Books - सुनसान के सहचर
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Language: HINDI
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हमारा अज्ञातवास और तप साधना का उद्देश्य
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तप की शक्ति अपार है । जो कुछ अधिक से अधिक शक्ति सम्पन्न तत्व इस विश्व में है, उसका मूल '' तप '' में ही सन्निहित है । सूर्य तपता है, इसलिए ही वह समस्त विश्व को जीवन प्रदान करने लायक प्राण भण्डार का अधिपति है । ग्रीष्म की ऊष्मा से जब वायु मण्डल भली प्रकार तप लेता है तो मंगलमयी वर्षा होती है । सोना तपता है तो खरा तेजस्वी और मूल्यवान् बनता है । जितनी भी धातुएँ हैं वे सभी खान से निकलते समय दूषित मिश्रित व दुर्बल होती हैं; पर जब उन्हें कई बार भट्टियों में तपाया पिघलाया और गलाया जाता है तो वे शुद्ध एवं मूल्यवान् बन जाती हैं । कच्ची मिट्टी के बने हुए कमजोर खिलौने और बर्तन जरा से आघात से टूट सकते हैं । तपाये और पकाये जाने पर मजबूत एवं रक्त वर्ण हो जाते हैं, कच्ची ईंट भट्टे में पकने पर पत्थर जैसी कड़ी हो जाती है । मामूली से कच्चे कंकड़ पकने पर चूना बनते हैं और उनके द्वारा बने हुए विशाल प्रासाद दीर्घकाल तक बने खड़े रहते हैं।
मामूली- सा अभ्रक जब सौ बार अग्नि मे तपाया जाता है तो चन्द्रोदय रस बनता है, अनेकों बार अग्नि संस्कार होने से ही धातुओं की मूल्यवान् भस्म रसायन बन जाती है और उनसे अशक्त एवं कष्ट साध्य रोगों से ग्रस्त रोगी पुनर्जीवन प्राप्त करते हैं । साधारण अन्न और दाल- साग कच्चे रूप में न तो सुपाच्य होते हैं और न स्वादिष्ट । वे ही अग्नि संस्कार से पकाये जाने पर सुरुचिपूर्ण व्यंजनों का रूप धारण करते हैं । धोबी की भट्टी में चढ़ने पर मैले- कुचैले कपड़े निर्मल एवं स्वच्छ बन जाते हैं । पेट की जठराग्नि द्वारा पकाया हुआ अन्न भी रक्त, अस्थि का रूप धारण कर हमारे शरीर का भाग बनता है । यदि वह अग्नि संस्कार की- तप की प्रक्रिया बन्द हो जाय तो निश्चित रूप से विकास का सारा काम बन्द हो जायेगा ।
प्रकृति तपती है, इसीलिए सृष्टि की सारी संचालन व्यवस्था चल रही है । जीव तपता है, उसी से उसके अन्तराल में छिपे हुए पुरुषार्थ, पराक्रम, साहस, उल्लास, ज्ञान, विज्ञान, प्रकृति रत्नों की श्रृंखला प्रस्फुटित होती है । माता अपने अण्ड एवं भ्रूण को अपनी उदरस्थ ऊष्मा से पकाकर शिशु का प्रसव करती है । जिन जीवों ने मूर्छित स्थिति से ऊँचे उठने की, खाने- सोने से कुछ अधिक करने की आकांक्षा की है, उन्हें तप करना पड़ा है । संसार में अनेकों पुरुषार्थी- पराक्रमी इतिहास के पृष्ठों पर अपनी छाप छोड़ने वाले महापुरुष जो हुए हैं, उन्हें किसी न किसी रूप में अपने- अपने ढंग का तप करना पड़ा है । कृषक, विद्यार्थी श्रमिक, वैज्ञानिक, शासक, विद्वान्, उद्योगी, कारीगर आदि सभी महत्त्वपूर्ण कार्य- भूमिकाओं का सम्पादन करने वाले व्यक्ति वे ही बन सके हैं, जिन्होंने कठोर श्रम, अध्यवसाय एवं तपश्चर्या की नीति को अपनाया है । यदि इन लोगों ने आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता, शिथिलता एवं विलासिता की नीति अपनाई होती तो वे कदापि उस स्थान पर न पहुँच पाते, जो उन्होंने कष्ट- सहिष्णु एंव पुरुषाथीं बनकर उपलब्ध किया है ।
पुरुषार्थों, में आध्यात्मिक पुरुषार्थ का मूल्य और महत्त्व आधिक है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि सामान्य सम्पत्ति की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्ति सम्पदा की महत्ता आधिक हैं । धन, बद्धि, बल आदि के आधार पर अनेक व्यक्ति, उन्नतिशील सुखी एवं सम्मानित बनते हैं; पर उन सबसे अनेक गुना महत्त्व वे लोग प्राप्त करते हैं जिन्होंने आध्यात्मिक बल का संग्रह किया है । पीतल और सोने में, काँच और रत्न में जो अन्तर हैं, वही अन्तर सांसारिक सम्पत्ति एवं आध्यात्मिक सम्पदा के बीच में भी है । इस संसार में धनी, सेठ, अमीर, उमराव गुणी, विद्वान् कलावन्त बहुत हैं पर उनकी तुलना उन महान आत्माओं के साथ नहीं हों सकती जिनने अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थ के द्वारा अपना ही नहीं संसार का हित साधन किया । प्राचीनकाल में भी सभी समझदार लोग अपने बच्चों को कष्ट- सहिष्णु, अध्यवसायी, तितीक्षाशीलएवं तपसी बनाने के लिए छोटी आयु मैं ही गुरुकुलों में भर्ती करते थे; ताकि आगे चलकर वे कठोर जीवनयापन करने के अभ्यस्त होकर महापुरुषों की महानता के अधिकारी बन सके ।
संसार में जब कभी कोई महान् कार्य सम्पन्न हुए हैं तो उनके पीछे तपश्चर्या की शक्ति अवश्य रही है । हमारा देश देवताओं और नर- रत्नों का देश रहा है । यह भारत भूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाती रही है । ज्ञान, पराक्रम और सम्पदा की दृष्टि से यह राष्ट्र सदा से विश्व का मुकुटमणि रहा है । उन्नति के इस उच्च शिखर पर पहुँचने का कारण यहाँ के निवासियों की प्रचण्ड तपनिष्ठा ही रही है । आलसी और विलासी, स्वार्थों और लोभी लोगों को यहाँ सदा घृणित एवं निकृष्ट माना जाता रहा है । तप शक्ति की महत्ता को यहाँ के निवासियों ने पहचाना तत्वत: कार्य किया और उसके उपार्जन में पूरी तत्परता दिखाई, तभी यह सम्भव हो सका कि भारत को जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं सम्पदाओं के स्वामी होने का इतना ऊँचा गौरव प्राप्त हुआ ।
