Books - ईश्वर कौन है कहाँ है कैसा है
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Language: HINDI
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ईश्वर है या नहीं है?
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विश्व ब्रह्माण्ड की आश्चर्यजनक गतिविधियों और प्राणि जगत् के विलक्षण क्रिया-कलापों को देखकर यह विचार उठना स्वाभाविक है कि इस अद्भुत विलक्षण संसार की निर्मात्री, नियन्ता और पोषक कोई न कोई सर्व समर्थ विचारवान सत्ता अवश्य है। अपने आस-पास के विलक्षण जगत् को देखकर ही मनीषियों के मन में उसके कर्त्ता, स्वामी के सम्बन्ध में जिज्ञासा उत्पन्न हुई। चिन्तन, मनन, शोध और साधना द्वारा उन्हें ईश्वर के अस्तित्व की अनुभूति हुई। न केवल अनुभूति हुई वरन् उस सर्वशक्तिमान सत्ता के संघर्ष सान्निध्य से लाभ उठाने की सम्भावना भी साकार हुई।
जिन महर्षि-मनीषियों ने ईश्वर सान्निध्य का लाभ और आनन्द उठाया, उनके अलावा ऐसे व्यक्ति भी थे जिन्हें प्रत्यक्ष जगत् के अतिरिक्त अन्य किसी सत्ता का अस्तित्व ही कल्पना प्रसूत लगता था। यहीं से आस्तिकवाद और नास्तिकवाद के दो परस्पर विरोधी दर्शनों का प्रादुर्भाव हुआ। नास्तिकों का कथन है, ईश्वर में विश्वास रखना अन्धविश्वास मात्र है। जब विज्ञान द्वारा ईश्वरीय सत्ता सिद्ध ही नहीं होती तो उसे माना ही क्यों जाए? परन्तु यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या हम केवल उन्हीं बातों पर विश्वास करते हैं कि जो विज्ञान की कसौटी पर प्रामाणिकता पा चुकी हों? उत्तर मिलता है नहीं। जीवन के कितने ही आदर्श ऐसे हैं जिनकी पुष्टि विज्ञान से नहीं अपितु अन्तरात्मा से होती है। नीतिशास्त्र भी ऐसा ही विषय है, जो विज्ञान की दृष्टि से निरर्थक ठहरता है। वस्तुतः जिसे विज्ञान कहा जाता है वह पदार्थ-विज्ञान है। इस पदार्थ-विज्ञान द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म ईश्वरीय तत्वों तक कैसे पहुंचा जा सकता है?
अनेकों बातें ऐसी हैं जो वैज्ञानिक दृष्टि से अर्थहीन हैं परन्तु सामाजिक अभ्युन्नति के लिए वे मेरुदण्ड के समान हैं। उदाहरणार्थ विज्ञान की दृष्टि में नर और मादा का यौन सम्पर्क अत्यन्त स्वाभाविक है। पशु-पक्षी भी ऐसा करते हैं। उनमें माता, बहिन या पुत्री के सम्बन्धों का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। लेकिन मानव-समाज में माता, बहिन या पुत्री के साथ यौनाचार नितान्त पापाचार है। परन्तु यदि विज्ञान की कसौटी पर यौन-सदाचार व्यर्थ सिद्ध होता है तो क्या हम इसकी व्यर्थता को मानकर माता-बहिन तथा पुत्री की मर्यादा को छोड़ देंगे?
विज्ञान के अनुसार जीव, जीव का भोजन है। प्रत्येक प्राणी के लिए अपने स्वार्थ की पूर्ति, पेट और प्रजनन परक जीवन ही प्रधान है। स्वार्थपरता तथा चार्वाकों जैसे स्वच्छन्द भोगवाद का विरोध विज्ञान के आधार पर नहीं किया जा सकता। हां, समर्थन अवश्य हो सकता है। परन्तु यदि परोपकार, करुणा, सहानुभूति, त्याग, सेवा, सहिष्णुता जैसी सत्प्रवृत्तियों को मानव जीवन से बहिष्कृत कर दिया जाये तो सामाजिक सुख-शान्ति स्वप्न मात्र ही रह जायेगी।
विज्ञान के अनुसार मृत्यु से डरना प्रत्येक प्राणी का स्वाभाविक धर्म है। यदि मनुष्य को भी इस स्वाभाविक धर्म से आबद्ध मान लिया जाय तो मातृभूमि की बलिवेदी पर हंसते-हंसते अपने प्राणों का बलिदान देने वाले वीर सैनिक प्रकृति विरोधी एवं महामूर्ख ही कहे जायेंगे। वे जान-बूझकर मृत्युपाश को गले क्यों लगाते हैं, इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है। इस प्रकार यह सुस्पष्ट है कि अनेक प्रश्नों के उत्तर विज्ञान के पास नहीं हैं और इसी प्रकार ईश्वर की सिद्धि-असिद्धि में भी वह नितान्त असमर्थ है। कुछ लोग कहते हैं कि प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर जिस वस्तु की सत्ता सिद्ध हो, उसे ही माना जाय। क्योंकि प्रत्यक्ष के आधार पर ईश्वरीय सत्ता सिद्ध नहीं होती अतएव उसे मानना रूढ़ि या परम्परा मात्र है। परन्तु यह तर्क भी उचित नहीं। प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर प्रत्येक वस्तु को सिद्ध नहीं किया जा सकता। उसके द्वारा तो यह भी सिद्ध नहीं किया जा सकता कि हमारा पिता कौन है। परंतु माता की साक्षी को ही इसके लिए पर्याप्त मान लिया जाता है।
‘ईश्वर दिखलाई नहीं देता इसलिए उसे माना न जाय’ यह तर्क नितान्त सारहीन है। अनेकों वस्तुयें ऐसी हैं जो दिखलाई नहीं पड़तीं परन्तु फिर भी उन्हें अनुभव किया तथा माना जाता है। उदाहरणतः अपने नेत्र में अंजन अपने को ही कहां दिखाई पड़ता है? सरोवर में बादलों के क्रोड़ से गिरे जल बिन्दुओं को कोई देख पाता है? यद्यपि तारकगणों की सत्ता दिन में भी होती है परन्तु सूर्य के प्रकाश से अभिभूत होने के कारण वे कहां दृष्टिगत आते हैं? बहुत सूक्ष्म वस्तु भी कहां दिखाई देती है? आकाश में छाये जलकण दिखलाई देते हैं? दूध में यद्यपि मक्खन की सत्ता होती है परन्तु वह दिखलाई नहीं पड़ता। जल में नमक घुल जाता है तो दिखलाई नहीं पड़ता। परन्तु जल में उसका अस्तित्व नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मित्र के घर जाने पर यदि वहां मित्र नहीं मिलता तो हम उसका अभाव नहीं मानते। इसी प्रकार वस्तु के प्रत्यक्षतः प्राप्त न होने से ही उस का सर्वथा अभाव नहीं मानना चाहिए।
ईश्वर के अस्तित्व से केवल इसलिये मना करना कि वह प्रत्यक्ष प्रमाण तथा आज के अविकसित विज्ञान के आधार पर सिद्ध नहीं होता कोई महत्वपूर्ण कारण नहीं है। मानव जीवन से सम्बन्धित अनेकों प्रश्नों का उत्तर पदार्थ विज्ञान से नहीं अपितु उस अध्यात्म-विज्ञान से सुलझता है, जिसे आज हम पदार्थवादी बनकर विस्मृत करते जा रहे हैं। ईश्वर का अस्तित्व भी अध्यात्म-विज्ञान से ही सिद्ध होता है। तपःपूत ऋषिजन अपनी दिव्य दृष्टि से उस दिव्य तत्त्व की अनुभूति करते हैं।
इस नाना नाम रूपात्मक सृष्टि को बनाने वाला परम पिता परमेश्वर है। बिना कर्त्ता के क्रिया हो ही नहीं सकती। रंग, ब्रुश आदि सभी उपकरण उपस्थित रहने पर भी क्या बिना चित्रकार के चित्र बनेगा? सृष्टि के जड़ पदार्थों में चेतना करने वाला तथा कोटि-कोटि जीवों को बनाने वाला वह सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिशाली कारीगर ही है। सारी प्रकृति उससे व्याप्त है। प्राणियों की चेतना उस विशाल चेतना का ही अंश है। विश्व की सुन्दरता और सौम्यता उसकी ही सुन्दरता और सौम्यता है। सृष्टि के कण-कण में वह किसी न किसी रूप में विद्यमान है। जिस प्रकार रजकण और पृथ्वी में कोई विभेद नहीं होता, वह उसका ही अंश होता है उसी प्रकार आत्मा और परमात्मा में भी कोई अन्तर नहीं। आत्मा, परमात्मा का ही अंश है। परन्तु जिस प्रकार बादल दल से सूरज का प्रकार अप्रतिहत हो जाता है उसी प्रकार अज्ञान से अप्रतिहत होने के कारण हम आत्मतत्व को, अपने आपको भूल जाते हैं और लक्ष्य विमुख होकर भटकते रहते हैं।
संसार में हम देखते हैं कि कोई प्राणी तो स्वर्गोपम जीवन व्यतीत करता है परन्तु कोई नारकीय यन्त्रणाओं में फंसा तिलमिलाता है। सुख प्राप्ति की प्राणिमात्र की स्वाभाविक इच्छा होती है परन्तु ईश्वर ही उसे दुःख भोगने को विवश करता है। समाज की आंखों में, पुलिस की आंखों में धूल झोंकी जा सकती है परन्तु उस घट-घटवासी परमेश्वर की दृष्टि से हमारा कोई कार्य छिप नहीं सकता। हमारे कर्मों का अच्छा या बुरा फल वह हमें असम्भाव्य रूप से देता है। कर्मफल के आधार पर भी ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है।
तपोनिष्ठ आर्य मुनियों ने मानव-जीवन में आस्तिकता को जो महत्वपूर्ण स्थान दिया है, वह उनकी दूरदर्शिता का परिचायक है। उनकी सूक्ष्म ग्राहिणी बुद्धि ने यह अनुमान लगा लिया था कि मनुष्य एक दिन अपनी बुद्धि एवं प्रकृति का दुरुपयोग कर कुमार्गगामी बन सकता है तथा शान्ति एवं सुव्यवस्था के लिए खतरा बन सकता है। इस पथ भ्रष्टता से बचाने के लिए ही उन्होंने आस्तिकता को जीवन का प्रथम आधार बनाया। ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, उसकी दृष्टि से हमारा कोई भी कार्य छिप नहीं सकता, उसकी न्याय-व्यवस्था हर किसी के लिए समान है—ये मान्यतायें पापों से बचाती हैं तथा सदाचार और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन में सहायक बनती हैं। ईश्वरीय नियमों में विश्वास रखकर ही अब तक की मानव जाति की प्रगति सम्भव हुई है।
‘विश्वासं फलदायकम्’
श्री रमेशचन्द्र के पास कुछ रुपये हैं। उनका 3 लड़कों उमेश, दिनेश और सुशील में बंटवारा करना है। उमेश को कुल धन का 1/2 और दिनेश को 1/3 देने के बाद सुशील के लिये कुल सौ रुपये बचे तो बताओ श्री रमेशचन्द्र के पास कुल कितने रुपये थे?
