Books - अणु में विभु-गागर में सागर
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
नदी नद सागर तालाब सब कुछ इस शरीर में
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
अमेरिका के जीव-वैज्ञानिक डा. इर्चन केमरान ने कुछ चूहे लेकर उन्हें एक विशेष बाक्स में संकेत पाने पर भोजन के लिये प्रशिक्षित किया। चूहे कुछ ही दिन के अभ्यास से प्रशिक्षित हो गये। जब भी उन्हें टार्च का प्रकाश दिखाया जाता, ये तुरन्त भागते हुए आते और बाक्स में रखे भोजन को प्राप्त कर लेते। इसके बाद इन प्रशिक्षित चूहों को मारकर उनके मस्तिष्क का ‘यूक्लिइक एसिड’ निकाल लिया गया और फिर उसका इन्जेक्शन बनाकर कुछ ऐसे चूहों को दिया गया, जिन्हें इस तरह का कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया था। उस समय डा. केमरान के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब यह चूहे भी टार्च का प्रकाश देखते ही भोजन के लिये उस विशेष बाक्स में बिना बताये ही प्रवेश कर गये। यही प्रयोग चूहों के अतिरिक्त दूसरे जन्तुओं जैसे छछूंदर, गिलहरी आदि पर भी किया गया और वहां यही आश्चर्य-जनक सत्य देखने को मिला। इससे यह तो निश्चित ही साबित हो गया कि जैसी कोई चेतन शक्ति प्रकाश के अणुओं में ही है।
डा. केमरान ने यह प्रयोग कुछ मनुष्यों पर भी ‘मैग्नीशियम पैमुलीन’ नाम की दवा का प्रयोग करके देखा कि एक व्यक्ति जो ताश के पत्ते नहीं पहचान पाता था, इस तरह की औषधि का सेवन करने के बाद फिर पत्ते पहचानने लगा। एक मैकेनिक वृद्धावस्था के कारण मशीनों के पुर्जे भूल जाने लगा- इस तरह की औषधि से उसकी ज्ञान क्षमता में विकास हुआ।
यह न्यूक्लियक एसिड क्या है, यह समझ लें तो बात स्पष्ट हो जायेगी। हमें पता है कि जिस प्रकार कोई भी पदार्थ का टुकड़ा छोटे-छोटे परमाणुओं से बना है, उसी तरह मनुष्य का शरीर जिन छोटे परमाणुओं से बना है, उन्हें ‘कोश’ (सेल) कहते हैं। एक कोश में जीवन के सारे लक्षण अमीवा की तरह विद्यमान रहते हैं। अमीवा एक कोशीय जीव है, उसमें आहार, निद्रा, भय आदि वह सब गुण पाये जाते हैं, जिनसे किसी पिण्ड में चेतना के अस्तित्व की जानकारी होती है। इसी तरह ‘कोश’ में मनुष्य जीवन के सारे लक्षण विद्यमान् रहते हैं।
यह कोश मुख्यतया दो भागों में विभक्त है—(1) नाभिक या केन्द्रक (न्यूक्लियस), (2) साइटोप्लाज्म। नाभिक एक तरह का तारा प्रकाश कण होता है और जीवन की यही अन्तिम इकाई है, दूसरे साइटोप्लाज्म में तो सभी प्रोटीन तत्व हाइड्रोजन ऑक्सीजन फास्फोरस आदि तत्व पाये जाते हैं, यह तभी तक क्रियाशील रहते हैं, जब तक नाभिक (न्यूक्लियस) बना रहता है। न्यूक्लियस के निकलते ही यह पदार्थ वाला अंश मृत हो जाता है, निष्क्रिय हो जाता है यद्यपि इस केन्द्रक (न्यूक्लियस) को वैज्ञानिक स्वतन्त्र स्थिति में प्रकट नहीं कर सके तथापि ऊपर जिस ‘न्यूक्लिइक एसिड’ की चर्चा की गई है, वह इसी में पाया जाता है, इससे स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि ज्ञान, विचार या अन्तर्चेतना, प्रकाश कणों का गुण है और यदि वह मनुष्य के स्थूल से भिन्न पदार्थ है तो शरीर से विलग होने के बाद भी उसमें यह गुण विद्यमान् बने रहने ही चाहिये।
एक स्वस्थ मानव शरीर में लगभग 600 खरब कोशिकायें होती हैं। 600 खरब कोशिकाओं में 600 खरब नाभिक होते हैं। प्रत्येक नाभिक में गुण सूत्र (क्रोमोसोम और प्रत्येक गुण सूत्र के भीतर एक बटी हुई रस्सी की सीड़ी के समान संस्कार कोश (जीन्स) विद्यमान् होते हैं, यह संस्कार कोश जो प्रकाश की भी सूक्ष्म अवस्था है, न्यूक्लियक एसिड कहलाते हैं। यह एक प्रकार की विद्युत चुम्बकीय शक्ति है और कोश के भीतर सारे स्थूल द्रव्य में, तिल में तेल के समान व्याप्त है, इसीलिये वैज्ञानिकों को उसके स्वतन्त्र होने पर भी एसिड होने का भ्रम हो रहा है। वस्तुतः अपवाद स्वरूप कुछ प्राणियों को छोड़कर शेष सभी प्राणियों की कोशिकायें अनेक तत्वों की बनी होती हैं, जो तत्व विकृत होते हैं, वहां उस तरह के विषाणु पैदा होते रहते हैं। उसका फल बीमारियां होती हैं। अपने आप में शुद्ध और समुन्नत कोशिकाओं से जीवन, आयु और प्राण की वृद्धि भी होती रहती है। अब यह विश्वास किया जा रहा है कि प्रत्येक प्राणी की कोशिकाओं का विश्लेषण कर लिया जाय और मानव शरीर में उनकी समीक्षा की जाये तो जिस जाति की कोशिकायें बहुतायत से पाई जा रही होंगी, पूर्व जन्म उसी से सम्बन्धित रहा होगा। कोशिकायें प्रोटोप्लाज्म नामक जीवित पदार्थ से बनी होती हैं। इसके भी साइटोप्लाज्म और नाभिक (न्यूक्लियस) दो भाग होते हैं। साइटोप्लाज्म अर्क्षपार दर्शक जल मिश्रित जेली की तरह का होता है, जिसमें अनेक प्रकार के प्रोटीन, लवण, शर्करा और वस्तुयें होती हैं पर नाभिक के बारे में अभी निश्चित तथ्य नहीं प्राप्त किये जा सके। इसका सम्बन्ध प्राण विद्या से है। जब उससे वैज्ञानिक अनेक जानकारियां प्राप्त करेंगे तो पूर्व अध्यात्म की और भी विलक्षण पुष्टि होगी। पर एक बात तो यहां अभी सिद्ध हो गई कि आहार क्रम को बदलकर कोशिकाओं को बदला जा सकता है। भले ही यह क्रम मन्दगामी हो पर यदि एक ही प्रकार के पदार्थ खाने में लिये जायें तो उसी प्रकार की कोशिकाओं को विकसित और सतेज कर विषाणुओं और दुर्बल एवं अधोगामी योनियों में पाई जाने वाली कोशिकाओं को हटाया और कम किया जा सकता है। इसका प्रभाव यह होता है कि मनुष्य में जो पाशविक वृत्तियां होती हैं, वह इन कोशिकाओं की मन्द, अशुद्ध और जटिल स्थिति के कारण होती हैं, उन्हें बदलकर शुद्ध, सात्विक बनाया जा सकता है। अस्वाद व्रत और उपवास का महत्व इस जानकारी के आधार पर और भी बहुत अधिक बढ़ जायेगा।
यदि कोशिका को काटकर नाभिक से अलग कर दिया जाय तो कोशिका की मृत्यु हो जायेगी पर नाभिक में स्वतः निर्माण की क्षमता होती है हमारा आध्यात्मिक दर्शन यह कहता है कि उस नाभिक में इच्छा, आशा, संकल्प और वासना का अंश रहता है, उसी के अनुरूप वह दूसरा जन्म ग्रहण करता है। अभी पाश्चात्य विज्ञान इस सम्बन्ध में तो खोज नहीं कर पाया पर कोशिकाओं से निकलने वाली एक तरह की किरणें जिन्हें क्रोमोसोम कहते हैं की जानकारी मिली है। प्रत्येक पदार्थ में क्रोमोसोम की संख्या अलग-अलग होती है। गेहूं में 42, मनुष्य शरीर की कोशिकाओं में 46 और किन्हीं-किन्हीं जीवों की कोशिकाओं में 100-100 तक क्रोमोसोम पाये जाते हैं। यह क्रोमोसोम भी जीन नामक परमाणुओं से बने होते हैं। इनके अलग-अलग रंग भी होते हैं, उन कणों को एलील कहा जाता है।
जब इन सब की विस्तृत खोज होगी तो अनुमान है मन, बुद्धि चित्त, अहंकार आदि सूक्ष्म-तत्वों की और भी विशद् जानकारी होगी। इनमें नाभिक हर घड़ी क्रियाशील रहता है ओर वह इन क्रोमोसोम के माध्यम से साइटोप्लाज्म को भी गतिशील रखता है। इच्छानुवर्ती शरीर क्रिया को बदलने का सम्भव है बड़ा विज्ञान इसमें सन्निहित हो और उसकी जानकारी बाद में वैज्ञानिकों को मिले।
यद्यपि कोशिकाओं के अन्दर निर्माण और क्रियाशील रखने वाली शक्ति न्यूक्लियस या नाभिक ही हैं पर साइटोप्लाज्म का कार्य उससे कम महत्वपूर्ण नहीं दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। सच पूछा जाये तो साइटोप्लाज्म भी उतना ही शक्तिशाली, व्यापक और विशाल है।
