Books - बड़े आदमी नहीं महामानव बनें
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Language: HINDI
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चरित्र एक सर्वोपरि सम्पदा
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आवश्यकता से अधिक धन लिप्सा पूरी करने में लोग इतने बावले हो जाते हैं कि उन्हें उचित अनुचित का तनिक भी ध्यान नहीं रहता। इस प्रयत्न में वे यह भी भूल जाते हैं कि उनके ये कृत्य उनकी आत्मा को दिन-दिन गिराते हुए उनके लिए एक ज्वलन्त नरक का निर्माण कर रहे हैं। निश्चित है जब मनुष्य आवश्यकता से अधिक धन एकत्र करना चाहेगा तो उसे शोषक, क्रूर एवं अनुदार बनना ही होगा। उसे दूसरे का हिस्सा छीन कर लूटकर अथवा ठग कर अपनी थैली मोटी करनी पड़ेगी। उसे दया सहानुभूति, सहायता, संवेदना एवं उदारता के मानवीय गुणों को तिलांजली देकर अपने को पाषाण-खण्ड की तरह नीरस एवं निर्मम बनना होगा। उसे अपने व्यवसाय में बेईमानी और कारोबार में मक्कारी को प्रश्रय देना होगा। धन के लिये मानवीय गुणों को छोड़कर इन आसुरी दुर्गुणों को अपने में लाने में लोग कौन सी बुद्धिमानी मानते हैं यह बात किसी भी विचार वान व्यक्ति की समझ में नहीं आ सकती। चरित्र की महत्ता पैसे से कहीं बढ़ कर है। जिसने धन के लोभ में चरित्र खो दिया है, अथवा चरित्र खो कर धन कमाया है उसने मानो पाप ही कमाया है। चरित्रहीन व्यक्ति का संसार में कहीं भी आदर नहीं होता फिर उसका बैंक बैलेन्स कितना ही लम्बा चौड़ा क्यों न हो। इसके विपरीत चरित्रवान व्यक्ति निर्धनता की दशा में भी सब जगह सम्मान की दृष्टि से ही देखा जा जाता है। यह चरित्र एवं सदाचार का ही प्रभाव होता था। कि पूर्व काल में किसी ऋषि अथवा मुनि के आ जाने पर बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट उनके आदर में सिंहासन छोड़ कर खड़े हो जाते थे। पूर्व काल ही क्यों आज भी तो कोई विश्वस्त महात्मा अथवा आचरण वान व्यक्ति आ जाता है तो लोग उसके प्रति अहैतुक आदर भाव प्रदर्शित करने लगते हैं। कहां दयनीय वेश-भूषा में धन वैभव से रहित महात्मा गांधी और कहां संसार का सबसे शक्तिशाली सम्राट पंचम जार्ज किन्तु महात्मा गांधी के उज्ज्वल चरित्र एवं सत्याचरण का ही चमत्कार था कि उक्त सम्राट को अपनी राज परम्परा की उपेक्षा करके उनसे समानता के स्तर पर आकर और खड़े होकर हाथ मिलाना पड़ा। यह शक्ति एवं वैभव पर चरित्र की विजय थी। अनेक लोग इस घटना का अवमुल्यन करने के लिए कह सकते हैं कि गांधी जी की उस मान्यता के पीछे भारत के विशाल जनमत की श्रद्धा का बल था। किन्तु जनमत की श्रद्धा जीतने के पीछे किसका बल था? निश्चय ही वह बल महात्मा के चरित्र एवं उज्ज्वल आचरण का ही था, जिसका संसार के सारे धन वैभव की अचाहना करके, उन्होंने प्रयत्न पूर्वक विकास किया था। जिस विवेक बल पर गांधी जी भारत का लोक नायकत्व प्राप्त कर सके थे, यदि वे चाहते तो उसी विवेक के बल पर असंख्य पति बन सकते थे, जिस प्रकार लोग बने और बनने का प्रयत्न कर रहे हैं। किन्तु जब उनकी यह चरित्र रहित धनाढ्यता उनके लिए उस विशाल सम्मान का सम्पादन न कर सकती थी जो उन्हें मिला और संसार ने उन्हें दिया। धनी मानी वह नहीं हैं जिनके पास सोने चांदी अथवा मुद्राओं की बहुतायत है, और न धनी मानी उसे माना