Books - असीम पर निर्भर ससीम जीवन
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Language: HINDI
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आस्तिक बनें—ताकि सुखी रहें
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ईश्वरीय सत्ता की विधि व्यवस्था अथवा नियम मर्यादाओं का एकमेव उद्देश्य इस विराट ब्रह्माण्ड का सुचारू संचालन है। प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक घटक अपना जीवनक्रम निर्बाध रूप से चला सके इसीलिए विभिन्न नियम मर्यादायें है। इन नियम मर्यादाओं को ईश्वर का अधिनायकत्व नहीं उसकी परम उदारता ही कहा जाना चाहिए। क्योंकि यदि ये नियम मर्यादायें न रहें तो सृष्टि ब्रह्माण्ड पर मत्स्यन्याय के अनुसार शक्तिशाली का अस्तित्व ही बचा रहे। उन नियम व्यवस्थाओं के साथ परमात्मा की उदारता इस बात में भी देखी जा सकती है कि जीवनोपयोगी सारी आवश्यकतायें आसानी से पूरी होती रहे, ऐसे साधन सृष्टि में सर्वत्र सहज सुलभ हैं।
जीवन की उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इस सृष्टि में ऐसी व्यवस्था है कि सरलतापूर्वक पूरी हो जाया करें। सांस लिये बिना एक क्षण भी काम नहीं चल सकता तो प्राण वायु प्रचुर मात्रा में सर्वत्र मौजूद है। जल का उसके बाद नम्बर आता है वह भी थोड़ा प्रयत्न करने पर हर जगह मिल जाता है। अन्न की आवश्यकता उसके पश्चात् है, उसके लिए प्रयत्न भी करना पड़ता है और खर्च भी, इसी क्रम से जो आवश्यकताएं अपेक्षाकृत हलकी होती जाती हैं उन्हीं का मिलना श्रम साध्य होता जाता है।
जीवन धारण की प्रक्रिया को देखिए। भ्रूण अति दुर्बल होता है उसे वातानुकूलित और सर्व सुविधा सम्पन्न निवास चाहिए। माता का गर्भाशय उसके लिये अतिशय सुविधा पूर्ण है। उतने दुर्बल और अपूर्ण प्राणी के लिये इतना साधन सम्पन्न स्थान संसार में अन्यत्र कहीं हो ही नहीं सकता। सो हर प्राणी को सरलता पूर्वक मिल जाता है। जितने समय भ्रूण पकता नहीं उतने समय निवास की वहां समुचित व्यवस्था है। यदि यह सब सरलता पूर्वक उपलब्ध न हुआ होता तो प्राणी की सर्व प्रथम और सर्वोपरि महत्व की आवश्यकता पूरी न हो सकने के कारण जन्म ही सम्भव न होता।
इसके पश्चात् जन्म लेने के बाद सुपाच्य सुसन्तुलित आहार की आवश्यकता होती है और एक सहायक संरक्षक सेवक की जो उस नवजात असमर्थ शिशु की केवल सारी आवश्यकता पूरी करे वरन् उसे पर्याप्त स्नेह प्रदान कर मानसिक विकास भी सम्भव बनाये। इन सारी आवश्यकताओं को माता पूरा करती है। नवजात शिशु के लिये माता का दूध ही अमृत है। इससे बढ़िया खुराक इस धरती पर हो ही नहीं सकती। माता से बढ़कर स्नेही—सहायक—संरक्षक—सेवक भला और कहां मिलेगा? अरक्षित, असमर्थ और असहाय शिशु के लिए पालन-पोषण की आवश्यकता पूरी होना अनिवार्य है। इसके बिना जीवन धारण किये रहना कठिन है।
जन्म तो हो जाय पर माता की सहायता न मिले तो बालक की कैसी दुर्गति होती है इसकी कल्पना कठिन नहीं। अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य के बालक को तो और भी अधिक मात्रा में—गहरी तथा लम्बे समय तक चलने वाली मातृ सहायता अपेक्षित होती है। पर प्रकृति से ऐसा प्रबन्ध सभी प्राणियों के लिए किया हुआ है। असली माता तो प्रकृति ही है। प्राणी को संसार में भेजती है तो उसकी व्यवस्थाएं भी आदि से अन्त तक बनाना उसी का काम है।
