Books - ब्रह्मज्ञान का प्रकाश
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Language: HINDI
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ब्रह्मज्ञान के लिए ध्यान की आवश्यकता
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ब्रह्मज्ञान अथवा ईश्वर के स्वरूप को समझने और उसके अनुसार चलने के अनेक मार्ग हैं, पर भक्तिपूर्वक ईश्वर का ध्यान और भजन करना उन सबमें प्रधान है । यह एक ऐसा साधन है जो प्रत्येक ईश्वरीय मार्ग की सफलता के लिए आवश्यक है । 'गरुण पुराण' में कहा गया है-
भज इत्येव वै धातु: सेवायां परिकीर्तिता । सत्मात्सेवाबुधै प्रोक्ता भक्ति: साधन भूयसी ॥
श्लोक का तात्पर्य है कि 'भज' धातु का अर्थ सेवा है । (भज्-सेवायां) इसलिए बुधजनों ने भक्ति का साधन सेवा कहा है । 'भजन' शब्द भज् धातु से बना है जिसका स्पष्ट अर्थ सेवा है । "ईश्वर का भजन करना चाहिए", जिन शास्त्रों ने इस महामंत्र का मनुष्य को उपदेश दिया है उनका तात्पर्य ईश्वर की सेवा में मनुष्य को प्रवृत्त करा देना था । जिस विधि-व्यवस्था से मनुष्य प्राणी ईश्वर की सेवा में तल्लीन हो जाएँ, वही भजन है । इस भजन के अनेक मार्ग हैं । अध्यात्म मार्ग के आचार्यों ने देश, काल और पात्र के भेद को ध्यान में रखकर भजन के अनेकों कार्यक्रम बनाए और बताए हैं । विश्व के इतिहास में जो-जो अमर विभूतियाँ महान आत्माएँ संत, सिद्ध, जीवन-मुक्त, ऋषि एवं अवतार हुए हैं । उन सभी ने भजन किए हैं और कराए हैं पर उन सबके भजनों की प्रणाली एकदूसरे के समान नहीं है । देश, काल और परिस्थिति के अनुसार उन्हें भेद करना पड़ा है, यह भेद होते हुए भी मूलत: भजन के आदि मूल तथ्य में किसी ने अंतर नहीं आने दिया है ।
भजन (ईश्वर की सेवा) करने का तरीका ईश्वर की इच्छा और आज्ञा का पालन करना है । सेवक लोग अपने मालिकों की सेवा इसी प्रकार किया भी करते हैं । एक राजा के शासनतंत्र में हजारों कर्मचारी काम करते हैं । इन सबके जिम्मे काम बँटे होते हैं । हर एक कर्मचारी अपना-अपना नियत काम करता है । अपने नियत कार्य को उचित रीति से करने वाला राजा का कृपापात्र होता है, उसके वेतन तथा पद में वृद्धि होती है, पुरस्कार मिलता है, खिताब आदि दिए जाते हैं । जो कर्मचारी अपने नियत कार्य में प्रमाद करता है, वह राजा का कोपभाजन बनता है, जुरमाना, मौत्तिल्ली, तनखाह में तनज्जुली, बर्खास्तगी या अन्य प्रकार की सजाएँ पाता है । इन नियुक्त कर्मचारियों की सेवा का उचित स्थान उन्हीं कार्यो में है जो उनके लिए नियत हैं । रसोइए, सफाई कर्मचारी, पंखा झलने वाले कहार, धोबी, चौकीदार, चारण, नाई आदि सेवक भी राजा के यहाँ रहते हैं, वे भी अपना नियत काम करते हैं । परंतु इन छोटे कर्मचारियों में से कोई ऐसा नहीं सोचता कि राजा की सर्वोपरि कृपा हमारे ही ऊपर है । बात ठीक भी है । राजा के अभीष्ट उद्देश्य को सुव्यवस्थित रखने वाले राजमंत्री, सेनापति, अर्थमंत्री, व्यवस्थापक, न्यायाध्यक्ष आदि उच्च कर्मचारी जितना आदर, वेतन और आत्मभाव प्राप्त करते हैं, बेचारे सफाई कर्मचारी, रसोइए आदि को वह जीवन भर स्वप्न में भी प्राप्त नहीं होता ।