पिछले इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत का बहुमुखी विकास तपश्चर्या पर आधारित एवं अवलम्बित होता है । सृष्टि के उत्पन्नकर्त्ता प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण के पूर्व, विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल पुष्प पर अवस्थित होकर, सौ वर्षों तक गायत्री उपासना के आधार पर तप किया तभी उन्हें सृष्टि निर्माण एवं ज्ञान- विज्ञान के उत्पादन की शक्ति उपलब्ध हुई । मानव धर्मकेआविष्कर्त्ता भगवान् मनु ने अपनी रानी शतरूपा के साथ प्रचण्ड तप करने के पश्चात् ही अपना महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वपूर्ण किया था, भगवान् शंकर स्वयं तप रूप हैं । उनका कार्यक्रम सदा से तप साधना ही रहा । शेषजी तप के बल पर ही इस पृथ्वी को अपने शीश पर धारण किये हैं । सप्त ऋषियों ने इसी मार्ग पर दीर्घकाल तक चलते रहकर वह सिद्धि प्राप्त की, जिससे सदा उनका नाम अजर- अमर रहेगा । देवताओं के गुरु बृहस्पति औंर असुरों के गुरु शुक्राचार्य अपने- अपने शिष्यों के कल्याण मार्गदर्शन और सफलता की साधना अपनी तप शक्ति के आधार पर ही करते रहे हैं । नई सृष्टि रच डालने वाले विश्वामित्र की- रधुवंशी राजाओं की अनेक पीढ़ियों तक मार्गदर्शन करने वाले वशिष्ठ की क्षमता तथा साधना इसी में ही अन्तर्निहित थी । एक बार राजा विश्वामित्र वन में अपनी सेना को लेकर पहुँचे तो वशिष्ठ जी ने कुछ सामान न होने पर भी सारी सेना का समुचित आतिथ्य कर दिखाया तो विश्वामित्र दंग रह गये । किसी प्रसंग को लेकर जब निहत्थे वशिष्ठ और विशाल सेना सम्पन्न विश्वामित्र में युद्ध ठन गया, तो तपस्वी वशिष्ठ के सामने राजा विश्वामित्र को परास्त ही होना पड़ा । उन्होंने '' धिक् बलं क्षत्रिय बलं ब्रह्म तेजो बलम् '' की घोषणा करते हुए राजपाट छोड़ दिया और सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति की तपश्चर्या के लिए शेष जीवन समर्पित कर दिया।
अपने नरकगामी पूर्व पुरुषों का उद्धार तथा प्यासी पृथ्वी को जलपूर्ण करके जन- समाज का कल्याण करने के लिए गंगावतरण की आवश्यकता थी । इस महान् उद्देश्य की पूर्ति लौकिक पुरुषार्थ से नहीं वरन् तप शक्ति से ही सम्भव थी । भगीरथ कठोर तप करने के लिए वन को गए और अपनी साधना से प्रभावित कर गंगाजी को भूलोक में लाने एवं शिवजी को अपनी जटाओं में धारण करने के लिए तैयार किया यह कार्य साधारण प्रक्रिया से सम्पन्न न होता, तप ने ही उन्हें सम्भव बनाया ।
च्यवन ऋषि इतना कठोर दीर्घकालीन तप कर रहे थे कि उनके सारे शरीर पर दीमक ने अपना घर बना लिया था और उनका शरीर एक मिट्टी का टीला जैसा बन गया था । राजकुमारी सुकन्या को छेदों में दो चमकदार चीजें दिखी और उनमें काँटे चुभो भी दिए । यह चमकदार चीजें और कुछ नहीं च्यवन ऋषि की आँखें थीं । च्यवन ऋषि को इतनी कठोर तपस्या इसलिए करनी पड़ी कि वे अपनी अन्तरात्मा में सन्निहित शक्ति केन्द्रों को जागृत करके परमात्मा के अक्षय शक्ति भण्डार में भागीदारी मिलने की अपनी योग्यता सिद्ध कर सकें ।
शुकदेवजी जन्म से साधनारत हो गये । उन्होंने मानव जीवन का एकमात्र सदुपयोग इसी में समझा कि इसका उपयोग आध्यात्मिक प्रयोजनों में करके नर- तन जैसे सुरदुर्लभ सौभाग्य का सदुपयोग किया जाये । वे चकाचौंध पैदा करने वाले वासना एवं तृष्णाजन्य प्रलोभनों को दूर से नमस्कार करके ब्रह्मज्ञान की, ब्रह्मतत्त्व की उपलब्धि में संलग्न हो गये ।
तपस्वी ध्रुव ने खोया कुछ नहीं, यदि वह साधारण राजकुमार की तरह मौज- शौक का जीवन यापन करता तो समस्त ब्रह्माण्ड का केन्द्र बिन्दु धुवतारा बनने और अपनी कीर्ति को अमर बनाने का लाभ उसे प्राप्त न हो सका होता । उस जीवन में भी उसे जितना विशाल राजपाट मिला उतना किसी की अधिक से अधिक कृपा प्राप्त होने पर भी उसे उपलब्ध न हुआ होता । पृथ्वी पर बिखरे हुए अन्न कणों को बीनकर निर्वाह करने वाले कणाद ऋषि, वट वृक्ष के दूध पर गुजारा करने वाले वाल्मीकि ऋषि भौतिक विलासिता से वंचित रहे, पर इसके बदले में जो कुछ पाया वह बड़ी से बड़ी सम्पदा से कम न था ।
भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर ने अपने काल में लोक की दुर्गति को मिटाने के लिए तपस्या को ही ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग किया । व्यापक हिंसा और असुरता के वातावरण को दया अहिंसा के रूप में परिवर्तित कर दिया । दुष्टता को हटाने के लिए यों अस्त्र शस्त्रों का- दण्ड का मार्ग सरल समझा जाता है; पर वह भी सेना एवं आयुधों की सहायता से उतना नहीं हो सकता, जितना तपोबल से । अत्याचारी शासकों का पृथ्वी से उन्मूलन करने के लिए परशुराम जी का फरसा अभूतपूर्व अस्त्र सिद्ध हुआ । उसी से उन्होंने सेना के बड़े- बड़े सामन्तों से सुसज्जित राजाओं को परास्त कर २१ बार पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया । अगस्त का कोप बेचारा समुद्र क्या सहन करता? उन्होंने तीन चुल्लुओं में सारे समुद्र को उदरस्थ कर लिया । देवता जब किसी प्रकार असुरों को परास्त न कर सके लगातार हारते ही गये तो तपस्वी दधीचि की तेजस्वी हड्डियों का वज्र प्राप्त कर इन्द्र ने देवताओं की नाव को पार लगाया ।