बालक बड़ा होता है। उसकी कोमलता सभी का जी हुलसाती है और उससे आकर्षित होकर हर कोई उस कोमल बालक की सहायता करना चाहता है। असमर्थता की पूर्ति उस उदार सहायता से पूरी होती है। दूसरों के बालक पास खेलते हों तो जी हुलसता है। उन्हें गोदी में लेने की—खिलाने की—प्यार करने की और पास में कुछ वस्तु देने की हो तो देने को जी करता है। माता-पिता, परिवार, पड़ौस, सम्बन्धी स्वजनों से इस प्रकार सद्भावनाएं और सहायताएं उसे सर्वत्र मिलती हैं। गुरुजनों का अनुग्रह रहता है। अध्यापक उनसे क्षमा और उदारता का व्यवहार करते हैं। बड़ों के साथ जैसा बराबरी का—कठोरता का व्यवहार किया जाता है, वैसा कोई गुरुजन उनसे नहीं करता। बड़े आदमी की गलती—अशिष्टता पर क्रोध आता है और दंड प्रतिशोध के कदम उठते हैं पर बालकों की पग-पग पर होने वाली गलतियों में रस भी लिया जाता है।
सरकार बाल-कल्याण विभाग चलाती है प्रौढ़ कल्याण—वृद्ध कल्याण की उपेक्षा करके भी उसका ध्यान बालकों पर रहता है। सामाजिक संस्थाएं भी इधर ही बहुत ध्यान देती हैं। सबकी स्वाभाविक सहानुभूति बालकों की ओर अनायास ही खिंची रहना—प्रकृति की उसी प्रेरणा के अनुसार है जिसमें उन्हें अपनी अविकसित स्थिति में सब ओर से अधिक सहायता एवं उदारता अपेक्षित हैं। यह सारी व्यवस्था मनुष्य के स्वभाव में पहले से ही सम्मिलित है। मनुष्य ही क्यों अन्य प्राणियों में भी अपने ही नहीं विराने बच्चों के प्रति अधिक कोमल और उदार भावनाएं पाई जाती है।
जीवन विकास की क्रमिक यात्रा में यौवन आता है। पितृत्व की इच्छा कामवासना के रूप में जगती है। जोड़ी मिलाने की आवश्यकता अनुभव होती है। समयानुसार यह भी सहज ही बन जाता है। एक ऐसी उमंग महक उठती है जिसमें हर नर मादा अपने विपरीत लिंग वाले प्राणी को खोजने और आकर्षित करने में सफल हो जाता है। मनुष्य को तो बहुत सुविधाएं प्राप्त हैं। बिना साधन, सुविधा वाले कीड़े-मकोड़े, पतंगे, जलचर, पशु, पक्षी सभी को काम तृप्ति का अवसर मिलता है और सभी गर्भाधान प्रक्रिया पूरी कर लेते हैं। मनुष्यों के लिये भी यह सुविधा बन ही जाती है। प्रकृति की दयालुता को देखिए कि वास्तविक आवश्यकताओं का समाधान कितनी सरलता और सुन्दरता के साथ जुटाती है। इसके लिये उसने अपनी क्रम व्यवस्था बड़ी सरल और सुविधाजनक बनाकर खी है और उसका प्रवाह अनादि काल से बहता चला आता है।
रोग निरोध की जन्मजात शक्ति रक्त कणों में विद्यमान रहती है। असली चिकित्सक भीतर मौजूद है। बाहर के डॉक्टर तो उन भीतर चिकित्सकों की थोड़ी सहायता भर कर देते हैं। मरण से पूर्व मूर्छा आ जाती है और वह अति कष्ट साध्य आपरेशन बिना कष्ट के सम्पन्न हो जाता है। मरने के बाद शरीर की दुर्गति न हो इसलिए उसे खाने के लिये कृमि उसी में तत्काल पैदा हो जाते हैं, कौए, गिद्ध, चील, स्यार, कुत्ते आदि प्राणी मृत शरीर की गन्ध पाते ही उस गन्दगी को साफ करने दौड़ पड़ते हैं। सभ्य समाज में तो मुर्दे को जलाने, गाढ़ने या बहाने की प्रथा पहले से ही प्रचलित है। जीवन विकास का यह अन्तिम अध्याय भी ठीक तरह सम्पन्न हो जाय इसके लिये प्रकृति ने समुचित व्यवस्था जुटा कर रखी है।
जो आवश्यक है वह यहां प्रचुर मात्रा में विद्यमान है और स्वल्प प्रयत्न से मिल सकता है। जो अनावश्यक है हानिकारक है उसी का मिलना दुर्लभ है। फल उपयोगी हैं वे सरलता से प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। विष अनावश्यक और हानिकारक है, उसे प्राप्त करना हो तो बहुत ढूंढ़ खोज करनी पड़ेगी पैसा और श्रम खर्च करना पड़ेगा तब यत्र-तत्र किंचित मात्रा में विष मिलेगा। गाय, घोड़ा, भेड़, बकरी आदि उपयोगी पशु सरलता पूर्वक उपलब्ध हैं। पर सिंह, व्याघ्र, चीता, रीछ आदि के दर्शन भी दुर्लभ हैं। वे दूरवर्ती सघन वनों में स्वल्प संख्या में ही होते हैं। अनुपयोगिता के कारण प्रकृति ने उन्हें ऐसी ही स्थिति में रखा है। उनकी सन्तान भी अधिक नहीं बढ़ती जबकि उपयोगी पशु अपनी संख्या वृद्धि निरन्तर करते रहते हैं।
