Books - कुण्डलिनी महाशक्ति और उसकी संसिद्धि
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Language: HINDI
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चक्र संस्थान और उसकी सिद्धि सामर्थ्य
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आत्मविद्या के अन्वेषकों ने सूक्ष्म जगत् में भरे चेतन तत्वों की शोध बड़ी तत्परतापूर्वक प्राचीन काल में की थी। इस काया में ही उन्होंने जड़ जगत् का सारा प्रतिबिंब पाया। जो स्थूल संसार में है, वह सूक्ष्म रूप से मनुष्य की काया में भी विद्यमान है। इसलिए महंगे उपकरणों और साधनों द्वारा की जा सकने वाली प्रकृतिगत शोधों की अपेक्षा उनने यह अधिक उचित समझा कि काया को पृथ्वी की प्रतिक्रिया मानकर उसे खोजें और जो अन्वेषण प्रयोग अभीष्ट हो वे इस देह पर ही कर लें।
इन्हीं अन्वेषण प्रयोगों के दौरान योगियों-आत्मविद्या के जानकारों ने जो निष्कर्ष प्राप्त किये उनके अनुसार योगाभ्यास की अनेक प्रक्रियाओं में सबसे महत्वपूर्ण है कुण्डलिनी महाशक्ति इस महाशक्ति का स्वरूप समझने एवं उपयोग जानने पर पाया गया कि कुण्डलिनी का आधिपत्य मुख्य रूप से मानवी काया में ही अवस्थित दो केन्द्रों पर है। इन केन्द्रों की सामर्थ्य पृथ्वी के दो ध्रुवों—उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के समान है। कुण्डलिनी साधना को मानवी काया में स्थित इन दो ध्रुवों पर किया जाने वाला आधिपत्य का प्रयोग माना जा सकता है। इस साधना के छोटे, बड़े अनेक स्तर के प्रयोग एवं परिणाम हैं। सर्वसुलभ आरम्भिक प्रयोग भी इस साधना के हैं, उन्हें करने से भी सामान्य जीवन में तेजस्विता, प्रखरता एवं क्रियाशीलता भर सकते हैं। इस महाशक्ति की साधना के कठिन और उच्चस्तर के प्रयोग भी हैं, जो व्यक्ति की अन्तरंग सत्ता को इतनी व्यापक बना सकते हैं कि वह ब्रह्मांड की महान् सत्ताओं के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ सके। इस ब्रह्माण्ड में इतना कुछ भरा पड़ा है कि मनुष्य की कल्पना तक उस सब को जानने, समझने में समर्थ नहीं हो सकती। पर ब्रह्म के अतुल वैभव को छू सकने की क्षमता जिस व्यक्ति को उपलब्ध हो जाय, वह प्रकृति के समृद्ध भण्डार से अभीष्ट मात्रा में जो चाहे सो प्राप्त कर सकता है और उस महाकोष में अपना अनुदान देकर विश्व-व्यापी ब्रह्म चेतना को प्रभावित भी कर सकता है।
कुण्डलिनी का मध्यवर्ती जागरण मनुष्य शरीर में एक अद्भुत प्रकार की तड़ित विद्युत उत्पन्न कर देता है। हमें एक ऐसे सिद्ध पुरुष का परिचय है, जिसका शरीर भौतिक बिजली से हर घड़ी भरा—पूरा रहता है। उसे कोई स्पर्श नहीं कर सकता। छुए तो खुली बिजली जैसा झटका लगे। वे हमेशा आंखें नीचे रखते हैं। आंख मिलाकर किसी की तरफ देखें तो वह मूर्छित हो जाय। एक बार उन्होंने गौर से एक कांच को देखा और वह तत्काल टूटकर चूरा हो गया। यह शरीरगत विद्युत प्रवाह था। यह धारा जब मनःक्षेत्र में प्रवाहित होती है तो मनस्विता का बाराबार नहीं रहता। नारद के आगे बाल्मीक और बुद्ध के आगे अंगुलिमाल जैसे दुर्दान्त दस्युओं का पानी-पानी हो जाना इसी मनस्विता का चमत्कार था। योग साधना शरीर, मन और आत्मा के स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण कलेवरों में न जाने कितनी सामर्थ्य उत्पन्न कर सकती है। कहना न होगा कि कुण्डलिनी साधना योगाभ्यास की अति महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसे आरम्भिक स्तर पर करने से भी भौतिक जीवन प्रखर एवं प्रतिभा सम्पन्न बनाया जा सकता है। ऊंचे स्तर पर तो उस साधना की परिणति कितनी चमत्कारी हो सकती है, इसका उल्लेख कर सकना भी कठिन है।
शरीर मोटी दृष्टि से एक सजीव एवं चिन्तनशील मांस पिण्ड है। उसका क्रिया-कलाप पेट एवं प्रजनन पूर्ति की धुरी पर भ्रमण करता दीखता है; मन की लिप्सा, लोभ, मोह और अहंकार का खट्टा-मिट्ठा रसास्वादन करने के लिए मचलती रहती है। महत्वाकांक्षाओं में उछलता हुआ और निराशाओं से सिसकता जीवधारी ज्यों-त्यों करके मौत के दिन पूरे करता है और कठिनाई से भार-भूत जिन्दगी की लाश ढोता है। पदार्थ मिलते हैं और खिसक जाते हैं, व्यक्ति जुड़ते हैं और बिछुड़ जाते हैं। आशाओं और निराशाओं का—उपलब्धियों और असफलताओं का चक्र ऐसा है जिसका न आदि है न अन्त। जीवधारी इसी कुम्हार के चाक पर गीली मिट्टी की तरह घूमता है और इसी चक्की के पाटों में पिसकर अपने अस्तित्व को गंवाता, बदलता चला जाता है। उत्पन्न होने, बढ़ने और बदलने की काल गति का ही एक घटक मनुष्य भी है। अन्यथा पदार्थों की तरह उसकी भी उठक-पटक होती रहती है।
शरीर का रासायनिक विश्लेषण अति तुच्छ और नगण्य है। उसमें प्रयुक्त हुए पदार्थों का बाजारू मूल्य सामान्य पशु-पक्षियों से भी कम है। मनुष्य शरीर के रक्त, मांस, अस्थि, चर्म को बाजार में बेचा जाय तब एक जीवित मुर्गे से भी कम दाम का बैठेगा। फिर भी मनुष्य की अपनी स्थिति है और अपनी गरिमा। यह उसकी चेतना का मूल्य है। यह चित् शक्ति—दृश्यमान शरीर में स्फूर्ति, बलिष्ठता एवं सुन्दरता के रूप में परिलक्षित होती है। सूक्ष्म शरीर उसे ज्ञान-गरिमा, बौद्धिक-प्रखरता एवं साहसिक मनस्विता के रूप में देखा जा सकता है। अन्तिम सूक्ष्म—कारण शरीर में इसी चेतना में आस्था, आकांक्षा, स्नेह, सेवा, उदारता, करुणा जैसी दिव्य विभूतियों का निवास रहता है।
इन तीनों शरीरों में जो चेतनात्मक ऊर्जा—चित् शक्ति काम करती है, उसे अन्तरिक्ष व्यापी ताप, शब्द, विद्युत, ईथर आदि के प्रचण्ड शक्ति कम्पनों से भी अधिक क्षमता सम्पन्न माना जा सकता है। जड़ और चेतन के बीच जितना अनुपातिक अन्तर है, उतना ही विज्ञान परिचित भौतिक सामर्थ्यों और योगियों की जानी मानी आत्मिक क्षमता में। लेसर, मृत्युकिरण, अणु ऊर्जा आदि के सम्बन्ध में रोमांचकारी चर्चाएं सुनने को मिलती रहती हैं। आत्मिक शक्ति की सृजनात्मक शक्ति के बारे में उतनी ही गम्भीरतापूर्वक समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि उसका मूल्यांकन अनिर्वचनीय है।
शरीर का एक नगण्य-सा घटक शुक्राणु एक नया मनुष्य रच सकता है। अणु की सौर-मण्डल से तुलना की जाती है। पिण्ड को—व्यक्ति को ब्रह्माण्ड का प्रतीक प्रतिनिधि कहा गया है। यह तथ्य भी है और सत्य भी। ऐसी दशा में मानवी सत्ता की तुलना उस चिनगारी से की जा सकती है जिसमें दावानल बनकर समस्त संसार को अपनी चपेट में ले सकने की क्षमता बीज रूप से विद्यमान है। अवसर मिले तो वह बीज विशाल वृक्ष की तरह सुविकसित हो सकता है और चिरकाल तक अपने जैसे असंख्यों बीज उत्पन्न करता रह सकता है।