कल्पना मात्र से यह एक पेचीदा प्रश्न है। आप अपनी बुद्धि से इस प्रश्न को निकालना चाहें तो बहुत कठिन हो जायेगा। क्योंकि आपको उत्तर निकालने के लिये सैकड़ों, संख्याओं की कल्पना करनी पड़ेगी और वह सब तब तक गलत होंगी जब तक ठीक वही संख्या अपने आप कल्पना में न आयेगी, भले ही वह संख्या एक दिन, एक सप्ताह, महीने भर या साल भर में आये। कल्पना तो आखिर कल्पना ही है।
इन दिक्कतों से बचने के लिये गणितज्ञों ने कुछ सूत्र ढूंढ़े हैं। उसका आधार ‘माना कि उत्तर अमुक है’ एक विश्वास है और जब उस विश्वास को प्रयोग में लाते हैं तो वह फलितार्थ शत-प्रतिशत सत्य निकलते हैं इसलिये हमारा विश्वास करना सार्थक हो जाता है। आइये विश्वास के आधार पर ऊपर के प्रश्न को हल करें। माना यह धन 1 रुपया है। 1 का 1/2=1/2 भाग उमेश को दिया गया 1 का 1/3=1/3 भाग दिनेश को दिया गया। कुल 1/2+1/3=5/6 भाग 2 भाइयों में बांट दिया गया। अब 1—5/6=1/6 भाग शेष रहा यही हिस्सा सुशील को दिया गया जो 100 रुपये के बराबर था। ऐकिक नियम के अनुसार चूंकि 1/3=100 के इसलिए 1 बराबर है 600 रुपये के। यही उत्तर है और सही भी है जब कि सारी दुनिया में एक छह सौ के बराबर कभी हो ही नहीं सकता। असम्भव तरीके से सम्भव की खोज का नाम विश्वास है। वह एक समर्थ सूत्र है जिसके आधार पर ही परमात्मा की खोज की जा सकती है। विज्ञान का रास्ता कल्पना और भटकाव का है उससे संसार के सृजन, विकास और संहार वाली शक्तियों का पता चलेगा तो सही, किन्तु भीषण संघर्ष, ध्वंस और हिंसा से भरा हुआ यह लम्बा रास्ता बड़ा अशान्ति और असन्तोष से पार होगा और आद्यशक्ति तक पहुंचना कठिनाई से ही सम्भव होगा।
ईश्वर पर विश्वास कर लेने में जहां अनेक व्यक्तिगत लाभ हैं वहां विश्व-शान्ति के लिये एक सुदृढ़ आधार पर गणित के उत्तर निकाले जा सकते हैं उसी तरह संसार में प्राणियों का आविर्भाव क्यों और कहां से हुआ है? अनेक योनियों में बिखरी प्राण-सत्ता का रहस्य क्या है? जीवन का उद्देश्य क्या है और उसे किस तरह प्राप्त किया जा सकता है? इन प्रश्नों का विज्ञान के पास कोई उत्तर नहीं। वह स्थूलता का ही अध्ययन और प्रतिपादन कर सकता है जब कि मनुष्य शरीर की आधी शक्तियां भावनामय, विचारमय, संकल्पमय हैं। शारीरिक इन्द्रियों की तरह भावनायें भी तृप्ति मांगती हैं और उन का अपना अलग क्षेत्र है। जब ईश्वर को मानवीय चेतना की तरह की ही कोई सत्ता माल लेते हैं तो जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदल जाता है। हमारी भावनात्मक शक्ति का विकास होने लगता है।
तमाम रेखागणित (ज्योमेट्री) एक बिन्दु (पॉईन्ट) से विकसित होती है। रेखा अनेक बिंदुओं से बनी एक दूरी है जिसमें लम्बाई है किन्तु चौड़ाई नहीं। बिन्दु वह वस्तु है जिसमें न तो लम्बाई है न मोटाई और न चौड़ाई। ऐसी वस्तु का कोई अस्तित्व ही नहीं होना चाहिये। कोई भी बिन्दु अंकित किया जायेगा भले ही दशमलव के आगे कई शून्यों के बाद उसका व्यास आये पर मोटाई होगी अवश्य। यदि मोटाई हो जाती है तो वह बिन्दु नहीं रहता और बिन्दु रहता है तो परिभाषा गलत। अस्तित्वहीन वस्तु केवल विश्वास है, उसी पर सम्पूर्ण रेखागणित का धरातल टिका हुआ है और उसके माध्यम से जो भी अर्थ और निष्कर्ष निकाले जाते हैं,, एक और एक सही निकलते हैं। यह है विश्वास का प्रतिफल। उसी प्रकार ईश्वरीयसत्ता को मान लेने पर व्यक्तिगत कल्याण, समाज और विश्व के हित के परिणाम सही उतरने लगते हैं। दृश्य न होने पर भी उसकी कल्पना बिन्दु की तरह एक शक्तिशाली सिद्धान्त है। परमात्मा को भी हम उसी रूप में ले लें तो इसमें भी मानवता का कल्याण ही सन्निहित है।
मनुष्य-समाज की अधिकांश व्यवस्था विश्वास पर ही आधारित है और उसी से हम सुखी हैं। भाई-भाई में, पति-पत्नी में, पिता-पुत्र, डॉक्टर-मरीज, दुकानदार-खरीददार, सरकार और ठेकेदार सब का काम विश्वास पर ही चल रहा है। विश्वास प्राप्त करके ही एक साधारण व्यक्ति पार्लियामेन्ट का सदस्य और प्रधानमन्त्री बन जाता है। हमारे विश्वास में इतनी जबर्दस्त शक्ति है कि वह सामान्य-सी परिस्थितियों को कुछ का कुछ बना सकती है। जो केवल दूसरों पर अविश्वास ही अविश्वास करते हैं तो दूसरे चाहे कैसे ही हों, पर अविश्वास करने वाला अपने आप ही दुःखी, अशान्त और अव्यवस्थित बना रहता है। विश्वास की शक्ति पर ही संसार टिका हुआ है। हमारे लिये उसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं कि ईश्वरीय शक्तियों पर ही विश्वास करें और यह देखें कि उसके फलितार्थ हमारे जीवन में उसी प्रकार सही उतरते हैं या नहीं जिस प्रकार पत्नी, पिता, माता, भाई-भतीजों पर विश्वास करे परस्पर हंसी-खुशी, प्रेम और आनन्द का जीवन जी लेते हैं।
रेखागणित की एक स्वयं सिद्ध साध्य (एक्सियम) यह है—‘अ’ और ‘ब’ एक सरल रेखा है। ‘उ’ बिन्दु पर एक दूसरी सरल रेखा ‘द’ उसे काटती है। इस प्रकार ‘उ’ बिन्दु पर बने हुए दोनों कोणों का योग बराबर दो समकोण होता है। यह एक विश्वास है, उसकी सत्यता का कोई आधार नहीं है। हम चाहें तो उसके टुकड़े (ग्रेजुएशन) ऐसे करें कि वह 180 न होकर 279 हो जायें या कुल 31 ही रखें। 180 डिग्री एक विश्वास की गई संख्या मात्र है और संसार में अब तक जितनी भी रेखागणित विकसित हुई है सभी त्रिभुजीय (ट्रेंग्युलर) प्रमेय-निर्मेयों का आधार केवल यह प्रारम्भिक विश्वास है और यह विश्वास इतना सही उतरता है कि हम पृथ्वी में बैठे-बैठे सूर्य, चन्द्रमा, बुध, हर्शल प्लूटो, एन्टलारि आदि विस्तृत तारा-मंडल (गैलेक्सी) की दूरी नाप लेते हैं। एक सरल रेखा पर दूसरी सरल रेखा खड़ी होकर दो समकोण बनती है इस विश्वास के द्वारा ही अन्तरिक्ष यान चंद्रमा तक, मंगल तक, शुक्र तक चला जाता है। वीनस पांच अभी दो करोड़ से भी अधिक मीलों की यात्रा कर शुक्र में जा उतरा। यह उस विश्वास का ही फलितार्थ है जो बहुत हल्का बिलकुल छोटा वाला निर्जीव विश्वास है। जब कि ईश्वर एक समर्थ विश्वास है, कीट-पतंगों के जीवन से लेकर वृक्ष-वनस्पतियों के अस्तित्व तक का भेदन इसी शक्ति से द्वारा किया और आध्यात्मिक रहस्यों का पता लगाया जा सकता है।
सारी खगोल विद्या की जानकारी वृत्त-सिद्धान्तों पर आधारित है एक विश्वास या स्वयंसिद्ध प्रतिज्ञा (एनन्सियेश) है-तुल्य चापों (ईक्वल आर्म्स) पर आधारित कोण भी तुल्य (ईक्वल) होते हैं। एक गोलाकार वृत (सर्किल) में कहीं भी ‘अ ब’ और ‘स द’ दो समान के चाप (आर्क) लीजिये। अब चाप (आर्क) ‘अ ब’ को उस वृत्त के किसी भी बिन्दु ‘य’ से मिलाइये, चाप ‘स द’ को भी उसी प्रकार किसी बिन्दु ‘र’ से मिलाइये। इस तरह बिन्दु ‘य’ और ‘र’ पर बने कोण बराबर होते हैं। यह एक स्वयं सिद्ध साध्य है उस पर सारी ग्रह रेखागणित टिकी हुई है, यदि कोई अविश्वास करे कि हम यह बात नहीं मानेंगे तो उसके लिये शेष सारे अभ्यास गलत हो जाते हैं। पर यह स्वयं सिद्ध साध्य फलित होती है तो उसके आधार पर सारे विश्व में भ्रमण कर आना उसी तरह सम्भव हो जाता है जिस प्रकार हम अपने किसी जाने-माने शहर तक घूम आते हैं। मान्यता पर चलने वाली गणित जब ऐसे ठोस और सत्य फलितार्थ प्रस्तुत कर सकती है तो हम ईश्वर पर विश्वास करके क्या विश्व के रहस्यों का मूल्यांकन नहीं कर सकते? ऐसी एक विचारधारा ऋषि के अन्तरंग में उठी थी और उन्होंने प्रश्न करके सृष्टि के सब तत्वों को खोज डाला। परन्तु वेदों में सन्निहित ज्ञान वही विज्ञान है जिसको पाने के लिये आज पाश्चात्य वैज्ञानिक भारी असन्तुलन, यन्त्रीकरण हिंसा और असामाजिकता पैदा कर रहे हैं। फिर भी वस्तु स्थिति की खोज नहीं कर पा रहे हैं। सिद्धान्त बनते हैं। अगले वाला वैज्ञानिक उस सिद्धान्त में या तो संशोधन कर देता है या काटकर रख देता है। संशोधनकर्ता भी अपने आपको पूर्ण विश्वस्त नहीं मानता। उसे तब भी यह आशंका बनी रहती है कि कहीं उसी के रहते हुए ही उसका सिद्धान्त काट न दिया जाय। अनेक नोबुल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों के धुर्रे उड़ गये। तब यही मानना पड़ता है कि पाश्चात्य जगत् जिस विज्ञान पर ऐंठा हुआ बैठा है वह खेल खिलौना है। तथ्य उनमें कुछ भी नहीं है।