प्राचीनकाल में विद्या का अधिकारी वही माना जाता था, जिसमें तितीक्षा एवं कष्ट सहिष्णुता की क्षमता होती थी, ऐसे ही लोगों के हाथ में पहुँचकर विद्या उसका व समस्त संसार का कल्याण करती थी । आज विलासी और लोभी प्रवृत्ति के लोगों को ही विद्या सुलभ हो गई । फलस्वरूप वे उसका दुरुपयोग भी खूब कर रहे हैं । हम देखते हैं कि अशिक्षितों की, अपेक्षा सुशिक्षित ही मानवता से अधिक दूर हैं और वे विभिन्न प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न करके संसार की सुख- शान्ति के लिए अभिशाप बने हुए हैं । प्राचीनकाल में प्रत्येक अभिभावक अपने बालकों को तपस्वी मनोवृत्ति का बनाने के लिए उन्हें गुरुकुलों में भेजता था और गुरुकुलों के संचालक बहुत- बहुत समय तक बालकों में कष्ट सहिष्णुता जागृत करते थे और जो इस प्रारम्भिक परीक्षा में सफल होते थे उन्हें ही परिक्षाधिकारी मानकर विद्या- दान करते थे । उद्दालक, आरुणि आदि अगणित छात्रों को कठोर परीक्षाओं में से गुजरना पड़ा था । इसका वृत्तान्त सभी को मालूम है ।
ब्रह्मचर्य को तप का प्रधान अंग माना गया ते । बजरंगी हनुमान, बाल ब्रह्मचारी भीष्म पितामह के पराक्रमों से हम सभी परिचित हैं । शंकराचार्य, दयानन्द, प्रभृति अनेकों महापुरुष अपने ब्रह्मचर्य वत के आधार पर ही संसार की महान् सेवा कर सके । प्राचीनकाल में ऐसे अनेकों गृहस्थ होते थे, जो विवाह होने पर भी अपनी पत्नी के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करते थे ।
आत्मबल प्राप्त करके तपस्वी लोग उस तपबल से न केवल अपना आत्म- कल्याण करते थे वरन् अपनी थोड़ी- सी शक्ति शिष्यों को देकर उनको भी महान् पुरुष बना देते थे । विश्वामित्र के आश्रम में रहकर रामचन्द्रजी का, संदीपन ऋषि के गुरुकुल में पढकर कृष्णचन्द्रजी का ऐसा निर्माण हुआ कि भगवान् ही कहलाये । समर्थ गुरु रामदास के चरणों में बैठकर एक मामूली सा मराठा बालक छत्रपति शिवाजी बना । रामकृष्ण परमहंस से शक्ति कण पाकर नास्तिक नरेन्द्र संसार का श्रेष्ठ धर्म प्रचारक विवेकानन्द कहलाया । प्राण रक्षा के लिए मारे- मारे फिरते हुए इन्द्र को महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियाँ देकर उसे निर्भय बनाया । नारद का जरा- सा उपदेश पाकर डाकू वाल्मीकि महर्षि बन गया ।
उत्तम सन्तान प्राप्त करने के अभिलाषी भी तपस्वियों के अनुग्रह से सौभाग्यान्वित हुए हैं । मृगी ऋषि द्वारा आयोजित पुत्रेष्टि यज्ञ के द्वारा तीन विवाह कर लेने पर भी संतान न होने पर राजा दशरथ को चार पुत्र प्राप्त हुए । राजा दिलीप ने चिरकाल तक अपनी रानी समेत वशिष्ठ के आश्रम में रहकर गौ चराकर जो अनुग्रह प्राप्त किया उसके फलस्वरूप ही डूबता वंश चला पुत्र प्राप्त हुआ । पाण्डु जब सन्तानोत्पादन में असमर्थ रहे तो व्यास जी के अनुग्रह से प्रतापी पाँच पाण्डव उत्पन्न हुए । श्री जवाहर लाल नेहरू के बारे में कहा गया है कि उनके पिता श्री मोतीलाल नेहरू जब चिरकाल तक सन्तान से वंचित रहे तो इनकी चिन्ता दूर करने के लिए हिमालय निवासी एक तपस्वी ने अपना शरीर त्यागा और उनका मनोरथ पूर्ण किया । अनेकों ऋषिकुमार अपने माता- पिता का प्रचण्ड अध्यात्म बल जन्म से ही साथ लेकर पैदा होते थे और वे बालकपन में ही वह कार्य कर लेते थे जो बड़ों के लिए कठिन होते हैं । लोमश ऋषि के पुत्र श्रृंगी ऋषि ने राजा परीक्षित द्वारा अपने पिता के गले में सर्प डाला जाता देखकर क्रोध से शाप दिया कि सात दिन में कुकृत्य करने वाले को सर्प काट लेगा । परीक्षित की सुरक्षा के भारी प्रयत्न किये जाने पर भी सर्प से काटे जाने का ऋषि कुमार का शाप सत्य होकर ही रहा ।
शाप और वरदानों के आश्चर्यजनक परिणामों की चर्चा से हमारे प्राचीन इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े हैं । श्रवणकुमार को तीर मारने के दण्ड स्वरूप उसके पिता ने राजा दशरथ को शाप दिया था कि वह भी पुत्र शोक में इसी प्रकार विलख- विलख कर मरेगा । तपस्वी के मुख से निकला हुआ वचन असत्य नहीं हो सकता था, दशरथ को उसी प्रकार मरना पड़ा था । गौतम ऋषि के शाप से इन्द्र और चन्द्रमा जैसे देवताओं की दुर्गति हुई । राजा सगर के दस हजार पुत्रों को कपिल के क्रोध करने के फलस्वरूप जलकर भस्म होना पड़ा । प्रसन्न होने पर देवताओं की भाँति तपस्वी ऋषि भी वरदान प्रदान करते थे और दुःख दारिद्र से पीड़ित अनेकों व्यक्ति सुख- शान्ति के अवसर प्राप्त करते थे ।
पुरुष ही नहीं तप साधना के क्षेत्र में भारत की महिलाएँ भी पीछे न थीं । पार्वती ने प्रचण्ड तप करके मदन- दहन करने वाले समाधिस्थ शंकर को विवाह करने के लिए विवश किया । अनुसूया ने अपनी आत्म शक्ति से ब्रह्मा, विष्णु और महेश को नन्हें- नन्हें बालकों के रूप में परिणत कर दिया । सुकन्या ने अपने वृद्ध पति को युवा बनाया । सावित्री ने यम से संघर्ष करके अपने मृतक पति के प्राण लौटाये । कुन्ती ने सूर्य तप करके कुमारी अवस्था में सूर्य के समानतेजस्वी कर्ण को जन्म दिया । क्रुद्ध गान्धारी ने कृष्ण को शाप दिया कि जिस प्रकार मेरे कुल का नाश किया है वैसे ही तेरा कुल इसी प्रकार परस्पर संघर्ष में नष्ट होगा । उसके वचन मिथ्या नहीं गये । सारे यादव आपस में ही लड़कर नष्ट हो गए । दमयन्ती के शाप से व्याध को जीवित ही जल जाना पड़ा । इड़ा ने अपने पिता मनु का यज्ञ सम्पन्न कराया और उनके अभीष्ट प्रयोजन को पूरा करने में सहायता की । इन आश्चर्यजनक कार्यों के पीछे उनकी तप शक्ति की महिमा प्रत्यक्ष है ।
देवताओं और ऋषियों की भाँति ही असुर भी यह भली- भाँति जानते थे कि तप में ही शक्ति की वास्तविकता केन्द्रित है । उनने भी प्रचण्ड तप किया और वरदान प्राप्त किए जो सुर पक्ष के तपस्वी भी प्राप्त न कर सके थे । रावण ने अनेकों बार सिर का सौदा करने वाली तप साधना की और शंकरजी को इंगित करके अजेय शक्तियों का भण्डार प्राप्त किया । कुम्भकरण ने तप द्वारा ही छ:- छ: महीने सोने- जागने का अद्भुत वरदान पाया था । मेघनाथ, अहिरावण और मारीचि को विभिन्न मायावी शक्तियाँ भी उन्हें तप द्वारा मिली थीं । भस्मासुर ने सिर पर हाथ रखने से किसी को भी जला देने की शक्ति तप करके ही प्राप्त की थी । हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष सहस्रबाहु, बालि आदि असुरों के पराक्रम का भी मूल आधार तप ही था । विश्वामित्र और राम के लिए सिर दर्द बनी हुई ताड़का श्रीकृष्ण चन्द्र के प्राण लेने का संकल्प करने वाली पूतना हनुमान को निगल जाने में समर्थ सुरसा, सीता को नाना प्रकार के कौतूहल दिखाने वाली त्रिजटा आदि अनेकों असुर नारियाँ भी ऐसी थी जिनने आध्यात्मिक क्षेत्र में अच्छा खासा परिचय दिया ।
