के थे जिनका विश्वास भोगविलास में था, जो शराबखानों व जुआघरों में अपना समय बिताते थे। जिनकी जीवनशैली अस्त- व्यस्त थी। इन दोनों तरह के व्यक्तियों का उन्होंने लगातार दस वर्षों तक अध्ययन किया।
अध्ययन की इस प्रक्रिया में उन्होंने देखा कि जो व्यक्ति संयम, सदाचार पूर्वक जीते हैं, वे बीमार कम होते हैं। उनमें मानसिक उत्तेजना, उद्वेग एवं आवेग बहुत कम होते हैं। ऐसे व्यक्ति प्रायः तनाव, दुश्चिंता से मुक्त होते हैं। यदि इन्हें कोई बीमारी हुई भी तो ये बहुत जल्दी ठीक हो जाते हैं। चाट लगने पर या ऑपरेशन होने पर उनकी अपेक्षा इनके घाव जल्दी भर जाते हैं। इसके विपरीत असंयमित एवं विलासी मनोभूमि वालों की स्थिति इनसे ठीक उलटा पायी गयी। इनकी जीवनी शक्ति नष्ट होते रहने के कारण इन्हें कोई न कोई छोटी- मोटी बीमारियाँ हमेशा घेरे रहती हैं। छूत की बीमारियों की सम्भावना इनमें हमेशा बनी रहती है। तनाव, दुश्चिंता, उत्तेजना, आवेग तो जैसे इनका स्वभाव ही होता है। कोई बीमारी होने पर अपेक्षाकृत ये जल्दी ठीक नहीं होते। एक ही बीमारी इन्हें बार- बार घेरती रहती है। चोट लगने या ऑपरेशन होने पर इनके घाव भरने में ज्यादा समय लगता है। इस स्थिति को एक दशक तक परखते रहने पर डेविडसन व एरिकसन ने यह निष्कर्ष निकाला कि संयम- सदाचार से व्यक्ति में प्रतिरोधक क्षमता में असाधारण वृद्धि होती है। इसी कारण उनमें शारीरिक व मानसिक रोगों की सम्भावना कम रहती है। यदि किसी तरह से कोई रोग हुआ भी तो इनसे छुटकारा जल्दी मिलता है।
इस क्रम में इस वैज्ञानिक दृष्टि की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टि कहीं ज्यादा गहरी व सूक्ष्म है। हमने परम पूज्य गुरुदेव के जीवन में इस सत्य की अनुभूति पायी है। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में उन्होंने तो केवल अपने संकल्प से अनगिनत लोगों को रोग मुक्त किया। पर अखण्ड ज्योति संस्थान के निवास काल में रोग निवारण की इस प्रक्रिया को वे थोड़े अलग ढंग से सम्पन्न करते थे। इसके लिए वे रोगी का पहना हुआ कपड़ा माँगते थे, और उसके प्राणों के सूक्ष्म परमाणुओं का परीक्षण आध्यात्मिक रीति से करते थे। बाद में स्थिति के अनुरूप उसकी चिकित्सा करते थे।
ऐसे ही एक बार उनसे गुजरात के देवेश भाई ने अपने किसी रिश्तेदार के बारे में उन्हें लिखा। ये रिश्तेदार कई बुरी आदतों का शिकार थे। हालाँकि इनका स्वास्थ्य काफी अच्छा था। गुरुदेव ने देवेश भाई से इनका पहना हुआ कपड़ा मँगाया। कपड़े के आध्यात्मिक परीक्षण के बाद उन्होंने देवेश भाई को चिट्ठी लिखी कि तुम्हारे इन रिश्तेदार के जीवन के दीये का तेल चुक गया है और अब शीघ्र ही इनकी ज्योति बुझने वाली है। गुरुदेव के इस पत्र पर देवेश भाई को यकीन ही नहीं हुआ। क्योंकि ये रिश्तेदार तो पर्याप्त स्वस्थ थे। देवेश भाई गुरुदेव की इस चिट्ठी को लेकर सीधे मथुरा पहुँचे। सामने मिलने पर भी गुरुदेव ने अपनी उन्हीं बातों को फिर से दुहराया। सभी को अचरज तो तब हुआ जब ये रिश्तेदार महोदय पंद्रह दिनों बाद चल बसे। इस पर गुरुदेव ने उन्हें पत्र लिखकर कहा- यदि जीवनीशक्ति बिल्कुल भी न बची हो और संयम- सदाचार की अवहेलना के कारण जीवन के पात्र में छेद ही छेद हैं; तो आध्यात्मिक चिकित्सा असम्भव है। आध्यात्मिक चिकित्सा के लिए आध्यात्मिक जीवनशैली को अपनाना बेहद जरूरी है।