विशाल ब्रह्माण्ड के रहस्यों, पृथ्वी पर होने वाली पुनर्जन्म की घटनाओं, अति मानसिक शक्ति, बौद्धिक क्षमता, आत्मशक्ति के करतबों, दूरदर्शन, पूर्णानुभूतियों, स्वाभानुभूतियों, भविष्य के ज्ञान आदि के प्रति हमारे मस्तिष्क में रचनात्मक और उपयोगी दृष्टिकोण ईश्वर को मान लेने पर ही बनता है।
जब समस्त सृष्टि के निर्माण और विभिन्न परिस्थितियों में हो कर प्राणियों के विकास पर विचार करते हैं तो हमें ईश्वरीय योजना में कोई दोष लगाने का कारण प्रतीत नहीं होता। इस प्रकार का दोषारोपण दो ही प्रकार के व्यक्ति करते हैं। एक तो वे जो विद्या का अहंकार करने वाले हैं, जिन्होंने अभी वास्तविक ज्ञान के क्षेत्र में पदार्पण नहीं किया है और विश्व रचना और व्यवस्था जैसी विशाल समस्या पर सर्वांगपूर्ण तरीके से विचार कर सकना जिनके लिये असम्भव है।
ऐसे व्यक्तियों की भर्त्सना करते हुए ‘थियोसोफी समाज’ की स्थापनकर्ता मैडम ब्लैवटस्की ने बहुत जोरदार शब्दों में कहा है—
‘ईश्वर भी नहीं, जीव भी नहीं? कैसी विनाशकारी कल्पना है। (नो गॉड, नो सोल? ड्रैडफुल एनिहिलेशन)’ यह एक ऐसे उन्मत्त (नास्तिक) का प्रलाप है, जो अपनी दूषित कल्पना के आधार पर विश्व रचना की सामग्री की चिनगारियों की एक निरन्तर श्रृंखला तो देखता रहता है और उसका कर्ता किसी को नहीं मानता। वह कहता है कि वह सामग्री स्वयं ही प्रकट हुई है, स्वयं ही स्थित है, स्वयं ही विकसित होती है। वह कहता हे, यह समस्त सृष्टि चलती जा रही है पर इसका कोई स्रोत नहीं है। इसका कोई कारण भी नहीं है। इस प्रकार उसकी दृष्टि में यह ‘अनन्त-चक्र’ अन्धा, निष्क्रिय और अकारण है।’
ईश्वर तथा धर्म पर अविश्वास रखने वाले प्रायः यह प्रश्न उठाया करते हैं कि ‘जब ईश्वर दयालु और कल्याणकारी है तो संसार में पाप और दुःख की अधिकता क्यों? आस्तिक लोग स्वयं भी कहते हैं कि संसार में धर्मात्मा कम और धर्मविमुख ज्यादा हैं। ईमानदारों की अपेक्षा बे-ईमानों की संख्या अधिक है।’ऐसी स्थिति में इस बात पर कैसे विश्वास किया जाय कि एक महान् चैतन्य सत्ता इस सृष्टि की रचयिता और संचालक है? यदि वास्तव में इसकी रचना किसी बुद्धि-भंडार शक्ति द्वारा हुई होती तो संसार में सर्वत्र सुख, आनन्द और पुण्य-कर्मों का ही प्रसार देखने में आना चाहिये था।
वास्तव में यह एक टेढ़ा प्रश्न है और इसका उत्तर देने में बहुत से आस्तिक लड़खड़ा जाते हैं। जिन योरोपियन ईश्वरवादियों ने इस का उत्तर दिया है, उन्होंने कहीं-कहीं अपनी असमर्थता भी स्वीकार की है। ‘थीइज्म’ (आस्तिकवाद) के लेखक श्री फ्लिण्ट ने इसका उत्तर देते हुये कहा है, ‘यदि तुम पूछो कि ईश्वर ने सबको धर्मात्मा क्यों नहीं बनाया तो इसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर हो ही नहीं सकता और न उससे कुछ लाभ है। यदि तुम कहो कि ईश्वर ने मनुष्य को देवताओं की तरह क्यों नहीं बनाया तो तुम यह भी प्रश्न कर सकोगे कि उसने देवताओं से भी बहुत ऊंचे दर्जे के प्राणी क्यों नहीं बनाये। इस प्रकार ‘अनवस्था-दोष’ उत्पन्न होता है।’ फ्लिण्ट को इस प्रकार का समाधान इस कारण करना पड़ा है कि उनका ईश्वर पर विश्वास ईसाई धर्मानुकूल है, जिसका कहना है कि पहले ईश्वर ही अकेला था, वह एकमात्र अनादि है। उसी ने जीव और अन्य समस्त सांसारिक पदार्थों की रचना की है। इस प्रकार की मान्यता के विरुद्ध ही नास्तिकों द्वारा यह आक्षेप किया जाता है कि ईश्वर को ऐसी सृष्टि बनाने की क्या आवश्यकता थी, जिसमें सदैव पाप और वैमनस्य की वृद्धि होती रहे? पर भारतीय धर्म की मान्यता में ऐसी त्रुटियां नहीं हैं। उनके अनुसार ईश्वर जीवों को बनाता नहीं, वरन् उनका अस्तित्व स्वयमेव है और ईश्वर उनकी भलाई के लिये सृष्टि के पदार्थों की रचना करता है। पर उसने जीव को परतन्त्र अथवा दास की तरह नहीं बनाया है, जैसा अन्य कई धर्मों में विचार किया जाता है। हमारी मान्यता यह है कि ईश्वर जीवों की उन्नति के लिये तरह-तरह के साधन उपस्थित करता है। उनको सत्कर्मों के लिये प्रेरणा भी देता है, पर उसने कर्म करने में उनको स्वतन्त्र ही रखा है। पाप या पुण्य करना उनकी रुचि और मनोवृत्ति पर ही आधारित है। जब वे पुण्य कर्म करते हैं तो उसके बदले में वे शुभफल, सुख पाते हैं और जब पाप करने पर उतारू हो जाते हैं तब उनको दण्ड मिलता है। पर यह शुभ परिणाम और दण्ड भी स्वयं ईश्वर नहीं देता वरन् उसने ऐसी व्यवस्था बना दी हैं कि प्रकृति स्वयं ही यह कार्य पूरा कर लेती है। भारतीय धर्म के अधिकांश विचारकों ने प्रकृति को ईश्वर की सहचरी या अनुचरी माना है इसलिये वह जो कुछ करती है उसका कर्ता ईश्वर ही समझा जाता है।
जिस प्रकार का आक्षेप लोग पाप के विषय में करते हैं वैसा ही भाव दुःख के विषय में भी प्रकट करते हैं। वे कहते हैं कि जब ईश्वर सर्वशक्तिमान है और जीवों का भला भी चाहता है तो उसने ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं की कि संसार में दुःख का नाम ही नहीं रहता? इस शंका का उत्तर देते हुए आलफ्रेड रसल वालेस ने अपने ग्रन्थ ‘द वर्ल्ड आफ लाइफ’ (जीवन जगत) में लिखा है—
‘कुछ आलोचकों को संसार के दुःख देखकर प्रायः घृणा हो जाती है और वे कहने लगते हैं कि यह सृष्टि सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और दयालु सत्ता की बनाई नहीं हो सकती। पर इन लेखकों (अर्थात् आक्षेप करने वालों) और विकासवादियों ने कभी दुःख की जड़ तक पहुंचने का यत्न नहीं किया। उन्होंने यह नहीं सोचा कि दुःख या कष्ट विकास के लिये बड़ी आवश्यक वस्तु है। स्वयं डारविन ने इस नियम पर बड़ा बल दिया है कि कोई इन्द्रिय, शक्ति या वेदना किसी प्राणी में उस समय तक नहीं उत्पन्न होती, जब तक उसका उसकी जाति के लिये उपयोग न हो। इस नियम पर यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर प्रत्येक प्राणि-वर्ग में उतना ही दुख उत्पन्न करता है, जितने की उसके लिये आवश्यकता है।’
फ्लिन्ट महोदय ने अपनी ‘थीइज्म’ में इसका समाधान कुछ भिन्न शब्दों में किया है—