इस प्रकार के दस- बीस नहीं हजारों- लाखों प्रसंग भारतीय इतिहास में मौजूद हैं जिनने तप शक्ति के लाभों से लाभान्वित होकर साधारण नर तनधारी जनों ने विश्व को चमत्कृत कर देने वाले स्व- पर कल्याणकेंमहान् आयोजन पूर्ण करने वाले उदाहरण उपस्थित किए हैं । इस युग में महात्मा गाँधी, सन्त बिनोवा, ऋषि दयानन्द, मीरा, कबीर, दादू, तुलसीदास सूरदास, रैदास, अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस, रामतीर्थ आदि आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा जो कार्य किए गए हैं वे साधारण भौतिक पुरुषार्थी द्वारा पूरे किए जाने पर सम्भव न थे । हमने भी अपने जीवन के आरम्भ से ही यह तपश्चर्या का कार्य अपनाया है । २४ महापुरश्चरणों के कठिन तप द्वारा उपलब्ध शक्ति का उपयोग हमने लोक- कल्याण में किया है । फलस्वरूप अगणित व्यक्ति हमारी सहायता से भौतिक उन्नति एवं आध्यात्मिक प्रगति की उच्च कक्षा तक पहुँचे हैं । अनेकों को भारी व्यथा व्याधियों से, चिन्ता परेशानियों से छुटकारा मिला है । साथ ही धर्म जागृति एवं नैतिक पुनरुत्थान की दिशा में आशाजनक कार्य हुआ है । २४ लक्ष गायत्री उपासकों का निर्माण एवं २४ हजार कुण्डों के यज्ञों का संकल्प इतना महान् था कि सैकड़ों व्यक्ति मिलकर कई जन्मों में भी पूर्ण नहीं कर सकते थे; किन्तु यह सब कार्य कुछ ही दिनों में बड़े आनन्द पूर्वक पूर्ण हो गए । गायत्री तपोभूमि का- गायत्री परिवार का निर्माण एवं वेद भाष्य का प्रकाशन ऐसे कार्य हैं जिनके पीछे साधना- तपश्चर्या का प्रकाश झाँक रहा है । आगे और भी प्रचण्ड तप करने का निश्चय किया है और भावी जीवन को तप- साधना में ही लगा देने का निश्चय किया है तो इसमें आश्चर्य की बात नही हें । हम तप का महत्त्व समझ चुके हैं कि संसार के बड़े से बड़े पराक्रम और पुरुषार्थ एवं उपार्जन की तुलना में तप साधना का मूल्य अत्यधिक है । जौहरी काँच को फेंक, रत्न की साज- सम्भाल करता है । हमने भी भौतिक सुखों को लात मार कर यदि तप की सम्पत्ति एकत्रित करने का निश्चय किया है तो उससे मोहग्रस्त परिजन भले ही खिन्न होते रहें वस्तुत: उस निश्चय में दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता ही ओत- प्रोत है ।
राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिक दोनों मिलकर इन दिनों जो रचना कर रहे है वह केवल आग लगाने वाली, नाश करने वाली ही है । ऐसे हथियार तो बन रहे हैं जो विपक्षी देशों को तहस- नहस करके अपनी विजय पताका गर्वपूर्वक फहरा सकें; पर ऐसे अस्त्र कोई नहीं बना पा रहा है, जो लगाई आग को बुझा सके, आग लगाने वालों के हाथ को कुंठित कर सके और जिनके दिलों व दिमागों में नृशंसता की भट्टी जलती है, उनमें शान्ति एवं सौभाग्य की सरसता प्रवाहित कर सके । ऐसे शान्ति शस्त्रों का निर्माण राजधानियों में, वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं हो सकता है । प्राचीनकाल में जब भी इस प्रकार की आवश्यकता अनुभव हुई है, तब तपोवनों की प्रयोगशाला में तप साधना के महान् प्रयत्नों द्वारा ही शान्ति शस्त्र तैयार किये गये हैं । वर्तमान काल में अनेक महान् आत्माएँ इसी प्रयत्न के लिए अग्रसर हुई हैं ।
संसार को, मानव जाति को सुखी और समुन्नत बनाने के लिए अनेक प्रयत्न हो रहे हैं । उद्योग- धन्धे, कल- कारखाने, रेल, तार, सड़क, बाँध, स्कूल, अस्पतालों आदि का बहुत कुछ निर्माण कार्य चल रहा है । इससे गरीबी और बीमारी, अशिक्षा और असभ्यता का बहुत कुछ समाधान होने की आशा की जाती है; पर मानव अन्तःकरणों में प्रेम और आत्मीयता का, स्नेह और सौजन्य का आस्तिकता और धार्मिकता का, सेवा और संयम का निर्झर प्रवाहित किए बिना, विश्व शान्ति की दिशा में कोई कार्य न हो सकेगा । जब तक सन्मार्ग की प्रेरणा देने वाले गाँधी, दयानन्द, शंकराचार्य, बुद्ध, महावीर, नारद, व्यास जैसे आत्मबल सम्पन्न मार्गदर्शक न हों, तब तक लोक मानस को ऊँचा उठाने के प्रयत्न सफल न होगें । लोक मानस को ऊँचा उठाए बिना पवित्र आदर्शवादी भावनाएँ उत्पन्न किये बिना लोक की गतिविधियाँ ईर्ष्या- द्वेष, शोषण, अपहरण आलस्य, प्रमाद, व्यभिचार, पाप से रहित न होंगी, तब तक क्लेश और कलह से, रोग और दारिद्र से कदापि छुटकारा न मिलेगा ।
लोक मानस को पवित्र, सात्विक एवं मानवता के अनुरूप, नैतिकता से परिपूर्ण बनाने के लिए जिन सूक्ष्म आध्यात्मिक तरंगों को प्रवाहित किया जाना आवश्यक है, वे उच्चकोटि की आत्माओं द्वारा विशेष तप साधन से ही उत्पन्न होगी । मानवता की, धर्म और संस्कृति की यही सबसे बड़ी सेवा है । आज इन प्रयत्नों की तुरन्त आवश्यकता अनुभव की जाती है, क्योंकि जैसे- जैसे दिन बीतते जाते हैं असुरता का पलड़ा अधिक भारी होता जाता है, देरी करने में अति और अनिष्ट की अधिक सम्भावना हो सकती है ।