ब्राह्मी शक्ति के उभय-पक्षीय प्रयोग हैं। उसके परिष्कृत होने पर मनुष्य महात्मा, देवात्मा और परमात्मा के स्तर पर पहुंच सकता है और इन तीनों समुन्नत चेतना वर्गों में जो दिव्य-विभूतियां पाई जाती हैं, उनसे सुसम्पन्न बन सकता है। इसी शक्ति को यदि भौतिक प्रगति की दिशा में लगा दिया जाय तो व्यक्ति प्रखर प्रतिभावान बन सकता है, उन्नति के उच्चशिखर पर पहुंच सकता है और असम्भव दीखने वाले कार्यों को सम्भव बनाता हुआ पग-पग पर विजय श्री वरण कर सकता है। ओजस्वी, मनस्वी और तेजस्वी व्यक्तियों की गुण गरिमा से इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ आलोकित हो रहे हैं। ऐसे महामानवों की यश-गाथाएं उन्हें मिले साधनों एवं अवसरों के कारण नहीं, वरन् उनके अन्तरंग में उभरी हुई चित्-शक्ति के ऊपर ही आधारित रही हैं।
चित्-शक्ति को विकसित करने का विज्ञान ही योग एवं तप की संयुक्त प्रक्रिया बनकर विकसित हुआ है। स्थूल शरीर के अन्तराल में जो दो सूक्ष्म शरीर हैं उनकी मूर्छना जगाकर चेतना उत्पन्न कर देना—माया-मलीनता से छुड़ाकर दिव्य परिष्कृत बना देना—यही है साधना का उद्देश्य। समझा जाता है कि भक्तजनों अथवा योगी, तपस्वियों को कई तरह की जो ऋद्धि-सिद्धियां मिलती हैं, वे किसी देव-दानव के अनुदान, अनुग्रह का प्रतिफल हैं। पर वास्तविकता यह है कि जो कुछ अद्भुत, असाधारण, अतीन्द्रिय कहा जाता है वह भीतर से ही उभरता है। आत्म-परिष्कार का ही दूसरा नाम ईश्वर साक्षात्कार है, यह तथ्य यदि समझा जा सके तो हम सत्य को समझने वाले कहे जा सकेंगे।
आत्म-साधना के अनेक प्रयोग हैं। अनेकानेक परम्पराओं में अगणित विधि-विधान बताये गये हैं। भारतीय साधना विज्ञान के अन्तर्गत 84 योग प्रधान हैं। उनकी शाखा-उपशाखाएं बढ़ते-बढ़ते हजारों तक पहुंचती हैं। फिर संसार के अन्यान्य क्षेत्रों में प्रचलित साधनाओं की गणना करना और उनका लेखा-जोखा रखना तो और भी कठिन है। इन योग-साधनाओं में चक्रवेधन की एक प्रक्रिया ऐसी है जिसका महत्व संसार भर के सभी योगाभ्यासियों ने स्वीकार किया है। षट्चक्र वेधन के स्वरूपों और विधि-विधानों में थोड़ा अन्तर—मतभेद रहते हुए भी उनके अस्तित्व और प्रभाव को सर्वत्र स्वीकारा गया है। कुण्डलिनी शक्ति जागरण की चर्चा साधना क्षेत्र में बहुधा होती रहती है। यह चक्र वेधन में मिलने वाली सफलता की अन्तिम परिणति है।
शरीर के नाड़ी संस्थान में—ज्ञान तन्तुओं में दौड़ने वाली विद्युत शक्ति से सभी परिचित हैं। टेलीफोन के तार तभी काम करते हैं जब उनके साथ बिजली का सम्बन्ध हो। इन्द्रियों के माध्यम से मिलने वाली ज्ञान सम्वेदनाएं—मस्तिष्क में उठने वाली विचार एवं भाव तरंगें इसी विद्युत शक्ति का चमत्कार हैं। शरीर में विद्युत चुम्बकत्व से भरे आंधी-तूफानों की परतें उठती रहती हैं और उनसे कई प्रकार के ‘मूड’ बनते, बिगड़ते हैं। जीवन की दिशा धारा इसी की प्रेरणा से विनिर्मित होती है। योगियों ने इस दिव्य चेतना प्रवाह के सम्बन्ध में बहुत कुछ जानने का प्रयास इसलिए किया है जिससे उसका सदुपयोग करके अधिक लाभ उठाना सम्भव हो सके।
चित्-शक्ति की शोध करते हुए पाया गया है कि मस्तिष्क के मध्य बिन्दु में अवस्थित सहस्रार चक्र पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव की तरह है और जननेन्द्रिय के मूल में—मूलाधार चक्र की स्थिति दक्षिणी ध्रुव जैसी है। ब्रह्माण्ड चेतना का व्यक्ति सत्ता के साथ सम्पर्क बनने और आदान-प्रदान होने के माध्यम यही दो शरीर केन्द्र हैं। इनमें सन्निहित शक्ति को ही जीवन संचार की धुरी कहा जा सकता है बुद्धि एवं श्रद्धा का केन्द्र ऊपर है और प्रफुल्लता एवं बलिष्ठता की धुरी नीचे है। जननेन्द्रिय मात्र काम-क्रीड़ा का आनन्द लेने एवं सन्तान उत्पन्न करने के काम ही नहीं आती उसके मूल में स्फूर्ति, कला, साहसिकता, प्रफुल्लता जैसी अगणित क्षमताएं भरी पड़ी हैं। इन्हें भौतिक प्रगति का आधार कहा जा सकता है। जिसकी यह शक्ति नष्ट हो जाय उसे क्लीव-नपुंसक कहकर चिढ़ाया जाता है। यहां यौनाचार की क्षमता का नहीं पौरुष का वर्णन है। मूलाधार चक्र को भौतिक शक्तियों का केन्द्र कहा गया है।
मस्तिष्क का सहस्रार केन्द्र ज्ञान, बुद्धि आदि आत्मिक सामर्थ्य का उद्गम है। प्रत्याहार धारणा, ध्यान, समाधि जैसी साधनाएं मस्तिष्कीय क्षेत्र में ही की जाती हैं। भौतिक शक्तियों के केन्द्र मूलाधार और आत्मिक शक्तियों के उद्गम सहस्रार के बीच एक कड़ी है, जिसे बोल-चाल की भाषा में मेरुदण्ड और अध्यात्म की परिभाषा में सुषुम्ना संस्थान कहते हैं। रीढ़ की हड्डी का क्या महत्व है? इसे शरीर-शास्त्र के विद्यार्थी भली प्रकार जानते हैं। इसके अन्तराल में प्रवाहित होने वाले विद्युत प्रवाह के साथ उच्चस्तरीय विभूतियां जुड़ी हुई हैं इसे तत्वदर्शी आत्मवेत्ता भली प्रकार जानते हैं। इस संस्थान में प्रचण्ड वेगवान विद्युत धाराएं बहती हैं। इसके दो स्वरूप हैं—एक ऋण, दूसरी धन—एक नेगेटिव दूसरी पॉजिटिव। ऋण को इड़ा और धन को पिंगला कहते हैं। दोनों जब भी परस्पर मिलती हैं तो शक्ति धारा का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, इस मिलन प्रक्रिया को सुषुम्ना कहते हैं। इन्हें नाड़ियां भी कहा जाता है, पर यह शब्द प्रयोग से किसी को ‘नस’ का अर्थ नहीं लेना चाहिए। नाड़ी शब्द का एक अर्थ ‘नस’ भी होता है, पर यहां उस प्रकार की कोई बात नहीं है। यहां दो विद्युत धाराओं का संकेत है। मेरुदण्ड को चीर कर उसमें इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नाम की कोई उस तरह की नसें नहीं देखी जा सकतीं जैसा कि योग-शास्त्र में उनका विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है। संक्षेप में मस्तिष्क और जननेंद्रिय और मस्तिष्क रूपी दो अति महान् शक्ति केन्द्रों के बीच निरंतर दौड़ने वाले विद्युत प्रवाह को इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की संयुक्त प्रक्रिया कह सकते हैं। अलंकार रूप में इसी को गंगा, यमुना और सरस्वती के मिलन से बनने वाली त्रिवेणी की उपमा दी गई है।
तीव्र प्रवाह की नदियों में प्रायः ‘भंवर’ पड़ते रहते हैं। जब हवा तेज और गरम होती है तो ग्रीष्म ऋतु में चक्रवात उठते हैं। पानी में भंवर और हवा में चक्रवात की तरह सुषुम्ना संस्थान में प्रवाहित रहने वाली ‘चित्-शक्ति’ को अति प्रचण्ड प्रवाह मात्र विद्युत-धारा माना गया है। उसमें भी भंवर पड़ते हैं। उन्हें शक्ति चक्र कहते हैं। योग-शस्त्र में इनकी गणना छह है।
पौराणिक उपाख्यान में पुरुषार्थ का प्रतीक और शक्ति का पुत्र—कार्तिकेय स्कन्द को माना गया है। यह यों शक्ति पार्वती के पुत्र हैं, पर शिवपुराण के अनुसार उन्हें छह कृतिकाओं ने पाला। अग्नि ने उन्हें गर्भ में धारण किया। शिव का रेतस् अग्नि के रूप में ही स्फुरित हुआ और उसे वैश्वानर ने नारी के रूप में गृहण करके अपने भीतर ही परिपक्व किया। अगणित व्यवधानों के प्रतीक यातुधानों ने देव जीवन को दुर्लभ बना रखा था उसका निराकरण इन कार्तिकेय स्कन्द द्वारा ही सम्पन्न हुआ। इन शक्ति पुत्र के छह मुख थे।