‘दुःख परिश्रम के लिये प्रेरणा करता है और परिश्रम द्वारा ही हमारा जीवन, हमारी शक्तियां नियमित और विकसित हो सकती हैं। इच्छा आवश्यकता का अनुभव कराती है और आवश्यकता का अनुभव ही दुःख माना जाता है। परन्तु यदि जीवों में इच्छायें न हों और इन इच्छाओं द्वारा उत्पन्न हुये प्रयत्न न हों तो फिर जीव रहेंगे ही क्या? क्या वह ऐसे ही सुन्दर और विशाल होंगे, जैसे अब हैं? यदि खरगोश को भय न हो तो क्या वह तीव्रगामी होगा, जैसा अब है? यदि शेर को भूख न लगे तो क्या वह उतना ही बलिष्ठ होगा, जितना कि अब है? यदि मनुष्य को समय-समय पर संघर्ष न करना पड़े तो क्या वह ऐसा प्रयत्नशील, ऐसा बुद्धिमान, ऐसा चतुर, शिक्षित होगा जैसा अब है? इस प्रकार आवश्यकता से उत्पन्न दुःख प्राणियों की प्रगति और पूर्णता का साधन है अर्थात् चाहे आरम्भ में यह बुरा जान पड़े पर इसका परिणाम अच्छा होता है। पूर्णता स्वयं भी एक महत्वपूर्ण वस्तु है और उससे हमें आनन्द न भी प्राप्त हो तो वह एक उच्चकोटि का साध्य (प्रयोजन) मानी जाएगी। इसलिये जो दुःख, इस प्रयोजन की पूर्ति करता है, उसे बुरा कैसे कह सकते हैं।
‘दूसरी बात यह भी है कि दुःख पूर्णता का ही साधन नहीं है वरन् वही सुख का साधन भी है। शायद प्राणियों के शरीर ही ऐसे बने हैं कि यदि वह दुःख का अनुभव न करते तो सुख का अनुभव भी नहीं कर पाते। चाहे यह बात बिलकुल ठीक हो या न हो परन्तु एक बात तो स्पष्ट ही है कि समस्त जीवन जगत् में वह ‘दुःख’ वास्तव में आनन्द का साधन होता है, जो प्राणियों को परिश्रम के लिये उत्तेजित करता है। दुःख की उपयोगिता छोटे प्राणियों में मिलती है। दुःख का महत्व जितना शारीरिक बातों में है उनसे कहीं अधिक मानसिक बातों में मिलता है। यह दुःख आत्मा को शुद्ध बनाने और शिक्षा देने में परम सहायक है। दुःख से हृदय की कठोरता कम हो जाती है, दुःख से अभिमान का दमन होता है, दुःख से साहस और धैर्य बढ़ता है, दुःख से सहानुभूति का आधिक्य होता है, दुःख से धर्म श्रद्धा होती है। ऐसी अवस्था में कोई भी संसार में दुःखों को देखकर के लिये उसके लिये परमात्मा को दोषी बनाने के बजाय धन्यवाद ही देगा।’
जो बात फ्लिण्ट ने आज कही है वह बात हमारे धर्म ग्रन्थ ‘महाभारत’ में हजारों वर्ष पूर्व कह दी गई थी। जब भगवान् कृष्ण ने वनवास के पश्चात् कुन्ती से अभिलाषित वर मांगने को कहा तो उसने अपनी भावना इस शब्दों में प्रकट की कि, ‘हे भगवन्! आप हमको दुःख की अवस्था में रखा करें, क्योंकि उस दशा में तो हमको आपका स्मरण और प्रेम बना रहता है, पर जब हम सुखों में पड़ जाते हैं तो आपको भूल जाते हैं।’ इस प्रकार संसार में सच्चा सुख ईश्वर और धर्म पर विश्वास रखते हुए पूर्ण परिश्रम के साथ अपना कर्तव्य पालन करने में ही है।
विश्वास एक उत्पादक शक्ति है जो सृष्टि के गहन अन्तराल से ज्ञान के हीरे-मोती खोज-खोज कर हमारे ज्ञान-बुद्धि और वर्चस्व को महान् बना देता है। वैज्ञानिक फलितार्थों से यह निश्चय हो चुका है कि ईश्वर एक प्रकार की पूर्ण शक्ति है और उस पूर्णता का कितना भी अंश निकाल लेने पर पूर्णता ही शेष रहती। बात कुछ अटपटी लगती है पर है सत्य। एक चुम्बक पत्थर को कागज में रखकर उसकी शक्ति का चार्ट तैयार कर लें। अब उस चुम्बक को लोहे से स्पर्श करायें। लोहा भी चुम्बक बन जाता है। चुम्बक को हटा कर फिर उसका चार्ट तैयार करें तो पता चलेगा कि उसके आवेश का काफी अंश लोहे में खिंच जाने के बाद भी उसकी मूल शक्ति में कोई अन्तर नहीं पड़ा। उसी प्रकार केवल विश्वास के आधार पर अपनी चेतना का विश्व चेतना के साथ सम्बन्ध जोड़कर हम उन शक्तियों को विकसित और व्यवस्थित कर सकते हैं जिन्हें ईश्वरीय वैभव के रूप में जाना जाता है और जिनसे हमारे जीवन का वास्तविक अर्थ फलित होता है।
अंकगणित में कुल दस अक्षर हैं। 1 से लेकर 9 तक पहुंचने के बाद वैज्ञानिकों ने देखा कि इस तरह कितनी ही संख्या कल्पित करते चलें तो उनका अंत नहीं हो सकता इसलिये उन्हीं 9 अंकों से आगे की संख्यायें बनाई गईं और पूर्णता के लिये एक ऐसी संख्या की कल्पना की गई जिससे संख्याओं की इकाई, दहाई या सैकड़े की किसी भी दौड़ को विश्राम दिया जा सके। उस संख्या का नाम है शून्य (जीरो)। इस शून्य पर अंकगणित और लम्बी-लम्बी गणनायें टिकी हुई हैं वह सत्य भी निकलती हैं पर शून्य अपने आप में क्या है, थोड़ा इस पर भी दृष्टि डालें। 3/4 का अर्थ है किसी वस्तु के चार टुकड़े किये जायें और उनसे 3 टुकड़े लिये जायें तो वह 3/4 कहलायेगा। दो भागों में 1 टुकड़ा लें वह 1/2 कहलायेगा। भिन्न-गणित इन टुकड़ों (पार्टीशन) पर ही आधारित है और उससे बड़े लम्बे प्रश्नों को सीमित करना सम्भव हो गया है। पर यदि किसी वस्तु के शून्य टुकड़े करें और उसमें से एक टुकड़ा लें तब 1/0 और एक बटा शून्य का क्या अर्थ—अनन्तता (इमाफिनिटी)। दो, चार, छह, दस किन्हीं संख्याओं के शून्य—टुकड़े करें उत्तर वही अनन्तता आता है जिसका कुछ भी अर्थ नहीं है। अनन्तता कोई संख्या ही नहीं है जब कि शून्य को एक संख्या माना गया है। उसे हटा दें तो तमाम गणित फेल हो जाये। किसी वस्तु के चार बराबर-बराबर भाग करें और उसमें से शून्य भाग लें तो उत्तर आयेगा शून्य (कुछ नहीं)। शून्य में शून्य घटाने का फलितार्थ शून्य और अनन्तता यह कोई बात नहीं हुई। पर उन्हें निकाला नहीं जा सकता क्योंकि उस पर सारा अंकगणित का आधार बना हुआ है। विश्व की सार्थकता को समझने के लिये वैसे ही हमें भी अनिवार्यतः एक बिन्दु की कल्पना करनी पड़ती है। उसे ईश्वर मानना पड़ता है यदि उसे मान लेते हैं तो निश्चित है कि समाज और देश, अनुशासित, व्यवस्थित और मैत्री पूर्वक रह सकते हैं।
ईश्वर के अस्तित्व को केवल विश्वास के आधार पर ही प्रमाणित किया गया नहीं मानना चाहिए। विश्वास की आवश्यकता तो इसलिए है कि उस सर्व समर्थ सत्ता के सम्पर्क सान्निध्य से लाभान्वित हुआ जा सके। अन्यथा ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के ढेरों आधार अपने आसपास के संसार में सदा सदैव देखे जा सकते हैं। सूक्ष्म दृष्टि से यदि चारों ओर बिखरे हुए संसार को देखा जाय तो ईश्वर के अस्तित्व को न मानने का कोई कारण नहीं दिखाई देगा। ईश्वर कौन है, कहां है, कैसा है, इन प्रश्नों का उत्तर वही पा सकता है, जो यह जानने का गहराई से प्रयास करे कि प्रश्नकर्त्ता कौन है, कहां हैं, क्यों है, कैसा है? क्योंकि ईश्वर तो चारों ओर विद्यमान है, प्रश्नकर्त्ता अपने भीतर-बाहर चारों ओर फैले संसार को जितना अधिक जानेगा, ईश्वर के उतना ही समीप पहुंचेगा।
जिन महर्षि-मनीषियों ने ईश्वर सान्निध्य का लाभ और आनन्द उठाया, उनके अलावा ऐसे व्यक्ति भी थे जिन्हें प्रत्यक्ष जगत् के अतिरिक्त अन्य किसी सत्ता का अस्तित्व ही कल्पना प्रसूत लगता था। यहीं से आस्तिकवाद और नास्तिकवाद के दो परस्पर विरोधी दर्शनों का प्रादुर्भाव हुआ। नास्तिकों का कथन है, ईश्वर में विश्वास रखना अन्धविश्वास मात्र है। जब विज्ञान द्वारा ईश्वरीय सत्ता सिद्ध ही नहीं होती तो उसे माना ही क्यों जाए? परन्तु यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या हम केवल उन्हीं बातों पर विश्वास करते हैं कि जो विज्ञान की कसौटी पर प्रामाणिकता पा चुकी हों? उत्तर मिलता है नहीं। जीवन के कितने ही आदर्श ऐसे हैं जिनकी पुष्टि विज्ञान से नहीं अपितु अन्तरात्मा से होती है। नीतिशास्त्र भी ऐसा ही विषय है, जो विज्ञान की दृष्टि से निरर्थक ठहरता है। वस्तुतः जिसे विज्ञान कहा जाता है वह पदार्थ-विज्ञान है। इस पदार्थ-विज्ञान द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म ईश्वरीय तत्वों तक कैसे पहुंचा जा सकता है?