जब इनकी वैज्ञानिकों ने विस्तृत खोज की तो पता चला एक साइटोप्लाज्म के अन्दर एक बड़ी भारी झाल है, उसमें कई इतने बड़े महानगर हैं, जितने न्यूयार्क, वाशिंगटन, लन्दन, पेरिस, वारसा या दिल्ली आदि। उसमें छाये हुये कुहरे को हटाकर देखा गया तो वहां तो एक भयंकर हलचलें दिखाई दी। उसी में अनेकों कोश ही प्रकाश-कणों का एक स्वतन्त्र शरीर बनाये हुये निकल जाते हैं, उनमें वह सारी याददास्तें बनी रहती हैं, जो जीवित अवस्था में ज्ञान में आई थीं। इतना ही नहीं इस अवस्था में भी वह ज्ञान-सम्पादन की क्षमता से परिपूर्ण होता है, केवल स्थूल क्रियायें जैसे बोलना, पकड़ना, उठाना-बैठाना आदि उससे नहीं हो सकता, यह किसी विशेष अवस्था में ही सम्भव है।
उपरोक्त प्रयोग इस बात का साक्षी है कि हमारी मानसिक चेष्टायें जिन्हें विचार इच्छायें या ज्ञान कुछ भी कहें मनुष्य शरीर की रासायनिक प्रक्रिया मात्र नहीं, प्रकाश मानव कणों या सूक्ष्म शरीर के कारण है, यह एक ऐसा सिद्धानत है, जो यदि सिद्ध हो जाता है तो न केवल पुनर्जन्म, भूत-प्रेत, दूर-दर्शन, दूर-श्रवण, विचार सम्प्रेषण, परकाया प्रवेश, परलोक आदि की भारतीय मान्यताओं की ही पुष्टि नहीं होगी वरन् योगाभ्यास की उन क्रियाओं का भी समर्थन होगा, जो शरीर-धारी आत्म-चेतना के विराट् विकास के लिये बड़ी तपश्चर्या और कष्ट साध्य प्रयोगों के द्वारा भारतीय तत्वदर्शियों ने आविष्कृत की है। केन्द्रक स्थित यह तत्व जो स्मृतियां अर्जित करता है, मनुष्य शरीर की समस्त 600 खरब कोशिकाओं में पाया जाता है, यदि उसे खींच कर लम्बाई में बढ़ाया जाये तो वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अर्थात् अब तक की खोज के अनुसार 186000×60×60×24×365×1/4× 500000000 मील लम्बा होगा। इतने लम्बे फीते में प्रत्येक कोश में 1000000000 अक्षरों के हिसाब से उपरोक्त संख्या में इसका गुणा करने से जो संख्या बनेगी, उतने अक्षरों की और उन अक्षरों से बने शब्दों की स्मृति मनुष्य रख सकता है।
यह कोशिकायें शरीर के विभिन्न अंगों में विभिन्न गुणों वाली होती हैं, उसकी जानकारी करने पर शरीर द्वारा शरीर की ही चिकित्सा कर लेना भी सम्भव हो जायेगा। और अधिक भीतरी मर्मस्थलों की खोज हुई तो मनुष्य यन्त्रों के द्वारा अनेक ऐसी शक्तियां प्राप्त कर लिया करेगा, जिनकी सम्भावनायें तन्त्र-विज्ञान से सम्बन्ध रखती हैं। इनमें अणिमा, गरिमा, लघिमा आदि सिद्धियां भी सम्मिलित होंगी।
कोशिकाओं के भाग—कोशिकावरण प्लास्टिड, वैकुओल, एण्डोप्लाज्मिक, रेंटिकुलभ, सेन्ट्रियोल और माइडोकोण्ड्रिया आदि की विस्तृत जानकारी होगी तो ब्रह्माण्ड के अनेक रहस्यों का पता शरीर में ही लग जाया करेगा। इन सब ने शरीर में नहरों और नदियों का सा जाल बिछा रखा है।
देखा गया कि यह संरचनायें जब परस्पर जुड़ती हैं या सम्बन्ध स्थापित करती हैं तो एक बड़ी भारी सड़क बनती है। लाखों मील लम्बी नहरें दिखाई देती हैं। कोशिकाओं के कुछ अंश उतने उठे हुये दिखाई देते हैं, जैसे वह हिमालय अथवा आल्पस पर्वत हों, उन पर प्रकृति के वह पदार्थ भी झलकते और चमकते दिखाई देते हैं, जो पर्वतों और नदियों के किनारे दिखाई देते हैं। नेत्र विस्फारित हो उठते हैं कि आखिर एक परमाणु के अन्दर यह सब कैसी हलचल है। मनुष्य जो भी खाता है वह शरीर में स्थापित विद्युत केन्द्रों को पहुंचता है, वहां से हर स्थान की आवश्यकता के अनुरूप ऊर्जा की सप्लाई होती है, उसे देखकर लगता है, इन सब कामों को कोई इंजीनियर बड़े ही कुशलता पूर्वक चला रहा है।
कोशिकाओं के सम्बन्ध में अभी तक स्थूल जानकारियां ही मिली हैं, उनके आधार पर ही चिकित्सा जगत् में हलचल पैदा हो गई है, ऐसे-ऐसे इन्जेक्शन और औषधियां बनाली गई हैं, जिनसे अब मनुष्य का केवल कायाकल्प करना शेष रह जायेगा, बाकी रोगों को नष्ट करना, दीर्घजीवन प्राप्त करना सब वैज्ञानिकों की मुट्ठी में हो इन कोशिकाओं को जीव वैज्ञानिकों ने शरीर के जीवन का आधार कहा है। सर्वप्रथम जीव वैज्ञानी जोह्वर ने यह बताया कि रसायन जीव-विज्ञान से गठबन्धन हुए बिना चैतन्य जगत् स्थिर नहीं रह सकता। उन्होंने एल्युमिनियम और यूरिया नामक शारीरिक रसायन का संश्लेषण कर उसने यह सिद्ध किया कि शारीरिक रसायन और धातुओं को प्रयोगशाला में नहीं पकड़ा जा सकता यह घोषणा रसायन और औषधि जगत् में तीव्र हलचल पैदा करने वाली थी।
तब से अब तक 50000 यौगिकों की खोज की जा चुकी है, किन्तु जीवन के सम्बन्ध में कोई युक्ति संगत विश्लेषण वैज्ञानिक प्रस्तुत नहीं कर सके। किन्तु वैज्ञानिकों ने उसकी खोज का संकल्प अवश्य किया। खोजते-खोजते वे कोशिका और उसके द्वारा उत्पादनों और घटकों तक जा पहुंचे। उन्होंने देखा कि कोशिका (सेल्स, जिनसे मिलकर शरीर बना है) के भीतर जो सैकड़ों यौगिक भरे पड़े हैं, उन्हें निश्चित रूप से प्रयोगशाला में बनाया जा सकता है। उन्होंने इस बहुत ही सूक्ष्म कोशिका के भीतर जीव-विज्ञान को भी सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से अध्ययन करना प्रारम्भ किया, जो निष्कर्ष प्राप्त हुए यद्यपि वह अपूर्ण हैं, पर जितने हैं, जड़वादी मान्यता को काट देने के लिये वही काफी हैं। वैज्ञानिक दृष्टि में कोशिका वह पिण्ड है, जिसमें सम्पूर्ण जगत् का सूक्ष्मदर्शन छिपा हुआ है। उसे अध्ययन कर लेने वाला कभी नास्तिक नहीं हो सकता है।
यद्यपि यह अत्यन्त सूक्ष्म संरचना है तथापि बोधगम्य (नोएबुल) है। एक बिन्दु में मनुष्य के लाल रक्त की लगभग 5 हजार कोशिकायें समा सकती हैं। यह कोशिका-झिल्ली पौधों और बैक्टीरिया में अपेक्षाकृत अधिक मोटी और कड़ी होती है, यह एक प्रकार की निर्जीव चहार-दीवारी है, सूक्ष्म जलीय जगत् तो उसके अन्दर बन्द है, आइये उस पर एक दृष्टि डाल कर देखें कि वहां कौन से तत्व क्या कर रहे हैं।
सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों द्वारा कोशिका झिल्ली के भीतर की इस रचना को बड़े आश्चर्य के साथ देखा जाता है। यह झिल्ली कोशिका के अन्दर समस्त इकाइयों की अपेक्षा अधिक सक्रिय इकाई है, किन्तु उसकी सक्रियता भीतर घुसे हुए नाभिक (न्यूक्लियस) की इच्छा के कारण है। न्यूक्लियस ही वह चेतना और केन्द्रीभूत सत्ता मानी जा रही है जिस पर कोशिका का सारा क्रिया व्यापार चलता है। यह एक अत्यन्त सूक्ष्म पर विराट्-जगत् का प्रतिनिधि है। उसी को देखकर आइन्स्टाइन ने कहा था कि यह क्षितिज भी अण्डाकार (कर्व) स्थिति में है, जब लोगों ने पूछा कि उसके बाद क्या है तो उसने कहा—‘‘कुछ नहीं’’ वह संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है कि यह संसार जिसकी सीमा अनन्त है, वह भी घिरा हुआ, मुड़ा हुआ अर्थात् असीम है। सीमा स्थित है।
जो भी हो हमें उस कोशिका-झिल्ली का अध्ययन करना है। यह झिल्ली उन तत्वों को छंटती है, जिनकी न्यूक्लियस इच्छा करता है, जिस प्रकार सिनेमा हाल के गेट पर खड़े हुए चौकीदार जिसके पास जैसा टिकट होता है, उसी तरह उन्हें आने देते हैं, उसी प्रकार कोशिका झिल्ली भीतर केवल उन्हीं तत्वों को जाने देती है, जिसकी न्यूक्लियस इच्छा और प्रेम करता है। इस न्यूक्लियस के अतिरिक्त वहां कमजोर रेशों और अपेक्षाकृत मजबूत तंतुओं का जाल-सा बिछा हुआ है। उन्हें क्रोमोटीन कहते हैं। क्योंकि वह रंगों को जज्ब करते हैं, जब एक कोशिका दूसरी कोशिका में विभाजित होती है तो यह तन्तु ही व्यावर्त्तन, पृथक्करण और पुनर्व्यवस्थापन के रूप में एक प्रकार का सामूहिक नृत्य-सा करते हैं। आधुनिक नृत्यकार भी उस नृत्य की गति का मुकाबला नहीं कर सकते।