समय की इसी पुकार ने हमें वर्तमान कदम उठाने को बाध्य किया । यों जबसे यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न हुआ, ६ घण्टे की नियमित गायत्री उपासना का क्रम चलता रहा है; पर बड़े उद्देश्यों के लिए जिस सघन साधना और प्रचंड तपोबल की आवश्यकता होती है, उसके लिए यह आवश्यक हो गया कि १ वर्ष ऋषियों की तपोभूमि हिमालय में रहा और प्रयोजनीय तप सफल किया जाय । इस तप साधना का कोई वैयक्तिक उद्देश्य नहीं । स्वर्ग और मुक्ति की न कभी कामना रही और न रहेगी । अनेक बार जल लेकर मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा का संकल्प लिया है, फिर पलायनवादी कल्पनाएँ क्यों करें । विश्व हित ही अपना हित है । इस लक्ष्य को लेकर तप की अधिक उग्र अग्नि में अपने को तपाने का वर्तमान कदम उठाया है ।
मामूली- सा अभ्रक जब सौ बार अग्नि मे तपाया जाता है तो चन्द्रोदय रस बनता है, अनेकों बार अग्नि संस्कार होने से ही धातुओं की मूल्यवान् भस्म रसायन बन जाती है और उनसे अशक्त एवं कष्ट साध्य रोगों से ग्रस्त रोगी पुनर्जीवन प्राप्त करते हैं । साधारण अन्न और दाल- साग कच्चे रूप में न तो सुपाच्य होते हैं और न स्वादिष्ट । वे ही अग्नि संस्कार से पकाये जाने पर सुरुचिपूर्ण व्यंजनों का रूप धारण करते हैं । धोबी की भट्टी में चढ़ने पर मैले- कुचैले कपड़े निर्मल एवं स्वच्छ बन जाते हैं । पेट की जठराग्नि द्वारा पकाया हुआ अन्न भी रक्त, अस्थि का रूप धारण कर हमारे शरीर का भाग बनता है । यदि वह अग्नि संस्कार की- तप की प्रक्रिया बन्द हो जाय तो निश्चित रूप से विकास का सारा काम बन्द हो जायेगा ।
प्रकृति तपती है, इसीलिए सृष्टि की सारी संचालन व्यवस्था चल रही है । जीव तपता है, उसी से उसके अन्तराल में छिपे हुए पुरुषार्थ, पराक्रम, साहस, उल्लास, ज्ञान, विज्ञान, प्रकृति रत्नों की श्रृंखला प्रस्फुटित होती है । माता अपने अण्ड एवं भ्रूण को अपनी उदरस्थ ऊष्मा से पकाकर शिशु का प्रसव करती है । जिन जीवों ने मूर्छित स्थिति से ऊँचे उठने की, खाने- सोने से कुछ अधिक करने की आकांक्षा की है, उन्हें तप करना पड़ा है । संसार में अनेकों पुरुषार्थी- पराक्रमी इतिहास के पृष्ठों पर अपनी छाप छोड़ने वाले महापुरुष जो हुए हैं, उन्हें किसी न किसी रूप में अपने- अपने ढंग का तप करना पड़ा है । कृषक, विद्यार्थी श्रमिक, वैज्ञानिक, शासक, विद्वान्, उद्योगी, कारीगर आदि सभी महत्त्वपूर्ण कार्य- भूमिकाओं का सम्पादन करने वाले व्यक्ति वे ही बन सके हैं, जिन्होंने कठोर श्रम, अध्यवसाय एवं तपश्चर्या की नीति को अपनाया है । यदि इन लोगों ने आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता, शिथिलता एवं विलासिता की नीति अपनाई होती तो वे कदापि उस स्थान पर न पहुँच पाते, जो उन्होंने कष्ट- सहिष्णु एंव पुरुषाथीं बनकर उपलब्ध किया है ।
पुरुषार्थों, में आध्यात्मिक पुरुषार्थ का मूल्य और महत्त्व आधिक है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि सामान्य सम्पत्ति की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्ति सम्पदा की महत्ता आधिक हैं । धन, बद्धि, बल आदि के आधार पर अनेक व्यक्ति, उन्नतिशील सुखी एवं सम्मानित बनते हैं; पर उन सबसे अनेक गुना महत्त्व वे लोग प्राप्त करते हैं जिन्होंने आध्यात्मिक बल का संग्रह किया है । पीतल और सोने में, काँच और रत्न में जो अन्तर हैं, वही अन्तर सांसारिक सम्पत्ति एवं आध्यात्मिक सम्पदा के बीच में भी है । इस संसार में धनी, सेठ, अमीर, उमराव गुणी, विद्वान् कलावन्त बहुत हैं पर उनकी तुलना उन महान आत्माओं के साथ नहीं हों सकती जिनने अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थ के द्वारा अपना ही नहीं संसार का हित साधन किया । प्राचीनकाल में भी सभी समझदार लोग अपने बच्चों को कष्ट- सहिष्णु, अध्यवसायी, तितीक्षाशीलएवं तपसी बनाने के लिए छोटी आयु मैं ही गुरुकुलों में भर्ती करते थे; ताकि आगे चलकर वे कठोर जीवनयापन करने के अभ्यस्त होकर महापुरुषों की महानता के अधिकारी बन सके ।
संसार में जब कभी कोई महान् कार्य सम्पन्न हुए हैं तो उनके पीछे तपश्चर्या की शक्ति अवश्य रही है । हमारा देश देवताओं और नर- रत्नों का देश रहा है । यह भारत भूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाती रही है । ज्ञान, पराक्रम और सम्पदा की दृष्टि से यह राष्ट्र सदा से विश्व का मुकुटमणि रहा है । उन्नति के इस उच्च शिखर पर पहुँचने का कारण यहाँ के निवासियों की प्रचण्ड तपनिष्ठा ही रही है । आलसी और विलासी, स्वार्थों और लोभी लोगों को यहाँ सदा घृणित एवं निकृष्ट माना जाता रहा है । तप शक्ति की महत्ता को यहाँ के निवासियों ने पहचाना तत्वत: कार्य किया और उसके उपार्जन में पूरी तत्परता दिखाई, तभी यह सम्भव हो सका कि भारत को जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं सम्पदाओं के स्वामी होने का इतना ऊँचा गौरव प्राप्त हुआ ।