अनेकों बातें ऐसी हैं जो वैज्ञानिक दृष्टि से अर्थहीन हैं परन्तु सामाजिक अभ्युन्नति के लिए वे मेरुदण्ड के समान हैं। उदाहरणार्थ विज्ञान की दृष्टि में नर और मादा का यौन सम्पर्क अत्यन्त स्वाभाविक है। पशु-पक्षी भी ऐसा करते हैं। उनमें माता, बहिन या पुत्री के सम्बन्धों का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। लेकिन मानव-समाज में माता, बहिन या पुत्री के साथ यौनाचार नितान्त पापाचार है। परन्तु यदि विज्ञान की कसौटी पर यौन-सदाचार व्यर्थ सिद्ध होता है तो क्या हम इसकी व्यर्थता को मानकर माता-बहिन तथा पुत्री की मर्यादा को छोड़ देंगे?
विज्ञान के अनुसार जीव, जीव का भोजन है। प्रत्येक प्राणी के लिए अपने स्वार्थ की पूर्ति, पेट और प्रजनन परक जीवन ही प्रधान है। स्वार्थपरता तथा चार्वाकों जैसे स्वच्छन्द भोगवाद का विरोध विज्ञान के आधार पर नहीं किया जा सकता। हां, समर्थन अवश्य हो सकता है। परन्तु यदि परोपकार, करुणा, सहानुभूति, त्याग, सेवा, सहिष्णुता जैसी सत्प्रवृत्तियों को मानव जीवन से बहिष्कृत कर दिया जाये तो सामाजिक सुख-शान्ति स्वप्न मात्र ही रह जायेगी।
विज्ञान के अनुसार मृत्यु से डरना प्रत्येक प्राणी का स्वाभाविक धर्म है। यदि मनुष्य को भी इस स्वाभाविक धर्म से आबद्ध मान लिया जाय तो मातृभूमि की बलिवेदी पर हंसते-हंसते अपने प्राणों का बलिदान देने वाले वीर सैनिक प्रकृति विरोधी एवं महामूर्ख ही कहे जायेंगे। वे जान-बूझकर मृत्युपाश को गले क्यों लगाते हैं, इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है। इस प्रकार यह सुस्पष्ट है कि अनेक प्रश्नों के उत्तर विज्ञान के पास नहीं हैं और इसी प्रकार ईश्वर की सिद्धि-असिद्धि में भी वह नितान्त असमर्थ है। कुछ लोग कहते हैं कि प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर जिस वस्तु की सत्ता सिद्ध हो, उसे ही माना जाय। क्योंकि प्रत्यक्ष के आधार पर ईश्वरीय सत्ता सिद्ध नहीं होती अतएव उसे मानना रूढ़ि या परम्परा मात्र है। परन्तु यह तर्क भी उचित नहीं। प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर प्रत्येक वस्तु को सिद्ध नहीं किया जा सकता। उसके द्वारा तो यह भी सिद्ध नहीं किया जा सकता कि हमारा पिता कौन है। परंतु माता की साक्षी को ही इसके लिए पर्याप्त मान लिया जाता है।
‘ईश्वर दिखलाई नहीं देता इसलिए उसे माना न जाय’ यह तर्क नितान्त सारहीन है। अनेकों वस्तुयें ऐसी हैं जो दिखलाई नहीं पड़तीं परन्तु फिर भी उन्हें अनुभव किया तथा माना जाता है। उदाहरणतः अपने नेत्र में अंजन अपने को ही कहां दिखाई पड़ता है? सरोवर में बादलों के क्रोड़ से गिरे जल बिन्दुओं को कोई देख पाता है? यद्यपि तारकगणों की सत्ता दिन में भी होती है परन्तु सूर्य के प्रकाश से अभिभूत होने के कारण वे कहां दृष्टिगत आते हैं? बहुत सूक्ष्म वस्तु भी कहां दिखाई देती है? आकाश में छाये जलकण दिखलाई देते हैं? दूध में यद्यपि मक्खन की सत्ता होती है परन्तु वह दिखलाई नहीं पड़ता। जल में नमक घुल जाता है तो दिखलाई नहीं पड़ता। परन्तु जल में उसका अस्तित्व नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मित्र के घर जाने पर यदि वहां मित्र नहीं मिलता तो हम उसका अभाव नहीं मानते। इसी प्रकार वस्तु के प्रत्यक्षतः प्राप्त न होने से ही उस का सर्वथा अभाव नहीं मानना चाहिए।
ईश्वर के अस्तित्व से केवल इसलिये मना करना कि वह प्रत्यक्ष प्रमाण तथा आज के अविकसित विज्ञान के आधार पर सिद्ध नहीं होता कोई महत्वपूर्ण कारण नहीं है। मानव जीवन से सम्बन्धित अनेकों प्रश्नों का उत्तर पदार्थ विज्ञान से नहीं अपितु उस अध्यात्म-विज्ञान से सुलझता है, जिसे आज हम पदार्थवादी बनकर विस्मृत करते जा रहे हैं। ईश्वर का अस्तित्व भी अध्यात्म-विज्ञान से ही सिद्ध होता है। तपःपूत ऋषिजन अपनी दिव्य दृष्टि से उस दिव्य तत्त्व की अनुभूति करते हैं।
इस नाना नाम रूपात्मक सृष्टि को बनाने वाला परम पिता परमेश्वर है। बिना कर्त्ता के क्रिया हो ही नहीं सकती। रंग, ब्रुश आदि सभी उपकरण उपस्थित रहने पर भी क्या बिना चित्रकार के चित्र बनेगा? सृष्टि के जड़ पदार्थों में चेतना करने वाला तथा कोटि-कोटि जीवों को बनाने वाला वह सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिशाली कारीगर ही है। सारी प्रकृति उससे व्याप्त है। प्राणियों की चेतना उस विशाल चेतना का ही अंश है। विश्व की सुन्दरता और सौम्यता उसकी ही सुन्दरता और सौम्यता है। सृष्टि के कण-कण में वह किसी न किसी रूप में विद्यमान है। जिस प्रकार रजकण और पृथ्वी में कोई विभेद नहीं होता, वह उसका ही अंश होता है उसी प्रकार आत्मा और परमात्मा में भी कोई अन्तर नहीं। आत्मा, परमात्मा का ही अंश है। परन्तु जिस प्रकार बादल दल से सूरज का प्रकार अप्रतिहत हो जाता है उसी प्रकार अज्ञान से अप्रतिहत होने के कारण हम आत्मतत्व को, अपने आपको भूल जाते हैं और लक्ष्य विमुख होकर भटकते रहते हैं।
संसार में हम देखते हैं कि कोई प्राणी तो स्वर्गोपम जीवन व्यतीत करता है परन्तु कोई नारकीय यन्त्रणाओं में फंसा तिलमिलाता है। सुख प्राप्ति की प्राणिमात्र की स्वाभाविक इच्छा होती है परन्तु ईश्वर ही उसे दुःख भोगने को विवश करता है। समाज की आंखों में, पुलिस की आंखों में धूल झोंकी जा सकती है परन्तु उस घट-घटवासी परमेश्वर की दृष्टि से हमारा कोई कार्य छिप नहीं सकता। हमारे कर्मों का अच्छा या बुरा फल वह हमें असम्भाव्य रूप से देता है। कर्मफल के आधार पर भी ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है।
तपोनिष्ठ आर्य मुनियों ने मानव-जीवन में आस्तिकता को जो महत्वपूर्ण स्थान दिया है, वह उनकी दूरदर्शिता का परिचायक है। उनकी सूक्ष्म ग्राहिणी बुद्धि ने यह अनुमान लगा लिया था कि मनुष्य एक दिन अपनी बुद्धि एवं प्रकृति का दुरुपयोग कर कुमार्गगामी बन सकता है तथा शान्ति एवं सुव्यवस्था के लिए खतरा बन सकता है। इस पथ भ्रष्टता से बचाने के लिए ही उन्होंने आस्तिकता को जीवन का प्रथम आधार बनाया। ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, उसकी दृष्टि से हमारा कोई भी कार्य छिप नहीं सकता, उसकी न्याय-व्यवस्था हर किसी के लिए समान है—ये मान्यतायें पापों से बचाती हैं तथा सदाचार और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन में सहायक बनती हैं। ईश्वरीय नियमों में विश्वास रखकर ही अब तक की मानव जाति की प्रगति सम्भव हुई है।
‘विश्वासं फलदायकम्’
श्री रमेशचन्द्र के पास कुछ रुपये हैं। उनका 3 लड़कों उमेश, दिनेश और सुशील में बंटवारा करना है। उमेश को कुल धन का 1/2 और दिनेश को 1/3 देने के बाद सुशील के लिये कुल सौ रुपये बचे तो बताओ श्री रमेशचन्द्र के पास कुल कितने रुपये थे?
