Books - नवसृजन के निमित्त महाकाल की तैयारी
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अनौचित्य का प्रतिकार
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कभी- कभी ऐसा समय आता है कि छूत की बीमारी की तरह अनाचार भी गति पकड़ लेता
है और अपने आप अमरबेल की तरह बढ़ने लगता है। अपनी निज की जड़ न होने पर भी
यह बेल विस्तार पकड़ती जाती है और देखते- देखते किसी भी वृक्ष पर पूरी तरह
छा जाती है। वनस्पतियों पर चिपकने वाले कीड़े भी बिना किसी दूसरे की सहायता
के अपनी वंश- वृद्धि करते रहते हैं और उन्हें नष्ट कर डालते हैं।
दुष्ट- चिन्तन और भ्रष्ट आचरण इन दिनों एक प्रकार से प्रचलन जैसा बन गया है। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण- शक्ति हर वस्तु को नीचे की ओर ही खींचती है। पानी भी बिना किसी प्रयत्न के नीचे की ओर ही गति पकड़ता है। दुष्टता की प्रवृत्ति भी ऐसी ही है। वह पतन और पराभव की दिशा ही पकड़ती है; जबकि किसी को ऊँचा उठाने के लिए असाधारण कष्टसाध्य परिश्रम करना पड़ता है।
उदाहरण के लिए रावण जन्मा तो अकेला ही था। उसके बेटे- पोतों ने ही नहीं, वंशजों और प्रजाजनों ने भी वही रीति- नीति अपना ली थी। सर्वत्र अनाचार ही फैल गया था। कंस, जरासन्ध, वृत्रासुर, महिषासुर आदि ने भी अपने- अपने समय में ऐसे ही विस्तार- क्रम अपनाए थे और अनाचार की सब ओर भरमार दीख पड़ने लगी थी। ऐसे अशुभ समय संसार के इतिहास में अनेक बार आते रहे हैं, पर स्रष्टा की नियति यह है कि अनौचित्य को सीमा से बाहर नहीं बढ़ने देती। छोटे बच्चे जब तक सीमित गलती करते हैं, तब तक अभिभावक उन्हें छूट देते रहते हैं, पर जब वे मर्यादाओं का उल्लंघन करके अवांछनीयता तक अपनाने लगते हैं, तब उनके गाल पर चपत लगाने और कान उमेठे जाने का प्रतिकार भी किया जाने लगता है। यदि ऐसा न होता तो उद्दण्डता बढ़ती ही जाती और सृष्टि का सारा व्यवस्था- क्रम ही गड़बड़ा जाता।
पिछले दो हजार वर्ष ऐसे बीते हैं, जिनमें अनीति और अनाचार ने अपनी सभी मर्यादाओं का उल्लंघन किया है; समर्थों ने असमर्थों को त्रास देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सामन्तवादी युग के नाम से इसी को अन्धकारकाल कहा जाता रहा है। समर्थ लोगों ने गिरोहबद्ध होकर अपनी संयुक्त शक्ति का दुरुपयोग करने में कहीं कोई कसर नहीं रहने दी। इस अवधि में पीड़ितों ने भी मानवीय मर्यादा के अनुरूप कोई प्रतिरोध नहीं किया। कष्ट सहना ही है तो दूसरों का न सही, अपना खून तो बहा ही सकते हैं- संकटों से जूझने की मनुष्य की यह शाश्वत सामर्थ्य ही उसकी विशिष्टता रही है। मनुष्य वस्तुतः ऐसी मिट्टी से बना है कि वह अनीति से जीत भले ही न सके, पर उससे टक्कर तो ले ही सकता है। अनीति को निर्बाध चलने देने या उसे सहते रहने के स्थान पर उससे टकराते हुए मानवीय गरिमा को जगाना भी तो जरूरी है।
जब अनाचारी अपनी दुष्टता से बाज नहीं आते और सताए जाने वाले कायरता- भीरुता अपनाकर टकराने की नीति नहीं अपनाते तो उसे भी बुरा लगता है, जिसने इस सृष्टि का सृजन किया है। स्रष्टा का आक्रोश तब उभरता है, जब अनाचारी अपनी गतिविधियाँ छोड़ते नहीं और पीड़ित व्यक्ति उसे रोकने के लिए कटिबद्ध होते नहीं। संसार में अनाचार का अस्तित्व तो है, पर उसके साथ ही यह विधान भी है कि सताए जाने वाले बिना हार- जीत का विचार किए प्रतिकार के लिए- प्रतिरोध के लिए तो तैयार रहें ही। दया, क्षमा आदि के नाम से अनीति को बढ़ावा देते चलना सदा से अवांछनीय समझा जाता रहा है। अनीति के प्रतिकार को मानवीय गरिमा के साथ जोड़ा जाता रहा है।