यह गति बड़ी रहस्यपूर्ण होती है, यह उन चार तत्वों को क्रियाशील करने का वैज्ञानिक तरीका है, जिससे नई सृष्टि की उत्पत्ति होती (नये बालक का जन्म भी इसी विभाजन क्रिया से होता है)। किन्तु वह सब करने वाला पांचवा आकाश तत्व भी यहां विद्यमान् है। न्यूक्लियस उसी आकाश में स्थित है, अर्थात् वह किसी भी तत्व पर टिका हुआ नहीं है; जबकि कोशिका-झिल्ली के अन्दर गति करने वाले सभी पदार्थ परस्पर सम्बद्ध होते हैं।
न्यूक्लियस और कोशिका परिधि के बीच वाले भाग में जिसे साइटोप्लाज्म कहते हैं, अनेक संरचनायें होती हैं। छोटी सघन पहाड़ियां माइटोकोन्ड्रिया और उससे भी छोटे टीले माइक्रोसोक्से मिट्टी के कणों के बने प्रतीत होते हैं। कहीं-कहीं पतले तन्तु गोल्जीबाडीज टेढ़े-मेढ़े ढंग से पड़े लहराते हैं, जिससे हवा का अस्तित्व दर्शन होता है। कुछ कोशिकाओं में दूसरी वस्तुयें जैसे पिगमेंट, स्टार्चण, चर्बी की गोलियां बिखरी पड़ी रहती हैं। कोश में 70 प्रतिशत जल और इन तत्वों को क्रियाशील रखने वाले तापीय कण भी रहते हैं। इस बिन्दु जगत् में ही चारों तत्वों के साथ आकाश भी छाया हुआ है। वैज्ञानिक इस सूक्ष्म रचना से दंग रह गये और अपने आपसे पूछने लगे, यदि कोशिका ही जीवन संरचना की इकाई है तो क्या उसके कार्य की भी इकाई है? रक्त परिसंचरण के आविष्कारकर्ता विलियम हार्वे ने उसका उत्तर देते हुए कहा था—‘‘हम जो कुछ जानते हैं, वह उसकी तुलना में जो अब भी अज्ञात है, बहुत कम है।’’ यह वक्तव्य आज भी उतना ही सत्य है। वैज्ञानिक यह मानते हैं, कोशिका के आकाश में स्थित जगत् के सम्पूर्ण अध्ययन के लिये 335 वर्ष की अवधि भी बहुत अल्प है।’’ चार्वाक और नीत्से ने तो न जाने कैसे प्रत्यक्ष देहात्मवाद को ही सर्वस्व कह दिया। आज के वैज्ञानिक उसे एक मूर्खतापूर्ण प्रलाप ही कहते हैं।
शरीर की रहस्यमय विलक्षणतायें
दृश्यमान शरीर की—स्थूल संरचना तो अन्य प्राणियों जैसी ही है पर उसके अन्तराल में प्रवेश करने पर पता चलता है कि पग-पग पर उसमें विलक्षणताएं भरी पड़ी हैं। इनके स्वरूप और उपयोग को जाना जा सके तो तिलस्म के वे पर्दे उठ सकते हैं जिनके भीतर रहस्यमय सिद्धियों के अनन्त भाण्डागार भरे पड़े हैं। काय-कलेवर से प्रजनन क्षमता की सूत्रधार अत्यन्त छोटी इकाई—जीन्स। यह आंख से दृष्टिगोचर न होने वाले शुक्राणुओं और डिम्बाणुओं के अन्तराल में रहने वाले अत्यन्त ही क्षुद्र घटक हैं। इतने पर भी उसकी क्षमता देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। यह नहीं सोचना चाहिए कि हारमोन या जीन्स ही रहस्यमयी क्षमताओं से सुसम्पन्न हैं। सच तो यह है कि पूरी काया ही तिलस्मी रहस्यों से भरी पूरी है। दुर्भाग्य यही है कि हम न तो उसकी सामर्थ्य को समझ पाते हैं और न उसके सदुपयोग का ही साहस जुटाते हैं।
काया का स्थूल भाग अन्नमय कोश छोटी छोटी कोशिकाओं (सैल्स) से बना है जिनके अन्दर एक द्रव्य ‘साइटोप्लाज्म’ (वसामय पीला सा द्रव्य) पदार्थ भरा रहता है। इसके बीच में अवस्थित होता है, कोशिका का नाभिक केन्द्रक (न्यूक्लियस)। पुरुष की शुक्राणु कोशिका अथवा नारी की अंडाणु कोशिका के नाभिक में छोटे-छोटे धागे जैसे गुण सूत्र (क्रोमोसोम) होते हैं। एक नाभिक में इनके 23 या 24 जोड़े होते हैं। इन्हीं से लाखों की संख्या में ‘जीन्स’ चिपके रहते हैं। नये मनुष्य शरीर के निर्माण तथा उनमें अनुवांशिकीय गुण धर्मों का विकास इन्हीं पर निर्भर करता है।
यह जीन्स क्या हैं? कैसे यह अपनी आश्चर्यजनक भूमिका पूरी करते हैं? इस रहस्य पर से विज्ञान अभी पर्दा उठा नहीं सका है। उनके सम्बन्ध में बड़ी तेजी से शोध कार्य चल रहे हैं, बहुत से रहस्य खुले भी हैं, फिर भी वह नहीं के बराबर हैं।
अभी तक के अध्ययन के आधार पर ‘जीन्स’ छोटे-से विद्युत्मय पुटपाक या पुड़ियां (पैकेट) हैं। माना जाता है कि इनकी रचना कई तरह के न्यूक्लियर अम्लों के संयोग से हुई है। उनमें से अभी केवल दो के बारे में जाना जा सका है। वे हैं (1) डी.एन.ए. (डी आक्सी राइबो न्यूक्लीक एसिड) (2) आर.एन.ए. (राइबो नयूक्लीक एसिड)।
जीन्स की संरचना के बारे में अभी तक नहीं जाना जा सका है, किन्तु यह जानकारियां निश्चित रूप से हो गई हैं कि शरीर के अंग-प्रत्यंग की विशिष्ट रचना से लेकर अनेक परम्परागत स्वभावों, रोगों तथा गुणों के विकास की आश्चर्यजनक क्षमता इनमें है। इनके गुणों और कार्य-कलापों को कैसे नियन्त्रित किया जाय यह पता विज्ञान अभी नहीं लगा सका है, किन्तु यह माना जाने लगा है कि यदि ‘जीन्स’ के गुणों और कार्य-प्रणाली को प्रभावित किया जा सके, तो आश्चर्यजनक उपलब्धियां प्राप्त हो सकती हैं। यह अन्नमय कोश के छोटे से घटक एक कोशिका के नाभिक में रहने वाले नगण्य आकार वाले विद्युन्मय पैकेट मनुष्य के आसपास के वातावरण से लेकर उसके विचारों और भावनात्मक विशेषताओं के संस्कार ग्रहण करने में समर्थ हैं।
मनुष्य के विकास के सम्बन्ध में भारतीय मान्यता यह रही है कि उस पर अनुवांशिकता के साथ-साथ बाह्य वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। पहले इस मान्यता के प्रति उपेक्षा बरती जाने लगी थी।
यह स्पष्ट हो गया है कि अपने वातावरण तथा अपनी चेष्टाओं द्वारा व्यक्ति जिन स्वभाव-गुणों को अर्जित करता है, वे वंशानुक्रम से प्राप्त नहीं होते और न ही कोई व्यक्ति उन अर्जित विशेषताओं को वंशानुक्रम द्वारा अपने बच्चों को प्रदान कर सकता है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति ने अनेक भाषाएं सीखी हैं, तो वह उस भाषा-ज्ञान को अपने बच्चों को वंशानुक्रम द्वारा नहीं दे सकता। बच्चों को भी भाषा-ज्ञान की प्रचलित विधियों को ही अपनाना होगा तथा मेहनत करनी पड़ेगी। वहीं दूसरी ओर यह भी स्पष्ट हो गया है कि वंशानुक्रम का निश्चित प्रभाव सन्तान पर पड़ता है। आनुवंशिकी (जनेटिक्स) का सारा ढांचा ही इसी आधार पर खड़ा है। यह सही है कि कोई भी व्यक्ति जंगली बेर के बीज बोकर उससे गुलाब के फूलों की आशा नहीं कर सकता। गौरैया के अण्डों को सेकर उनमें से भोर के बच्चे कौन निकाल सकता है? लेकिन जिन पौधों के बीज बोये जाते हैं, उनसे उन्हीं जैसे पौधे आखिर क्यों उगते हैं? चूहों से चूहा और बिल्ली से बिल्ली ही क्यों पैदा होती है? इसका उत्तर है, आनुवंशिकता अर्थात् नियमित वंश परम्परा, जिनके कारण ही ऐसा होता है। जो वस्तु जिस वंश की होगी, उसका बीज डाले जाने पर वैसा ही फल होगा। आनुवंशिकता में काम करने का ढंग भी शामिल है और चीजों का कद तथा रंग भी। उदाहरण के लिये बया पक्षी को बढ़िया लटकने वाला घोंसला बनाना किसी को सिखाना नहीं पड़ता है।
आनुवंशिकता अपने पूर्वजों से मिलने वाली विशेषताओं का ही दूसरा नाम है। वैज्ञानिक जानते हैं कि जीवों में जो विशेषतायें होती हैं, वे उन्हें माता-पिता से अत्यन्त सूक्ष्म कणों के रूप में मिलती हैं। इन सूक्ष्म कणों को जीन ‘कहा’ जाता है। हमारा शरीर बहुत-सी कोशिकाओं से मिलकर बना है। ‘जीन’ कोशिका का ही एक भाग है। अगर किसी वट-वृक्ष की शाखा को कहीं उसके अनुकूल स्थान में ले जाकर बो दिया जाये तो वह भी मूल पेड़ की तरह ही फलने-फूलने लगेगी। उसकी कोशिकाओं के ‘जीन’ अपने पहले के पेड़ की ही भांति होंगे। ठीक उसी तरह जिस तरह किसी स्पंज के टुकड़े में वैसे ही छिद्र होते हैं, जैसे उस स्पंज में थे जिसमें से कि टुकड़े को तोड़ा गया है।