कल्पना मात्र से यह एक पेचीदा प्रश्न है। आप अपनी बुद्धि से इस प्रश्न को निकालना चाहें तो बहुत कठिन हो जायेगा। क्योंकि आपको उत्तर निकालने के लिये सैकड़ों, संख्याओं की कल्पना करनी पड़ेगी और वह सब तब तक गलत होंगी जब तक ठीक वही संख्या अपने आप कल्पना में न आयेगी, भले ही वह संख्या एक दिन, एक सप्ताह, महीने भर या साल भर में आये। कल्पना तो आखिर कल्पना ही है।
इन दिक्कतों से बचने के लिये गणितज्ञों ने कुछ सूत्र ढूंढ़े हैं। उसका आधार ‘माना कि उत्तर अमुक है’ एक विश्वास है और जब उस विश्वास को प्रयोग में लाते हैं तो वह फलितार्थ शत-प्रतिशत सत्य निकलते हैं इसलिये हमारा विश्वास करना सार्थक हो जाता है। आइये विश्वास के आधार पर ऊपर के प्रश्न को हल करें। माना यह धन 1 रुपया है। 1 का 1/2=1/2 भाग उमेश को दिया गया 1 का 1/3=1/3 भाग दिनेश को दिया गया। कुल 1/2+1/3=5/6 भाग 2 भाइयों में बांट दिया गया। अब 1—5/6=1/6 भाग शेष रहा यही हिस्सा सुशील को दिया गया जो 100 रुपये के बराबर था। ऐकिक नियम के अनुसार चूंकि 1/3=100 के इसलिए 1 बराबर है 600 रुपये के। यही उत्तर है और सही भी है जब कि सारी दुनिया में एक छह सौ के बराबर कभी हो ही नहीं सकता। असम्भव तरीके से सम्भव की खोज का नाम विश्वास है। वह एक समर्थ सूत्र है जिसके आधार पर ही परमात्मा की खोज की जा सकती है। विज्ञान का रास्ता कल्पना और भटकाव का है उससे संसार के सृजन, विकास और संहार वाली शक्तियों का पता चलेगा तो सही, किन्तु भीषण संघर्ष, ध्वंस और हिंसा से भरा हुआ यह लम्बा रास्ता बड़ा अशान्ति और असन्तोष से पार होगा और आद्यशक्ति तक पहुंचना कठिनाई से ही सम्भव होगा।
ईश्वर पर विश्वास कर लेने में जहां अनेक व्यक्तिगत लाभ हैं वहां विश्व-शान्ति के लिये एक सुदृढ़ आधार पर गणित के उत्तर निकाले जा सकते हैं उसी तरह संसार में प्राणियों का आविर्भाव क्यों और कहां से हुआ है? अनेक योनियों में बिखरी प्राण-सत्ता का रहस्य क्या है? जीवन का उद्देश्य क्या है और उसे किस तरह प्राप्त किया जा सकता है? इन प्रश्नों का विज्ञान के पास कोई उत्तर नहीं। वह स्थूलता का ही अध्ययन और प्रतिपादन कर सकता है जब कि मनुष्य शरीर की आधी शक्तियां भावनामय, विचारमय, संकल्पमय हैं। शारीरिक इन्द्रियों की तरह भावनायें भी तृप्ति मांगती हैं और उन का अपना अलग क्षेत्र है। जब ईश्वर को मानवीय चेतना की तरह की ही कोई सत्ता माल लेते हैं तो जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदल जाता है। हमारी भावनात्मक शक्ति का विकास होने लगता है।
तमाम रेखागणित (ज्योमेट्री) एक बिन्दु (पॉईन्ट) से विकसित होती है। रेखा अनेक बिंदुओं से बनी एक दूरी है जिसमें लम्बाई है किन्तु चौड़ाई नहीं। बिन्दु वह वस्तु है जिसमें न तो लम्बाई है न मोटाई और न चौड़ाई। ऐसी वस्तु का कोई अस्तित्व ही नहीं होना चाहिये। कोई भी बिन्दु अंकित किया जायेगा भले ही दशमलव के आगे कई शून्यों के बाद उसका व्यास आये पर मोटाई होगी अवश्य। यदि मोटाई हो जाती है तो वह बिन्दु नहीं रहता और बिन्दु रहता है तो परिभाषा गलत। अस्तित्वहीन वस्तु केवल विश्वास है, उसी पर सम्पूर्ण रेखागणित का धरातल टिका हुआ है और उसके माध्यम से जो भी अर्थ और निष्कर्ष निकाले जाते हैं,, एक और एक सही निकलते हैं। यह है विश्वास का प्रतिफल। उसी प्रकार ईश्वरीयसत्ता को मान लेने पर व्यक्तिगत कल्याण, समाज और विश्व के हित के परिणाम सही उतरने लगते हैं। दृश्य न होने पर भी उसकी कल्पना बिन्दु की तरह एक शक्तिशाली सिद्धान्त है। परमात्मा को भी हम उसी रूप में ले लें तो इसमें भी मानवता का कल्याण ही सन्निहित है।
मनुष्य-समाज की अधिकांश व्यवस्था विश्वास पर ही आधारित है और उसी से हम सुखी हैं। भाई-भाई में, पति-पत्नी में, पिता-पुत्र, डॉक्टर-मरीज, दुकानदार-खरीददार, सरकार और ठेकेदार सब का काम विश्वास पर ही चल रहा है। विश्वास प्राप्त करके ही एक साधारण व्यक्ति पार्लियामेन्ट का सदस्य और प्रधानमन्त्री बन जाता है। हमारे विश्वास में इतनी जबर्दस्त शक्ति है कि वह सामान्य-सी परिस्थितियों को कुछ का कुछ बना सकती है। जो केवल दूसरों पर अविश्वास ही अविश्वास करते हैं तो दूसरे चाहे कैसे ही हों, पर अविश्वास करने वाला अपने आप ही दुःखी, अशान्त और अव्यवस्थित बना रहता है। विश्वास की शक्ति पर ही संसार टिका हुआ है। हमारे लिये उसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं कि ईश्वरीय शक्तियों पर ही विश्वास करें और यह देखें कि उसके फलितार्थ हमारे जीवन में उसी प्रकार सही उतरते हैं या नहीं जिस प्रकार पत्नी, पिता, माता, भाई-भतीजों पर विश्वास करे परस्पर हंसी-खुशी, प्रेम और आनन्द का जीवन जी लेते हैं।
रेखागणित की एक स्वयं सिद्ध साध्य (एक्सियम) यह है—‘अ’ और ‘ब’ एक सरल रेखा है। ‘उ’ बिन्दु पर एक दूसरी सरल रेखा ‘द’ उसे काटती है। इस प्रकार ‘उ’ बिन्दु पर बने हुए दोनों कोणों का योग बराबर दो समकोण होता है। यह एक विश्वास है, उसकी सत्यता का कोई आधार नहीं है। हम चाहें तो उसके टुकड़े (ग्रेजुएशन) ऐसे करें कि वह 180 न होकर 279 हो जायें या कुल 31 ही रखें। 180 डिग्री एक विश्वास की गई संख्या मात्र है और संसार में अब तक जितनी भी रेखागणित विकसित हुई है सभी त्रिभुजीय (ट्रेंग्युलर) प्रमेय-निर्मेयों का आधार केवल यह प्रारम्भिक विश्वास है और यह विश्वास इतना सही उतरता है कि हम पृथ्वी में बैठे-बैठे सूर्य, चन्द्रमा, बुध, हर्शल प्लूटो, एन्टलारि आदि विस्तृत तारा-मंडल (गैलेक्सी) की दूरी नाप लेते हैं। एक सरल रेखा पर दूसरी सरल रेखा खड़ी होकर दो समकोण बनती है इस विश्वास के द्वारा ही अन्तरिक्ष यान चंद्रमा तक, मंगल तक, शुक्र तक चला जाता है। वीनस पांच अभी दो करोड़ से भी अधिक मीलों की यात्रा कर शुक्र में जा उतरा। यह उस विश्वास का ही फलितार्थ है जो बहुत हल्का बिलकुल छोटा वाला निर्जीव विश्वास है। जब कि ईश्वर एक समर्थ विश्वास है, कीट-पतंगों के जीवन से लेकर वृक्ष-वनस्पतियों के अस्तित्व तक का भेदन इसी शक्ति से द्वारा किया और आध्यात्मिक रहस्यों का पता लगाया जा सकता है।