इस स्कन्द अवतरण को कुण्डलिनी महाशक्ति से सम्बन्धित षट्चक्र समूह और उसके प्रभाव का वर्णन ही समझना चाहिए। जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित आधार अग्नि का नाम ही कुण्डलिनी है। शिव रूप सहस्रार के जागृत—प्रफुल्लित होने पर उसका जो पराग मकरन्द निर्झरित हुआ उसे शिव ‘रेतस्’ कहना चाहिए। कुण्डलिनी आधार अग्नि ने उसे गृहण किया। छह कृतिकाओं ने उसे परिपक्व किया। यह छह कृतिकायें—छह चक्र ही हैं। शिव और शक्ति का यह समन्वय-संयोग स्कन्द रूपी महापराक्रम के रूप में प्रकट होता है। इसके छह मुख थे। छह कृतिकाओं द्वारा परिपोषित छह मुख वाले कार्तिकेय को अलंकार के रूप में षट्चक्रों का प्रभाव परिणाम ही माना जाय।
मूलाधार के ऊपर मेरुदण्ड के सहारे क्रमशः ऊपर उठते हुये 6 चक्र हैं, यह ब्रह्मरन्ध्र से जुड़े हुये शक्ति सामर्थ्यों के विशिष्ट पावर-हाउस, या माइक्रोवेव स्टेशन कहे जा सकते हैं। नाभि की सीध में मूलाधार से ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र नाभि और हृदय के मध्य मणिपूर हृदय स्थित अनाहत कण्ठ में विशुद्ध तथा भ्रूमध्य में आज्ञाचक्र, ब्रह्मरन्ध्र में अवस्थित सहस्रार को गिनें तो इनकी संख्या सात हो जाती है। इन स्थानों का परिचय वहां उपस्थित देव शक्तियों, वाहन, वर्ण, अक्षर तत्व आदि के माध्यम से दिया जाता है। ताकि साधक जब उनका वेधन करें तो उसे यात्रा की तरह यह जानकारी बनी रहे कि उसकी स्थिति और प्रगति कहां तक हुई।
षट्चक्र क्या हैं? कहां हैं? क्यों हैं? किस स्थिति में हैं? उनका क्या प्रयोजन है? इन प्रश्नों की यहां प्रारम्भिक जानकारी ही प्राप्त कर लेनी चाहिए। उनके प्रयोग उपयोग का शिक्षण भिन्न है और साधक की शारीरिक मानसिक स्थिति के अनुरूप उन्हें सिखाने का विधान है। जननेन्द्रिय के मूल में मेरुदण्ड का जहां अन्त होता है; उस बीच जितना पोला स्थान है उसे साधनात्मक भाषा में योनि कन्द कहते हैं। स्थूल शरीर शास्त्र के अनुसार वहां सुषुम्ना नाड़ी गुच्छक भर है पर सूक्ष्म शरीर रचना विज्ञान के अनुसार यहां एक विशेष अवयव है जिसे मूलाधार चक्र कहते हैं। इसके नीचे की पीठ कछुए जैसी है—इसे कूर्म कहते हैं। इसके ऊपर एक छोटा मेरुदण्ड है उसे सुमेरु कहते हैं। इसके चारों ओर साढ़े तीन फेरे लगाये हुए एक शक्ति सूत्र विद्यमान है। बस यही मूलाधार है। इसे सब मिलाकर एक कुण्ड गह्वर में अवस्थित—गेद—कन्द—की समता देकर समझाया जा सकता है। प्रथम चक्र यही है। कुण्डलिनी का मूल स्थान यही है। ईंधन न मिलने से जैसे अग्नि कुण्ड में आग तो बुझ सी जाती है पर वहां गर्मी बनी रहती है। यही स्थिति सामान्यतया सभी साधारण व्यक्तियों की होती है। प्रयत्न करने से प्राण रूपी ईंधन देने से यह प्रदीप्त होती है। उसकी लौ ऊपर उठती है।
षट्चक्र नाम से सभी परिचित है, वस्तुतः यह छह नहीं सात हैं। सातवां सहस्रार है। उसे सब का अधिपति मानकर गणना से बाहर रखा गया है। इस प्रकार यह सात शक्ति चक्र, सात लोकों के सात ऋषियों के; सप्त धातुओं के, सप्तद्वीपों के प्रतीक समझे जा सकते हैं।
चक्रों में अन्तर्हित शक्तियों और आकृतियों का उल्लेख साधना शास्त्र में अनेक स्थानों पर मिलता है। उनमें थोड़ा मतभेद तो है पर सामान्यतया उनकी संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार दी गई है—
(1) मूलाधार—तत्व पृथ्वी। रंग पीला। तन्मात्रा-गन्ध। ध्वनि—लं। भूलोक। स्थान मलमूत्र छिद्रों का मध्य।
(2) स्वाधिष्ठान-तत्व जल। रंग—सफेद। तन्मात्रा—रस। ध्वनि—वं। भुवा लोक। स्थान पेडू की सीध।
(3) मणिपुर—तत्व अग्नि। रंग लाल। ध्वनि—रं। लोक—स्वः। तन्मात्रा—रूप। स्थान—नाभि की सीध।
(4) अनाहत—तत्व वायु। रंग—धूम्र। ध्वनि—यं। तन्मात्रा—स्पर्श। लोक मह। स्थान हृदय की सीध
(5) विशुद्ध—तत्व आकाश। रंग—नील। तन्मात्रा—शब्द। लोक—जल। ध्वनि—इं। स्थान—कंठमूल की सीध।
(6) आज्ञाचक्र—लोक-तप। ध्वनि—ॐ। रंग—श्वेत। स्थान—भृकुटियों के मध्य।
(7) सहस्रार—लोक-सत्य। आकृति सहस्र दल कमल। रंग—स्वर्णिम। मस्तिष्क के मध्य में रैटिकुलर ऐक्टिवेटिंग सिस्टम से उसकी संगति बैठती है।
सात चक्रों में सन्निहित शक्ति स्रोतों की तुलना किन भौतिक संस्थानों से—सम्प्रदाओं से—चेतनाओं से की जा सकती है। इसका तुलनात्मक अलंकारिक उल्लेख साधना ग्रन्थों में इस प्रकार मिलता है—
महीस्थतीर्थे विमले जले मुदा ।मूलाम्बुजे स्नाति स मुक्तिभाग्भवेत् ।।—महायोग विज्ञान
पृथ्वी के समस्त तीर्थ मूलाधार चक्र में निवास करते हैं। उसमें जो स्नान करता है मुक्त हो जाता है।
स्वर्गस्थं यावता तीर्थं स्वाधिष्ठाने सुपङ्कजे ।मनो निधाय योगीन्द्रः स्नाति गङ्गाजले तथा ।।मणिपूरे देवतीर्थ पञ्चकुण्ड सरोवरम् ।तत्र श्रीकामना तीर्थं स्नाति यो मुक्तिमिच्छति ।।अनाहते सर्व तीर्थं सूर्यमण्डलमध्यगम् ।विभाय सर्वतीर्थाणि स्नाति यो मुक्तिमिच्छति ।।
—महायोग विज्ञान
स्वर्गस्थ तीर्थ स्वाधिष्ठान चक्र में विद्यमान है। यहां निवास करने वाली देव गंगा में योगी लोग स्नान करते हैं। मणिपूर चक्र देवतीर्थ है, उसमें पंच कुण्ड सरोवर है। वहां श्री कामतीर्थ है। अनाहत चक्र में सूर्य मण्डल में वर्तमान समस्त तीर्थों का निवास है। इनमें स्नान करने वाले उन पुण्य लोकों के अधिकारी होते हैं।
मूलाधारे तु भूर्लोको स्वाधिष्ठाने भुवस्ततः ।स्वर्लोको नाभिदेशे च हृदये तु महस्तथा ।।जनलोकं कण्ठदेशे तपोलोकं ललाटके ।सत्यलोकं महारन्ध्रे यति लोयाः पृथक् पृथक् ।।तलम्पादाङ्गष्ठतले तस्योपरि तलातलम् ।महातलं गुल्फमध्ये गुल्फोपरि रसातलम् ।।सुतलं जङ्घयोर्मध्ये वितलं जानुमध्यगम् ।ऊर्वोर्मध्ये तलम्प्रोक्तं सप्तपातालमीरितम् ।।—महायोग विज्ञान
मूलाधार चक्र में भूलोक स्वाधिष्ठान में भुवलोक, नाभि में महलोक, कण्ठ में जनलोक, ललाट में तपलोक और ब्रह्मरन्ध्र में सत्यलोक है। इस प्रकार नीचे के भाग में सात पाताल लोक है। पैरों के तले में तललोक पांव के ऊपर भाग में तलातल लोक, गुल्फ के बीच महातल, गुल्फ के ऊपर रसातल, जंघाओं के मध्य वितल, उरुओं के मध्य पाताल है इस प्रकार कटि से ऊपर सात और नीचे सात कुल चौदह भुवन इसी शरीर में विद्यमान हैं जो इस तथ्य को जानता है; दुःखों से छूटकर परम सुखी हो जाता है।
देहेऽस्मिन् वर्त्ततो मेरुः सप्तद्वीपसमन्वितः ।सरितः सागराः शैलाः क्षेत्राणि क्षेत्रपालकाः ।।ऋषयो मुनयः सर्वे नक्षत्राणि ग्रहास्तथा ।पुण्यतीर्थानि पीठानि वर्त्तन्ते पीठदेवताः ।।सृष्टिसंहारकर्त्तारौ भ्रमन्तौ शशिभास्करौ ।नभो वायुश्व वन्हिश्च जल पृथ्वी तथैव च ।।त्रैलोक्ये यानि भूतानि तानि सर्व्वाणि देहतः ।मेरुं संबेद्वय सर्व्वत्र व्यवहारः प्रवर्त्तते ।।जानाति यः सर्वमिदं स योगी नात्र संशयः ।
—महायोग विज्ञान
