Books - बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका
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Language: HINDI
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भौतिक विकास के इस दौर में उभरने वाली विसंगतियों का अध्ययन करने पर एक बात विश्व के हर क्षेत्र के शिक्षाविदों
ने स्वीकार की है कि बालकों को विभिन्न विषयों की शिक्षा के
साथ- साथ सुसंस्कारिता देने के भी गंभीर प्रयास किये जाने चाहिए।
विसंगतियों से बचने के साथ जब इस तथ्य पर विचार किया जाता है
कि ‘कैसे हों नये -- श्रेष्ठ समाज के नागरिक?’ तो बालकों में सुसंस्कारिता के जागरण संवर्धन का महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है।
बच्चों में सुसंस्कारिता जागृत करने के लिए क्या किया जाय? प्रारंभ कैसे हो? यह प्रश्न उठने पर अधिकांश लोग शिक्षा नीति और शिक्षणतंत्र को कोसकर अपनी बात समाप्त कर देते हैं। इससे बात कैसे बनेगी? कहीं- न, किसी- न को कुछ व्यावहारिक पहल तो करनी ही पड़ेगी। इसके लिए सबसे सुलभ, प्रभावी और व्यावहारिक है, जगह- जगह बाल संस्कारशालाओं का संचालन।
युग निर्माण अभियान के प्रणेता पू. गुरुदेव (पं.श्रीराम शर्मा आचार्य) ने बाल संस्कारशालाओं के संचालन को बहुत महत्त्व दिया है। उन्होंने नारा दिया है ‘अध्यापक हैं युगनिर्माता, छात्र राष्ट्र के भाग्य विधाता।’ यह नारा सुसंस्कारिता धारण करने, कराने वाले अध्यापकों एवं छात्रों के लिए ही लागू होता है, विषय रटने- रटाने वालों के लिए नहीं। इस संदर्भ में उन्होंनें कई पुस्तिकाएँ भी लिखी, प्रकाशित की हैं, जैसे ‘छात्रों का निर्माण अध्यापक करें’, ‘बालकों का पालन ही नहीं, निर्माण भी करें’, ‘कैसे चलाएँ बाल संस्कार शाला’ आदि।
युग निर्माण आन्दोलन से जुड़े परिजनों से उनकी अपील रही है कि वे जगह- जगह स्कूल खोलने के स्थान पर बाल संस्कार शालाएँ चलाने को प्राथमिकता दें। स्कूल तो विभिन्न सरकारी और स्वयंसेवी संगठन खोल ही रहे हैं। स्कूल खोलने पर ८० से ९० प्रतिशत साधन और शक्ति विषय पढ़ाने में ही लग जाती है। वह तो लोग कर ही रहे हैं। हम अपनी अधिकांश शक्ति बच्चों में सुसंस्कारिता संवर्धन के लिए ही लगाएँ तो समाज के हित साधन और अपने लिए पुण्यार्जन की दिशा में बड़ी सफलता पा सकेंगे। उनका कथन है, ‘‘हजारों लाखों को आदर्शों का उपदेश देने से अधिक फलदायी है, थोड़े से चरित्रवान व्यक्ति तैयार कर देना’’। इसे वे चन्दन के वृक्ष लगाने, समाज को जीवन- संजीवनी देने जैसा पुण्य मानते रहे हैं।