प्राणियों के लिए उपयोगी वनस्पति—घास, पौधे वृक्ष स्वतः ही उगते बढ़ते और फलते-फूलते रहते हैं। इसके अतिरिक्त और भी जो कुछ आवश्यक है, वह इस संसार में सरलता पूर्वक उपलब्ध है। दिन में सूरज की रोशनी जलती है, रात को चन्द्रमा चमकता है ताकि हमें अन्धकार में न भटकना पड़े। प्रकृति माता के इन अनुदानों को कहां तक गिनाया जाय जीवन की हर आवश्यकता और सुविधा को जुटाने में उसने कहीं कुछ भी कसर नहीं छोड़ी है।
यह अनुदान शरीर यात्रा तक ही सीमित नहीं है। सामाजिक—मानसिक—आर्थिक और नैतिक क्षेत्र में भी ऐसी विधि व्यवस्था इस विश्व में विद्यमान है कि प्रगति की हर उचित आवश्यकता सरलता पूर्वक पूरी हो सके। इच्छा हो और पूरा करने के लिये पुरुषार्थ जुटा दिया जाय तो लगभग हर उचित आवश्यकता पूरी होती चली जायगी उसमें कोई बड़ा विघ्न न आवेगा। विघ्न यदि हैं भी तो वे बाहर नहीं भीतर हैं। मनुष्य के अपने दोष दुर्गुण ही उसकी प्रगति में बाधक होते हैं। आलस्य, प्रमाद, अनियमितता, असंयम, आवेश, अति स्वार्थ जैसे कारण ही असफलताओं और विपत्तियों के कारण बनते हैं। अन्यथा सद्गुण, सत्कर्म और सत्स्वभाव से मनोभूमि परिष्कृत कर लेने पर परिष्कृत दृष्टिकोण और व्यवस्थित क्रिया-कलाप के आधार पर किसी भी क्षेत्र में सफलता पाई जा सकती है। किसी भी क्षेत्र में साधन सम्पन्न बना जा सकता है। जिस दिशा में भी कदम उठाले उधर ही प्रगति हो सकती है।
बाधक बाह्य जगत नहीं—अवरोध प्रकृति गत नहीं स्वनिर्मित हैं—और ऐसे हैं कि यदि उनकी हानियों को समझ लिया जाय और निरस्त करने के लिए कटिबद्ध हो जाया जाय तो उनका एक क्षण भर भी ठहरना नहीं हो सकता। आन्तरिक शत्रु लगते भर बलिष्ठ हैं, संकल्प शक्ति की एक चिनगारी उन्हें नष्ट करके रख सकती है। आज घोर दुर्गुणी दीखने वाला व्यक्ति कल पूर्ण परिष्कृत मनुष्य बन सकता है। व्यक्तित्व के विकास और मनःक्षेत्र से सम्बन्धित समस्त क्षेत्रों की प्रगति के लिये प्रकृति ने अपने सभी द्वार खुले रखे हैं। कोई चलना ही न चाहे या उलटा चले तो इसमें विश्व क्रम का नहीं आदमी के अपने औंधे और ओछे कर्तृत्व का ही दोष है। सुधारना चाहें तो उसका परिमार्जन भी अति सरल है। इतिहास में अगणित उदाहरण ऐसे विद्यमान हैं जिनमें संकल्प बल से अपनी हेय स्थिति को आमूल चूल परिवर्तन करके लोगों ने आशाजनक और आश्चर्य जनक परिवर्तन प्रस्तुत किये हैं।
आत्मिक क्षेत्र सबसे ऊंचा है। उसमें भी प्रगति के लिए द्वार खुला पड़ा है और उसमें प्रवेश करना अति सरल है। ईश्वर हमारे चारों ओर घिरा हुआ है। हमारे रोम-रोम में समाया हुआ है। मछली के भीतर और बाहर पानी ही पानी भरा रहता है अपने अन्दर और बाहर ब्रह्म चेतना का भरा पूरा समुद्र ही लहलहा रहा है। जो इतना समीप हो—इतना प्रचुर हो—उसे प्राप्त करने में क्या कठिनाई हो सकती।
पिता और पुत्र का सामीप्य दुरूह कैसे हो सकता है? माता और बच्चे के सान्निध्य में अवरोध क्या होगा? भाई से भाई बिछुड़ा रहे इसकी क्या आवश्यकता? पति और पत्नी के मिलने में क्या बाधा? प्रकृतिगत अवरोध इस प्रसंग में रत्ती भर भी बाधक नहीं है। आत्मा और परमात्मा के बीच पिता, पुत्र, माता, शिशु, भाई-भाई और पति पत्नी के लौकिक रिश्तों की अपेक्षा भी कहीं अधिक सघन स्वच्छ और प्रखर सम्बन्ध है। सांसारिक रिश्तों में दो स्वतन्त्र व्यक्तित्वों की बात रहने से कुछ भिन्नता और प्रथकता भी रह सकती है पर आत्मा और परमात्मा तो अंश और अंशी हैं। उनमें तो अग्नि और चिनगारी जैसा ही भेद है। कमल और उसकी पंखुरियों की—पदार्थ और उसके परमाणु की—सूर्य और उसकी किरणों की प्रथकता आंकी भले ही जाय वस्तुतः वे तादात्म्य हैं। ईश्वर और जीव इतने ही घनिष्ठ हैं—आत्मा और परमात्मा के बीच ऐसा कोई व्यवधान नहीं है जिसे दूर करने के लिये—चिन्तित, दुखी, खिन्न, उद्विग्न या हताश होने की आवश्यकता हो। यह मिलन प्रक्रिया अति सरल है। ईश्वर प्राप्ति से अधिक आसान कार्य और दूसरा कोई हो ही नहीं सकता।