अधिकांश पौधों और जीवों की उत्पत्ति नर और मादा से होती है। कुछ ‘जीन’ नर से और कुछ मादा से मिलते हैं। झरबेरी झाड़ी के बीज गुलाब तो नहीं, लेकिन ऐसा पौधा अवश्य उगा सकते हैं, जिसमें एक की बजाय दो तरह के फूल हों। काली बिल्ली का बच्चा एकदम सफेद हो सकता है। यदि कोई पौधा या जानवर दो तरह की विशेषता के ‘जीन’ आनुवंशिकी द्वारा प्राप्त करता है, और दोनों का प्रभाव बराबर रहता है तो दोनों के मिलने से तीसरी विशेषता उत्पन्न होती है। अगर लाल गाय और सफेद रंग का सांड़ हो तो उनका बछड़ा न तो सफेद होगा और न लाल। वह भूरा, यानी दोनों के बीच के रंग का हो सकता है। ऐसा हो जाने के नियम की वैज्ञानिक व्याख्या आनुवंशिकी के सिद्धान्त के आधार पर की जाती है। ‘जीन’ ही इस आनुवंशिकता के वाहक हैं और आनुवंशिकता की बुनियादी इकाई हैं। अभी तक किये गये परीक्षणों से यही जाना जा सका है कि व्यक्ति की शारीरिक विशेषताएं जैसे रंग, रूप, नेत्र, त्वचा, खून का प्रकार लम्बाई, ठिगनापन आदि सब ही आनुवंशिक और वित्रागत होते हैं। ये शारीरिक गुण भी मात्र माता-पिता से नहीं प्राप्त होते, वरन् दादा, परदादा तथा अन्य पूर्वजों से क्रमशः संक्रमित होकर आते हैं। वंशानुगत गुणों में माता-पिता का दाय प्रत्येक गुण में आधा होता है। यानी मां का एक चौथाई और पिता का एक चौथाई। उनके पूर्व के चार पितरों में प्रत्येक का दाय प्रत्येक गुण का सोलहवां भाग होता है अर्थात् चारों पितरों का कुल दाय एक चौथाई भाग होता है। शेष 1 चौथाई और पुरानी पीढ़ियों से आते हैं।
व्यक्ति के संस्कार तो उसके जन्म-जन्मान्तरों की संचित सम्पदाएं और साधन हैं। किन्तु उसके उपयुक्त उपकरण-अन्नमयकोश के निर्माण के घटक जीन्स-क्रोमोसोम का भी स्वरूप-निर्धारण कितनी सूक्ष्मताओं और जटिलताओं के आधार पर होता है, यह आनुवंशिकी की आधुनिक खोजों द्वारा भी स्पष्ट होता है। भारतीय मनीषी इन सूक्ष्मताओं से परिचित थे तभी वे सुसन्तति के लिए माता-पिता का चरित्रगत, तपस्वी-संयमी होना अनिवार्य बतलाते थे। इन्द्रिय-लिप्साओं की खुजली को शान्त करते रहने की कुचेष्टाओं के साथ सुसन्तति की आकांक्षा करते रहना एक असम्भव कल्पना मात्र है। उसके सफल होने की कदापि कोई भी सम्भावना नहीं है। अन्नमय कोश की इन सूक्ष्मताओं से परिचित होकर, अपना जीवनक्रम उस प्रकार व्यवस्थित कर व्यक्ति न केवल सुयोग्य सन्तति के जनक-जननी बनने की क्षमता से, अपितु उन अनेक विशिष्ट क्षमताओं, विभूतियों से सम्पन्न बनता है, जिनसे मनुष्य शरीर की सार्थकता और गरिमा है। अन्नमय कोश की साधना स्वयं की इन क्षमताओं के विकास का ही नाम है।
आनुवंशिकता का प्रभाव बिल्कुल सीधा और स्थूल नहीं होता। उदाहरण के लिए किसी माता-पिता में से दोनों को या किसी एक को टी.बी. रोग (क्षयरोग) हो तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि बच्चे को जन्म से ही टी.बी. (क्षयरोग) हो, अपितु इसका सिर्फ यह अर्थ है कि बच्चे के शरीर में ऐसी वृत्ति या तत्परता विद्यमान है कि क्षय रोग के कीटाणु शरीर में पहुंचते ही वहां जड़ पकड़ लेंगे।
इसी प्रकार मान लीजिये कि बढ़ई है, जो अपने काम में बड़ा दक्ष है। यह कार्यदक्षता बच्चे में जन्मजात रूप से नहीं उत्पन्न होती। अपितु यदि बच्चे को भी कुशल बढ़ई बनाना है, तो उसे बढ़ईगीरी का काम सिखाना ही होगा। हां, उस बच्चे के हाथ ऐसे हो सकते हैं, जिनके द्वारा कि उन औजारों का अधिक अच्छा उपयोग सम्भव हो, जो बढ़ईगीरी के काम आते हैं।
इसीलिए आनुवंशिकता और पर्यावरण दोनों को समान महत्व दिया जाता है। आनुवंशिकता द्वारा अर्जित गुण नहीं प्राप्त होते। कुछ जन्मजात गुणों का आधार ही आनुवंशिकता को माना जाता है। ये जन्मजात गुण वंशानुक्रम के लक्षण कहे जाते हैं। वंशानुक्रम के लक्षण क्रोमोसोमों के आधार पर प्राप्त होते हैं। क्रोमोसोमों में होते हैं-जीन, जो व्यक्ति के ‘करेक्टरिस्टिक्स’ का निर्माण करते हैं।
‘जीन’ का व्यवहार या आचरण से सीधा सम्बन्ध नहीं होता। जीन शरीर के ऊतक तथा अंगों के विकास को निर्देशित नियन्त्रित करते हैं। इस प्रकार वे शरीर की क्रियाशीलता को भी नियन्त्रित करते हैं। शरीर की ये क्रियाएं स्पष्टतः व्यवहार को भी प्रभावित करती हैं और उस रूप में जीन्स का सम्बन्ध व्यवहार से भी होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति वंशानुक्रम से छोटी टांगें, ठूंठदार अंगुलियां या बहरे कान प्राप्त करता है तो निश्चय ही कुछ क्षेत्रों में उसकी योग्यता सीमित हो जायेगी। इसी प्रकार शारीरिक क्रियाओं में भाग लेने वाले हजारों रासायनिक तत्व भी जीन्स द्वारा ही निर्धारित होते हैं। जैसे दृष्टि के लिए प्रकाशसंवेदी तत्व याकि रक्त के जमने में कई रासायनिक तत्व योग देते हैं। इन तत्वों की उपस्थिति सशक्तता या दुर्बलता का संबंध जीन्स से ही होता है। ऐसे अनेक लक्षण वंशानुक्रम से सम्बन्धित होते हैं।
वंशानुक्रम के आधारभूत घटकों, जीन्स और क्रोमोसोम्स के अध्ययनों के निष्कर्ष इस तथ्य के द्योतक हैं कि अन्नमय कोश में निर्माण का सूक्ष्म आधार कितना व्यापक और जटिल होता है। पौष्टिक भोजन मात्र से अन्नमय कोश सुदृढ़ नहीं हो जाता। इसके विपरीत अन्नमय कोश की सुदृढ़ता ही भोजन के रस-पारिपाक का कारण व आधार बनती है। बढ़िया खाने-पहनने की चिन्ता करते रहने को ही जीवन का पुरुषार्थ मान बैठने वाले अन्नमय कोश के निर्माण के आधारों से अनभिज्ञ रहकर उसे अस्त-व्यस्त और दूषित, विकृत बनाते रहते हैं और भावी सन्ततियों को भी उस विकृति का अभिशाप दे जाते हैं।
एक जीन युग्म शरीर के किसी विशेष ‘करेक्टरिस्टिक’ के विकास का निर्देश करता है। आंखें भूरी हैं या नीली, बाल घने काले हैं या हल्के स्वर्णिक हैं अथवा लाल, घुंघराले हैं या सीधे सामान्य बाल हैं या गंजापन है, दृष्टि सामान्य है, या रतोंधी ज्यादा होने की सम्भावना है, श्रवण-शक्ति सामान्य है या जन्मजात बहरापन है, रक्त सामान्य है या कि ‘हेमोफीलिया’ का दोष है, रंग-बोध स्पष्ट है या वर्णान्ता दोष है, उंगलियों या अंगूठों की संख्या सामान्य है या कम-अधिक है, किसी जोड़ में कोई उंगली छोटी-बड़ी तो नहीं है, सभी अवयव सामान्य हैं या कुछ अवयव विरूप हैं, आदि सभी शारीरिक ‘करेक्टरिस्टिक्स’ जीर-युग्मों पर ही निर्भर करते हैं।
फ्रान्सीसी दार्शनिक मान्टेन को 45 वर्ष की आयु में पथरी की बीमारी हुई। उसके पिता को यह रोग 25 वर्ष की आयु में आरम्भ हुआ। जबकि मान्टेन के जन्म के समय उसके पिता सिर्फ इक्कीस वर्ष के थे। उस समय उन्हें यह रोग नहीं था। लेकिन उनके जीन्स में इस रोग के आधार विद्यमान थे। मान्टेन की पित्ताशय की पथरी की बीमारी कई पीढ़ियों से चली आ रही थी।
बालकों का ‘गैलेक्टो सीमियां’ रोग जीन्स से ही सम्बन्धित होता है। वह जीन, जब यूरी डायल ट्रान्सफर एन्जाइम नहीं बनने देता, तो बच्चे दूध में रहने वाली मिठास—गैलेक्टोस—को पचा नहीं पाते। फलतः वह खून में जमा होती रहती है और जिगर में इकट्ठी होकर बच्चे का पेट खराब कर देती है। तथा मृत्यु का भी कारण बन बैठती है।
‘एक्रोडमे टाइटिस ऐटेरोपैथिका’ नामक रोग का कारण भी मुख्यतः जीन्स की विकृतियां हो होती हैं। आंख का केन्सर—रेटीनो ब्लास्टीमा-जीन्स-दोष का ही परिणाम है। जीन्स की ‘एक्रोड्रोप्लायिसा’, विकृति के कारण बच्चे अविकसित रह जाते हैं। वे जल्दी मरते हैं। बच गये तो भी वंश-वृद्धि में असमर्थ होते हैं। ऐसे दोष वाली महिलाएं गर्भवती होने पर स्वयं की भी प्राण-रक्षा नहीं कर पातीं, बच्चे की जान तो खतरे में होती ही है।