जा सकता है जिसका कारोबार लम्बा चौड़ा है, धनी मानी वास्तव में वही है जिसके पास चरित्र रूपी धन है। माननीय यदि संसार में कोई वस्तु हुई है और आगे भी होगी वह मनुष्य का महान चरित्र ही। धनी का आदर तो लोग स्वार्थवश करते हैं—वह भी वे लोग जिनमें धन लिप्सा की दुर्बलता होती है। स्वार्थ निकल जाने अथवा आशान रहने से स्वार्थी व्यक्ति तक उस धनवान का आदर करना छोड़ देते हैं जिसके पीछे चरित्र की विपुलता नहीं होती। सच्चरित्रता से मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का विकास होता है। चरित्रवान व्यक्ति संसार में कहीं भी निर्भयता पूर्वक विचरण कर सकता है। भय, अवमानना अथवा अप्रतिष्ठा की तुच्छ शंका उसके पास से होकर नहीं जाती। चरित्रवान की आत्मा इतनी उज्ज्वल एवं बलिष्ठ हो जाती है, उसका आत्म विश्वास इतना ऊंचा हो जाता है कि वह निर्धन होते हुए भी धनवानों के बीच निःसंकोच होकर आता जाता, बात करता और समुचित सम्मान पाता है। चरित्र वान व्यक्ति अल्पबल होने पर भी बड़े बड़े बलवानों के बीच निर्भयता का प्रमाण ही नहीं देता अपितु उन्हें प्रभावित किया करता है। किसी चरित्रवान व्यक्ति को कभी कोई चरित्रहीन बलवान निरस्त कर सका है ऐसा इतिहास, आज तक कोई भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सका है। अभय, चरित्र की विशेष देन है। चरित्रवान व्यक्ति संसार में किसी से भयभीत नहीं होता। उसे अपने तथा अपने आचरण पर अखण्ड विश्वास रहता है। उसे मालुम रहता है कि उसने कोई भी अनुचित काम नहीं किया और यह भी जानता है कि वह कोई गलत करेगा भी नहीं। मन-वचन कर्म से औचित्य का पालन करने वाले के पास भय नाम दुर्बलता आ ही नहीं सकती। अपनी पोल का बहुत अधिक विरोध करते देखकर पोप ने प्रसिद्ध धर्म प्रचारक महात्मा मार्टिन लूथर के पास सन्देश भेजा कि या तो वह पोप के विरुद्ध प्रचार करना बन्द करदे नहीं तो उसका सर कटवा लिया जायेगा। सत्याचरण के विश्वासी मार्टिन लूथर ने कहला भेजा कि ‘मुझे खेद है कि मेरे पास एक ही सिर है, यदि हजार सिर होते और वे सब इस धर्म सुधार की पुण्य वेदी पर बलिदान हो जाते तो मैं अपने को अधिक धन्य समझता।’ महात्मा लूथर की यह निर्भीकता उनके उच्च चरित्र तथा सत्याचरण का ही प्रसाद था। कोई भी चरित्रहीन व्यक्ति, एक तो धर्म सुधार के असिमार्ग पर चलने का साहस ही नहीं करता और यदि वह किसी कारण वश चल भी देता तो पोप की यह धमकी सुनकर उसके पैर डगमगा जाते और वह मैदान से भाग कर किसी कोने में छिपा रहता अथवा पोप के ही पैरों पर जा गिरता। किन्तु धन्य है सच्चरित्रता को जिसने एक सामान्य जैसे व्यक्ति लूथर को महात्मा बनाकर इतनी साहसी, निर्भीक एवं आत्म विश्वासी बना दिया कि वह पोप जैसे शक्तिशाली व्यक्ति की चुनौती हंसते-हंसते स्वीकार कर सका। चरित्रवान् व्यक्ति को अखण्ड विश्वास रहता है कि उसके सदाचरण से आकर्षित होकर जनमत उसके पक्ष में ही रहेगा। वह जानता है कि वह सच्ची निष्ठा के साथ वही काम कर रहा है जिसकी मानव जाति को आवश्यकता है और उसके लिये पूरी तरह हितकर है। उसे अपने मन वचन कर्म में इतना पवित्र विश्वास रहता है कि संसार में उसका कोई शत्रु हो ही नहीं सकता। और यदि खल अथवा दुष्ट उसके साथ विश्वासघात करेगा भी तो उसकी वह मृत्यु बलिदान मानी जायगी। लोक में उसकी स्मृति पूजी