सारी खगोल विद्या की जानकारी वृत्त-सिद्धान्तों पर आधारित है एक विश्वास या स्वयंसिद्ध प्रतिज्ञा (एनन्सियेश) है-तुल्य चापों (ईक्वल आर्म्स) पर आधारित कोण भी तुल्य (ईक्वल) होते हैं। एक गोलाकार वृत (सर्किल) में कहीं भी ‘अ ब’ और ‘स द’ दो समान के चाप (आर्क) लीजिये। अब चाप (आर्क) ‘अ ब’ को उस वृत्त के किसी भी बिन्दु ‘य’ से मिलाइये, चाप ‘स द’ को भी उसी प्रकार किसी बिन्दु ‘र’ से मिलाइये। इस तरह बिन्दु ‘य’ और ‘र’ पर बने कोण बराबर होते हैं। यह एक स्वयं सिद्ध साध्य है उस पर सारी ग्रह रेखागणित टिकी हुई है, यदि कोई अविश्वास करे कि हम यह बात नहीं मानेंगे तो उसके लिये शेष सारे अभ्यास गलत हो जाते हैं। पर यह स्वयं सिद्ध साध्य फलित होती है तो उसके आधार पर सारे विश्व में भ्रमण कर आना उसी तरह सम्भव हो जाता है जिस प्रकार हम अपने किसी जाने-माने शहर तक घूम आते हैं। मान्यता पर चलने वाली गणित जब ऐसे ठोस और सत्य फलितार्थ प्रस्तुत कर सकती है तो हम ईश्वर पर विश्वास करके क्या विश्व के रहस्यों का मूल्यांकन नहीं कर सकते? ऐसी एक विचारधारा ऋषि के अन्तरंग में उठी थी और उन्होंने प्रश्न करके सृष्टि के सब तत्वों को खोज डाला। परन्तु वेदों में सन्निहित ज्ञान वही विज्ञान है जिसको पाने के लिये आज पाश्चात्य वैज्ञानिक भारी असन्तुलन, यन्त्रीकरण हिंसा और असामाजिकता पैदा कर रहे हैं। फिर भी वस्तु स्थिति की खोज नहीं कर पा रहे हैं। सिद्धान्त बनते हैं। अगले वाला वैज्ञानिक उस सिद्धान्त में या तो संशोधन कर देता है या काटकर रख देता है। संशोधनकर्ता भी अपने आपको पूर्ण विश्वस्त नहीं मानता। उसे तब भी यह आशंका बनी रहती है कि कहीं उसी के रहते हुए ही उसका सिद्धान्त काट न दिया जाय। अनेक नोबुल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों के धुर्रे उड़ गये। तब यही मानना पड़ता है कि पाश्चात्य जगत् जिस विज्ञान पर ऐंठा हुआ बैठा है वह खेल खिलौना है। तथ्य उनमें कुछ भी नहीं है।
विशाल ब्रह्माण्ड के रहस्यों, पृथ्वी पर होने वाली पुनर्जन्म की घटनाओं, अति मानसिक शक्ति, बौद्धिक क्षमता, आत्मशक्ति के करतबों, दूरदर्शन, पूर्णानुभूतियों, स्वाभानुभूतियों, भविष्य के ज्ञान आदि के प्रति हमारे मस्तिष्क में रचनात्मक और उपयोगी दृष्टिकोण ईश्वर को मान लेने पर ही बनता है।
जब समस्त सृष्टि के निर्माण और विभिन्न परिस्थितियों में हो कर प्राणियों के विकास पर विचार करते हैं तो हमें ईश्वरीय योजना में कोई दोष लगाने का कारण प्रतीत नहीं होता। इस प्रकार का दोषारोपण दो ही प्रकार के व्यक्ति करते हैं। एक तो वे जो विद्या का अहंकार करने वाले हैं, जिन्होंने अभी वास्तविक ज्ञान के क्षेत्र में पदार्पण नहीं किया है और विश्व रचना और व्यवस्था जैसी विशाल समस्या पर सर्वांगपूर्ण तरीके से विचार कर सकना जिनके लिये असम्भव है।
ऐसे व्यक्तियों की भर्त्सना करते हुए ‘थियोसोफी समाज’ की स्थापनकर्ता मैडम ब्लैवटस्की ने बहुत जोरदार शब्दों में कहा है—
‘ईश्वर भी नहीं, जीव भी नहीं? कैसी विनाशकारी कल्पना है। (नो गॉड, नो सोल? ड्रैडफुल एनिहिलेशन)’ यह एक ऐसे उन्मत्त (नास्तिक) का प्रलाप है, जो अपनी दूषित कल्पना के आधार पर विश्व रचना की सामग्री की चिनगारियों की एक निरन्तर श्रृंखला तो देखता रहता है और उसका कर्ता किसी को नहीं मानता। वह कहता है कि वह सामग्री स्वयं ही प्रकट हुई है, स्वयं ही स्थित है, स्वयं ही विकसित होती है। वह कहता हे, यह समस्त सृष्टि चलती जा रही है पर इसका कोई स्रोत नहीं है। इसका कोई कारण भी नहीं है। इस प्रकार उसकी दृष्टि में यह ‘अनन्त-चक्र’ अन्धा, निष्क्रिय और अकारण है।’
ईश्वर तथा धर्म पर अविश्वास रखने वाले प्रायः यह प्रश्न उठाया करते हैं कि ‘जब ईश्वर दयालु और कल्याणकारी है तो संसार में पाप और दुःख की अधिकता क्यों? आस्तिक लोग स्वयं भी कहते हैं कि संसार में धर्मात्मा कम और धर्मविमुख ज्यादा हैं। ईमानदारों की अपेक्षा बे-ईमानों की संख्या अधिक है।’ऐसी स्थिति में इस बात पर कैसे विश्वास किया जाय कि एक महान् चैतन्य सत्ता इस सृष्टि की रचयिता और संचालक है? यदि वास्तव में इसकी रचना किसी बुद्धि-भंडार शक्ति द्वारा हुई होती तो संसार में सर्वत्र सुख, आनन्द और पुण्य-कर्मों का ही प्रसार देखने में आना चाहिये था।
वास्तव में यह एक टेढ़ा प्रश्न है और इसका उत्तर देने में बहुत से आस्तिक लड़खड़ा जाते हैं। जिन योरोपियन ईश्वरवादियों ने इस का उत्तर दिया है, उन्होंने कहीं-कहीं अपनी असमर्थता भी स्वीकार की है। ‘थीइज्म’ (आस्तिकवाद) के लेखक श्री फ्लिण्ट ने इसका उत्तर देते हुये कहा है, ‘यदि तुम पूछो कि ईश्वर ने सबको धर्मात्मा क्यों नहीं बनाया तो इसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर हो ही नहीं सकता और न उससे कुछ लाभ है। यदि तुम कहो कि ईश्वर ने मनुष्य को देवताओं की तरह क्यों नहीं बनाया तो तुम यह भी प्रश्न कर सकोगे कि उसने देवताओं से भी बहुत ऊंचे दर्जे के प्राणी क्यों नहीं बनाये। इस प्रकार ‘अनवस्था-दोष’ उत्पन्न होता है।’ फ्लिण्ट को इस प्रकार का समाधान इस कारण करना पड़ा है कि उनका ईश्वर पर विश्वास ईसाई धर्मानुकूल है, जिसका कहना है कि पहले ईश्वर ही अकेला था, वह एकमात्र अनादि है। उसी ने जीव और अन्य समस्त सांसारिक पदार्थों की रचना की है। इस प्रकार की मान्यता के विरुद्ध ही नास्तिकों द्वारा यह आक्षेप किया जाता है कि ईश्वर को ऐसी सृष्टि बनाने की क्या आवश्यकता थी, जिसमें सदैव पाप और वैमनस्य की वृद्धि होती रहे? पर भारतीय धर्म की मान्यता में ऐसी त्रुटियां नहीं हैं। उनके अनुसार ईश्वर जीवों को बनाता नहीं, वरन् उनका अस्तित्व स्वयमेव है और ईश्वर उनकी भलाई के लिये सृष्टि के पदार्थों की रचना करता है। पर उसने जीव को परतन्त्र अथवा दास की तरह नहीं बनाया है, जैसा अन्य कई धर्मों में विचार किया जाता है। हमारी मान्यता यह है कि ईश्वर जीवों की उन्नति के लिये तरह-तरह के साधन उपस्थित करता है। उनको सत्कर्मों के लिये प्रेरणा भी देता है, पर उसने कर्म करने में उनको स्वतन्त्र ही रखा है। पाप या पुण्य करना उनकी रुचि और मनोवृत्ति पर ही आधारित है। जब वे पुण्य कर्म करते हैं तो उसके बदले में वे शुभफल, सुख पाते हैं और जब पाप करने पर उतारू हो जाते हैं तब उनको दण्ड मिलता है। पर यह शुभ परिणाम और दण्ड भी स्वयं ईश्वर नहीं देता वरन् उसने ऐसी व्यवस्था बना दी हैं कि प्रकृति स्वयं ही यह कार्य पूरा कर लेती है। भारतीय धर्म के अधिकांश विचारकों ने प्रकृति को ईश्वर की सहचरी या अनुचरी माना है इसलिये वह जो कुछ करती है उसका कर्ता ईश्वर ही समझा जाता है।
जिस प्रकार का आक्षेप लोग पाप के विषय में करते हैं वैसा ही भाव दुःख के विषय में भी प्रकट करते हैं। वे कहते हैं कि जब ईश्वर सर्वशक्तिमान है और जीवों का भला भी चाहता है तो उसने ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं की कि संसार में दुःख का नाम ही नहीं रहता? इस शंका का उत्तर देते हुए आलफ्रेड रसल वालेस ने अपने ग्रन्थ ‘द वर्ल्ड आफ लाइफ’ (जीवन जगत) में लिखा है—
‘कुछ आलोचकों को संसार के दुःख देखकर प्रायः घृणा हो जाती है और वे कहने लगते हैं कि यह सृष्टि सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और दयालु सत्ता की बनाई नहीं हो सकती। पर इन लेखकों (अर्थात् आक्षेप करने वालों) और विकासवादियों ने कभी दुःख की जड़ तक पहुंचने का यत्न नहीं किया। उन्होंने यह नहीं सोचा कि दुःख या कष्ट विकास के लिये बड़ी आवश्यक वस्तु है। स्वयं डारविन ने इस नियम पर बड़ा बल दिया है कि कोई इन्द्रिय, शक्ति या वेदना किसी प्राणी में उस समय तक नहीं उत्पन्न होती, जब तक उसका उसकी जाति के लिये उपयोग न हो। इस नियम पर यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर प्रत्येक प्राणि-वर्ग में उतना ही दुख उत्पन्न करता है, जितने की उसके लिये आवश्यकता है।’