‘राइजोंवियम’ नामक जीवाणु की जीन को यदि धान, गेहूं, ज्वार बाजरा आदि फसलों की जड़ों में पलने वाले किसी जीवाणु में प्रत्यारोपित करना सम्भव हो तो इन फसलों के लिए अधिक उर्वरक नहीं खर्च करना पड़ेगा। भारत समेत विश्व भर की आनुवंशिकी प्रयोगशालाओं में इस हेतु प्रयास हो रहा है।
स्थूल दृष्टि से उपेक्षणीय लगने वाले इस अन्नमय कोश में अति सूक्ष्म घटक ‘जीन्स’ के साथ मनुष्य के उत्कर्ष की कितनी धारायें, सम्भावनायें जुड़ी हैं, इसे देखकर इसके रचयिता इसके रचयिता उस महान कलाकार की कलाकारी को शत शत नमन ही करते बनता है। अन्तर में बार-बार यही हूक उठती है कि क्या ही अच्छा होता कि हम इन महत् शक्तियों के जागरण ओर उपयोग की विधि जान पाते, सीख पाते ओर अपना पाते।
डा. केमरान ने यह प्रयोग कुछ मनुष्यों पर भी ‘मैग्नीशियम पैमुलीन’ नाम की दवा का प्रयोग करके देखा कि एक व्यक्ति जो ताश के पत्ते नहीं पहचान पाता था, इस तरह की औषधि का सेवन करने के बाद फिर पत्ते पहचानने लगा। एक मैकेनिक वृद्धावस्था के कारण मशीनों के पुर्जे भूल जाने लगा- इस तरह की औषधि से उसकी ज्ञान क्षमता में विकास हुआ।
यह न्यूक्लियक एसिड क्या है, यह समझ लें तो बात स्पष्ट हो जायेगी। हमें पता है कि जिस प्रकार कोई भी पदार्थ का टुकड़ा छोटे-छोटे परमाणुओं से बना है, उसी तरह मनुष्य का शरीर जिन छोटे परमाणुओं से बना है, उन्हें ‘कोश’ (सेल) कहते हैं। एक कोश में जीवन के सारे लक्षण अमीवा की तरह विद्यमान रहते हैं। अमीवा एक कोशीय जीव है, उसमें आहार, निद्रा, भय आदि वह सब गुण पाये जाते हैं, जिनसे किसी पिण्ड में चेतना के अस्तित्व की जानकारी होती है। इसी तरह ‘कोश’ में मनुष्य जीवन के सारे लक्षण विद्यमान् रहते हैं।
यह कोश मुख्यतया दो भागों में विभक्त है—(1) नाभिक या केन्द्रक (न्यूक्लियस), (2) साइटोप्लाज्म। नाभिक एक तरह का तारा प्रकाश कण होता है और जीवन की यही अन्तिम इकाई है, दूसरे साइटोप्लाज्म में तो सभी प्रोटीन तत्व हाइड्रोजन ऑक्सीजन फास्फोरस आदि तत्व पाये जाते हैं, यह तभी तक क्रियाशील रहते हैं, जब तक नाभिक (न्यूक्लियस) बना रहता है। न्यूक्लियस के निकलते ही यह पदार्थ वाला अंश मृत हो जाता है, निष्क्रिय हो जाता है यद्यपि इस केन्द्रक (न्यूक्लियस) को वैज्ञानिक स्वतन्त्र स्थिति में प्रकट नहीं कर सके तथापि ऊपर जिस ‘न्यूक्लिइक एसिड’ की चर्चा की गई है, वह इसी में पाया जाता है, इससे स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि ज्ञान, विचार या अन्तर्चेतना, प्रकाश कणों का गुण है और यदि वह मनुष्य के स्थूल से भिन्न पदार्थ है तो शरीर से विलग होने के बाद भी उसमें यह गुण विद्यमान् बने रहने ही चाहिये।
एक स्वस्थ मानव शरीर में लगभग 600 खरब कोशिकायें होती हैं। 600 खरब कोशिकाओं में 600 खरब नाभिक होते हैं। प्रत्येक नाभिक में गुण सूत्र (क्रोमोसोम और प्रत्येक गुण सूत्र के भीतर एक बटी हुई रस्सी की सीड़ी के समान संस्कार कोश (जीन्स) विद्यमान् होते हैं, यह संस्कार कोश जो प्रकाश की भी सूक्ष्म अवस्था है, न्यूक्लियक एसिड कहलाते हैं। यह एक प्रकार की विद्युत चुम्बकीय शक्ति है और कोश के भीतर सारे स्थूल द्रव्य में, तिल में तेल के समान व्याप्त है, इसीलिये वैज्ञानिकों को उसके स्वतन्त्र होने पर भी एसिड होने का भ्रम हो रहा है। वस्तुतः अपवाद स्वरूप कुछ प्राणियों को छोड़कर शेष सभी प्राणियों की कोशिकायें अनेक तत्वों की बनी होती हैं, जो तत्व विकृत होते हैं, वहां उस तरह के विषाणु पैदा होते रहते हैं। उसका फल बीमारियां होती हैं। अपने आप में शुद्ध और समुन्नत कोशिकाओं से जीवन, आयु और प्राण की वृद्धि भी होती रहती है। अब यह विश्वास किया जा रहा है कि प्रत्येक प्राणी की कोशिकाओं का विश्लेषण कर लिया जाय और मानव शरीर में उनकी समीक्षा की जाये तो जिस जाति की कोशिकायें बहुतायत से पाई जा रही होंगी, पूर्व जन्म उसी से सम्बन्धित रहा होगा। कोशिकायें प्रोटोप्लाज्म नामक जीवित पदार्थ से बनी होती हैं। इसके भी साइटोप्लाज्म और नाभिक (न्यूक्लियस) दो भाग होते हैं। साइटोप्लाज्म अर्क्षपार दर्शक जल मिश्रित जेली की तरह का होता है, जिसमें अनेक प्रकार के प्रोटीन, लवण, शर्करा और वस्तुयें होती हैं पर नाभिक के बारे में अभी निश्चित तथ्य नहीं प्राप्त किये जा सके। इसका सम्बन्ध प्राण विद्या से है। जब उससे वैज्ञानिक अनेक जानकारियां प्राप्त करेंगे तो पूर्व अध्यात्म की और भी विलक्षण पुष्टि होगी। पर एक बात तो यहां अभी सिद्ध हो गई कि आहार क्रम को बदलकर कोशिकाओं को बदला जा सकता है। भले ही यह क्रम मन्दगामी हो पर यदि एक ही प्रकार के पदार्थ खाने में लिये जायें तो उसी प्रकार की कोशिकाओं को विकसित और सतेज कर विषाणुओं और दुर्बल एवं अधोगामी योनियों में पाई जाने वाली कोशिकाओं को हटाया और कम किया जा सकता है। इसका प्रभाव यह होता है कि मनुष्य में जो पाशविक वृत्तियां होती हैं, वह इन कोशिकाओं की मन्द, अशुद्ध और जटिल स्थिति के कारण होती हैं, उन्हें बदलकर शुद्ध, सात्विक बनाया जा सकता है। अस्वाद व्रत और उपवास का महत्व इस जानकारी के आधार पर और भी बहुत अधिक बढ़ जायेगा।
यदि कोशिका को काटकर नाभिक से अलग कर दिया जाय तो कोशिका की मृत्यु हो जायेगी पर नाभिक में स्वतः निर्माण की क्षमता होती है हमारा आध्यात्मिक दर्शन यह कहता है कि उस नाभिक में इच्छा, आशा, संकल्प और वासना का अंश रहता है, उसी के अनुरूप वह दूसरा जन्म ग्रहण करता है। अभी पाश्चात्य विज्ञान इस सम्बन्ध में तो खोज नहीं कर पाया पर कोशिकाओं से निकलने वाली एक तरह की किरणें जिन्हें क्रोमोसोम कहते हैं की जानकारी मिली है। प्रत्येक पदार्थ में क्रोमोसोम की संख्या अलग-अलग होती है। गेहूं में 42, मनुष्य शरीर की कोशिकाओं में 46 और किन्हीं-किन्हीं जीवों की कोशिकाओं में 100-100 तक क्रोमोसोम पाये जाते हैं। यह क्रोमोसोम भी जीन नामक परमाणुओं से बने होते हैं। इनके अलग-अलग रंग भी होते हैं, उन कणों को एलील कहा जाता है।
जब इन सब की विस्तृत खोज होगी तो अनुमान है मन, बुद्धि चित्त, अहंकार आदि सूक्ष्म-तत्वों की और भी विशद् जानकारी होगी। इनमें नाभिक हर घड़ी क्रियाशील रहता है ओर वह इन क्रोमोसोम के माध्यम से साइटोप्लाज्म को भी गतिशील रखता है। इच्छानुवर्ती शरीर क्रिया को बदलने का सम्भव है बड़ा विज्ञान इसमें सन्निहित हो और उसकी जानकारी बाद में वैज्ञानिकों को मिले।
यद्यपि कोशिकाओं के अन्दर निर्माण और क्रियाशील रखने वाली शक्ति न्यूक्लियस या नाभिक ही हैं पर साइटोप्लाज्म का कार्य उससे कम महत्वपूर्ण नहीं दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। सच पूछा जाये तो साइटोप्लाज्म भी उतना ही शक्तिशाली, व्यापक और विशाल है।
जब इनकी वैज्ञानिकों ने विस्तृत खोज की तो पता चला एक साइटोप्लाज्म के अन्दर एक बड़ी भारी झाल है, उसमें कई इतने बड़े महानगर हैं, जितने न्यूयार्क, वाशिंगटन, लन्दन, पेरिस, वारसा या दिल्ली आदि। उसमें छाये हुये कुहरे को हटाकर देखा गया तो वहां तो एक भयंकर हलचलें दिखाई दी। उसी में अनेकों कोश ही प्रकाश-कणों का एक स्वतन्त्र शरीर बनाये हुये निकल जाते हैं, उनमें वह सारी याददास्तें बनी रहती हैं, जो जीवित अवस्था में ज्ञान में आई थीं। इतना ही नहीं इस अवस्था में भी वह ज्ञान-सम्पादन की क्षमता से परिपूर्ण होता है, केवल स्थूल क्रियायें जैसे बोलना, पकड़ना, उठाना-बैठाना आदि उससे नहीं हो सकता, यह किसी विशेष अवस्था में ही सम्भव है।