इसी शरीर में सुमेरु सातों द्वीप, समस्त नदियां, सागर, पर्वत, क्षेत्र; क्षेत्रपाल, ऋषि-मुनि, नक्षत्र, ग्रह, तीर्थ, पीठ, पीठ देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य; चन्द्रमा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, समस्त प्राणी, जो कुछ संसार में हैं सो सब इस सुमेरु (कुण्डलिनी स्थिति मेरु अथवा मेरु दण्ड) से लिपटे बैठे हैं और अपने-अपने कार्य कर रहे हैं। जो इस सबको जानता है वही योगी है।
उपरोक्त प्रतिपादन से स्पष्ट होता है कि यह शरीर मात्र सप्त धातुओं का ही बना नहीं है। उसमें (1) रस (2) रक्त (3) मांस (4) मज्जा (5) अस्थि (6) मेद (7) वीर्य ही नहीं वरन् उनके भीतर और भी दिव्य तत्व हैं। यह सातों धातुयें सात चक्रों से प्रभावित होती हैं और हमारा शरीर अविज्ञात रूप से उन्हीं के द्वारा स्वस्थ अस्वस्थ होता रहता है। आहार व्यायाम ही नहीं अन्तरंग की गुह्य स्थिति जो चक्रों से सम्बन्धित है यदि ठीक प्रकार संचारित होती रहे तो आरोग्य और दीर्घ जीवन की सम्भावनायें प्रखर हो सकती हैं। गुह्य स्थिति अस्त व्यस्त रहे तो पौष्टिक आहार और बहुत साज संभाल रखने पर भी शरीर दुर्बल एवं अस्वस्थ ही बना रहेगा। यही बात मनःसंस्थान की है। चेतना के विभिन्न स्तर इन चक्रों से प्रभावित होते हैं और चेतन अचेतन मस्तिष्क के अवसाद को चेतना के उत्कर्ष में परिणत किया जा सकता है। ऋद्धियों सिद्धियों का जो चमत्कारी वर्णन साधना ग्रन्थों में मिलता है। उतना ही नहीं वरन् उससे भी अधिक उपलब्धियां अपने भीतर भरे शक्ति भण्डार के साधना विज्ञान के आधार पर अभीष्ट प्रयोजनों के लिए उपयोग कर सकने योग्य बनाया जा सकता है।
जीवन एक यज्ञ है। मात्र हवन कुण्डों में सम्पन्न होने वाले अग्निहोत्र ही यज्ञ नहीं है। शरीर पिण्ड और विराट् ब्रह्माण्ड में उनके स्तर के अनुरूप छोटे और बड़े रूप से यह सूक्ष्म यज्ञ चलता रहता है। चक्रों को सात कुण्ड कहा जा सकता है उनमें सात अग्नियों की स्थापना सात ऋषियों का पुरोहित, सात देवताओं का आह्वान, सात चरु, सात परिणाम भी यह साधना यज्ञ के होते हैं इसे कुण्डलिनी विद्या के अन्तर्गत चक्र जागरण की प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न किया जाता है—
सप्त प्राणाः प्रमवन्ति तस्मात्सप्तार्चिषः समिधः सप्त हामाः ।सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा ।गुहाशया निहिताः सप्त सप्त ।।8।।—मुण्डक 2।1।8
सप्त प्राणी उसी से उत्पन्न हुए। अग्नि की सात ज्वालाएं सप्त समिधाएं, सात यज्ञ, सात लोक, यह सातों उस परमेश्वर से उत्पन्न हुए।
भूर्लोकस्था त्वमेवासि धरित्री शौकधारिणी ।भुवो लोके वायुशक्तिः स्वर्लोके तेजसां निधिः ।12।महर्लोके महासिद्धिर्जनलोके जनेत्यपि ।तपस्विनी तपोलोके सत्यलोके तु सत्यवाक् ।13।—देवी भागवत
सात लोकों में आप सात शक्ति होकर विद्यमान हैं और उनका संचालन करती हैं।
(1) भूलोक में—धरित्री, (2) भुवलोक में—वायु, (3) स्वःलोक में—तेज पुंज, (4) महः लोक में—महासिद्धि, (5) जनः लोक में—जनन शक्ति, (6) तपः लोक में—तपस्विनी, (7) सत्य लोक में—सत्य वाक्।
सात चक्रों की भांति शरीर में अन्यत्र भी कितनेक शक्ति स्रोत हैं। इन्हें ग्रन्थि उपत्यिका आदि कहते हैं। मस्तिष्क में विष्णु ग्रन्थि, हृदय में ब्रह्म ग्रन्थि और नाभि में रुद्र ग्रन्थि का स्थान है। यहां भी थोड़ा मतभेद है। हृदय स्थान में विष्णु ग्रन्थि और मस्तिष्क में ब्रह्म ग्रन्थि भी कही गई है। हमें इन नाम भेदों में भी नहीं उलझना चाहिए और समझना चाहिए कि न केवल मेरुदण्ड में वरन् मस्तिष्क हृदय एवं नाभि में ऐसे ही महत्वपूर्ण शक्ति चक्र हैं और उनका वेधन करने का विधान ‘ग्रन्थि भेद’ के नाम से वर्णित है। यहां एक बात और ध्यान रखने की है—वेध शब्द का सामान्य अर्थ ‘छेद’ कर देना होता है। पर अध्यात्म की परिभाषा में उसे ‘जागरण’ अर्थ में प्रयोग किया गया है।
शरीर के पृष्ठ भाग के—सुषुम्ना संस्थान के षट्चक्रों की तरह काया के अग्र भाग में भी छह चक्र अवस्थिति हैं, उन्हें सूर्य-चक्र, अग्नि-चक्र, अमृत-चक्र, प्रभंजन-चक्र, तड़ित-चक्र, सोमचक्र कहा गया है।
पर्वतों में भरा जल जब एकत्रित होकर किसी स्थान विशेष से फूटता है तो उसे झरना कहते हैं। झरनों के उद्गम स्थान पर जलधारा कितनी प्रचण्ड होती है। ऊपर से नीचे गिरने पर वहां कितना कोलाहल होता है और कितनी उथल-पुथल मचती है, उसे सभी जानते हैं। चक्र संस्थानों को भंवर, चक्रवात की ही तरह एक उपमा झरना फटने की भी दी जा सकती है। ज्वालामुखी के छेद अक्सर अग्नि, धुआं या दूसरी चीजें उगलते रहते हैं। चक्रों से भी उसी प्रकार का प्रकटीकरण होता रहता है। समुद्री लहरों से असीम विद्युत शक्ति उपलब्ध करने की तैयारियां हो रही हैं। चक्र संस्थानों में उबलती शक्ति का उपयोग कर सकना जिनके लिए सम्भव होता है वे उसका ऐसा लाभ उठा सकते हैं जिसे देव क्षमता कहकर सम्बोधित किया जा सके।
हारमोन ग्रन्थियों के सम्बन्ध में खोज करने वाले शरीर शास्त्री आश्चर्य चकित हैं कि इन नन्हीं-सी ग्रन्थियों से निकलने वाले रस मात्रा में कुछ ही बूंद होते हैं, पर शारीरिक और मानसिक स्थिति को कितना अधिक प्रभावित करते हैं। अण्डकोश, गुर्दे, जिगर, तिल्ली, पौरुष ग्रन्थियां आदि को बड़ी ग्रन्थियां ही कह सकते हैं। उनका क्रिया-कलाप स्थूल होने से सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। हारमोन ग्रन्थियों का रहस्योद्घाटन इससे बहुत कठिन है और बहुत माथा-पच्ची करने के बाद भी ठीक तरह पकड़ में नहीं आ रहा है। सूक्ष्म ग्रन्थियां जिन्हें चक्र कहते हैं, इन्द्रियों एवं उपकरणों की पहुंच से बाहर है। उन्हें जागृत अन्तर्दृष्टि से ही देखा, समझा एवं प्रयोग में लाया जा सकता है। सूक्ष्म विज्ञान के आधार पर ही उनका अनुभव एवं उपयोग सम्भव होता है।
हठयोग साधना के अन्तर्गत आने वाले मेरुदण्ड को सुषुम्ना संस्थान में अवस्थित छह चक्रों के नाम हैं—
(1) मूलाधार चक्र (2) स्वाधिष्ठान चक्र (3) मणिपूर चक्र (4) अनाहत चक्र (5) विशुद्ध चक्र (6) आज्ञा चक्र।
इनमें शरीर शास्त्रियों ने चार को नाड़ी गुच्छकों के रूप में मान्यता दें दी है। मूलाधार चक्र को—पौल्विक प्लैक्सस। मणिपूर चक्र को—सोलर प्लैक्सस। अनाहत चक्र को—कार्डियल प्लैक्सस और विशुद्ध चक्र को—फैरिजियल प्लैक्सस नाम से निश्चित कर दिया गया है। शेष दो के बारे में प्राचीन व्याख्या एवं नवीन वास्तविकता में थोड़ा अन्तर एवं मत-भेद है। आशा की जानी चाहिए कि वह गुत्थी भी निकट भविष्य में सुलझ ही जायगी।
चक्र संस्थान के जागरण के फलस्वरूप मिलने वाली षट् सम्पत्तियों का वर्णन मिलता है। इन्हें आध्यात्मिक उपलब्धियां भी कह सकते हैं।
षट् सम्पत्ति यह है—
(1) शम (2) दम (3) उपरति (4) तितीक्षा (5) श्रद्धा (6) समाधान।
शम—अर्थात् शान्ति उद्वेगों का शमन। दम-इन्द्रियों का दमन करने की क्षमता। उपरति—दुष्टता से घृणा। तितीक्षा—कष्टों का धैर्यपूर्वक सहना। श्रद्धा—सन्मार्ग में प्रगाढ़ निष्ठा, विश्वास और भावना का समन्वय। समाधान—संशयों और लालसाओं से छुटकारा।