शरीर और मन परस्पर ओत-प्रोत हैं। शरीर और मन को मिलाने के लिए कुछ बड़ा काम नहीं करना पड़ता। करना पड़ता है तो इतना ही कि जो नशा पी लिया था, उसे उतर जाने दिया जाय और फिर दुबारा न पिया जाय। नशा पीने से ही शरीर और मन का सम्बन्ध लड़खड़ा जाता है। चलना, करना, बोलना, सोचना—अनियन्त्रित हो जाने की उपहासास्पद स्थिति इसलिये बनती है कि नशे की खुमारी शरीर और मन का सम्बन्ध गड़बड़ा देती है। दोनों अलग-अलग दिशा में जाते—स्वच्छन्द विचरते दीखते हैं। उसमें दोष नशे का है, परित्याग का दिया जाय तो शरीर और मन की एक सूत्रता-एक रूपता में कोई अन्तर दिखाई न पड़ेगा। ईश्वर और जीव के बीच में माया का नशा ही प्रधान रूप से बाधक है। यह पर्दा हटा कि उसकी आड़ में बैठे भगवान के दर्शन हुए। बाधक तो यही झीना सा पर्दा ही है।
निद्राग्रस्त हो जाने पर शरीर और मन के सम्बन्ध गड़बड़ा जाते हैं। शरीर कहीं पड़ा रहता है—मन कहीं घूमता है। विलगाव को देखकर यह नहीं मान लेना चाहिए कि शरीर और मन दूर हैं। असम्बद्ध हैं। इन्हें इकट्ठा करने के लिये कोई बहुत भारी प्रयास पुरुषार्थ करना पड़ेगा। दोनों की एकता अविच्छिन्न है। अन्तर तो निद्रा ने डाला है। शरीर को मृतक जैसा उसी ने बनाया है। मन को देह से असंबद्ध करने के लिए यह निद्रा ही कारण है। यदि इसे हटा दिया जाय तो जागते ही दोनों की एकता फिर यथावत हो जायगी। आत्मा और परमात्मा दोनों अभिन्न हैं भिन्नता तो अविद्या रूपी निद्रा ने उत्पन्न की है। इसे हटाना भगाना ही इस दुःखदायी वियोग के अंत करने का एकमात्र उपाय है।
ईश्वर हमारे सबसे अधिक समीप है। संसार का कोई पदार्थ या व्यक्ति जितना समीप हो सकता है उसकी अपेक्षा ईश्वर की निकटता और भी अधिक है। वह हमारी सांस के साथ प्रवेश करता है और समस्त अंग अवयवों में प्राण वायु के रूप में जीवन का अनुदान प्रतिक्षण प्रदान करता है, यदि इसमें क्षण भर का भी व्यवधान उत्पन्न हो जाय तो मरण निश्चित है।
हृदय की धड़कन उसी की रासलीला है। सम्भावित सोलह हजार नाड़ियों के साथ वही कृष्ण रमण करता है। मांस पेशियों के आकुंचन-प्रकुंचन में गुदगुदी उसी के द्वारा उत्पन्न की जाती है। अन्तःकरण में उसी का गीता प्रवचन निरन्तर चलता रहता है। ज्ञान-विज्ञान की विशालकाय पाठशाला उसी ने हमारे मस्तिष्क में चला रखी है। उसका अध्यापन ऐसा है जो कभी बन्द ही नहीं होता।
इतना सब होते हुए भी हम ईश्वर से अरबों-खरबों मील दूर हैं। उसकी समीपता की अनुभूति के साथ-साथ जिस परम सन्तोष और परम आनन्द का अनुभव होना चाहिए वह कभी हुआ ही नहीं। ईश्वर की समीपता को जीवन मुक्ति भी कहते हैं। उस स्थिति को सालोध्य, सामीप्य, सारूप्य और मायुज्य इन चार रूपों में वर्णन किया गया है। ईश्वर के लोक में रहना—उसके समीप रहना—उस जैसा रूप होना—उसमें समाविष्ट हो जाना यह चारों ही अवस्थाएं उस स्थिति की ओर संकेत करती है जिसमें मनुष्य की भीतरी चेतना और बाहरी क्रिया उतनी उत्कृष्ट बन जाती है—जितनी कि ईश्वर की होती है।