उपरोक्त प्रयोग इस बात का साक्षी है कि हमारी मानसिक चेष्टायें जिन्हें विचार इच्छायें या ज्ञान कुछ भी कहें मनुष्य शरीर की रासायनिक प्रक्रिया मात्र नहीं, प्रकाश मानव कणों या सूक्ष्म शरीर के कारण है, यह एक ऐसा सिद्धानत है, जो यदि सिद्ध हो जाता है तो न केवल पुनर्जन्म, भूत-प्रेत, दूर-दर्शन, दूर-श्रवण, विचार सम्प्रेषण, परकाया प्रवेश, परलोक आदि की भारतीय मान्यताओं की ही पुष्टि नहीं होगी वरन् योगाभ्यास की उन क्रियाओं का भी समर्थन होगा, जो शरीर-धारी आत्म-चेतना के विराट् विकास के लिये बड़ी तपश्चर्या और कष्ट साध्य प्रयोगों के द्वारा भारतीय तत्वदर्शियों ने आविष्कृत की है। केन्द्रक स्थित यह तत्व जो स्मृतियां अर्जित करता है, मनुष्य शरीर की समस्त 600 खरब कोशिकाओं में पाया जाता है, यदि उसे खींच कर लम्बाई में बढ़ाया जाये तो वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अर्थात् अब तक की खोज के अनुसार 186000×60×60×24×365×1/4× 500000000 मील लम्बा होगा। इतने लम्बे फीते में प्रत्येक कोश में 1000000000 अक्षरों के हिसाब से उपरोक्त संख्या में इसका गुणा करने से जो संख्या बनेगी, उतने अक्षरों की और उन अक्षरों से बने शब्दों की स्मृति मनुष्य रख सकता है।
यह कोशिकायें शरीर के विभिन्न अंगों में विभिन्न गुणों वाली होती हैं, उसकी जानकारी करने पर शरीर द्वारा शरीर की ही चिकित्सा कर लेना भी सम्भव हो जायेगा। और अधिक भीतरी मर्मस्थलों की खोज हुई तो मनुष्य यन्त्रों के द्वारा अनेक ऐसी शक्तियां प्राप्त कर लिया करेगा, जिनकी सम्भावनायें तन्त्र-विज्ञान से सम्बन्ध रखती हैं। इनमें अणिमा, गरिमा, लघिमा आदि सिद्धियां भी सम्मिलित होंगी।
कोशिकाओं के भाग—कोशिकावरण प्लास्टिड, वैकुओल, एण्डोप्लाज्मिक, रेंटिकुलभ, सेन्ट्रियोल और माइडोकोण्ड्रिया आदि की विस्तृत जानकारी होगी तो ब्रह्माण्ड के अनेक रहस्यों का पता शरीर में ही लग जाया करेगा। इन सब ने शरीर में नहरों और नदियों का सा जाल बिछा रखा है।
देखा गया कि यह संरचनायें जब परस्पर जुड़ती हैं या सम्बन्ध स्थापित करती हैं तो एक बड़ी भारी सड़क बनती है। लाखों मील लम्बी नहरें दिखाई देती हैं। कोशिकाओं के कुछ अंश उतने उठे हुये दिखाई देते हैं, जैसे वह हिमालय अथवा आल्पस पर्वत हों, उन पर प्रकृति के वह पदार्थ भी झलकते और चमकते दिखाई देते हैं, जो पर्वतों और नदियों के किनारे दिखाई देते हैं। नेत्र विस्फारित हो उठते हैं कि आखिर एक परमाणु के अन्दर यह सब कैसी हलचल है। मनुष्य जो भी खाता है वह शरीर में स्थापित विद्युत केन्द्रों को पहुंचता है, वहां से हर स्थान की आवश्यकता के अनुरूप ऊर्जा की सप्लाई होती है, उसे देखकर लगता है, इन सब कामों को कोई इंजीनियर बड़े ही कुशलता पूर्वक चला रहा है।
कोशिकाओं के सम्बन्ध में अभी तक स्थूल जानकारियां ही मिली हैं, उनके आधार पर ही चिकित्सा जगत् में हलचल पैदा हो गई है, ऐसे-ऐसे इन्जेक्शन और औषधियां बनाली गई हैं, जिनसे अब मनुष्य का केवल कायाकल्प करना शेष रह जायेगा, बाकी रोगों को नष्ट करना, दीर्घजीवन प्राप्त करना सब वैज्ञानिकों की मुट्ठी में हो इन कोशिकाओं को जीव वैज्ञानिकों ने शरीर के जीवन का आधार कहा है। सर्वप्रथम जीव वैज्ञानी जोह्वर ने यह बताया कि रसायन जीव-विज्ञान से गठबन्धन हुए बिना चैतन्य जगत् स्थिर नहीं रह सकता। उन्होंने एल्युमिनियम और यूरिया नामक शारीरिक रसायन का संश्लेषण कर उसने यह सिद्ध किया कि शारीरिक रसायन और धातुओं को प्रयोगशाला में नहीं पकड़ा जा सकता यह घोषणा रसायन और औषधि जगत् में तीव्र हलचल पैदा करने वाली थी।
तब से अब तक 50000 यौगिकों की खोज की जा चुकी है, किन्तु जीवन के सम्बन्ध में कोई युक्ति संगत विश्लेषण वैज्ञानिक प्रस्तुत नहीं कर सके। किन्तु वैज्ञानिकों ने उसकी खोज का संकल्प अवश्य किया। खोजते-खोजते वे कोशिका और उसके द्वारा उत्पादनों और घटकों तक जा पहुंचे। उन्होंने देखा कि कोशिका (सेल्स, जिनसे मिलकर शरीर बना है) के भीतर जो सैकड़ों यौगिक भरे पड़े हैं, उन्हें निश्चित रूप से प्रयोगशाला में बनाया जा सकता है। उन्होंने इस बहुत ही सूक्ष्म कोशिका के भीतर जीव-विज्ञान को भी सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से अध्ययन करना प्रारम्भ किया, जो निष्कर्ष प्राप्त हुए यद्यपि वह अपूर्ण हैं, पर जितने हैं, जड़वादी मान्यता को काट देने के लिये वही काफी हैं। वैज्ञानिक दृष्टि में कोशिका वह पिण्ड है, जिसमें सम्पूर्ण जगत् का सूक्ष्मदर्शन छिपा हुआ है। उसे अध्ययन कर लेने वाला कभी नास्तिक नहीं हो सकता है।
यद्यपि यह अत्यन्त सूक्ष्म संरचना है तथापि बोधगम्य (नोएबुल) है। एक बिन्दु में मनुष्य के लाल रक्त की लगभग 5 हजार कोशिकायें समा सकती हैं। यह कोशिका-झिल्ली पौधों और बैक्टीरिया में अपेक्षाकृत अधिक मोटी और कड़ी होती है, यह एक प्रकार की निर्जीव चहार-दीवारी है, सूक्ष्म जलीय जगत् तो उसके अन्दर बन्द है, आइये उस पर एक दृष्टि डाल कर देखें कि वहां कौन से तत्व क्या कर रहे हैं।
सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों द्वारा कोशिका झिल्ली के भीतर की इस रचना को बड़े आश्चर्य के साथ देखा जाता है। यह झिल्ली कोशिका के अन्दर समस्त इकाइयों की अपेक्षा अधिक सक्रिय इकाई है, किन्तु उसकी सक्रियता भीतर घुसे हुए नाभिक (न्यूक्लियस) की इच्छा के कारण है। न्यूक्लियस ही वह चेतना और केन्द्रीभूत सत्ता मानी जा रही है जिस पर कोशिका का सारा क्रिया व्यापार चलता है। यह एक अत्यन्त सूक्ष्म पर विराट्-जगत् का प्रतिनिधि है। उसी को देखकर आइन्स्टाइन ने कहा था कि यह क्षितिज भी अण्डाकार (कर्व) स्थिति में है, जब लोगों ने पूछा कि उसके बाद क्या है तो उसने कहा—‘‘कुछ नहीं’’ वह संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है कि यह संसार जिसकी सीमा अनन्त है, वह भी घिरा हुआ, मुड़ा हुआ अर्थात् असीम है। सीमा स्थित है।
जो भी हो हमें उस कोशिका-झिल्ली का अध्ययन करना है। यह झिल्ली उन तत्वों को छंटती है, जिनकी न्यूक्लियस इच्छा करता है, जिस प्रकार सिनेमा हाल के गेट पर खड़े हुए चौकीदार जिसके पास जैसा टिकट होता है, उसी तरह उन्हें आने देते हैं, उसी प्रकार कोशिका झिल्ली भीतर केवल उन्हीं तत्वों को जाने देती है, जिसकी न्यूक्लियस इच्छा और प्रेम करता है। इस न्यूक्लियस के अतिरिक्त वहां कमजोर रेशों और अपेक्षाकृत मजबूत तंतुओं का जाल-सा बिछा हुआ है। उन्हें क्रोमोटीन कहते हैं। क्योंकि वह रंगों को जज्ब करते हैं, जब एक कोशिका दूसरी कोशिका में विभाजित होती है तो यह तन्तु ही व्यावर्त्तन, पृथक्करण और पुनर्व्यवस्थापन के रूप में एक प्रकार का सामूहिक नृत्य-सा करते हैं। आधुनिक नृत्यकार भी उस नृत्य की गति का मुकाबला नहीं कर सकते।
यह गति बड़ी रहस्यपूर्ण होती है, यह उन चार तत्वों को क्रियाशील करने का वैज्ञानिक तरीका है, जिससे नई सृष्टि की उत्पत्ति होती (नये बालक का जन्म भी इसी विभाजन क्रिया से होता है)। किन्तु वह सब करने वाला पांचवा आकाश तत्व भी यहां विद्यमान् है। न्यूक्लियस उसी आकाश में स्थित है, अर्थात् वह किसी भी तत्व पर टिका हुआ नहीं है; जबकि कोशिका-झिल्ली के अन्दर गति करने वाले सभी पदार्थ परस्पर सम्बद्ध होते हैं।