यह गुण, कर्म, स्वभाव की विशेषताएं हैं। उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व से मनुष्य ऊंचा उठता है और ब्रह्म परायण व्यक्तियों को मिलने वाले आन्तरिक सन्तोष, उल्लास और बाह्य सम्मान, सहयोग का अधिकारी बनता है।
इसके अतिरिक्त आत्मिक प्रगति के भौतिक लाभ भी कितने ही हैं। जिन्हें सिद्धियों के नाम से पुकारा गया है। आत्मिक सफलताओं के सम्पत्ति एवं विभूति दो नाम हैं। भौतिक प्रगति को समृद्धि एवं सिद्धि के नाम से सम्बोधित किया जाता है। दोनों के सम्मिलित परिणाम को अतीन्द्रिय क्षमता विकास के रूप में देखा जा सकता है।
श्री आद्य शंकराचार्य ने आठ सिद्धियां यह गिनाई हैं—(1) जन्म सिद्धि (2) शब्द ज्ञान सिद्धि (3) शास्त्रज्ञान सिद्धि (4) आधिदैविक ताप सहन शक्ति (5) आध्यात्मिक ताप सहन शक्ति (6) आधिभौतिक ताप सहन शक्ति (7) विज्ञान सिद्धि (8) विद्या शक्ति।
जन्म सिद्धि का अर्थ है पूर्व जन्मों की स्थिति का आभास पूर्व जन्मों के सम्बन्धियों के प्रति सहज आकर्षण और उनके साथ अपने पूर्व सम्बन्धों की जानकारी।
शब्द सिद्धि का अर्थ है—शब्दों के साथ जुड़ी हुई भावना का आभास। शब्दों की शक्ति बड़ी सीमित है और उससे कुछ का कुछ—उलटा-सीधा—अप्रासंगिक अर्थ भी निकल सकता है। कहने वाले की भावना का सही अनुमान वही लगा सकता है जिसका अन्तःकरण पवित्र हो।
शास्त्र सिद्धि का तात्पर्य है—शास्त्रकार की मूल भावना को समझना और यह जानना कि यह प्रतिपादन किस देश, काल, पात्र को ध्यान में रखकर किया गया है। कोई सिद्धान्त या प्रतिपादन सार्वभौम या सर्वकालीन नहीं होता। यह शास्त्र वचन किस प्रकार प्रयुक्त करना चाहिए, यह सूक्ष्म ज्ञान होना ही शब्द की सिद्धि है।
आधिदैविक ताप सहन शक्ति का अर्थ है—दैवी प्रकोप अथवा प्रारब्ध जन्म योग के कारण, आकस्मिक अनायास विपत्तियां उत्पन्न हो जाने, प्रियजनों के कारण विछोह आदि के अवसर उपस्थित हो जाने पर उन शोक सम्वेदनाओं का धैर्यपूर्वक सहन।
आध्यात्मिक ताप सहन शक्ति का तात्पर्य है—काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद-मत्सर, ईर्ष्या आदि उद्वेगों को नियन्त्रण में रखना। इन्द्रियों के अमर्यादित योग को छूट न देना, मन को उच्छृंखल न होने देना। इस अवरोध से भीतर जो असन्तोष उत्पन्न होता है उसको हंसते हुए टाल देना।
विज्ञान शक्ति का अर्थ है—शुद्ध अन्तःकरण, निर्मल चरित्र, सन्तुलित मन, सौम्य स्वभाव और हंस मुख प्रकृति, निरालस्यता स्फूर्तिवान और नियम-पालन की तत्परता, कर्त्तव्य-पालन में प्रगाढ़ निष्ठा, उदार व्यवहार में सन्तोष।
विद्या शक्ति अर्थात्—आत्मा के स्वरूप, उद्देश्य तथा कर्त्तव्य पर भावना और विश्वास भरी निष्ठा, ईश्वर पर विश्वास, आत्मा को सर्वव्यापी समझ कर सबको अपना ही समझना और आत्मीयता भरा व्यवहार करना, प्रेम भावनाओं का उभार, उद्वेग और आवेशों से निवृत्ति।
अतिवादी या अति उच्चस्तरीय अपवाद रूप में कहीं-कहीं, कभी-कभी सुनी, देखी जाने वाली सिद्धियों में
(1) अणिमा (2) महिमा (3) गरिमा (4) लघिमा (5) प्राप्ति (6) प्राकाम्य (7) ईशत्व (8) वशित्व का वर्णन मिलता है।
अणिमा अर्थात्—शरीर को अणु के समान सूक्ष्म बना लेना। महिमा अर्थात्—बहुत बड़ा कर लेना। गरिमा—बहुत भारीपन। लघिमा—बहुत हलकापन। प्राप्ति—दूरस्थ वस्तु की समीपता। प्राकाम्य—मनोरथों की पूर्ति। ईशत्व—स्वामित्व, अभीष्ट वस्तु व्यक्ति या परिस्थिति पर अधिकार। वशित्व—वशवर्ती बना लेना।
अष्ट सिद्धियों का दूसरा वर्णन एक और भी मिलता है—
(1) परकाया प्रवेश (2) जलादि में असंग (3) उत्क्रान्ति (4) ज्वलन (5) दिव्य श्रवण (6) आकाश गमन (7) प्रकाश आवरण क्षय (8) भूत जय।
इस प्रकार के चमत्कार इन दिनों देखे नहीं जाते। जो दीखते हैं उनमें छल की मात्रा ही प्रमुख होती है। ऐसी दशा में हमें अनुभव में न आने वाली सिद्धियों पर ध्यान देने की अपेक्षा इतना ही सोचना है कि चक्र वेधन जैसी योग-साधनाओं का आश्रय लेकर हम सहज ही अपनी आत्मिक और भौतिक सामर्थ्यों जगा सकते हैं और उस दिशा में मिलने वाली सफलता का इतना लाभ ले सकते हैं, जितना सामान्य पुरुषार्थ से सम्भव नहीं हो सकता।
इन्हीं अन्वेषण प्रयोगों के दौरान योगियों-आत्मविद्या के जानकारों ने जो निष्कर्ष प्राप्त किये उनके अनुसार योगाभ्यास की अनेक प्रक्रियाओं में सबसे महत्वपूर्ण है कुण्डलिनी महाशक्ति इस महाशक्ति का स्वरूप समझने एवं उपयोग जानने पर पाया गया कि कुण्डलिनी का आधिपत्य मुख्य रूप से मानवी काया में ही अवस्थित दो केन्द्रों पर है। इन केन्द्रों की सामर्थ्य पृथ्वी के दो ध्रुवों—उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के समान है। कुण्डलिनी साधना को मानवी काया में स्थित इन दो ध्रुवों पर किया जाने वाला आधिपत्य का प्रयोग माना जा सकता है। इस साधना के छोटे, बड़े अनेक स्तर के प्रयोग एवं परिणाम हैं। सर्वसुलभ आरम्भिक प्रयोग भी इस साधना के हैं, उन्हें करने से भी सामान्य जीवन में तेजस्विता, प्रखरता एवं क्रियाशीलता भर सकते हैं। इस महाशक्ति की साधना के कठिन और उच्चस्तर के प्रयोग भी हैं, जो व्यक्ति की अन्तरंग सत्ता को इतनी व्यापक बना सकते हैं कि वह ब्रह्मांड की महान् सत्ताओं के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ सके। इस ब्रह्माण्ड में इतना कुछ भरा पड़ा है कि मनुष्य की कल्पना तक उस सब को जानने, समझने में समर्थ नहीं हो सकती। पर ब्रह्म के अतुल वैभव को छू सकने की क्षमता जिस व्यक्ति को उपलब्ध हो जाय, वह प्रकृति के समृद्ध भण्डार से अभीष्ट मात्रा में जो चाहे सो प्राप्त कर सकता है और उस महाकोष में अपना अनुदान देकर विश्व-व्यापी ब्रह्म चेतना को प्रभावित भी कर सकता है।
कुण्डलिनी का मध्यवर्ती जागरण मनुष्य शरीर में एक अद्भुत प्रकार की तड़ित विद्युत उत्पन्न कर देता है। हमें एक ऐसे सिद्ध पुरुष का परिचय है, जिसका शरीर भौतिक बिजली से हर घड़ी भरा—पूरा रहता है। उसे कोई स्पर्श नहीं कर सकता। छुए तो खुली बिजली जैसा झटका लगे। वे हमेशा आंखें नीचे रखते हैं। आंख मिलाकर किसी की तरफ देखें तो वह मूर्छित हो जाय। एक बार उन्होंने गौर से एक कांच को देखा और वह तत्काल टूटकर चूरा हो गया। यह शरीरगत विद्युत प्रवाह था। यह धारा जब मनःक्षेत्र में प्रवाहित होती है तो मनस्विता का बाराबार नहीं रहता। नारद के आगे बाल्मीक और बुद्ध के आगे अंगुलिमाल जैसे दुर्दान्त दस्युओं का पानी-पानी हो जाना इसी मनस्विता का चमत्कार था। योग साधना शरीर, मन और आत्मा के स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण कलेवरों में न जाने कितनी सामर्थ्य उत्पन्न कर सकती है। कहना न होगा कि कुण्डलिनी साधना योगाभ्यास की अति महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसे आरम्भिक स्तर पर करने से भी भौतिक जीवन प्रखर एवं प्रतिभा सम्पन्न बनाया जा सकता है। ऊंचे स्तर पर तो उस साधना की परिणति कितनी चमत्कारी हो सकती है, इसका उल्लेख कर सकना भी कठिन है।