जायगी और परलोक में सद्गति का अधिकारी बनेगा। इस प्रकार चरित्रवान व्यक्ति अपने मन वचन, कर्म की सत्य-सदाशयता के बल पर निर्भय रहता है। न उसे लोक का भय सताता है। और न परलोक का। धन के अभाव में मनुष्य ऊंचा उठ सकता है, विद्या के बिना निर्वाह कर सकता है, किन्तु आचरण हीनता की दशा में वह सदैव हेय एवं घृणित ही बना रहेगा। ढेरों धन कमा लेने और गाड़ियों ज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी यदि मनुष्य अपने चरित्र को उज्ज्वल न रख सका तो लोग उसके धन से घृणा करेंगे और ज्ञान में अविश्वास। वह जहां भी जायेगा एक आदर पूर्ण भाव बिन्दु के लिये तरसेगा। वह चाहेगा कि लोग उसे प्रेम से अपने पास बिठालें और विश्वास पूर्वक बात करें। किन्तु उसकी यह इच्छा कहीं पूरी नहीं होगी। वह लोगों पर अपने धन का प्रभाव डालने के लिये सहायता का हाथ बढ़ायेगा किन्तु लोग उसकी उस सहायता भावना में शंका करेंगे कोई कुत्सित मन्तव्य का भय मानेंगे। चरित्र हीन के सत्कर्म तक लोगों के लिये शंका एवं सन्देह का विषय होते हैं। चरित्रहीन के पास ईमान अथवा सिद्धान्त नाम की वस्तु नहीं होती। इसका ईमान अधिकतर पैसा और सिद्धान्त केवल स्वार्थ होता है। चरित्र हीन ईमानदारी दिखलाता है किसी को धोखा देने के लिए, सिद्धान्त की दुहाई देता है स्वार्थ सिद्धि के लिए। उसका कोई भी कार्य अथवा कथन किसी प्रकार विश्वसनीय नहीं होता। चरित्र हीन के साथ कितना ही उपकार क्यों न किया जाय, उस पर कितना ही विश्वास क्यों न किया जाय पर अवसर पाते ही वह डंक नहीं मारेगा ऐसा किसी प्रकार विश्वास नहीं किया जा सकता। ऐसी अविश्वसनीय स्थिति किसी भी मनुष्य के लिए प्रत्यक्ष नरक ही कही जा सकती है। जीने को तो संसार में चरित्रहीन व्यक्ति भी जीते हैं किंतु अविश्वास, संदेह, शंका, कलंक अथवा लांछनापूर्ण जीवन—जीवन नहीं है। यह कोई अत्युक्तिपूर्ण कथन नहीं है, एक तथ्य है जिसको भद्र पुरुष ही नहीं चरित्रहीन व्यक्ति भी भली प्रकार जानता है। चरित्र मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति और संपदा है। संसार की अनन्त सम्पदाओं के स्वामी होने पर भी यदि कोई चरित्रहीन है तो वह हर अर्थ में विपन्न ही माना जायेगा। निर्धन एवं साधनहीन होने पर चरित्रवान का मस्तक समाज में सदैव ऊंचा रहता है उसकी आंखों में चमक और मुख पर तेज विराजमान रहता है। उसके विपरीत चरित्रहीन का व्यक्तित्व अपनी मलीनता की मखमल में भी नहीं छिपा सकता। संसार में उल्लेखनीय कार्य करने वालों में से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं रहा है जो पूरी तरह से चरित्रवान न हो। जन नेतृत्व करने अथवा समाज की गति बदल देने की शक्ति केवल चरित्र से ही प्राप्त हो सकती है। मानव समाज का जो भी विकास आज तक हुआ है या जो उन्नति और विकास आगे होगा उसके पीछे चरित्र धनी सदाचारी लोगों का ही कर्तव्य रहा है और आगे भी रहेगा। चरित्रबल संसार में सब बलों से श्रेष्ठ और सारी सम्पत्तियों में मूल्यवान सम्पत्ति है। इसे पाने में मनुष्य का कुछ भी तो खर्च नहीं होता, सदाचार एवं चरित्र मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है। स्वभावतः संसार का कोई भी मनुष्य दुश्चरित्र होकर नहीं जन्मता चरित्र हीनता मनुष्य का आरोपित दोष है। हर मनुष्य का सहज कर्तव्य है