न्यूक्लियस और कोशिका परिधि के बीच वाले भाग में जिसे साइटोप्लाज्म कहते हैं, अनेक संरचनायें होती हैं। छोटी सघन पहाड़ियां माइटोकोन्ड्रिया और उससे भी छोटे टीले माइक्रोसोक्से मिट्टी के कणों के बने प्रतीत होते हैं। कहीं-कहीं पतले तन्तु गोल्जीबाडीज टेढ़े-मेढ़े ढंग से पड़े लहराते हैं, जिससे हवा का अस्तित्व दर्शन होता है। कुछ कोशिकाओं में दूसरी वस्तुयें जैसे पिगमेंट, स्टार्चण, चर्बी की गोलियां बिखरी पड़ी रहती हैं। कोश में 70 प्रतिशत जल और इन तत्वों को क्रियाशील रखने वाले तापीय कण भी रहते हैं। इस बिन्दु जगत् में ही चारों तत्वों के साथ आकाश भी छाया हुआ है। वैज्ञानिक इस सूक्ष्म रचना से दंग रह गये और अपने आपसे पूछने लगे, यदि कोशिका ही जीवन संरचना की इकाई है तो क्या उसके कार्य की भी इकाई है? रक्त परिसंचरण के आविष्कारकर्ता विलियम हार्वे ने उसका उत्तर देते हुए कहा था—‘‘हम जो कुछ जानते हैं, वह उसकी तुलना में जो अब भी अज्ञात है, बहुत कम है।’’ यह वक्तव्य आज भी उतना ही सत्य है। वैज्ञानिक यह मानते हैं, कोशिका के आकाश में स्थित जगत् के सम्पूर्ण अध्ययन के लिये 335 वर्ष की अवधि भी बहुत अल्प है।’’ चार्वाक और नीत्से ने तो न जाने कैसे प्रत्यक्ष देहात्मवाद को ही सर्वस्व कह दिया। आज के वैज्ञानिक उसे एक मूर्खतापूर्ण प्रलाप ही कहते हैं।
शरीर की रहस्यमय विलक्षणतायें
दृश्यमान शरीर की—स्थूल संरचना तो अन्य प्राणियों जैसी ही है पर उसके अन्तराल में प्रवेश करने पर पता चलता है कि पग-पग पर उसमें विलक्षणताएं भरी पड़ी हैं। इनके स्वरूप और उपयोग को जाना जा सके तो तिलस्म के वे पर्दे उठ सकते हैं जिनके भीतर रहस्यमय सिद्धियों के अनन्त भाण्डागार भरे पड़े हैं। काय-कलेवर से प्रजनन क्षमता की सूत्रधार अत्यन्त छोटी इकाई—जीन्स। यह आंख से दृष्टिगोचर न होने वाले शुक्राणुओं और डिम्बाणुओं के अन्तराल में रहने वाले अत्यन्त ही क्षुद्र घटक हैं। इतने पर भी उसकी क्षमता देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। यह नहीं सोचना चाहिए कि हारमोन या जीन्स ही रहस्यमयी क्षमताओं से सुसम्पन्न हैं। सच तो यह है कि पूरी काया ही तिलस्मी रहस्यों से भरी पूरी है। दुर्भाग्य यही है कि हम न तो उसकी सामर्थ्य को समझ पाते हैं और न उसके सदुपयोग का ही साहस जुटाते हैं।
काया का स्थूल भाग अन्नमय कोश छोटी छोटी कोशिकाओं (सैल्स) से बना है जिनके अन्दर एक द्रव्य ‘साइटोप्लाज्म’ (वसामय पीला सा द्रव्य) पदार्थ भरा रहता है। इसके बीच में अवस्थित होता है, कोशिका का नाभिक केन्द्रक (न्यूक्लियस)। पुरुष की शुक्राणु कोशिका अथवा नारी की अंडाणु कोशिका के नाभिक में छोटे-छोटे धागे जैसे गुण सूत्र (क्रोमोसोम) होते हैं। एक नाभिक में इनके 23 या 24 जोड़े होते हैं। इन्हीं से लाखों की संख्या में ‘जीन्स’ चिपके रहते हैं। नये मनुष्य शरीर के निर्माण तथा उनमें अनुवांशिकीय गुण धर्मों का विकास इन्हीं पर निर्भर करता है।
यह जीन्स क्या हैं? कैसे यह अपनी आश्चर्यजनक भूमिका पूरी करते हैं? इस रहस्य पर से विज्ञान अभी पर्दा उठा नहीं सका है। उनके सम्बन्ध में बड़ी तेजी से शोध कार्य चल रहे हैं, बहुत से रहस्य खुले भी हैं, फिर भी वह नहीं के बराबर हैं।
अभी तक के अध्ययन के आधार पर ‘जीन्स’ छोटे-से विद्युत्मय पुटपाक या पुड़ियां (पैकेट) हैं। माना जाता है कि इनकी रचना कई तरह के न्यूक्लियर अम्लों के संयोग से हुई है। उनमें से अभी केवल दो के बारे में जाना जा सका है। वे हैं (1) डी.एन.ए. (डी आक्सी राइबो न्यूक्लीक एसिड) (2) आर.एन.ए. (राइबो नयूक्लीक एसिड)।
जीन्स की संरचना के बारे में अभी तक नहीं जाना जा सका है, किन्तु यह जानकारियां निश्चित रूप से हो गई हैं कि शरीर के अंग-प्रत्यंग की विशिष्ट रचना से लेकर अनेक परम्परागत स्वभावों, रोगों तथा गुणों के विकास की आश्चर्यजनक क्षमता इनमें है। इनके गुणों और कार्य-कलापों को कैसे नियन्त्रित किया जाय यह पता विज्ञान अभी नहीं लगा सका है, किन्तु यह माना जाने लगा है कि यदि ‘जीन्स’ के गुणों और कार्य-प्रणाली को प्रभावित किया जा सके, तो आश्चर्यजनक उपलब्धियां प्राप्त हो सकती हैं। यह अन्नमय कोश के छोटे से घटक एक कोशिका के नाभिक में रहने वाले नगण्य आकार वाले विद्युन्मय पैकेट मनुष्य के आसपास के वातावरण से लेकर उसके विचारों और भावनात्मक विशेषताओं के संस्कार ग्रहण करने में समर्थ हैं।
मनुष्य के विकास के सम्बन्ध में भारतीय मान्यता यह रही है कि उस पर अनुवांशिकता के साथ-साथ बाह्य वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। पहले इस मान्यता के प्रति उपेक्षा बरती जाने लगी थी।
यह स्पष्ट हो गया है कि अपने वातावरण तथा अपनी चेष्टाओं द्वारा व्यक्ति जिन स्वभाव-गुणों को अर्जित करता है, वे वंशानुक्रम से प्राप्त नहीं होते और न ही कोई व्यक्ति उन अर्जित विशेषताओं को वंशानुक्रम द्वारा अपने बच्चों को प्रदान कर सकता है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति ने अनेक भाषाएं सीखी हैं, तो वह उस भाषा-ज्ञान को अपने बच्चों को वंशानुक्रम द्वारा नहीं दे सकता। बच्चों को भी भाषा-ज्ञान की प्रचलित विधियों को ही अपनाना होगा तथा मेहनत करनी पड़ेगी। वहीं दूसरी ओर यह भी स्पष्ट हो गया है कि वंशानुक्रम का निश्चित प्रभाव सन्तान पर पड़ता है। आनुवंशिकी (जनेटिक्स) का सारा ढांचा ही इसी आधार पर खड़ा है। यह सही है कि कोई भी व्यक्ति जंगली बेर के बीज बोकर उससे गुलाब के फूलों की आशा नहीं कर सकता। गौरैया के अण्डों को सेकर उनमें से भोर के बच्चे कौन निकाल सकता है? लेकिन जिन पौधों के बीज बोये जाते हैं, उनसे उन्हीं जैसे पौधे आखिर क्यों उगते हैं? चूहों से चूहा और बिल्ली से बिल्ली ही क्यों पैदा होती है? इसका उत्तर है, आनुवंशिकता अर्थात् नियमित वंश परम्परा, जिनके कारण ही ऐसा होता है। जो वस्तु जिस वंश की होगी, उसका बीज डाले जाने पर वैसा ही फल होगा। आनुवंशिकता में काम करने का ढंग भी शामिल है और चीजों का कद तथा रंग भी। उदाहरण के लिये बया पक्षी को बढ़िया लटकने वाला घोंसला बनाना किसी को सिखाना नहीं पड़ता है।
आनुवंशिकता अपने पूर्वजों से मिलने वाली विशेषताओं का ही दूसरा नाम है। वैज्ञानिक जानते हैं कि जीवों में जो विशेषतायें होती हैं, वे उन्हें माता-पिता से अत्यन्त सूक्ष्म कणों के रूप में मिलती हैं। इन सूक्ष्म कणों को जीन ‘कहा’ जाता है। हमारा शरीर बहुत-सी कोशिकाओं से मिलकर बना है। ‘जीन’ कोशिका का ही एक भाग है। अगर किसी वट-वृक्ष की शाखा को कहीं उसके अनुकूल स्थान में ले जाकर बो दिया जाये तो वह भी मूल पेड़ की तरह ही फलने-फूलने लगेगी। उसकी कोशिकाओं के ‘जीन’ अपने पहले के पेड़ की ही भांति होंगे। ठीक उसी तरह जिस तरह किसी स्पंज के टुकड़े में वैसे ही छिद्र होते हैं, जैसे उस स्पंज में थे जिसमें से कि टुकड़े को तोड़ा गया है।
अधिकांश पौधों और जीवों की उत्पत्ति नर और मादा से होती है। कुछ ‘जीन’ नर से और कुछ मादा से मिलते हैं। झरबेरी झाड़ी के बीज गुलाब तो नहीं, लेकिन ऐसा पौधा अवश्य उगा सकते हैं, जिसमें एक की बजाय दो तरह के फूल हों। काली बिल्ली का बच्चा एकदम सफेद हो सकता है। यदि कोई पौधा या जानवर दो तरह की विशेषता के ‘जीन’ आनुवंशिकी द्वारा प्राप्त करता है, और दोनों का प्रभाव बराबर रहता है तो दोनों के मिलने से तीसरी विशेषता उत्पन्न होती है। अगर लाल गाय और सफेद रंग का सांड़ हो तो उनका बछड़ा न तो सफेद होगा और न लाल। वह भूरा, यानी दोनों के बीच के रंग का हो सकता है। ऐसा हो जाने के नियम की वैज्ञानिक व्याख्या आनुवंशिकी के सिद्धान्त के आधार पर की जाती है। ‘जीन’ ही इस आनुवंशिकता के वाहक हैं और आनुवंशिकता की बुनियादी इकाई हैं। अभी तक किये गये परीक्षणों से यही जाना जा सका है कि व्यक्ति की शारीरिक विशेषताएं जैसे रंग, रूप, नेत्र, त्वचा, खून का प्रकार लम्बाई, ठिगनापन आदि सब ही आनुवंशिक और वित्रागत होते हैं। ये शारीरिक गुण भी मात्र माता-पिता से नहीं प्राप्त होते, वरन् दादा, परदादा तथा अन्य पूर्वजों से क्रमशः संक्रमित होकर आते हैं। वंशानुगत गुणों में माता-पिता का दाय प्रत्येक गुण में आधा होता है। यानी मां का एक चौथाई और पिता का एक चौथाई। उनके पूर्व के चार पितरों में प्रत्येक का दाय प्रत्येक गुण का सोलहवां भाग होता है अर्थात् चारों पितरों का कुल दाय एक चौथाई भाग होता है। शेष 1 चौथाई और पुरानी पीढ़ियों से आते हैं।