जब गलतियाँ दोनों ओर से होती हैं तो अपनी व्यवस्था को लड़खड़ाते देखकर स्रष्टा को भी क्रोध आता है और जो मनुष्य नहीं कर पाता, उसे स्वयं करने के लिए तैयार होता है। अवतार- परम्परा तो इसी को कहते हैं। जब भी ऐसे समय आए हैं, स्रष्टा ने अपने हाथ में बागडोर सम्भाली है और असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने का प्रयत्न किया है। यदा- यदा हि धर्मस्य’ वाली प्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए वह वचनबद्ध है। उसने समय- समय पर अपने आश्वासन का निर्वाह भी किया है।
अपने समय को ‘प्रगति का युग’ कहा जाता है। इन दिनों ज्ञान और विज्ञान का असाधारण विकास- विस्तार हुआ है। इसके साथ ही सुविधा- साधनों की भी अतिशय वृद्धि हुई है। प्राचीनकाल में इतने साधन नहीं थे, फिर भी सर्वसाधारण को चैन के साथ हँसते- हँसाते दिन काटने का अवसर मिल जाता था, पर अब सुविधाओं का कहीं अधिक बाहुल्य होते हुए भी हर व्यक्ति को खिन्न, उद्विग्न और विपन्न देखा जाता है। इसका कारण वस्तुओं की कमी नहीं वरन् यह है कि जो कुछ उपलब्ध है, उसका सदुपयोग बन नहीं पड़ रहा है। बुद्धिमत्ता का वास्तविक स्वरूप यही है कि जो कुछ हस्तगत है, उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग बन पड़े। मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित हैं, साथ ही उसकी उत्पादन- शक्ति असाधारण है। इतना सब कुछ होते हुए भी इसे आश्चर्य ही कहना चाहिए कि लोगों मे से अधिकांश खिन्न, विपन्न, उद्विग्न पाए जाते हैं। यही अपने समय की सबसे बड़ी गुत्थी है। समाधान इसी का किया जाना चाहिए- अन्यथा समृद्धि के साथ लोगों की विपत्ति भी बढ़ती ही जाएगी।
ज्ञान और विज्ञान का सदुपयोग इसमें हैं कि उसे नीतिमत्ता के साथ नियोजित किया जाए। सदुपयोग से हर वस्तु सुखद और श्रेयस्कर बन पड़ती है, पर यदि दुर्बुद्धि अपनाकर वस्तुओं का दुरुपयोग किया जाने लगे तो फिर समझना चाहिए कि उसका दुष्परिणाम ही भुगतना पड़ेगा और मनुष्य पुरुषार्थ करते हुए भी असन्तुष्ट, अभावग्रस्त और दीन- हीन स्थिति में बना रहेगा। इन दिनों यही हो भी रहा है। वस्तुओं का अभाव नहीं, उनका दुरुपयोग ही जन- जन को हर दृष्टि से हैरान किए हुए है। यदि मूल कारण को घटाया- हटाया न जा सका तो उन समस्याओं का हल न हो सकेगा, जो हम सबको निरन्तर हैरान किए हुए हैं।
मनुष्य को उसकी सामान्य आवश्यकता से इतनी अधिक सामर्थ्य मिली है कि वह अपनी निजी आवश्यकताओं के अतिरिक्त अपने परिवार, परिकर और सम्पर्क क्षेत्र की आवश्यकताएँ भी पूरी कर सके; फिर भी होता ठीक उल्टा ही देखा गया है- लोग दुःख पाते और दुःख देते पाए जाते हैं। इसका कारण एक ही है- उपलब्धियों का दुरुपयोग होना। हर किसी को समय, श्रम, मनोयोग, कौशल आदि के सहारे बहुत कुछ करने की सामर्थ्य प्राप्त है। फिर भी आश्चर्य यह है कि दूसरों की सहायता तो दूर, अपनी निज की आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं हो पाती।