ईश्वर से दूर रहने और उस दूरी के कारण ईश्वर के सान्निध्य से मिलने वाले लाभों से वंचित रह जाने का कारण है उसी नियम अवस्था को न समझना, या समझते हुए भी उसका पालन नहीं करना। अपनी चेतना को ईश्वरीय चेतना में घुला देने अर्थात् उसकी व्यवस्था के अनुरूप स्वयं को ढाल लेने से वे सारे अवरोध समाप्त हो जाते हैं जो जीवनानंद की प्राप्ति में रोड़ा बनते हैं। ईश्वर प्राप्ति की प्रथम सीढ़ी यही हो सकती है कि मनुष्य अपने आपको उसके अनुरूप बनायें। इस साधना द्वारा ही मनुष्य अपने आपको असीम के साथ घुला मिला सकता है और ससीम को असीम के समतुल्य बना सकता है।
जीवन की उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इस सृष्टि में ऐसी व्यवस्था है कि सरलतापूर्वक पूरी हो जाया करें। सांस लिये बिना एक क्षण भी काम नहीं चल सकता तो प्राण वायु प्रचुर मात्रा में सर्वत्र मौजूद है। जल का उसके बाद नम्बर आता है वह भी थोड़ा प्रयत्न करने पर हर जगह मिल जाता है। अन्न की आवश्यकता उसके पश्चात् है, उसके लिए प्रयत्न भी करना पड़ता है और खर्च भी, इसी क्रम से जो आवश्यकताएं अपेक्षाकृत हलकी होती जाती हैं उन्हीं का मिलना श्रम साध्य होता जाता है।
जीवन धारण की प्रक्रिया को देखिए। भ्रूण अति दुर्बल होता है उसे वातानुकूलित और सर्व सुविधा सम्पन्न निवास चाहिए। माता का गर्भाशय उसके लिये अतिशय सुविधा पूर्ण है। उतने दुर्बल और अपूर्ण प्राणी के लिये इतना साधन सम्पन्न स्थान संसार में अन्यत्र कहीं हो ही नहीं सकता। सो हर प्राणी को सरलता पूर्वक मिल जाता है। जितने समय भ्रूण पकता नहीं उतने समय निवास की वहां समुचित व्यवस्था है। यदि यह सब सरलता पूर्वक उपलब्ध न हुआ होता तो प्राणी की सर्व प्रथम और सर्वोपरि महत्व की आवश्यकता पूरी न हो सकने के कारण जन्म ही सम्भव न होता।
इसके पश्चात् जन्म लेने के बाद सुपाच्य सुसन्तुलित आहार की आवश्यकता होती है और एक सहायक संरक्षक सेवक की जो उस नवजात असमर्थ शिशु की केवल सारी आवश्यकता पूरी करे वरन् उसे पर्याप्त स्नेह प्रदान कर मानसिक विकास भी सम्भव बनाये। इन सारी आवश्यकताओं को माता पूरा करती है। नवजात शिशु के लिये माता का दूध ही अमृत है। इससे बढ़िया खुराक इस धरती पर हो ही नहीं सकती। माता से बढ़कर स्नेही—सहायक—संरक्षक—सेवक भला और कहां मिलेगा? अरक्षित, असमर्थ और असहाय शिशु के लिए पालन-पोषण की आवश्यकता पूरी होना अनिवार्य है। इसके बिना जीवन धारण किये रहना कठिन है।
जन्म तो हो जाय पर माता की सहायता न मिले तो बालक की कैसी दुर्गति होती है इसकी कल्पना कठिन नहीं। अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य के बालक को तो और भी अधिक मात्रा में—गहरी तथा लम्बे समय तक चलने वाली मातृ सहायता अपेक्षित होती है। पर प्रकृति से ऐसा प्रबन्ध सभी प्राणियों के लिए किया हुआ है। असली माता तो प्रकृति ही है। प्राणी को संसार में भेजती है तो उसकी व्यवस्थाएं भी आदि से अन्त तक बनाना उसी का काम है।
बालक बड़ा होता है। उसकी कोमलता सभी का जी हुलसाती है और उससे आकर्षित होकर हर कोई उस कोमल बालक की सहायता करना चाहता है। असमर्थता की पूर्ति उस उदार सहायता से पूरी होती है। दूसरों के बालक पास खेलते हों तो जी हुलसता है। उन्हें गोदी में लेने की—खिलाने की—प्यार करने की और पास में कुछ वस्तु देने की हो तो देने को जी करता है। माता-पिता, परिवार, पड़ौस, सम्बन्धी स्वजनों से इस प्रकार सद्भावनाएं और सहायताएं उसे सर्वत्र मिलती हैं। गुरुजनों का अनुग्रह रहता है। अध्यापक उनसे क्षमा और उदारता का व्यवहार करते हैं। बड़ों के साथ जैसा बराबरी का—कठोरता का व्यवहार किया जाता है, वैसा कोई गुरुजन उनसे नहीं करता। बड़े आदमी की गलती—अशिष्टता पर क्रोध आता है और दंड प्रतिशोध के कदम उठते हैं पर बालकों की पग-पग पर होने वाली गलतियों में रस भी लिया जाता है।