कि वह हर मूल्य पर अपने चरित्र की रक्षा करे और यदि वह किसी कारण से विक्षत हो गया है तो हर मूल्य एवं हर प्रयत्न पर उसे शुद्ध एवं स्वस्थ करना चाहिए। इस नश्वर मानव जीवन में चरित्र ही अमर उपलब्धि है। वह मनुष्य को नर से नारायण बना देता है। सच्चरित्रता अपने में एक महान गुण है। इसका तात्पर्य विशिष्टताओं से होता है, जिससे मनुष्य में शालीनता, विनम्रता, आज्ञाकारिता, सरलता, सहनशीलता, जैसे सद्गुण विकसित होते हैं। यह गुण जिस किसी के पास होते हैं, वे सदाचारी कहे जाते हैं। व्यक्तित्व का समग्र विकास इन्हीं गुणों के आधार पर हो पाता है। दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि सच्चरित्रता की आधार शिला पर ही व्यक्तित्व का समग्र विकास निर्भर है। सदाचरण से व्यक्ति में आत्म-विश्वास उत्पन्न होता है, जिससे वह श्रेष्ठ कार्यों में निष्ठापूर्वक अग्रसर हो सके। भले ही परिस्थितियां विकराल रूप धारण करके सामने क्यों न खड़ी हों? महात्मा लूथर की यह घटना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है— मुझे खेद है कि मेरे पास ही ही सिर है यदि हजार सिर होते और वे सब इस धर्म सुधार की पुण्य वेदी पर बलिदान हो जाते, तो मैं अपने को अधिक धन्य समझता’ यह कथन मार्टिन लूथर ने उस समय कहा था, जब तत्कालीन पोप द्वारा सुधारवादी आन्दोलन चलाते रहने पर भयंकर त्रास मिलने की धमकी दी थी। किन्तु लूथर उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए और अपने सत्प्रयत्न में अविचल भाव से आजीवन लगे रहे। सच्चरित्रता अपने में एक महान् सम्पदा है। महापुरुषों के पास सबसे बड़ी पूंजी उनके चरित्र की ही होती है, जिसके सहारे वे निरन्तर अपने प्रगति पथ पर बढ़ते जाते हैं। चरित्र की महत्ता धन सम्पदा से कहीं अधिक बढ़कर है। महाभारतकार ने भी लिखा है— ‘वृत्त यत्नेन संरक्षेत् वित्तमेति च याति च । अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ।।’ चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए धन तो आता जाता रहता है, धन से हीन व्यक्ति हीन नहीं होता, किन्तु चरित्र नष्ट हो जाने पर पूर्णतया नष्ट हो जाता है। जिसने धन के लोभ में चरित्र खोया अथवा चरित्र खोकर धन कमाया उसने मानो अनर्थ कमाया है। चरित्र हीन व्यक्ति का संसार में कहीं भी आदर नहीं होता, भले ही वह कितना ही धनी मानी बन गया हो, इसके विपरीत चरित्रवान् व्यक्ति अभाव ग्रस्त स्थिति में भी सर्वत्र सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। धनी का आदर तो लोग स्वार्थ वश करते हैं। स्वार्थ निकल जाने पर अथवा आशा न रहने पर स्वार्थी व्यक्ति तक उस धनवान् का आदर करना छोड़ देते हैं, जिसके पीछे चरित्र का बल नहीं। धन के अभाव में व्यक्ति ऊंचा उठ सकता है, विद्या के बिना निर्वाह कर सकता है, किन्तु सदाचार के अभाव में वह सदैव हेय एवं घृणित ही बना रहेगा। ढेरों धन कमा लेने और पर्याप्त ज्ञानार्जन कर लेने पर भी यदि मनुष्य अपने चरित्र को उज्ज्वल न रख सका तो लोग उसके धन से घृणा करेंगे और ज्ञान में अविश्वास। वह जहां भी जायेगा एक आदर पूर्ण भाव बिन्दु के लिए तरसेगा। उसके सत्कर्म तक लोगों के लिए शंका एवं सन्देह के विषय होते हैं। संसार में वन्दनीय अभिनन्दनीय कार्य करने वालों में