भगवान् की नीति जहाँ सौजन्य के प्रति अनुकम्पा का प्रदर्शन है, वहाँ दूसरी ओर उद्दण्डता के प्रति प्रताड़नापूर्वक व्यवहार भी है। पिछले दो हजारों वर्षों से हर क्षेत्र में उद्दण्डता ही बरती गई है। शक्ति की अनावश्यक मात्रा हाथ लगने पर लोग अनाचार की नीति अपनाने लगे हैं। मर्यादाओं को भुला दिया गया और वह करने पर उतारू हो गए, जो नहीं करना चाहिए। ऐसी दशा में जब भर्त्सना से काम नहीं चला तो स्रष्टा ने प्रताड़ना की नीति अपनाई और वह किया, जो उद्दण्डों के लिए किया जाना चाहिए।
दुष्ट- चिन्तन और भ्रष्ट आचरण इन दिनों एक प्रकार से प्रचलन जैसा बन गया है। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण- शक्ति हर वस्तु को नीचे की ओर ही खींचती है। पानी भी बिना किसी प्रयत्न के नीचे की ओर ही गति पकड़ता है। दुष्टता की प्रवृत्ति भी ऐसी ही है। वह पतन और पराभव की दिशा ही पकड़ती है; जबकि किसी को ऊँचा उठाने के लिए असाधारण कष्टसाध्य परिश्रम करना पड़ता है।
उदाहरण के लिए रावण जन्मा तो अकेला ही था। उसके बेटे- पोतों ने ही नहीं, वंशजों और प्रजाजनों ने भी वही रीति- नीति अपना ली थी। सर्वत्र अनाचार ही फैल गया था। कंस, जरासन्ध, वृत्रासुर, महिषासुर आदि ने भी अपने- अपने समय में ऐसे ही विस्तार- क्रम अपनाए थे और अनाचार की सब ओर भरमार दीख पड़ने लगी थी। ऐसे अशुभ समय संसार के इतिहास में अनेक बार आते रहे हैं, पर स्रष्टा की नियति यह है कि अनौचित्य को सीमा से बाहर नहीं बढ़ने देती। छोटे बच्चे जब तक सीमित गलती करते हैं, तब तक अभिभावक उन्हें छूट देते रहते हैं, पर जब वे मर्यादाओं का उल्लंघन करके अवांछनीयता तक अपनाने लगते हैं, तब उनके गाल पर चपत लगाने और कान उमेठे जाने का प्रतिकार भी किया जाने लगता है। यदि ऐसा न होता तो उद्दण्डता बढ़ती ही जाती और सृष्टि का सारा व्यवस्था- क्रम ही गड़बड़ा जाता।
पिछले दो हजार वर्ष ऐसे बीते हैं, जिनमें अनीति और अनाचार ने अपनी सभी मर्यादाओं का उल्लंघन किया है; समर्थों ने असमर्थों को त्रास देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सामन्तवादी युग के नाम से इसी को अन्धकारकाल कहा जाता रहा है। समर्थ लोगों ने गिरोहबद्ध होकर अपनी संयुक्त शक्ति का दुरुपयोग करने में कहीं कोई कसर नहीं रहने दी। इस अवधि में पीड़ितों ने भी मानवीय मर्यादा के अनुरूप कोई प्रतिरोध नहीं किया। कष्ट सहना ही है तो दूसरों का न सही, अपना खून तो बहा ही सकते हैं- संकटों से जूझने की मनुष्य की यह शाश्वत सामर्थ्य ही उसकी विशिष्टता रही है। मनुष्य वस्तुतः ऐसी मिट्टी से बना है कि वह अनीति से जीत भले ही न सके, पर उससे टक्कर तो ले ही सकता है। अनीति को निर्बाध चलने देने या उसे सहते रहने के स्थान पर उससे टकराते हुए मानवीय गरिमा को जगाना भी तो जरूरी है।
जब अनाचारी अपनी दुष्टता से बाज नहीं आते और सताए जाने वाले कायरता- भीरुता अपनाकर टकराने की नीति नहीं अपनाते तो उसे भी बुरा लगता है, जिसने इस सृष्टि का सृजन किया है। स्रष्टा का आक्रोश तब उभरता है, जब अनाचारी अपनी गतिविधियाँ छोड़ते नहीं और पीड़ित व्यक्ति उसे रोकने के लिए कटिबद्ध होते नहीं। संसार में अनाचार का अस्तित्व तो है, पर उसके साथ ही यह विधान भी है कि सताए जाने वाले बिना हार- जीत का विचार किए प्रतिकार के लिए- प्रतिरोध के लिए तो तैयार रहें ही। दया, क्षमा आदि के नाम से अनीति को बढ़ावा देते चलना सदा से अवांछनीय समझा जाता रहा है। अनीति के प्रतिकार को मानवीय गरिमा के साथ जोड़ा जाता रहा है।