सरकार बाल-कल्याण विभाग चलाती है प्रौढ़ कल्याण—वृद्ध कल्याण की उपेक्षा करके भी उसका ध्यान बालकों पर रहता है। सामाजिक संस्थाएं भी इधर ही बहुत ध्यान देती हैं। सबकी स्वाभाविक सहानुभूति बालकों की ओर अनायास ही खिंची रहना—प्रकृति की उसी प्रेरणा के अनुसार है जिसमें उन्हें अपनी अविकसित स्थिति में सब ओर से अधिक सहायता एवं उदारता अपेक्षित हैं। यह सारी व्यवस्था मनुष्य के स्वभाव में पहले से ही सम्मिलित है। मनुष्य ही क्यों अन्य प्राणियों में भी अपने ही नहीं विराने बच्चों के प्रति अधिक कोमल और उदार भावनाएं पाई जाती है।
जीवन विकास की क्रमिक यात्रा में यौवन आता है। पितृत्व की इच्छा कामवासना के रूप में जगती है। जोड़ी मिलाने की आवश्यकता अनुभव होती है। समयानुसार यह भी सहज ही बन जाता है। एक ऐसी उमंग महक उठती है जिसमें हर नर मादा अपने विपरीत लिंग वाले प्राणी को खोजने और आकर्षित करने में सफल हो जाता है। मनुष्य को तो बहुत सुविधाएं प्राप्त हैं। बिना साधन, सुविधा वाले कीड़े-मकोड़े, पतंगे, जलचर, पशु, पक्षी सभी को काम तृप्ति का अवसर मिलता है और सभी गर्भाधान प्रक्रिया पूरी कर लेते हैं। मनुष्यों के लिये भी यह सुविधा बन ही जाती है। प्रकृति की दयालुता को देखिए कि वास्तविक आवश्यकताओं का समाधान कितनी सरलता और सुन्दरता के साथ जुटाती है। इसके लिये उसने अपनी क्रम व्यवस्था बड़ी सरल और सुविधाजनक बनाकर खी है और उसका प्रवाह अनादि काल से बहता चला आता है।
रोग निरोध की जन्मजात शक्ति रक्त कणों में विद्यमान रहती है। असली चिकित्सक भीतर मौजूद है। बाहर के डॉक्टर तो उन भीतर चिकित्सकों की थोड़ी सहायता भर कर देते हैं। मरण से पूर्व मूर्छा आ जाती है और वह अति कष्ट साध्य आपरेशन बिना कष्ट के सम्पन्न हो जाता है। मरने के बाद शरीर की दुर्गति न हो इसलिए उसे खाने के लिये कृमि उसी में तत्काल पैदा हो जाते हैं, कौए, गिद्ध, चील, स्यार, कुत्ते आदि प्राणी मृत शरीर की गन्ध पाते ही उस गन्दगी को साफ करने दौड़ पड़ते हैं। सभ्य समाज में तो मुर्दे को जलाने, गाढ़ने या बहाने की प्रथा पहले से ही प्रचलित है। जीवन विकास का यह अन्तिम अध्याय भी ठीक तरह सम्पन्न हो जाय इसके लिये प्रकृति ने समुचित व्यवस्था जुटा कर रखी है।
जो आवश्यक है वह यहां प्रचुर मात्रा में विद्यमान है और स्वल्प प्रयत्न से मिल सकता है। जो अनावश्यक है हानिकारक है उसी का मिलना दुर्लभ है। फल उपयोगी हैं वे सरलता से प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। विष अनावश्यक और हानिकारक है, उसे प्राप्त करना हो तो बहुत ढूंढ़ खोज करनी पड़ेगी पैसा और श्रम खर्च करना पड़ेगा तब यत्र-तत्र किंचित मात्रा में विष मिलेगा। गाय, घोड़ा, भेड़, बकरी आदि उपयोगी पशु सरलता पूर्वक उपलब्ध हैं। पर सिंह, व्याघ्र, चीता, रीछ आदि के दर्शन भी दुर्लभ हैं। वे दूरवर्ती सघन वनों में स्वल्प संख्या में ही होते हैं। अनुपयोगिता के कारण प्रकृति ने उन्हें ऐसी ही स्थिति में रखा है। उनकी सन्तान भी अधिक नहीं बढ़ती जबकि उपयोगी पशु अपनी संख्या वृद्धि निरन्तर करते रहते हैं।
प्राणियों के लिए उपयोगी वनस्पति—घास, पौधे वृक्ष स्वतः ही उगते बढ़ते और फलते-फूलते रहते हैं। इसके अतिरिक्त और भी जो कुछ आवश्यक है, वह इस संसार में सरलता पूर्वक उपलब्ध है। दिन में सूरज की रोशनी जलती है, रात को चन्द्रमा चमकता है ताकि हमें अन्धकार में न भटकना पड़े। प्रकृति माता के इन अनुदानों को कहां तक गिनाया जाय जीवन की हर आवश्यकता और सुविधा को जुटाने में उसने कहीं कुछ भी कसर नहीं छोड़ी है।