पिछले इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत का बहुमुखी विकास तपश्चर्या पर आधारित एवं अवलम्बित होता है । सृष्टि के उत्पन्नकर्त्ता प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण के पूर्व, विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल पुष्प पर अवस्थित होकर, सौ वर्षों तक गायत्री उपासना के आधार पर तप किया तभी उन्हें सृष्टि निर्माण एवं ज्ञान- विज्ञान के उत्पादन की शक्ति उपलब्ध हुई । मानव धर्मकेआविष्कर्त्ता भगवान् मनु ने अपनी रानी शतरूपा के साथ प्रचण्ड तप करने के पश्चात् ही अपना महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वपूर्ण किया था, भगवान् शंकर स्वयं तप रूप हैं । उनका कार्यक्रम सदा से तप साधना ही रहा । शेषजी तप के बल पर ही इस पृथ्वी को अपने शीश पर धारण किये हैं । सप्त ऋषियों ने इसी मार्ग पर दीर्घकाल तक चलते रहकर वह सिद्धि प्राप्त की, जिससे सदा उनका नाम अजर- अमर रहेगा । देवताओं के गुरु बृहस्पति औंर असुरों के गुरु शुक्राचार्य अपने- अपने शिष्यों के कल्याण मार्गदर्शन और सफलता की साधना अपनी तप शक्ति के आधार पर ही करते रहे हैं । नई सृष्टि रच डालने वाले विश्वामित्र की- रधुवंशी राजाओं की अनेक पीढ़ियों तक मार्गदर्शन करने वाले वशिष्ठ की क्षमता तथा साधना इसी में ही अन्तर्निहित थी । एक बार राजा विश्वामित्र वन में अपनी सेना को लेकर पहुँचे तो वशिष्ठ जी ने कुछ सामान न होने पर भी सारी सेना का समुचित आतिथ्य कर दिखाया तो विश्वामित्र दंग रह गये । किसी प्रसंग को लेकर जब निहत्थे वशिष्ठ और विशाल सेना सम्पन्न विश्वामित्र में युद्ध ठन गया, तो तपस्वी वशिष्ठ के सामने राजा विश्वामित्र को परास्त ही होना पड़ा । उन्होंने '' धिक् बलं क्षत्रिय बलं ब्रह्म तेजो बलम् '' की घोषणा करते हुए राजपाट छोड़ दिया और सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति की तपश्चर्या के लिए शेष जीवन समर्पित कर दिया।
अपने नरकगामी पूर्व पुरुषों का उद्धार तथा प्यासी पृथ्वी को जलपूर्ण करके जन- समाज का कल्याण करने के लिए गंगावतरण की आवश्यकता थी । इस महान् उद्देश्य की पूर्ति लौकिक पुरुषार्थ से नहीं वरन् तप शक्ति से ही सम्भव थी । भगीरथ कठोर तप करने के लिए वन को गए और अपनी साधना से प्रभावित कर गंगाजी को भूलोक में लाने एवं शिवजी को अपनी जटाओं में धारण करने के लिए तैयार किया यह कार्य साधारण प्रक्रिया से सम्पन्न न होता, तप ने ही उन्हें सम्भव बनाया ।
च्यवन ऋषि इतना कठोर दीर्घकालीन तप कर रहे थे कि उनके सारे शरीर पर दीमक ने अपना घर बना लिया था और उनका शरीर एक मिट्टी का टीला जैसा बन गया था । राजकुमारी सुकन्या को छेदों में दो चमकदार चीजें दिखी और उनमें काँटे चुभो भी दिए । यह चमकदार चीजें और कुछ नहीं च्यवन ऋषि की आँखें थीं । च्यवन ऋषि को इतनी कठोर तपस्या इसलिए करनी पड़ी कि वे अपनी अन्तरात्मा में सन्निहित शक्ति केन्द्रों को जागृत करके परमात्मा के अक्षय शक्ति भण्डार में भागीदारी मिलने की अपनी योग्यता सिद्ध कर सकें ।
शुकदेवजी जन्म से साधनारत हो गये । उन्होंने मानव जीवन का एकमात्र सदुपयोग इसी में समझा कि इसका उपयोग आध्यात्मिक प्रयोजनों में करके नर- तन जैसे सुरदुर्लभ सौभाग्य का सदुपयोग किया जाये । वे चकाचौंध पैदा करने वाले वासना एवं तृष्णाजन्य प्रलोभनों को दूर से नमस्कार करके ब्रह्मज्ञान की, ब्रह्मतत्त्व की उपलब्धि में संलग्न हो गये ।
तपस्वी ध्रुव ने खोया कुछ नहीं, यदि वह साधारण राजकुमार की तरह मौज- शौक का जीवन यापन करता तो समस्त ब्रह्माण्ड का केन्द्र बिन्दु धुवतारा बनने और अपनी कीर्ति को अमर बनाने का लाभ उसे प्राप्त न हो सका होता । उस जीवन में भी उसे जितना विशाल राजपाट मिला उतना किसी की अधिक से अधिक कृपा प्राप्त होने पर भी उसे उपलब्ध न हुआ होता । पृथ्वी पर बिखरे हुए अन्न कणों को बीनकर निर्वाह करने वाले कणाद ऋषि, वट वृक्ष के दूध पर गुजारा करने वाले वाल्मीकि ऋषि भौतिक विलासिता से वंचित रहे, पर इसके बदले में जो कुछ पाया वह बड़ी से बड़ी सम्पदा से कम न था ।
भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर ने अपने काल में लोक की दुर्गति को मिटाने के लिए तपस्या को ही ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग किया । व्यापक हिंसा और असुरता के वातावरण को दया अहिंसा के रूप में परिवर्तित कर दिया । दुष्टता को हटाने के लिए यों अस्त्र शस्त्रों का- दण्ड का मार्ग सरल समझा जाता है; पर वह भी सेना एवं आयुधों की सहायता से उतना नहीं हो सकता, जितना तपोबल से । अत्याचारी शासकों का पृथ्वी से उन्मूलन करने के लिए परशुराम जी का फरसा अभूतपूर्व अस्त्र सिद्ध हुआ । उसी से उन्होंने सेना के बड़े- बड़े सामन्तों से सुसज्जित राजाओं को परास्त कर २१ बार पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया । अगस्त का कोप बेचारा समुद्र क्या सहन करता? उन्होंने तीन चुल्लुओं में सारे समुद्र को उदरस्थ कर लिया । देवता जब किसी प्रकार असुरों को परास्त न कर सके लगातार हारते ही गये तो तपस्वी दधीचि की तेजस्वी हड्डियों का वज्र प्राप्त कर इन्द्र ने देवताओं की नाव को पार लगाया ।
प्राचीनकाल में विद्या का अधिकारी वही माना जाता था, जिसमें तितीक्षा एवं कष्ट सहिष्णुता की क्षमता होती थी, ऐसे ही लोगों के हाथ में पहुँचकर विद्या उसका व समस्त संसार का कल्याण करती थी । आज विलासी और लोभी प्रवृत्ति के लोगों को ही विद्या सुलभ हो गई । फलस्वरूप वे उसका दुरुपयोग भी खूब कर रहे हैं । हम देखते हैं कि अशिक्षितों की, अपेक्षा सुशिक्षित ही मानवता से अधिक दूर हैं और वे विभिन्न प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न करके संसार की सुख- शान्ति के लिए अभिशाप बने हुए हैं । प्राचीनकाल में प्रत्येक अभिभावक अपने बालकों को तपस्वी मनोवृत्ति का बनाने के लिए उन्हें गुरुकुलों में भेजता था और गुरुकुलों के संचालक बहुत- बहुत समय तक बालकों में कष्ट सहिष्णुता जागृत करते थे और जो इस प्रारम्भिक परीक्षा में सफल होते थे उन्हें ही परिक्षाधिकारी मानकर विद्या- दान करते थे । उद्दालक, आरुणि आदि अगणित छात्रों को कठोर परीक्षाओं में से गुजरना पड़ा था । इसका वृत्तान्त सभी को मालूम है ।