जब गलतियाँ दोनों ओर से होती हैं तो अपनी व्यवस्था को लड़खड़ाते देखकर स्रष्टा को भी क्रोध आता है और जो मनुष्य नहीं कर पाता, उसे स्वयं करने के लिए तैयार होता है। अवतार- परम्परा तो इसी को कहते हैं। जब भी ऐसे समय आए हैं, स्रष्टा ने अपने हाथ में बागडोर सम्भाली है और असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने का प्रयत्न किया है। यदा- यदा हि धर्मस्य’ वाली प्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए वह वचनबद्ध है। उसने समय- समय पर अपने आश्वासन का निर्वाह भी किया है।
अपने समय को ‘प्रगति का युग’ कहा जाता है। इन दिनों ज्ञान और विज्ञान का असाधारण विकास- विस्तार हुआ है। इसके साथ ही सुविधा- साधनों की भी अतिशय वृद्धि हुई है। प्राचीनकाल में इतने साधन नहीं थे, फिर भी सर्वसाधारण को चैन के साथ हँसते- हँसाते दिन काटने का अवसर मिल जाता था, पर अब सुविधाओं का कहीं अधिक बाहुल्य होते हुए भी हर व्यक्ति को खिन्न, उद्विग्न और विपन्न देखा जाता है। इसका कारण वस्तुओं की कमी नहीं वरन् यह है कि जो कुछ उपलब्ध है, उसका सदुपयोग बन नहीं पड़ रहा है। बुद्धिमत्ता का वास्तविक स्वरूप यही है कि जो कुछ हस्तगत है, उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग बन पड़े। मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित हैं, साथ ही उसकी उत्पादन- शक्ति असाधारण है। इतना सब कुछ होते हुए भी इसे आश्चर्य ही कहना चाहिए कि लोगों मे से अधिकांश खिन्न, विपन्न, उद्विग्न पाए जाते हैं। यही अपने समय की सबसे बड़ी गुत्थी है। समाधान इसी का किया जाना चाहिए- अन्यथा समृद्धि के साथ लोगों की विपत्ति भी बढ़ती ही जाएगी।
ज्ञान और विज्ञान का सदुपयोग इसमें हैं कि उसे नीतिमत्ता के साथ नियोजित किया जाए। सदुपयोग से हर वस्तु सुखद और श्रेयस्कर बन पड़ती है, पर यदि दुर्बुद्धि अपनाकर वस्तुओं का दुरुपयोग किया जाने लगे तो फिर समझना चाहिए कि उसका दुष्परिणाम ही भुगतना पड़ेगा और मनुष्य पुरुषार्थ करते हुए भी असन्तुष्ट, अभावग्रस्त और दीन- हीन स्थिति में बना रहेगा। इन दिनों यही हो भी रहा है। वस्तुओं का अभाव नहीं, उनका दुरुपयोग ही जन- जन को हर दृष्टि से हैरान किए हुए है। यदि मूल कारण को घटाया- हटाया न जा सका तो उन समस्याओं का हल न हो सकेगा, जो हम सबको निरन्तर हैरान किए हुए हैं।
मनुष्य को उसकी सामान्य आवश्यकता से इतनी अधिक सामर्थ्य मिली है कि वह अपनी निजी आवश्यकताओं के अतिरिक्त अपने परिवार, परिकर और सम्पर्क क्षेत्र की आवश्यकताएँ भी पूरी कर सके; फिर भी होता ठीक उल्टा ही देखा गया है- लोग दुःख पाते और दुःख देते पाए जाते हैं। इसका कारण एक ही है- उपलब्धियों का दुरुपयोग होना। हर किसी को समय, श्रम, मनोयोग, कौशल आदि के सहारे बहुत कुछ करने की सामर्थ्य प्राप्त है। फिर भी आश्चर्य यह है कि दूसरों की सहायता तो दूर, अपनी निज की आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं हो पाती।
भगवान् की नीति जहाँ सौजन्य के प्रति अनुकम्पा का प्रदर्शन है, वहाँ दूसरी ओर उद्दण्डता के प्रति प्रताड़नापूर्वक व्यवहार भी है। पिछले दो हजारों वर्षों से हर क्षेत्र में उद्दण्डता ही बरती गई है। शक्ति की अनावश्यक मात्रा हाथ लगने पर लोग अनाचार की नीति अपनाने लगे हैं। मर्यादाओं को भुला दिया गया और वह करने पर उतारू हो गए, जो नहीं करना चाहिए। ऐसी दशा में जब भर्त्सना से काम नहीं चला तो स्रष्टा ने प्रताड़ना की नीति अपनाई और वह किया, जो उद्दण्डों के लिए किया जाना चाहिए।