राज्य के समस्त कर्मचारी यदि अपने नियत कार्यों में अरुचि प्रकट करते हुए राजा के रसोइए, सफाई कर्मचारी, कहार, धोबी चारण आदि बनने के लिए दौड़ पड़े तो राजा को इससे तनिक भी प्रसन्नता और सुविधा न होगी । हजारों- लाखों रसोइए द्वारा पकाया और परोसा हुआ भोजन अपने सामने देखकर राजा को भला क्या प्रसन्नता हो सकती है ? यद्यपि इन सभी कर्मचारियों का राजा के प्रति अगाध प्रेम है और प्रेम से प्रेरित होकर ही उन्होंने व्यक्तिगत शरीर सेवा की ओर दौड़ लगाई, पर ऐसा विवेकरहित प्रेम करीब-करीब द्वेष जैसा ही हानिकर सिद्ध होता है । इससे राज्य के आवश्यक कार्य में हर्ज और अनावश्यक कार्य की वृद्धि होगी, यह कार्यवाही किसी बुद्धिमान राजा को प्रिय नहीं हो सकती ।
ईश्वर राजाओं का महाराज है । हम सब उसके राज्य कर्मचारी हैं, सबके लिए नियत कर्म उपस्थित हैं । अपने-अपने उत्तरदायित्व का उचित रीति से पालन करते हुए हम ईश्वर की इच्छा और आज्ञा को पूरा करते हैं और इस प्रकार सच्ची सेवा करते हुए स्वाभवत: उसके प्रिय पात्र बन जाते हैं । राजाओं को व्यक्तिगत सेवा की आवश्यकता भी है, परंतु परमात्मा को रसोइए, सफाई कर्मचारी, कहार, चारण, चौकीदार आदि की कुछ भी आवश्यकता नहीं है । वह सर्वव्यापक है, वासना और विकारों से रहित है, ऐसी दशा में उसके लिए कपड़ा, भोजन, पंखा, रोशनी आदि का कुछ उपयोग नहीं है ।
ध्यान, जप, स्मरण-कीर्तन, व्रत, पूजन, अर्चन, वंदन यह सब आध्यात्मिक व्यायाम हैं । इनके करने से आत्मा का बल और सतोगुण बढ़ता है । आत्मोन्नति के लिए इन सबका करना आवश्यक है और उपयोगी भी है । परंतु इतना मात्र ही ईश्वर भजन या ईश्वर भक्ति नहीं । यह भजन का एक छोटा सा अंश मात्र है । सच्ची ईश्वर सेवा उसकी इच्छा और आज्ञाओं को पूरा करने में है । उसकी फुलवारी को अधिक हरा-भरा फला-फूला बनाने में है । अपने नियत कर्त्तव्य करते हुए अपनी और दूसरों की सात्विक उन्नति तथा सेवा में लगे रहना प्रभु को प्रसन्न करने को सर्वोत्तम उपाय हो सकता है ।
भज इत्येव वै धातु: सेवायां परिकीर्तिता । सत्मात्सेवाबुधै प्रोक्ता भक्ति: साधन भूयसी ॥
श्लोक का तात्पर्य है कि 'भज' धातु का अर्थ सेवा है । (भज्-सेवायां) इसलिए बुधजनों ने भक्ति का साधन सेवा कहा है । 'भजन' शब्द भज् धातु से बना है जिसका स्पष्ट अर्थ सेवा है । "ईश्वर का भजन करना चाहिए", जिन शास्त्रों ने इस महामंत्र का मनुष्य को उपदेश दिया है उनका तात्पर्य ईश्वर की सेवा में मनुष्य को प्रवृत्त करा देना था । जिस विधि-व्यवस्था से मनुष्य प्राणी ईश्वर की सेवा में तल्लीन हो जाएँ, वही भजन है । इस भजन के अनेक मार्ग हैं । अध्यात्म मार्ग के आचार्यों ने देश, काल और पात्र के भेद को ध्यान में रखकर भजन के अनेकों कार्यक्रम बनाए और बताए हैं । विश्व के इतिहास में जो-जो अमर विभूतियाँ महान आत्माएँ संत, सिद्ध, जीवन-मुक्त, ऋषि एवं अवतार हुए हैं । उन सभी ने भजन किए हैं और कराए हैं पर उन सबके भजनों की प्रणाली एकदूसरे के समान नहीं है । देश, काल और परिस्थिति के अनुसार उन्हें भेद करना पड़ा है, यह भेद होते हुए भी मूलत: भजन के आदि मूल तथ्य में किसी ने अंतर नहीं आने दिया है ।