से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं रहा, जो चरित्रवान् न रहा हो। जन-नेतृत्व करने अथवा समाज की गति बदलने की शक्ति केवल चरित्र से ही प्राप्त होती है। मानव समाज का जो भी विकास आज तक हुआ है आगे होगा उसके पीछे चरित्र के धनी सदाचारी लोगों का ही हाथ रहा हैं और आगे भी रहेगा। वस्तुतः सदाचार ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है, जिसके आधार पर मनुष्य ऊंचे उठते और आगे बढ़ते हैं। साथियों का सहयोग-सद्भाव लिए बिना कोई व्यक्ति एकाकी प्रयत्नों से कुछ कहने लायक प्रगति कर सकता है, इसमें सन्देह है। दूसरों की सहायता बिना हंसी खुशी भी स्थिर नहीं रह सकती। कठिनाइयों में दूसरों का सहारा चाहिए ही। यह सब जुटा सकना, उसी के लिए सम्भव है जो अपने मधुर स्वभाव से दूसरों को प्रभावित एवं आकर्षित कर सकता है। ऐसा चुम्बकत्व सच्चरित्रता में ही सन्निहित रहता है। चरित्र मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति-सम्पदा है। संसार की अनन्त सम्पदाओं के स्वामी होने पर भी यदि कोई चरित्रहीन है, तो वह हर अर्थ में विपन्न ही माना जायेगा निर्धन एवं साधनहीन होने पर भी चरित्रहीन का मस्तक समाज में सदैव ऊंचा रहता है। इसके विपरीत चरित्रहीन का व्यक्तित्व अपनी आन्तरिक कुरूपता को महंगी साज-सज्जा ओढ़े फिरने पर भी छिपा नहीं सकता। चरित्रवान् व्यक्ति को यह विश्वास रहता है कि उस के सदाचरण से प्रभावित होकर जनमत उसके पक्ष में ही रहेगा। वह सदा सच्ची निष्ठा के साथ वही काम करता है जिसमें लोकहित और आदर्शों का प्रतिपालन समाहित है। इसी विशेषता के कारण उसे पर्याप्त जन सहयोग भी प्राप्त होता है, फलतः वह आश्चर्यजनक समझे जाने वाले कार्यों को भी पूरा कर लेता है। जितने भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्व रखने वाले कार्य हुए हैं, वह चरित्रवान् व्यक्तियों द्वारा जन सहयोग के बल पर ही पूरे हुए हैं। जन समर्थन प्राप्त न होने पर अच्छे उद्देश्य को लेकर किये जाने वाले कार्य भी असफल होते देखे जाते हैं। सच्चरित्रता की पूंजी द्वारा सहयोग और सम्मान उसी प्रकार से खरीदा जा सकता है, जिस प्रकार रुपये पैसे द्वारा विभिन्न वस्तुएं। सदाचार को वह हुण्डी कहा जा सकता है, जिसे भुना कर जन-सहयोग व जन-सम्मान सहज ही प्राप्त किया जा सकता है। आत्म-सन्तोष मानव-जीवन की महानतम उपलब्धि है। इसे प्राप्त करने के लिए उच्चस्तरीय चरित्र की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। कुटिलतापूर्वक अनीति अपना कर कोई व्यक्ति तात्कालिक सफलता भले ही प्राप्त कर ले पर आत्मग्लानि और आत्म प्रताड़ना की आग में सदा ही झुलसते रहना पड़ेगा। आत्मग्लानि-तिरस्कार जैसे प्रेत पिशाच उनके पीछे लगे ही रहते हैं, जो चरित्र की दृष्टि से दुर्बल होते हैं, अविश्वास और असहयोग का दण्ड ऐसे लोगों को हर घड़ी भुगतना पड़ता है। इस प्रताड़ना को सहन करने वाले कभी सिर ऊंचा उठाकर नहीं चल सकते और सदा अपने को एकाकी अनुभव करते हैं। इतनी हानि उठाकर किसी ने कुछ वैभव अर्जित भी कर लिया तो समझना चाहिए उसने गंवाया बहुत और कमाया कम। उच्च-चरित्र को अपनाए रहने की महत्ता को जो समझते हैं, वे आत्म सन्तोष, लोक सम्मान के साथ-साथ दैवी अनुग्रह भी प्राप्त करते हैं और महामानवों को मिलने वाले सम्मान से लाभान्वित होते हैं।