शरीर मोटी दृष्टि से एक सजीव एवं चिन्तनशील मांस पिण्ड है। उसका क्रिया-कलाप पेट एवं प्रजनन पूर्ति की धुरी पर भ्रमण करता दीखता है; मन की लिप्सा, लोभ, मोह और अहंकार का खट्टा-मिट्ठा रसास्वादन करने के लिए मचलती रहती है। महत्वाकांक्षाओं में उछलता हुआ और निराशाओं से सिसकता जीवधारी ज्यों-त्यों करके मौत के दिन पूरे करता है और कठिनाई से भार-भूत जिन्दगी की लाश ढोता है। पदार्थ मिलते हैं और खिसक जाते हैं, व्यक्ति जुड़ते हैं और बिछुड़ जाते हैं। आशाओं और निराशाओं का—उपलब्धियों और असफलताओं का चक्र ऐसा है जिसका न आदि है न अन्त। जीवधारी इसी कुम्हार के चाक पर गीली मिट्टी की तरह घूमता है और इसी चक्की के पाटों में पिसकर अपने अस्तित्व को गंवाता, बदलता चला जाता है। उत्पन्न होने, बढ़ने और बदलने की काल गति का ही एक घटक मनुष्य भी है। अन्यथा पदार्थों की तरह उसकी भी उठक-पटक होती रहती है।
शरीर का रासायनिक विश्लेषण अति तुच्छ और नगण्य है। उसमें प्रयुक्त हुए पदार्थों का बाजारू मूल्य सामान्य पशु-पक्षियों से भी कम है। मनुष्य शरीर के रक्त, मांस, अस्थि, चर्म को बाजार में बेचा जाय तब एक जीवित मुर्गे से भी कम दाम का बैठेगा। फिर भी मनुष्य की अपनी स्थिति है और अपनी गरिमा। यह उसकी चेतना का मूल्य है। यह चित् शक्ति—दृश्यमान शरीर में स्फूर्ति, बलिष्ठता एवं सुन्दरता के रूप में परिलक्षित होती है। सूक्ष्म शरीर उसे ज्ञान-गरिमा, बौद्धिक-प्रखरता एवं साहसिक मनस्विता के रूप में देखा जा सकता है। अन्तिम सूक्ष्म—कारण शरीर में इसी चेतना में आस्था, आकांक्षा, स्नेह, सेवा, उदारता, करुणा जैसी दिव्य विभूतियों का निवास रहता है।
इन तीनों शरीरों में जो चेतनात्मक ऊर्जा—चित् शक्ति काम करती है, उसे अन्तरिक्ष व्यापी ताप, शब्द, विद्युत, ईथर आदि के प्रचण्ड शक्ति कम्पनों से भी अधिक क्षमता सम्पन्न माना जा सकता है। जड़ और चेतन के बीच जितना अनुपातिक अन्तर है, उतना ही विज्ञान परिचित भौतिक सामर्थ्यों और योगियों की जानी मानी आत्मिक क्षमता में। लेसर, मृत्युकिरण, अणु ऊर्जा आदि के सम्बन्ध में रोमांचकारी चर्चाएं सुनने को मिलती रहती हैं। आत्मिक शक्ति की सृजनात्मक शक्ति के बारे में उतनी ही गम्भीरतापूर्वक समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि उसका मूल्यांकन अनिर्वचनीय है।
शरीर का एक नगण्य-सा घटक शुक्राणु एक नया मनुष्य रच सकता है। अणु की सौर-मण्डल से तुलना की जाती है। पिण्ड को—व्यक्ति को ब्रह्माण्ड का प्रतीक प्रतिनिधि कहा गया है। यह तथ्य भी है और सत्य भी। ऐसी दशा में मानवी सत्ता की तुलना उस चिनगारी से की जा सकती है जिसमें दावानल बनकर समस्त संसार को अपनी चपेट में ले सकने की क्षमता बीज रूप से विद्यमान है। अवसर मिले तो वह बीज विशाल वृक्ष की तरह सुविकसित हो सकता है और चिरकाल तक अपने जैसे असंख्यों बीज उत्पन्न करता रह सकता है।
ब्राह्मी शक्ति के उभय-पक्षीय प्रयोग हैं। उसके परिष्कृत होने पर मनुष्य महात्मा, देवात्मा और परमात्मा के स्तर पर पहुंच सकता है और इन तीनों समुन्नत चेतना वर्गों में जो दिव्य-विभूतियां पाई जाती हैं, उनसे सुसम्पन्न बन सकता है। इसी शक्ति को यदि भौतिक प्रगति की दिशा में लगा दिया जाय तो व्यक्ति प्रखर प्रतिभावान बन सकता है, उन्नति के उच्चशिखर पर पहुंच सकता है और असम्भव दीखने वाले कार्यों को सम्भव बनाता हुआ पग-पग पर विजय श्री वरण कर सकता है। ओजस्वी, मनस्वी और तेजस्वी व्यक्तियों की गुण गरिमा से इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ आलोकित हो रहे हैं। ऐसे महामानवों की यश-गाथाएं उन्हें मिले साधनों एवं अवसरों के कारण नहीं, वरन् उनके अन्तरंग में उभरी हुई चित्-शक्ति के ऊपर ही आधारित रही हैं।
चित्-शक्ति को विकसित करने का विज्ञान ही योग एवं तप की संयुक्त प्रक्रिया बनकर विकसित हुआ है। स्थूल शरीर के अन्तराल में जो दो सूक्ष्म शरीर हैं उनकी मूर्छना जगाकर चेतना उत्पन्न कर देना—माया-मलीनता से छुड़ाकर दिव्य परिष्कृत बना देना—यही है साधना का उद्देश्य। समझा जाता है कि भक्तजनों अथवा योगी, तपस्वियों को कई तरह की जो ऋद्धि-सिद्धियां मिलती हैं, वे किसी देव-दानव के अनुदान, अनुग्रह का प्रतिफल हैं। पर वास्तविकता यह है कि जो कुछ अद्भुत, असाधारण, अतीन्द्रिय कहा जाता है वह भीतर से ही उभरता है। आत्म-परिष्कार का ही दूसरा नाम ईश्वर साक्षात्कार है, यह तथ्य यदि समझा जा सके तो हम सत्य को समझने वाले कहे जा सकेंगे।
आत्म-साधना के अनेक प्रयोग हैं। अनेकानेक परम्पराओं में अगणित विधि-विधान बताये गये हैं। भारतीय साधना विज्ञान के अन्तर्गत 84 योग प्रधान हैं। उनकी शाखा-उपशाखाएं बढ़ते-बढ़ते हजारों तक पहुंचती हैं। फिर संसार के अन्यान्य क्षेत्रों में प्रचलित साधनाओं की गणना करना और उनका लेखा-जोखा रखना तो और भी कठिन है। इन योग-साधनाओं में चक्रवेधन की एक प्रक्रिया ऐसी है जिसका महत्व संसार भर के सभी योगाभ्यासियों ने स्वीकार किया है। षट्चक्र वेधन के स्वरूपों और विधि-विधानों में थोड़ा अन्तर—मतभेद रहते हुए भी उनके अस्तित्व और प्रभाव को सर्वत्र स्वीकारा गया है। कुण्डलिनी शक्ति जागरण की चर्चा साधना क्षेत्र में बहुधा होती रहती है। यह चक्र वेधन में मिलने वाली सफलता की अन्तिम परिणति है।
शरीर के नाड़ी संस्थान में—ज्ञान तन्तुओं में दौड़ने वाली विद्युत शक्ति से सभी परिचित हैं। टेलीफोन के तार तभी काम करते हैं जब उनके साथ बिजली का सम्बन्ध हो। इन्द्रियों के माध्यम से मिलने वाली ज्ञान सम्वेदनाएं—मस्तिष्क में उठने वाली विचार एवं भाव तरंगें इसी विद्युत शक्ति का चमत्कार हैं। शरीर में विद्युत चुम्बकत्व से भरे आंधी-तूफानों की परतें उठती रहती हैं और उनसे कई प्रकार के ‘मूड’ बनते, बिगड़ते हैं। जीवन की दिशा धारा इसी की प्रेरणा से विनिर्मित होती है। योगियों ने इस दिव्य चेतना प्रवाह के सम्बन्ध में बहुत कुछ जानने का प्रयास इसलिए किया है जिससे उसका सदुपयोग करके अधिक लाभ उठाना सम्भव हो सके।
चित्-शक्ति की शोध करते हुए पाया गया है कि मस्तिष्क के मध्य बिन्दु में अवस्थित सहस्रार चक्र पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव की तरह है और जननेन्द्रिय के मूल में—मूलाधार चक्र की स्थिति दक्षिणी ध्रुव जैसी है। ब्रह्माण्ड चेतना का व्यक्ति सत्ता के साथ सम्पर्क बनने और आदान-प्रदान होने के माध्यम यही दो शरीर केन्द्र हैं। इनमें सन्निहित शक्ति को ही जीवन संचार की धुरी कहा जा सकता है बुद्धि एवं श्रद्धा का केन्द्र ऊपर है और प्रफुल्लता एवं बलिष्ठता की धुरी नीचे है। जननेन्द्रिय मात्र काम-क्रीड़ा का आनन्द लेने एवं सन्तान उत्पन्न करने के काम ही नहीं आती उसके मूल में स्फूर्ति, कला, साहसिकता, प्रफुल्लता जैसी अगणित क्षमताएं भरी पड़ी हैं। इन्हें भौतिक प्रगति का आधार कहा जा सकता है। जिसकी यह शक्ति नष्ट हो जाय उसे क्लीव-नपुंसक कहकर चिढ़ाया जाता है। यहां यौनाचार की क्षमता का नहीं पौरुष का वर्णन है। मूलाधार चक्र को भौतिक शक्तियों का केन्द्र कहा गया है।