ब्रह्मचर्य को तप का प्रधान अंग माना गया ते । बजरंगी हनुमान, बाल ब्रह्मचारी भीष्म पितामह के पराक्रमों से हम सभी परिचित हैं । शंकराचार्य, दयानन्द, प्रभृति अनेकों महापुरुष अपने ब्रह्मचर्य वत के आधार पर ही संसार की महान् सेवा कर सके । प्राचीनकाल में ऐसे अनेकों गृहस्थ होते थे, जो विवाह होने पर भी अपनी पत्नी के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करते थे ।
आत्मबल प्राप्त करके तपस्वी लोग उस तपबल से न केवल अपना आत्म- कल्याण करते थे वरन् अपनी थोड़ी- सी शक्ति शिष्यों को देकर उनको भी महान् पुरुष बना देते थे । विश्वामित्र के आश्रम में रहकर रामचन्द्रजी का, संदीपन ऋषि के गुरुकुल में पढकर कृष्णचन्द्रजी का ऐसा निर्माण हुआ कि भगवान् ही कहलाये । समर्थ गुरु रामदास के चरणों में बैठकर एक मामूली सा मराठा बालक छत्रपति शिवाजी बना । रामकृष्ण परमहंस से शक्ति कण पाकर नास्तिक नरेन्द्र संसार का श्रेष्ठ धर्म प्रचारक विवेकानन्द कहलाया । प्राण रक्षा के लिए मारे- मारे फिरते हुए इन्द्र को महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियाँ देकर उसे निर्भय बनाया । नारद का जरा- सा उपदेश पाकर डाकू वाल्मीकि महर्षि बन गया ।
उत्तम सन्तान प्राप्त करने के अभिलाषी भी तपस्वियों के अनुग्रह से सौभाग्यान्वित हुए हैं । मृगी ऋषि द्वारा आयोजित पुत्रेष्टि यज्ञ के द्वारा तीन विवाह कर लेने पर भी संतान न होने पर राजा दशरथ को चार पुत्र प्राप्त हुए । राजा दिलीप ने चिरकाल तक अपनी रानी समेत वशिष्ठ के आश्रम में रहकर गौ चराकर जो अनुग्रह प्राप्त किया उसके फलस्वरूप ही डूबता वंश चला पुत्र प्राप्त हुआ । पाण्डु जब सन्तानोत्पादन में असमर्थ रहे तो व्यास जी के अनुग्रह से प्रतापी पाँच पाण्डव उत्पन्न हुए । श्री जवाहर लाल नेहरू के बारे में कहा गया है कि उनके पिता श्री मोतीलाल नेहरू जब चिरकाल तक सन्तान से वंचित रहे तो इनकी चिन्ता दूर करने के लिए हिमालय निवासी एक तपस्वी ने अपना शरीर त्यागा और उनका मनोरथ पूर्ण किया । अनेकों ऋषिकुमार अपने माता- पिता का प्रचण्ड अध्यात्म बल जन्म से ही साथ लेकर पैदा होते थे और वे बालकपन में ही वह कार्य कर लेते थे जो बड़ों के लिए कठिन होते हैं । लोमश ऋषि के पुत्र श्रृंगी ऋषि ने राजा परीक्षित द्वारा अपने पिता के गले में सर्प डाला जाता देखकर क्रोध से शाप दिया कि सात दिन में कुकृत्य करने वाले को सर्प काट लेगा । परीक्षित की सुरक्षा के भारी प्रयत्न किये जाने पर भी सर्प से काटे जाने का ऋषि कुमार का शाप सत्य होकर ही रहा ।
शाप और वरदानों के आश्चर्यजनक परिणामों की चर्चा से हमारे प्राचीन इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े हैं । श्रवणकुमार को तीर मारने के दण्ड स्वरूप उसके पिता ने राजा दशरथ को शाप दिया था कि वह भी पुत्र शोक में इसी प्रकार विलख- विलख कर मरेगा । तपस्वी के मुख से निकला हुआ वचन असत्य नहीं हो सकता था, दशरथ को उसी प्रकार मरना पड़ा था । गौतम ऋषि के शाप से इन्द्र और चन्द्रमा जैसे देवताओं की दुर्गति हुई । राजा सगर के दस हजार पुत्रों को कपिल के क्रोध करने के फलस्वरूप जलकर भस्म होना पड़ा । प्रसन्न होने पर देवताओं की भाँति तपस्वी ऋषि भी वरदान प्रदान करते थे और दुःख दारिद्र से पीड़ित अनेकों व्यक्ति सुख- शान्ति के अवसर प्राप्त करते थे ।
पुरुष ही नहीं तप साधना के क्षेत्र में भारत की महिलाएँ भी पीछे न थीं । पार्वती ने प्रचण्ड तप करके मदन- दहन करने वाले समाधिस्थ शंकर को विवाह करने के लिए विवश किया । अनुसूया ने अपनी आत्म शक्ति से ब्रह्मा, विष्णु और महेश को नन्हें- नन्हें बालकों के रूप में परिणत कर दिया । सुकन्या ने अपने वृद्ध पति को युवा बनाया । सावित्री ने यम से संघर्ष करके अपने मृतक पति के प्राण लौटाये । कुन्ती ने सूर्य तप करके कुमारी अवस्था में सूर्य के समानतेजस्वी कर्ण को जन्म दिया । क्रुद्ध गान्धारी ने कृष्ण को शाप दिया कि जिस प्रकार मेरे कुल का नाश किया है वैसे ही तेरा कुल इसी प्रकार परस्पर संघर्ष में नष्ट होगा । उसके वचन मिथ्या नहीं गये । सारे यादव आपस में ही लड़कर नष्ट हो गए । दमयन्ती के शाप से व्याध को जीवित ही जल जाना पड़ा । इड़ा ने अपने पिता मनु का यज्ञ सम्पन्न कराया और उनके अभीष्ट प्रयोजन को पूरा करने में सहायता की । इन आश्चर्यजनक कार्यों के पीछे उनकी तप शक्ति की महिमा प्रत्यक्ष है ।
देवताओं और ऋषियों की भाँति ही असुर भी यह भली- भाँति जानते थे कि तप में ही शक्ति की वास्तविकता केन्द्रित है । उनने भी प्रचण्ड तप किया और वरदान प्राप्त किए जो सुर पक्ष के तपस्वी भी प्राप्त न कर सके थे । रावण ने अनेकों बार सिर का सौदा करने वाली तप साधना की और शंकरजी को इंगित करके अजेय शक्तियों का भण्डार प्राप्त किया । कुम्भकरण ने तप द्वारा ही छ:- छ: महीने सोने- जागने का अद्भुत वरदान पाया था । मेघनाथ, अहिरावण और मारीचि को विभिन्न मायावी शक्तियाँ भी उन्हें तप द्वारा मिली थीं । भस्मासुर ने सिर पर हाथ रखने से किसी को भी जला देने की शक्ति तप करके ही प्राप्त की थी । हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष सहस्रबाहु, बालि आदि असुरों के पराक्रम का भी मूल आधार तप ही था । विश्वामित्र और राम के लिए सिर दर्द बनी हुई ताड़का श्रीकृष्ण चन्द्र के प्राण लेने का संकल्प करने वाली पूतना हनुमान को निगल जाने में समर्थ सुरसा, सीता को नाना प्रकार के कौतूहल दिखाने वाली त्रिजटा आदि अनेकों असुर नारियाँ भी ऐसी थी जिनने आध्यात्मिक क्षेत्र में अच्छा खासा परिचय दिया ।