फ्लिन्ट महोदय ने अपनी ‘थीइज्म’ में इसका समाधान कुछ भिन्न शब्दों में किया है—
‘दुःख परिश्रम के लिये प्रेरणा करता है और परिश्रम द्वारा ही हमारा जीवन, हमारी शक्तियां नियमित और विकसित हो सकती हैं। इच्छा आवश्यकता का अनुभव कराती है और आवश्यकता का अनुभव ही दुःख माना जाता है। परन्तु यदि जीवों में इच्छायें न हों और इन इच्छाओं द्वारा उत्पन्न हुये प्रयत्न न हों तो फिर जीव रहेंगे ही क्या? क्या वह ऐसे ही सुन्दर और विशाल होंगे, जैसे अब हैं? यदि खरगोश को भय न हो तो क्या वह तीव्रगामी होगा, जैसा अब है? यदि शेर को भूख न लगे तो क्या वह उतना ही बलिष्ठ होगा, जितना कि अब है? यदि मनुष्य को समय-समय पर संघर्ष न करना पड़े तो क्या वह ऐसा प्रयत्नशील, ऐसा बुद्धिमान, ऐसा चतुर, शिक्षित होगा जैसा अब है? इस प्रकार आवश्यकता से उत्पन्न दुःख प्राणियों की प्रगति और पूर्णता का साधन है अर्थात् चाहे आरम्भ में यह बुरा जान पड़े पर इसका परिणाम अच्छा होता है। पूर्णता स्वयं भी एक महत्वपूर्ण वस्तु है और उससे हमें आनन्द न भी प्राप्त हो तो वह एक उच्चकोटि का साध्य (प्रयोजन) मानी जाएगी। इसलिये जो दुःख, इस प्रयोजन की पूर्ति करता है, उसे बुरा कैसे कह सकते हैं।
‘दूसरी बात यह भी है कि दुःख पूर्णता का ही साधन नहीं है वरन् वही सुख का साधन भी है। शायद प्राणियों के शरीर ही ऐसे बने हैं कि यदि वह दुःख का अनुभव न करते तो सुख का अनुभव भी नहीं कर पाते। चाहे यह बात बिलकुल ठीक हो या न हो परन्तु एक बात तो स्पष्ट ही है कि समस्त जीवन जगत् में वह ‘दुःख’ वास्तव में आनन्द का साधन होता है, जो प्राणियों को परिश्रम के लिये उत्तेजित करता है। दुःख की उपयोगिता छोटे प्राणियों में मिलती है। दुःख का महत्व जितना शारीरिक बातों में है उनसे कहीं अधिक मानसिक बातों में मिलता है। यह दुःख आत्मा को शुद्ध बनाने और शिक्षा देने में परम सहायक है। दुःख से हृदय की कठोरता कम हो जाती है, दुःख से अभिमान का दमन होता है, दुःख से साहस और धैर्य बढ़ता है, दुःख से सहानुभूति का आधिक्य होता है, दुःख से धर्म श्रद्धा होती है। ऐसी अवस्था में कोई भी संसार में दुःखों को देखकर के लिये उसके लिये परमात्मा को दोषी बनाने के बजाय धन्यवाद ही देगा।’
जो बात फ्लिण्ट ने आज कही है वह बात हमारे धर्म ग्रन्थ ‘महाभारत’ में हजारों वर्ष पूर्व कह दी गई थी। जब भगवान् कृष्ण ने वनवास के पश्चात् कुन्ती से अभिलाषित वर मांगने को कहा तो उसने अपनी भावना इस शब्दों में प्रकट की कि, ‘हे भगवन्! आप हमको दुःख की अवस्था में रखा करें, क्योंकि उस दशा में तो हमको आपका स्मरण और प्रेम बना रहता है, पर जब हम सुखों में पड़ जाते हैं तो आपको भूल जाते हैं।’ इस प्रकार संसार में सच्चा सुख ईश्वर और धर्म पर विश्वास रखते हुए पूर्ण परिश्रम के साथ अपना कर्तव्य पालन करने में ही है।
विश्वास एक उत्पादक शक्ति है जो सृष्टि के गहन अन्तराल से ज्ञान के हीरे-मोती खोज-खोज कर हमारे ज्ञान-बुद्धि और वर्चस्व को महान् बना देता है। वैज्ञानिक फलितार्थों से यह निश्चय हो चुका है कि ईश्वर एक प्रकार की पूर्ण शक्ति है और उस पूर्णता का कितना भी अंश निकाल लेने पर पूर्णता ही शेष रहती। बात कुछ अटपटी लगती है पर है सत्य। एक चुम्बक पत्थर को कागज में रखकर उसकी शक्ति का चार्ट तैयार कर लें। अब उस चुम्बक को लोहे से स्पर्श करायें। लोहा भी चुम्बक बन जाता है। चुम्बक को हटा कर फिर उसका चार्ट तैयार करें तो पता चलेगा कि उसके आवेश का काफी अंश लोहे में खिंच जाने के बाद भी उसकी मूल शक्ति में कोई अन्तर नहीं पड़ा। उसी प्रकार केवल विश्वास के आधार पर अपनी चेतना का विश्व चेतना के साथ सम्बन्ध जोड़कर हम उन शक्तियों को विकसित और व्यवस्थित कर सकते हैं जिन्हें ईश्वरीय वैभव के रूप में जाना जाता है और जिनसे हमारे जीवन का वास्तविक अर्थ फलित होता है।
अंकगणित में कुल दस अक्षर हैं। 1 से लेकर 9 तक पहुंचने के बाद वैज्ञानिकों ने देखा कि इस तरह कितनी ही संख्या कल्पित करते चलें तो उनका अंत नहीं हो सकता इसलिये उन्हीं 9 अंकों से आगे की संख्यायें बनाई गईं और पूर्णता के लिये एक ऐसी संख्या की कल्पना की गई जिससे संख्याओं की इकाई, दहाई या सैकड़े की किसी भी दौड़ को विश्राम दिया जा सके। उस संख्या का नाम है शून्य (जीरो)। इस शून्य पर अंकगणित और लम्बी-लम्बी गणनायें टिकी हुई हैं वह सत्य भी निकलती हैं पर शून्य अपने आप में क्या है, थोड़ा इस पर भी दृष्टि डालें। 3/4 का अर्थ है किसी वस्तु के चार टुकड़े किये जायें और उनसे 3 टुकड़े लिये जायें तो वह 3/4 कहलायेगा। दो भागों में 1 टुकड़ा लें वह 1/2 कहलायेगा। भिन्न-गणित इन टुकड़ों (पार्टीशन) पर ही आधारित है और उससे बड़े लम्बे प्रश्नों को सीमित करना सम्भव हो गया है। पर यदि किसी वस्तु के शून्य टुकड़े करें और उसमें से एक टुकड़ा लें तब 1/0 और एक बटा शून्य का क्या अर्थ—अनन्तता (इमाफिनिटी)। दो, चार, छह, दस किन्हीं संख्याओं के शून्य—टुकड़े करें उत्तर वही अनन्तता आता है जिसका कुछ भी अर्थ नहीं है। अनन्तता कोई संख्या ही नहीं है जब कि शून्य को एक संख्या माना गया है। उसे हटा दें तो तमाम गणित फेल हो जाये। किसी वस्तु के चार बराबर-बराबर भाग करें और उसमें से शून्य भाग लें तो उत्तर आयेगा शून्य (कुछ नहीं)। शून्य में शून्य घटाने का फलितार्थ शून्य और अनन्तता यह कोई बात नहीं हुई। पर उन्हें निकाला नहीं जा सकता क्योंकि उस पर सारा अंकगणित का आधार बना हुआ है। विश्व की सार्थकता को समझने के लिये वैसे ही हमें भी अनिवार्यतः एक बिन्दु की कल्पना करनी पड़ती है। उसे ईश्वर मानना पड़ता है यदि उसे मान लेते हैं तो निश्चित है कि समाज और देश, अनुशासित, व्यवस्थित और मैत्री पूर्वक रह सकते हैं।
ईश्वर के अस्तित्व को केवल विश्वास के आधार पर ही प्रमाणित किया गया नहीं मानना चाहिए। विश्वास की आवश्यकता तो इसलिए है कि उस सर्व समर्थ सत्ता के सम्पर्क सान्निध्य से लाभान्वित हुआ जा सके। अन्यथा ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के ढेरों आधार अपने आसपास के संसार में सदा सदैव देखे जा सकते हैं। सूक्ष्म दृष्टि से यदि चारों ओर बिखरे हुए संसार को देखा जाय तो ईश्वर के अस्तित्व को न मानने का कोई कारण नहीं दिखाई देगा। ईश्वर कौन है, कहां है, कैसा है, इन प्रश्नों का उत्तर वही पा सकता है, जो यह जानने का गहराई से प्रयास करे कि प्रश्नकर्त्ता कौन है, कहां हैं, क्यों है, कैसा है? क्योंकि ईश्वर तो चारों ओर विद्यमान है, प्रश्नकर्त्ता अपने भीतर-बाहर चारों ओर फैले संसार को जितना अधिक जानेगा, ईश्वर के उतना ही समीप पहुंचेगा।