मस्तिष्क का सहस्रार केन्द्र ज्ञान, बुद्धि आदि आत्मिक सामर्थ्य का उद्गम है। प्रत्याहार धारणा, ध्यान, समाधि जैसी साधनाएं मस्तिष्कीय क्षेत्र में ही की जाती हैं। भौतिक शक्तियों के केन्द्र मूलाधार और आत्मिक शक्तियों के उद्गम सहस्रार के बीच एक कड़ी है, जिसे बोल-चाल की भाषा में मेरुदण्ड और अध्यात्म की परिभाषा में सुषुम्ना संस्थान कहते हैं। रीढ़ की हड्डी का क्या महत्व है? इसे शरीर-शास्त्र के विद्यार्थी भली प्रकार जानते हैं। इसके अन्तराल में प्रवाहित होने वाले विद्युत प्रवाह के साथ उच्चस्तरीय विभूतियां जुड़ी हुई हैं इसे तत्वदर्शी आत्मवेत्ता भली प्रकार जानते हैं। इस संस्थान में प्रचण्ड वेगवान विद्युत धाराएं बहती हैं। इसके दो स्वरूप हैं—एक ऋण, दूसरी धन—एक नेगेटिव दूसरी पॉजिटिव। ऋण को इड़ा और धन को पिंगला कहते हैं। दोनों जब भी परस्पर मिलती हैं तो शक्ति धारा का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, इस मिलन प्रक्रिया को सुषुम्ना कहते हैं। इन्हें नाड़ियां भी कहा जाता है, पर यह शब्द प्रयोग से किसी को ‘नस’ का अर्थ नहीं लेना चाहिए। नाड़ी शब्द का एक अर्थ ‘नस’ भी होता है, पर यहां उस प्रकार की कोई बात नहीं है। यहां दो विद्युत धाराओं का संकेत है। मेरुदण्ड को चीर कर उसमें इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नाम की कोई उस तरह की नसें नहीं देखी जा सकतीं जैसा कि योग-शास्त्र में उनका विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है। संक्षेप में मस्तिष्क और जननेंद्रिय और मस्तिष्क रूपी दो अति महान् शक्ति केन्द्रों के बीच निरंतर दौड़ने वाले विद्युत प्रवाह को इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की संयुक्त प्रक्रिया कह सकते हैं। अलंकार रूप में इसी को गंगा, यमुना और सरस्वती के मिलन से बनने वाली त्रिवेणी की उपमा दी गई है।
तीव्र प्रवाह की नदियों में प्रायः ‘भंवर’ पड़ते रहते हैं। जब हवा तेज और गरम होती है तो ग्रीष्म ऋतु में चक्रवात उठते हैं। पानी में भंवर और हवा में चक्रवात की तरह सुषुम्ना संस्थान में प्रवाहित रहने वाली ‘चित्-शक्ति’ को अति प्रचण्ड प्रवाह मात्र विद्युत-धारा माना गया है। उसमें भी भंवर पड़ते हैं। उन्हें शक्ति चक्र कहते हैं। योग-शस्त्र में इनकी गणना छह है।
पौराणिक उपाख्यान में पुरुषार्थ का प्रतीक और शक्ति का पुत्र—कार्तिकेय स्कन्द को माना गया है। यह यों शक्ति पार्वती के पुत्र हैं, पर शिवपुराण के अनुसार उन्हें छह कृतिकाओं ने पाला। अग्नि ने उन्हें गर्भ में धारण किया। शिव का रेतस् अग्नि के रूप में ही स्फुरित हुआ और उसे वैश्वानर ने नारी के रूप में गृहण करके अपने भीतर ही परिपक्व किया। अगणित व्यवधानों के प्रतीक यातुधानों ने देव जीवन को दुर्लभ बना रखा था उसका निराकरण इन कार्तिकेय स्कन्द द्वारा ही सम्पन्न हुआ। इन शक्ति पुत्र के छह मुख थे।
इस स्कन्द अवतरण को कुण्डलिनी महाशक्ति से सम्बन्धित षट्चक्र समूह और उसके प्रभाव का वर्णन ही समझना चाहिए। जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित आधार अग्नि का नाम ही कुण्डलिनी है। शिव रूप सहस्रार के जागृत—प्रफुल्लित होने पर उसका जो पराग मकरन्द निर्झरित हुआ उसे शिव ‘रेतस्’ कहना चाहिए। कुण्डलिनी आधार अग्नि ने उसे गृहण किया। छह कृतिकाओं ने उसे परिपक्व किया। यह छह कृतिकायें—छह चक्र ही हैं। शिव और शक्ति का यह समन्वय-संयोग स्कन्द रूपी महापराक्रम के रूप में प्रकट होता है। इसके छह मुख थे। छह कृतिकाओं द्वारा परिपोषित छह मुख वाले कार्तिकेय को अलंकार के रूप में षट्चक्रों का प्रभाव परिणाम ही माना जाय।
मूलाधार के ऊपर मेरुदण्ड के सहारे क्रमशः ऊपर उठते हुये 6 चक्र हैं, यह ब्रह्मरन्ध्र से जुड़े हुये शक्ति सामर्थ्यों के विशिष्ट पावर-हाउस, या माइक्रोवेव स्टेशन कहे जा सकते हैं। नाभि की सीध में मूलाधार से ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र नाभि और हृदय के मध्य मणिपूर हृदय स्थित अनाहत कण्ठ में विशुद्ध तथा भ्रूमध्य में आज्ञाचक्र, ब्रह्मरन्ध्र में अवस्थित सहस्रार को गिनें तो इनकी संख्या सात हो जाती है। इन स्थानों का परिचय वहां उपस्थित देव शक्तियों, वाहन, वर्ण, अक्षर तत्व आदि के माध्यम से दिया जाता है। ताकि साधक जब उनका वेधन करें तो उसे यात्रा की तरह यह जानकारी बनी रहे कि उसकी स्थिति और प्रगति कहां तक हुई।
षट्चक्र क्या हैं? कहां हैं? क्यों हैं? किस स्थिति में हैं? उनका क्या प्रयोजन है? इन प्रश्नों की यहां प्रारम्भिक जानकारी ही प्राप्त कर लेनी चाहिए। उनके प्रयोग उपयोग का शिक्षण भिन्न है और साधक की शारीरिक मानसिक स्थिति के अनुरूप उन्हें सिखाने का विधान है। जननेन्द्रिय के मूल में मेरुदण्ड का जहां अन्त होता है; उस बीच जितना पोला स्थान है उसे साधनात्मक भाषा में योनि कन्द कहते हैं। स्थूल शरीर शास्त्र के अनुसार वहां सुषुम्ना नाड़ी गुच्छक भर है पर सूक्ष्म शरीर रचना विज्ञान के अनुसार यहां एक विशेष अवयव है जिसे मूलाधार चक्र कहते हैं। इसके नीचे की पीठ कछुए जैसी है—इसे कूर्म कहते हैं। इसके ऊपर एक छोटा मेरुदण्ड है उसे सुमेरु कहते हैं। इसके चारों ओर साढ़े तीन फेरे लगाये हुए एक शक्ति सूत्र विद्यमान है। बस यही मूलाधार है। इसे सब मिलाकर एक कुण्ड गह्वर में अवस्थित—गेद—कन्द—की समता देकर समझाया जा सकता है। प्रथम चक्र यही है। कुण्डलिनी का मूल स्थान यही है। ईंधन न मिलने से जैसे अग्नि कुण्ड में आग तो बुझ सी जाती है पर वहां गर्मी बनी रहती है। यही स्थिति सामान्यतया सभी साधारण व्यक्तियों की होती है। प्रयत्न करने से प्राण रूपी ईंधन देने से यह प्रदीप्त होती है। उसकी लौ ऊपर उठती है।
षट्चक्र नाम से सभी परिचित है, वस्तुतः यह छह नहीं सात हैं। सातवां सहस्रार है। उसे सब का अधिपति मानकर गणना से बाहर रखा गया है। इस प्रकार यह सात शक्ति चक्र, सात लोकों के सात ऋषियों के; सप्त धातुओं के, सप्तद्वीपों के प्रतीक समझे जा सकते हैं।
चक्रों में अन्तर्हित शक्तियों और आकृतियों का उल्लेख साधना शास्त्र में अनेक स्थानों पर मिलता है। उनमें थोड़ा मतभेद तो है पर सामान्यतया उनकी संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार दी गई है—
(1) मूलाधार—तत्व पृथ्वी। रंग पीला। तन्मात्रा-गन्ध। ध्वनि—लं। भूलोक। स्थान मलमूत्र छिद्रों का मध्य।
(2) स्वाधिष्ठान-तत्व जल। रंग—सफेद। तन्मात्रा—रस। ध्वनि—वं। भुवा लोक। स्थान पेडू की सीध।
(3) मणिपुर—तत्व अग्नि। रंग लाल। ध्वनि—रं। लोक—स्वः। तन्मात्रा—रूप। स्थान—नाभि की सीध।