व्यक्ति के संस्कार तो उसके जन्म-जन्मान्तरों की संचित सम्पदाएं और साधन हैं। किन्तु उसके उपयुक्त उपकरण-अन्नमयकोश के निर्माण के घटक जीन्स-क्रोमोसोम का भी स्वरूप-निर्धारण कितनी सूक्ष्मताओं और जटिलताओं के आधार पर होता है, यह आनुवंशिकी की आधुनिक खोजों द्वारा भी स्पष्ट होता है। भारतीय मनीषी इन सूक्ष्मताओं से परिचित थे तभी वे सुसन्तति के लिए माता-पिता का चरित्रगत, तपस्वी-संयमी होना अनिवार्य बतलाते थे। इन्द्रिय-लिप्साओं की खुजली को शान्त करते रहने की कुचेष्टाओं के साथ सुसन्तति की आकांक्षा करते रहना एक असम्भव कल्पना मात्र है। उसके सफल होने की कदापि कोई भी सम्भावना नहीं है। अन्नमय कोश की इन सूक्ष्मताओं से परिचित होकर, अपना जीवनक्रम उस प्रकार व्यवस्थित कर व्यक्ति न केवल सुयोग्य सन्तति के जनक-जननी बनने की क्षमता से, अपितु उन अनेक विशिष्ट क्षमताओं, विभूतियों से सम्पन्न बनता है, जिनसे मनुष्य शरीर की सार्थकता और गरिमा है। अन्नमय कोश की साधना स्वयं की इन क्षमताओं के विकास का ही नाम है।
आनुवंशिकता का प्रभाव बिल्कुल सीधा और स्थूल नहीं होता। उदाहरण के लिए किसी माता-पिता में से दोनों को या किसी एक को टी.बी. रोग (क्षयरोग) हो तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि बच्चे को जन्म से ही टी.बी. (क्षयरोग) हो, अपितु इसका सिर्फ यह अर्थ है कि बच्चे के शरीर में ऐसी वृत्ति या तत्परता विद्यमान है कि क्षय रोग के कीटाणु शरीर में पहुंचते ही वहां जड़ पकड़ लेंगे।
इसी प्रकार मान लीजिये कि बढ़ई है, जो अपने काम में बड़ा दक्ष है। यह कार्यदक्षता बच्चे में जन्मजात रूप से नहीं उत्पन्न होती। अपितु यदि बच्चे को भी कुशल बढ़ई बनाना है, तो उसे बढ़ईगीरी का काम सिखाना ही होगा। हां, उस बच्चे के हाथ ऐसे हो सकते हैं, जिनके द्वारा कि उन औजारों का अधिक अच्छा उपयोग सम्भव हो, जो बढ़ईगीरी के काम आते हैं।
इसीलिए आनुवंशिकता और पर्यावरण दोनों को समान महत्व दिया जाता है। आनुवंशिकता द्वारा अर्जित गुण नहीं प्राप्त होते। कुछ जन्मजात गुणों का आधार ही आनुवंशिकता को माना जाता है। ये जन्मजात गुण वंशानुक्रम के लक्षण कहे जाते हैं। वंशानुक्रम के लक्षण क्रोमोसोमों के आधार पर प्राप्त होते हैं। क्रोमोसोमों में होते हैं-जीन, जो व्यक्ति के ‘करेक्टरिस्टिक्स’ का निर्माण करते हैं।
‘जीन’ का व्यवहार या आचरण से सीधा सम्बन्ध नहीं होता। जीन शरीर के ऊतक तथा अंगों के विकास को निर्देशित नियन्त्रित करते हैं। इस प्रकार वे शरीर की क्रियाशीलता को भी नियन्त्रित करते हैं। शरीर की ये क्रियाएं स्पष्टतः व्यवहार को भी प्रभावित करती हैं और उस रूप में जीन्स का सम्बन्ध व्यवहार से भी होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति वंशानुक्रम से छोटी टांगें, ठूंठदार अंगुलियां या बहरे कान प्राप्त करता है तो निश्चय ही कुछ क्षेत्रों में उसकी योग्यता सीमित हो जायेगी। इसी प्रकार शारीरिक क्रियाओं में भाग लेने वाले हजारों रासायनिक तत्व भी जीन्स द्वारा ही निर्धारित होते हैं। जैसे दृष्टि के लिए प्रकाशसंवेदी तत्व याकि रक्त के जमने में कई रासायनिक तत्व योग देते हैं। इन तत्वों की उपस्थिति सशक्तता या दुर्बलता का संबंध जीन्स से ही होता है। ऐसे अनेक लक्षण वंशानुक्रम से सम्बन्धित होते हैं।
वंशानुक्रम के आधारभूत घटकों, जीन्स और क्रोमोसोम्स के अध्ययनों के निष्कर्ष इस तथ्य के द्योतक हैं कि अन्नमय कोश में निर्माण का सूक्ष्म आधार कितना व्यापक और जटिल होता है। पौष्टिक भोजन मात्र से अन्नमय कोश सुदृढ़ नहीं हो जाता। इसके विपरीत अन्नमय कोश की सुदृढ़ता ही भोजन के रस-पारिपाक का कारण व आधार बनती है। बढ़िया खाने-पहनने की चिन्ता करते रहने को ही जीवन का पुरुषार्थ मान बैठने वाले अन्नमय कोश के निर्माण के आधारों से अनभिज्ञ रहकर उसे अस्त-व्यस्त और दूषित, विकृत बनाते रहते हैं और भावी सन्ततियों को भी उस विकृति का अभिशाप दे जाते हैं।
एक जीन युग्म शरीर के किसी विशेष ‘करेक्टरिस्टिक’ के विकास का निर्देश करता है। आंखें भूरी हैं या नीली, बाल घने काले हैं या हल्के स्वर्णिक हैं अथवा लाल, घुंघराले हैं या सीधे सामान्य बाल हैं या गंजापन है, दृष्टि सामान्य है, या रतोंधी ज्यादा होने की सम्भावना है, श्रवण-शक्ति सामान्य है या जन्मजात बहरापन है, रक्त सामान्य है या कि ‘हेमोफीलिया’ का दोष है, रंग-बोध स्पष्ट है या वर्णान्ता दोष है, उंगलियों या अंगूठों की संख्या सामान्य है या कम-अधिक है, किसी जोड़ में कोई उंगली छोटी-बड़ी तो नहीं है, सभी अवयव सामान्य हैं या कुछ अवयव विरूप हैं, आदि सभी शारीरिक ‘करेक्टरिस्टिक्स’ जीर-युग्मों पर ही निर्भर करते हैं।
फ्रान्सीसी दार्शनिक मान्टेन को 45 वर्ष की आयु में पथरी की बीमारी हुई। उसके पिता को यह रोग 25 वर्ष की आयु में आरम्भ हुआ। जबकि मान्टेन के जन्म के समय उसके पिता सिर्फ इक्कीस वर्ष के थे। उस समय उन्हें यह रोग नहीं था। लेकिन उनके जीन्स में इस रोग के आधार विद्यमान थे। मान्टेन की पित्ताशय की पथरी की बीमारी कई पीढ़ियों से चली आ रही थी।
बालकों का ‘गैलेक्टो सीमियां’ रोग जीन्स से ही सम्बन्धित होता है। वह जीन, जब यूरी डायल ट्रान्सफर एन्जाइम नहीं बनने देता, तो बच्चे दूध में रहने वाली मिठास—गैलेक्टोस—को पचा नहीं पाते। फलतः वह खून में जमा होती रहती है और जिगर में इकट्ठी होकर बच्चे का पेट खराब कर देती है। तथा मृत्यु का भी कारण बन बैठती है।
‘एक्रोडमे टाइटिस ऐटेरोपैथिका’ नामक रोग का कारण भी मुख्यतः जीन्स की विकृतियां हो होती हैं। आंख का केन्सर—रेटीनो ब्लास्टीमा-जीन्स-दोष का ही परिणाम है। जीन्स की ‘एक्रोड्रोप्लायिसा’, विकृति के कारण बच्चे अविकसित रह जाते हैं। वे जल्दी मरते हैं। बच गये तो भी वंश-वृद्धि में असमर्थ होते हैं। ऐसे दोष वाली महिलाएं गर्भवती होने पर स्वयं की भी प्राण-रक्षा नहीं कर पातीं, बच्चे की जान तो खतरे में होती ही है।
‘राइजोंवियम’ नामक जीवाणु की जीन को यदि धान, गेहूं, ज्वार बाजरा आदि फसलों की जड़ों में पलने वाले किसी जीवाणु में प्रत्यारोपित करना सम्भव हो तो इन फसलों के लिए अधिक उर्वरक नहीं खर्च करना पड़ेगा। भारत समेत विश्व भर की आनुवंशिकी प्रयोगशालाओं में इस हेतु प्रयास हो रहा है।
स्थूल दृष्टि से उपेक्षणीय लगने वाले इस अन्नमय कोश में अति सूक्ष्म घटक ‘जीन्स’ के साथ मनुष्य के उत्कर्ष की कितनी धारायें, सम्भावनायें जुड़ी हैं, इसे देखकर इसके रचयिता इसके रचयिता उस महान कलाकार की कलाकारी को शत शत नमन ही करते बनता है। अन्तर में बार-बार यही हूक उठती है कि क्या ही अच्छा होता कि हम इन महत् शक्तियों के जागरण ओर उपयोग की विधि जान पाते, सीख पाते ओर अपना पाते।