यह अनुदान शरीर यात्रा तक ही सीमित नहीं है। सामाजिक—मानसिक—आर्थिक और नैतिक क्षेत्र में भी ऐसी विधि व्यवस्था इस विश्व में विद्यमान है कि प्रगति की हर उचित आवश्यकता सरलता पूर्वक पूरी हो सके। इच्छा हो और पूरा करने के लिये पुरुषार्थ जुटा दिया जाय तो लगभग हर उचित आवश्यकता पूरी होती चली जायगी उसमें कोई बड़ा विघ्न न आवेगा। विघ्न यदि हैं भी तो वे बाहर नहीं भीतर हैं। मनुष्य के अपने दोष दुर्गुण ही उसकी प्रगति में बाधक होते हैं। आलस्य, प्रमाद, अनियमितता, असंयम, आवेश, अति स्वार्थ जैसे कारण ही असफलताओं और विपत्तियों के कारण बनते हैं। अन्यथा सद्गुण, सत्कर्म और सत्स्वभाव से मनोभूमि परिष्कृत कर लेने पर परिष्कृत दृष्टिकोण और व्यवस्थित क्रिया-कलाप के आधार पर किसी भी क्षेत्र में सफलता पाई जा सकती है। किसी भी क्षेत्र में साधन सम्पन्न बना जा सकता है। जिस दिशा में भी कदम उठाले उधर ही प्रगति हो सकती है।
बाधक बाह्य जगत नहीं—अवरोध प्रकृति गत नहीं स्वनिर्मित हैं—और ऐसे हैं कि यदि उनकी हानियों को समझ लिया जाय और निरस्त करने के लिए कटिबद्ध हो जाया जाय तो उनका एक क्षण भर भी ठहरना नहीं हो सकता। आन्तरिक शत्रु लगते भर बलिष्ठ हैं, संकल्प शक्ति की एक चिनगारी उन्हें नष्ट करके रख सकती है। आज घोर दुर्गुणी दीखने वाला व्यक्ति कल पूर्ण परिष्कृत मनुष्य बन सकता है। व्यक्तित्व के विकास और मनःक्षेत्र से सम्बन्धित समस्त क्षेत्रों की प्रगति के लिये प्रकृति ने अपने सभी द्वार खुले रखे हैं। कोई चलना ही न चाहे या उलटा चले तो इसमें विश्व क्रम का नहीं आदमी के अपने औंधे और ओछे कर्तृत्व का ही दोष है। सुधारना चाहें तो उसका परिमार्जन भी अति सरल है। इतिहास में अगणित उदाहरण ऐसे विद्यमान हैं जिनमें संकल्प बल से अपनी हेय स्थिति को आमूल चूल परिवर्तन करके लोगों ने आशाजनक और आश्चर्य जनक परिवर्तन प्रस्तुत किये हैं।
आत्मिक क्षेत्र सबसे ऊंचा है। उसमें भी प्रगति के लिए द्वार खुला पड़ा है और उसमें प्रवेश करना अति सरल है। ईश्वर हमारे चारों ओर घिरा हुआ है। हमारे रोम-रोम में समाया हुआ है। मछली के भीतर और बाहर पानी ही पानी भरा रहता है अपने अन्दर और बाहर ब्रह्म चेतना का भरा पूरा समुद्र ही लहलहा रहा है। जो इतना समीप हो—इतना प्रचुर हो—उसे प्राप्त करने में क्या कठिनाई हो सकती।
पिता और पुत्र का सामीप्य दुरूह कैसे हो सकता है? माता और बच्चे के सान्निध्य में अवरोध क्या होगा? भाई से भाई बिछुड़ा रहे इसकी क्या आवश्यकता? पति और पत्नी के मिलने में क्या बाधा? प्रकृतिगत अवरोध इस प्रसंग में रत्ती भर भी बाधक नहीं है। आत्मा और परमात्मा के बीच पिता, पुत्र, माता, शिशु, भाई-भाई और पति पत्नी के लौकिक रिश्तों की अपेक्षा भी कहीं अधिक सघन स्वच्छ और प्रखर सम्बन्ध है। सांसारिक रिश्तों में दो स्वतन्त्र व्यक्तित्वों की बात रहने से कुछ भिन्नता और प्रथकता भी रह सकती है पर आत्मा और परमात्मा तो अंश और अंशी हैं। उनमें तो अग्नि और चिनगारी जैसा ही भेद है। कमल और उसकी पंखुरियों की—पदार्थ और उसके परमाणु की—सूर्य और उसकी किरणों की प्रथकता आंकी भले ही जाय वस्तुतः वे तादात्म्य हैं। ईश्वर और जीव इतने ही घनिष्ठ हैं—आत्मा और परमात्मा के बीच ऐसा कोई व्यवधान नहीं है जिसे दूर करने के लिये—चिन्तित, दुखी, खिन्न, उद्विग्न या हताश होने की आवश्यकता हो। यह मिलन प्रक्रिया अति सरल है। ईश्वर प्राप्ति से अधिक आसान कार्य और दूसरा कोई हो ही नहीं सकता।