इस प्रकार के दस- बीस नहीं हजारों- लाखों प्रसंग भारतीय इतिहास में मौजूद हैं जिनने तप शक्ति के लाभों से लाभान्वित होकर साधारण नर तनधारी जनों ने विश्व को चमत्कृत कर देने वाले स्व- पर कल्याणकेंमहान् आयोजन पूर्ण करने वाले उदाहरण उपस्थित किए हैं । इस युग में महात्मा गाँधी, सन्त बिनोवा, ऋषि दयानन्द, मीरा, कबीर, दादू, तुलसीदास सूरदास, रैदास, अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस, रामतीर्थ आदि आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा जो कार्य किए गए हैं वे साधारण भौतिक पुरुषार्थी द्वारा पूरे किए जाने पर सम्भव न थे । हमने भी अपने जीवन के आरम्भ से ही यह तपश्चर्या का कार्य अपनाया है । २४ महापुरश्चरणों के कठिन तप द्वारा उपलब्ध शक्ति का उपयोग हमने लोक- कल्याण में किया है । फलस्वरूप अगणित व्यक्ति हमारी सहायता से भौतिक उन्नति एवं आध्यात्मिक प्रगति की उच्च कक्षा तक पहुँचे हैं । अनेकों को भारी व्यथा व्याधियों से, चिन्ता परेशानियों से छुटकारा मिला है । साथ ही धर्म जागृति एवं नैतिक पुनरुत्थान की दिशा में आशाजनक कार्य हुआ है । २४ लक्ष गायत्री उपासकों का निर्माण एवं २४ हजार कुण्डों के यज्ञों का संकल्प इतना महान् था कि सैकड़ों व्यक्ति मिलकर कई जन्मों में भी पूर्ण नहीं कर सकते थे; किन्तु यह सब कार्य कुछ ही दिनों में बड़े आनन्द पूर्वक पूर्ण हो गए । गायत्री तपोभूमि का- गायत्री परिवार का निर्माण एवं वेद भाष्य का प्रकाशन ऐसे कार्य हैं जिनके पीछे साधना- तपश्चर्या का प्रकाश झाँक रहा है । आगे और भी प्रचण्ड तप करने का निश्चय किया है और भावी जीवन को तप- साधना में ही लगा देने का निश्चय किया है तो इसमें आश्चर्य की बात नही हें । हम तप का महत्त्व समझ चुके हैं कि संसार के बड़े से बड़े पराक्रम और पुरुषार्थ एवं उपार्जन की तुलना में तप साधना का मूल्य अत्यधिक है । जौहरी काँच को फेंक, रत्न की साज- सम्भाल करता है । हमने भी भौतिक सुखों को लात मार कर यदि तप की सम्पत्ति एकत्रित करने का निश्चय किया है तो उससे मोहग्रस्त परिजन भले ही खिन्न होते रहें वस्तुत: उस निश्चय में दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता ही ओत- प्रोत है ।
राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिक दोनों मिलकर इन दिनों जो रचना कर रहे है वह केवल आग लगाने वाली, नाश करने वाली ही है । ऐसे हथियार तो बन रहे हैं जो विपक्षी देशों को तहस- नहस करके अपनी विजय पताका गर्वपूर्वक फहरा सकें; पर ऐसे अस्त्र कोई नहीं बना पा रहा है, जो लगाई आग को बुझा सके, आग लगाने वालों के हाथ को कुंठित कर सके और जिनके दिलों व दिमागों में नृशंसता की भट्टी जलती है, उनमें शान्ति एवं सौभाग्य की सरसता प्रवाहित कर सके । ऐसे शान्ति शस्त्रों का निर्माण राजधानियों में, वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं हो सकता है । प्राचीनकाल में जब भी इस प्रकार की आवश्यकता अनुभव हुई है, तब तपोवनों की प्रयोगशाला में तप साधना के महान् प्रयत्नों द्वारा ही शान्ति शस्त्र तैयार किये गये हैं । वर्तमान काल में अनेक महान् आत्माएँ इसी प्रयत्न के लिए अग्रसर हुई हैं ।
संसार को, मानव जाति को सुखी और समुन्नत बनाने के लिए अनेक प्रयत्न हो रहे हैं । उद्योग- धन्धे, कल- कारखाने, रेल, तार, सड़क, बाँध, स्कूल, अस्पतालों आदि का बहुत कुछ निर्माण कार्य चल रहा है । इससे गरीबी और बीमारी, अशिक्षा और असभ्यता का बहुत कुछ समाधान होने की आशा की जाती है; पर मानव अन्तःकरणों में प्रेम और आत्मीयता का, स्नेह और सौजन्य का आस्तिकता और धार्मिकता का, सेवा और संयम का निर्झर प्रवाहित किए बिना, विश्व शान्ति की दिशा में कोई कार्य न हो सकेगा । जब तक सन्मार्ग की प्रेरणा देने वाले गाँधी, दयानन्द, शंकराचार्य, बुद्ध, महावीर, नारद, व्यास जैसे आत्मबल सम्पन्न मार्गदर्शक न हों, तब तक लोक मानस को ऊँचा उठाने के प्रयत्न सफल न होगें । लोक मानस को ऊँचा उठाए बिना पवित्र आदर्शवादी भावनाएँ उत्पन्न किये बिना लोक की गतिविधियाँ ईर्ष्या- द्वेष, शोषण, अपहरण आलस्य, प्रमाद, व्यभिचार, पाप से रहित न होंगी, तब तक क्लेश और कलह से, रोग और दारिद्र से कदापि छुटकारा न मिलेगा ।
लोक मानस को पवित्र, सात्विक एवं मानवता के अनुरूप, नैतिकता से परिपूर्ण बनाने के लिए जिन सूक्ष्म आध्यात्मिक तरंगों को प्रवाहित किया जाना आवश्यक है, वे उच्चकोटि की आत्माओं द्वारा विशेष तप साधन से ही उत्पन्न होगी । मानवता की, धर्म और संस्कृति की यही सबसे बड़ी सेवा है । आज इन प्रयत्नों की तुरन्त आवश्यकता अनुभव की जाती है, क्योंकि जैसे- जैसे दिन बीतते जाते हैं असुरता का पलड़ा अधिक भारी होता जाता है, देरी करने में अति और अनिष्ट की अधिक सम्भावना हो सकती है ।
समय की इसी पुकार ने हमें वर्तमान कदम उठाने को बाध्य किया । यों जबसे यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न हुआ, ६ घण्टे की नियमित गायत्री उपासना का क्रम चलता रहा है; पर बड़े उद्देश्यों के लिए जिस सघन साधना और प्रचंड तपोबल की आवश्यकता होती है, उसके लिए यह आवश्यक हो गया कि १ वर्ष ऋषियों की तपोभूमि हिमालय में रहा और प्रयोजनीय तप सफल किया जाय । इस तप साधना का कोई वैयक्तिक उद्देश्य नहीं । स्वर्ग और मुक्ति की न कभी कामना रही और न रहेगी । अनेक बार जल लेकर मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा का संकल्प लिया है, फिर पलायनवादी कल्पनाएँ क्यों करें । विश्व हित ही अपना हित है । इस लक्ष्य को लेकर तप की अधिक उग्र अग्नि में अपने को तपाने का वर्तमान कदम उठाया है ।