भजन (ईश्वर की सेवा) करने का तरीका ईश्वर की इच्छा और आज्ञा का पालन करना है । सेवक लोग अपने मालिकों की सेवा इसी प्रकार किया भी करते हैं । एक राजा के शासनतंत्र में हजारों कर्मचारी काम करते हैं । इन सबके जिम्मे काम बँटे होते हैं । हर एक कर्मचारी अपना-अपना नियत काम करता है । अपने नियत कार्य को उचित रीति से करने वाला राजा का कृपापात्र होता है, उसके वेतन तथा पद में वृद्धि होती है, पुरस्कार मिलता है, खिताब आदि दिए जाते हैं । जो कर्मचारी अपने नियत कार्य में प्रमाद करता है, वह राजा का कोपभाजन बनता है, जुरमाना, मौत्तिल्ली, तनखाह में तनज्जुली, बर्खास्तगी या अन्य प्रकार की सजाएँ पाता है । इन नियुक्त कर्मचारियों की सेवा का उचित स्थान उन्हीं कार्यो में है जो उनके लिए नियत हैं । रसोइए, सफाई कर्मचारी, पंखा झलने वाले कहार, धोबी, चौकीदार, चारण, नाई आदि सेवक भी राजा के यहाँ रहते हैं, वे भी अपना नियत काम करते हैं । परंतु इन छोटे कर्मचारियों में से कोई ऐसा नहीं सोचता कि राजा की सर्वोपरि कृपा हमारे ही ऊपर है । बात ठीक भी है । राजा के अभीष्ट उद्देश्य को सुव्यवस्थित रखने वाले राजमंत्री, सेनापति, अर्थमंत्री, व्यवस्थापक, न्यायाध्यक्ष आदि उच्च कर्मचारी जितना आदर, वेतन और आत्मभाव प्राप्त करते हैं, बेचारे सफाई कर्मचारी, रसोइए आदि को वह जीवन भर स्वप्न में भी प्राप्त नहीं होता ।
राज्य के समस्त कर्मचारी यदि अपने नियत कार्यों में अरुचि प्रकट करते हुए राजा के रसोइए, सफाई कर्मचारी, कहार, धोबी चारण आदि बनने के लिए दौड़ पड़े तो राजा को इससे तनिक भी प्रसन्नता और सुविधा न होगी । हजारों- लाखों रसोइए द्वारा पकाया और परोसा हुआ भोजन अपने सामने देखकर राजा को भला क्या प्रसन्नता हो सकती है ? यद्यपि इन सभी कर्मचारियों का राजा के प्रति अगाध प्रेम है और प्रेम से प्रेरित होकर ही उन्होंने व्यक्तिगत शरीर सेवा की ओर दौड़ लगाई, पर ऐसा विवेकरहित प्रेम करीब-करीब द्वेष जैसा ही हानिकर सिद्ध होता है । इससे राज्य के आवश्यक कार्य में हर्ज और अनावश्यक कार्य की वृद्धि होगी, यह कार्यवाही किसी बुद्धिमान राजा को प्रिय नहीं हो सकती ।
ईश्वर राजाओं का महाराज है । हम सब उसके राज्य कर्मचारी हैं, सबके लिए नियत कर्म उपस्थित हैं । अपने-अपने उत्तरदायित्व का उचित रीति से पालन करते हुए हम ईश्वर की इच्छा और आज्ञा को पूरा करते हैं और इस प्रकार सच्ची सेवा करते हुए स्वाभवत: उसके प्रिय पात्र बन जाते हैं । राजाओं को व्यक्तिगत सेवा की आवश्यकता भी है, परंतु परमात्मा को रसोइए, सफाई कर्मचारी, कहार, चारण, चौकीदार आदि की कुछ भी आवश्यकता नहीं है । वह सर्वव्यापक है, वासना और विकारों से रहित है, ऐसी दशा में उसके लिए कपड़ा, भोजन, पंखा, रोशनी आदि का कुछ उपयोग नहीं है ।
ध्यान, जप, स्मरण-कीर्तन, व्रत, पूजन, अर्चन, वंदन यह सब आध्यात्मिक व्यायाम हैं । इनके करने से आत्मा का बल और सतोगुण बढ़ता है । आत्मोन्नति के लिए इन सबका करना आवश्यक है और उपयोगी भी है । परंतु इतना मात्र ही ईश्वर भजन या ईश्वर भक्ति नहीं । यह भजन का एक छोटा सा अंश मात्र है । सच्ची ईश्वर सेवा उसकी इच्छा और आज्ञाओं को पूरा करने में है । उसकी फुलवारी को अधिक हरा-भरा फला-फूला बनाने में है । अपने नियत कर्त्तव्य करते हुए अपनी और दूसरों की सात्विक उन्नति तथा सेवा में लगे रहना प्रभु को प्रसन्न करने को सर्वोत्तम उपाय हो सकता है ।