शरीर और मन परस्पर ओत-प्रोत हैं। शरीर और मन को मिलाने के लिए कुछ बड़ा काम नहीं करना पड़ता। करना पड़ता है तो इतना ही कि जो नशा पी लिया था, उसे उतर जाने दिया जाय और फिर दुबारा न पिया जाय। नशा पीने से ही शरीर और मन का सम्बन्ध लड़खड़ा जाता है। चलना, करना, बोलना, सोचना—अनियन्त्रित हो जाने की उपहासास्पद स्थिति इसलिये बनती है कि नशे की खुमारी शरीर और मन का सम्बन्ध गड़बड़ा देती है। दोनों अलग-अलग दिशा में जाते—स्वच्छन्द विचरते दीखते हैं। उसमें दोष नशे का है, परित्याग का दिया जाय तो शरीर और मन की एक सूत्रता-एक रूपता में कोई अन्तर दिखाई न पड़ेगा। ईश्वर और जीव के बीच में माया का नशा ही प्रधान रूप से बाधक है। यह पर्दा हटा कि उसकी आड़ में बैठे भगवान के दर्शन हुए। बाधक तो यही झीना सा पर्दा ही है।
निद्राग्रस्त हो जाने पर शरीर और मन के सम्बन्ध गड़बड़ा जाते हैं। शरीर कहीं पड़ा रहता है—मन कहीं घूमता है। विलगाव को देखकर यह नहीं मान लेना चाहिए कि शरीर और मन दूर हैं। असम्बद्ध हैं। इन्हें इकट्ठा करने के लिये कोई बहुत भारी प्रयास पुरुषार्थ करना पड़ेगा। दोनों की एकता अविच्छिन्न है। अन्तर तो निद्रा ने डाला है। शरीर को मृतक जैसा उसी ने बनाया है। मन को देह से असंबद्ध करने के लिए यह निद्रा ही कारण है। यदि इसे हटा दिया जाय तो जागते ही दोनों की एकता फिर यथावत हो जायगी। आत्मा और परमात्मा दोनों अभिन्न हैं भिन्नता तो अविद्या रूपी निद्रा ने उत्पन्न की है। इसे हटाना भगाना ही इस दुःखदायी वियोग के अंत करने का एकमात्र उपाय है।
ईश्वर हमारे सबसे अधिक समीप है। संसार का कोई पदार्थ या व्यक्ति जितना समीप हो सकता है उसकी अपेक्षा ईश्वर की निकटता और भी अधिक है। वह हमारी सांस के साथ प्रवेश करता है और समस्त अंग अवयवों में प्राण वायु के रूप में जीवन का अनुदान प्रतिक्षण प्रदान करता है, यदि इसमें क्षण भर का भी व्यवधान उत्पन्न हो जाय तो मरण निश्चित है।
हृदय की धड़कन उसी की रासलीला है। सम्भावित सोलह हजार नाड़ियों के साथ वही कृष्ण रमण करता है। मांस पेशियों के आकुंचन-प्रकुंचन में गुदगुदी उसी के द्वारा उत्पन्न की जाती है। अन्तःकरण में उसी का गीता प्रवचन निरन्तर चलता रहता है। ज्ञान-विज्ञान की विशालकाय पाठशाला उसी ने हमारे मस्तिष्क में चला रखी है। उसका अध्यापन ऐसा है जो कभी बन्द ही नहीं होता।
इतना सब होते हुए भी हम ईश्वर से अरबों-खरबों मील दूर हैं। उसकी समीपता की अनुभूति के साथ-साथ जिस परम सन्तोष और परम आनन्द का अनुभव होना चाहिए वह कभी हुआ ही नहीं। ईश्वर की समीपता को जीवन मुक्ति भी कहते हैं। उस स्थिति को सालोध्य, सामीप्य, सारूप्य और मायुज्य इन चार रूपों में वर्णन किया गया है। ईश्वर के लोक में रहना—उसके समीप रहना—उस जैसा रूप होना—उसमें समाविष्ट हो जाना यह चारों ही अवस्थाएं उस स्थिति की ओर संकेत करती है जिसमें मनुष्य की भीतरी चेतना और बाहरी क्रिया उतनी उत्कृष्ट बन जाती है—जितनी कि ईश्वर की होती है।
ईश्वर से दूर रहने और उस दूरी के कारण ईश्वर के सान्निध्य से मिलने वाले लाभों से वंचित रह जाने का कारण है उसी नियम अवस्था को न समझना, या समझते हुए भी उसका पालन नहीं करना। अपनी चेतना को ईश्वरीय चेतना में घुला देने अर्थात् उसकी व्यवस्था के अनुरूप स्वयं को ढाल लेने से वे सारे अवरोध समाप्त हो जाते हैं जो जीवनानंद की प्राप्ति में रोड़ा बनते हैं। ईश्वर प्राप्ति की प्रथम सीढ़ी यही हो सकती है कि मनुष्य अपने आपको उसके अनुरूप बनायें। इस साधना द्वारा ही मनुष्य अपने आपको असीम के साथ घुला मिला सकता है और ससीम को असीम के समतुल्य बना सकता है।