नैष्ठिक परिजन इस दिशा में काफी कुछ प्रयास भी कर रहे हैं। ‘‘बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका’’ पुस्तिका उन्हीं के सहयोगार्थ तैयार की गई है। पुस्तिका को सभी दृष्टियों से संतुलित और सुगम बनाने का प्रयास किया गया है। वैसे अभी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना है। विभिन्न आयु, वर्ग एवं विभिन्न क्षेत्रीय परिस्थितियों, विभिन्न धर्म- सम्प्रदायों में आस्था रखने वालों को दृष्टि में रखते हुए कई वर्गीकृत प्रयोग भी करने होंगे, किन्तु शुभारंभ के लिए यह बहुत उपयोगी है।
पुस्तिका में विभिन्न धर्म- सम्प्रदायों में श्रद्धा रखने वाले छात्र- छात्राओं का विशेष ध्यान रखते हुए प्रार्थना आदि में तथा प्रेरक प्रसंगों आदि में किन बातों पर ध्यान दिया जाय, आदि टिप्पणियाँ देने का प्रयास किया गया है। जैसे- प्रार्थना के बाद अपने इष्ट का ध्यान, उनसे ही सद्बुद्घि माँगने के लिए गायत्री जप, अन्य मंत्र या नाम जप करें। विभिन्न सम्प्रदायों के श्रेष्ठ पुरुषों के प्रसंग चुने जाएँ। बच्चों से भी उनके जीवन एवं आदर्शों के बारे में पूछा जा सकता है, उन पर विधेयात्मक समीक्षा करें, आदि।
विभिन्न स्कूलों में जाने वाले बच्चों को गणित, विज्ञान, अंग्रेजी जैसे विषयों में कोचिंग देने, होमवर्क में सहयोग करने, योग- व्यायाम सिखाने जैसे आकर्षणों के माध्यम से एकत्रित किया जा सकता है। सप्ताह में एक बार इस पुस्तिका के आधार पर कक्षा चलाई जा सकती है। प्रति दिन के क्रम में प्रारंभ में प्रार्थना, अंत में शांतिपाठ जैसे संक्षिप्त प्रसंग जोड़े जा सकते हैं।
पढ़ी- लिखी बहिनें, सृजन कुशल भाई, रिटायर्ड परिजन इस पुण्य प्रयोजन में लग जाएँ तो प्रत्येक मोहल्ले में ‘बाल संस्कार शालाओं’ का क्रम चल सकता है। विद्यालय के ‘संस्कृति मंडलों’ में भी यह प्रयोग बखूबी किया जा सकता है। हमें विश्वास है कि भावनाशील परिजन लोक मंगल, आत्मनिर्माण एवं राष्ट्र निर्माण का पथ प्रशस्त करने वाले इस पुण्य कार्य में तत्परता पूर्वक जुट पड़ेंगे।
-- ब्रह्मवर्चस
बच्चों में सुसंस्कारिता जागृत करने के लिए क्या किया जाय? प्रारंभ कैसे हो? यह प्रश्न उठने पर अधिकांश लोग शिक्षा नीति और शिक्षणतंत्र को कोसकर अपनी बात समाप्त कर देते हैं। इससे बात कैसे बनेगी? कहीं- न, किसी- न को कुछ व्यावहारिक पहल तो करनी ही पड़ेगी। इसके लिए सबसे सुलभ, प्रभावी और व्यावहारिक है, जगह- जगह बाल संस्कारशालाओं का संचालन।
युग निर्माण अभियान के प्रणेता पू. गुरुदेव (पं.श्रीराम शर्मा आचार्य) ने बाल संस्कारशालाओं के संचालन को बहुत महत्त्व दिया है। उन्होंने नारा दिया है ‘अध्यापक हैं युगनिर्माता, छात्र राष्ट्र के भाग्य विधाता।’ यह नारा सुसंस्कारिता धारण करने, कराने वाले अध्यापकों एवं छात्रों के लिए ही लागू होता है, विषय रटने- रटाने वालों के लिए नहीं। इस संदर्भ में उन्होंनें कई पुस्तिकाएँ भी लिखी, प्रकाशित की हैं, जैसे ‘छात्रों का निर्माण अध्यापक करें’, ‘बालकों का पालन ही नहीं, निर्माण भी करें’, ‘कैसे चलाएँ बाल संस्कार शाला’ आदि।
युग निर्माण आन्दोलन से जुड़े परिजनों से उनकी अपील रही है कि वे जगह- जगह स्कूल खोलने के स्थान पर बाल संस्कार शालाएँ चलाने को प्राथमिकता दें। स्कूल तो विभिन्न सरकारी और स्वयंसेवी संगठन खोल ही रहे हैं। स्कूल खोलने पर ८० से ९० प्रतिशत साधन और शक्ति विषय पढ़ाने में ही लग जाती है। वह तो लोग कर ही रहे हैं। हम अपनी अधिकांश शक्ति बच्चों में सुसंस्कारिता संवर्धन के लिए ही लगाएँ तो समाज के हित साधन और अपने लिए पुण्यार्जन की दिशा में बड़ी सफलता पा सकेंगे। उनका कथन है, ‘‘हजारों लाखों को आदर्शों का उपदेश देने से अधिक फलदायी है, थोड़े से चरित्रवान व्यक्ति तैयार कर देना’’। इसे वे चन्दन के वृक्ष लगाने, समाज को जीवन- संजीवनी देने जैसा पुण्य मानते रहे हैं।
नैष्ठिक परिजन इस दिशा में काफी कुछ प्रयास भी कर रहे हैं। ‘‘बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका’’ पुस्तिका उन्हीं के सहयोगार्थ तैयार की गई है। पुस्तिका को सभी दृष्टियों से संतुलित और सुगम बनाने का प्रयास किया गया है। वैसे अभी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना है। विभिन्न आयु, वर्ग एवं विभिन्न क्षेत्रीय परिस्थितियों, विभिन्न धर्म- सम्प्रदायों में आस्था रखने वालों को दृष्टि में रखते हुए कई वर्गीकृत प्रयोग भी करने होंगे, किन्तु शुभारंभ के लिए यह बहुत उपयोगी है।
पुस्तिका में विभिन्न धर्म- सम्प्रदायों में श्रद्धा रखने वाले छात्र- छात्राओं का विशेष ध्यान रखते हुए प्रार्थना आदि में तथा प्रेरक प्रसंगों आदि में किन बातों पर ध्यान दिया जाय, आदि टिप्पणियाँ देने का प्रयास किया गया है। जैसे- प्रार्थना के बाद अपने इष्ट का ध्यान, उनसे ही सद्बुद्घि माँगने के लिए गायत्री जप, अन्य मंत्र या नाम जप करें। विभिन्न सम्प्रदायों के श्रेष्ठ पुरुषों के प्रसंग चुने जाएँ। बच्चों से भी उनके जीवन एवं आदर्शों के बारे में पूछा जा सकता है, उन पर विधेयात्मक समीक्षा करें, आदि।
विभिन्न स्कूलों में जाने वाले बच्चों को गणित, विज्ञान, अंग्रेजी जैसे विषयों में कोचिंग देने, होमवर्क में सहयोग करने, योग- व्यायाम सिखाने जैसे आकर्षणों के माध्यम से एकत्रित किया जा सकता है। सप्ताह में एक बार इस पुस्तिका के आधार पर कक्षा चलाई जा सकती है। प्रति दिन के क्रम में प्रारंभ में प्रार्थना, अंत में शांतिपाठ जैसे संक्षिप्त प्रसंग जोड़े जा सकते हैं।
पढ़ी- लिखी बहिनें, सृजन कुशल भाई, रिटायर्ड परिजन इस पुण्य प्रयोजन में लग जाएँ तो प्रत्येक मोहल्ले में ‘बाल संस्कार शालाओं’ का क्रम चल सकता है। विद्यालय के ‘संस्कृति मंडलों’ में भी यह प्रयोग बखूबी किया जा सकता है। हमें विश्वास है कि भावनाशील परिजन लोक मंगल, आत्मनिर्माण एवं राष्ट्र निर्माण का पथ प्रशस्त करने वाले इस पुण्य कार्य में तत्परता पूर्वक जुट पड़ेंगे।
-- ब्रह्मवर्चस