(4) अनाहत—तत्व वायु। रंग—धूम्र। ध्वनि—यं। तन्मात्रा—स्पर्श। लोक मह। स्थान हृदय की सीध
(5) विशुद्ध—तत्व आकाश। रंग—नील। तन्मात्रा—शब्द। लोक—जल। ध्वनि—इं। स्थान—कंठमूल की सीध।
(6) आज्ञाचक्र—लोक-तप। ध्वनि—ॐ। रंग—श्वेत। स्थान—भृकुटियों के मध्य।
(7) सहस्रार—लोक-सत्य। आकृति सहस्र दल कमल। रंग—स्वर्णिम। मस्तिष्क के मध्य में रैटिकुलर ऐक्टिवेटिंग सिस्टम से उसकी संगति बैठती है।
सात चक्रों में सन्निहित शक्ति स्रोतों की तुलना किन भौतिक संस्थानों से—सम्प्रदाओं से—चेतनाओं से की जा सकती है। इसका तुलनात्मक अलंकारिक उल्लेख साधना ग्रन्थों में इस प्रकार मिलता है—
महीस्थतीर्थे विमले जले मुदा ।मूलाम्बुजे स्नाति स मुक्तिभाग्भवेत् ।।—महायोग विज्ञान
पृथ्वी के समस्त तीर्थ मूलाधार चक्र में निवास करते हैं। उसमें जो स्नान करता है मुक्त हो जाता है।
स्वर्गस्थं यावता तीर्थं स्वाधिष्ठाने सुपङ्कजे ।मनो निधाय योगीन्द्रः स्नाति गङ्गाजले तथा ।।मणिपूरे देवतीर्थ पञ्चकुण्ड सरोवरम् ।तत्र श्रीकामना तीर्थं स्नाति यो मुक्तिमिच्छति ।।अनाहते सर्व तीर्थं सूर्यमण्डलमध्यगम् ।विभाय सर्वतीर्थाणि स्नाति यो मुक्तिमिच्छति ।।
—महायोग विज्ञान
स्वर्गस्थ तीर्थ स्वाधिष्ठान चक्र में विद्यमान है। यहां निवास करने वाली देव गंगा में योगी लोग स्नान करते हैं। मणिपूर चक्र देवतीर्थ है, उसमें पंच कुण्ड सरोवर है। वहां श्री कामतीर्थ है। अनाहत चक्र में सूर्य मण्डल में वर्तमान समस्त तीर्थों का निवास है। इनमें स्नान करने वाले उन पुण्य लोकों के अधिकारी होते हैं।
मूलाधारे तु भूर्लोको स्वाधिष्ठाने भुवस्ततः ।स्वर्लोको नाभिदेशे च हृदये तु महस्तथा ।।जनलोकं कण्ठदेशे तपोलोकं ललाटके ।सत्यलोकं महारन्ध्रे यति लोयाः पृथक् पृथक् ।।तलम्पादाङ्गष्ठतले तस्योपरि तलातलम् ।महातलं गुल्फमध्ये गुल्फोपरि रसातलम् ।।सुतलं जङ्घयोर्मध्ये वितलं जानुमध्यगम् ।ऊर्वोर्मध्ये तलम्प्रोक्तं सप्तपातालमीरितम् ।।—महायोग विज्ञान
मूलाधार चक्र में भूलोक स्वाधिष्ठान में भुवलोक, नाभि में महलोक, कण्ठ में जनलोक, ललाट में तपलोक और ब्रह्मरन्ध्र में सत्यलोक है। इस प्रकार नीचे के भाग में सात पाताल लोक है। पैरों के तले में तललोक पांव के ऊपर भाग में तलातल लोक, गुल्फ के बीच महातल, गुल्फ के ऊपर रसातल, जंघाओं के मध्य वितल, उरुओं के मध्य पाताल है इस प्रकार कटि से ऊपर सात और नीचे सात कुल चौदह भुवन इसी शरीर में विद्यमान हैं जो इस तथ्य को जानता है; दुःखों से छूटकर परम सुखी हो जाता है।
देहेऽस्मिन् वर्त्ततो मेरुः सप्तद्वीपसमन्वितः ।सरितः सागराः शैलाः क्षेत्राणि क्षेत्रपालकाः ।।ऋषयो मुनयः सर्वे नक्षत्राणि ग्रहास्तथा ।पुण्यतीर्थानि पीठानि वर्त्तन्ते पीठदेवताः ।।सृष्टिसंहारकर्त्तारौ भ्रमन्तौ शशिभास्करौ ।नभो वायुश्व वन्हिश्च जल पृथ्वी तथैव च ।।त्रैलोक्ये यानि भूतानि तानि सर्व्वाणि देहतः ।मेरुं संबेद्वय सर्व्वत्र व्यवहारः प्रवर्त्तते ।।जानाति यः सर्वमिदं स योगी नात्र संशयः ।
—महायोग विज्ञान
इसी शरीर में सुमेरु सातों द्वीप, समस्त नदियां, सागर, पर्वत, क्षेत्र; क्षेत्रपाल, ऋषि-मुनि, नक्षत्र, ग्रह, तीर्थ, पीठ, पीठ देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य; चन्द्रमा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, समस्त प्राणी, जो कुछ संसार में हैं सो सब इस सुमेरु (कुण्डलिनी स्थिति मेरु अथवा मेरु दण्ड) से लिपटे बैठे हैं और अपने-अपने कार्य कर रहे हैं। जो इस सबको जानता है वही योगी है।
उपरोक्त प्रतिपादन से स्पष्ट होता है कि यह शरीर मात्र सप्त धातुओं का ही बना नहीं है। उसमें (1) रस (2) रक्त (3) मांस (4) मज्जा (5) अस्थि (6) मेद (7) वीर्य ही नहीं वरन् उनके भीतर और भी दिव्य तत्व हैं। यह सातों धातुयें सात चक्रों से प्रभावित होती हैं और हमारा शरीर अविज्ञात रूप से उन्हीं के द्वारा स्वस्थ अस्वस्थ होता रहता है। आहार व्यायाम ही नहीं अन्तरंग की गुह्य स्थिति जो चक्रों से सम्बन्धित है यदि ठीक प्रकार संचारित होती रहे तो आरोग्य और दीर्घ जीवन की सम्भावनायें प्रखर हो सकती हैं। गुह्य स्थिति अस्त व्यस्त रहे तो पौष्टिक आहार और बहुत साज संभाल रखने पर भी शरीर दुर्बल एवं अस्वस्थ ही बना रहेगा। यही बात मनःसंस्थान की है। चेतना के विभिन्न स्तर इन चक्रों से प्रभावित होते हैं और चेतन अचेतन मस्तिष्क के अवसाद को चेतना के उत्कर्ष में परिणत किया जा सकता है। ऋद्धियों सिद्धियों का जो चमत्कारी वर्णन साधना ग्रन्थों में मिलता है। उतना ही नहीं वरन् उससे भी अधिक उपलब्धियां अपने भीतर भरे शक्ति भण्डार के साधना विज्ञान के आधार पर अभीष्ट प्रयोजनों के लिए उपयोग कर सकने योग्य बनाया जा सकता है।
जीवन एक यज्ञ है। मात्र हवन कुण्डों में सम्पन्न होने वाले अग्निहोत्र ही यज्ञ नहीं है। शरीर पिण्ड और विराट् ब्रह्माण्ड में उनके स्तर के अनुरूप छोटे और बड़े रूप से यह सूक्ष्म यज्ञ चलता रहता है। चक्रों को सात कुण्ड कहा जा सकता है उनमें सात अग्नियों की स्थापना सात ऋषियों का पुरोहित, सात देवताओं का आह्वान, सात चरु, सात परिणाम भी यह साधना यज्ञ के होते हैं इसे कुण्डलिनी विद्या के अन्तर्गत चक्र जागरण की प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न किया जाता है—
सप्त प्राणाः प्रमवन्ति तस्मात्सप्तार्चिषः समिधः सप्त हामाः ।सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा ।गुहाशया निहिताः सप्त सप्त ।।8।।—मुण्डक 2।1।8
सप्त प्राणी उसी से उत्पन्न हुए। अग्नि की सात ज्वालाएं सप्त समिधाएं, सात यज्ञ, सात लोक, यह सातों उस परमेश्वर से उत्पन्न हुए।
भूर्लोकस्था त्वमेवासि धरित्री शौकधारिणी ।भुवो लोके वायुशक्तिः स्वर्लोके तेजसां निधिः ।12।महर्लोके महासिद्धिर्जनलोके जनेत्यपि ।तपस्विनी तपोलोके सत्यलोके तु सत्यवाक् ।13।—देवी भागवत
सात लोकों में आप सात शक्ति होकर विद्यमान हैं और उनका संचालन करती हैं।
(1) भूलोक में—धरित्री, (2) भुवलोक में—वायु, (3) स्वःलोक में—तेज पुंज, (4) महः लोक में—महासिद्धि, (5) जनः लोक में—जनन शक्ति, (6) तपः लोक में—तपस्विनी, (7) सत्य लोक में—सत्य वाक्।
सात चक्रों की भांति शरीर में अन्यत्र भी कितनेक शक्ति स्रोत हैं। इन्हें ग्रन्थि उपत्यिका आदि कहते हैं। मस्तिष्क में विष्णु ग्रन्थि, हृदय में ब्रह्म ग्रन्थि और नाभि में रुद्र ग्रन्थि का स्थान है। यहां भी थोड़ा मतभेद है। हृदय स्थान में विष्णु ग्रन्थि और मस्तिष्क में ब्रह्म ग्रन्थि भी कही गई है। हमें इन नाम भेदों में भी नहीं उलझना चाहिए और समझना चाहिए कि न केवल मेरुदण्ड में वरन् मस्तिष्क हृदय एवं नाभि में ऐसे ही महत्वपूर्ण शक्ति चक्र हैं और उनका वेधन करने का विधान ‘ग्रन्थि भेद’ के नाम से वर्णित है। यहां एक बात और ध्यान रखने की है—वेध शब्द का सामान्य अर्थ ‘छेद’ कर देना होता है। पर अध्यात्म की परिभाषा में उसे ‘जागरण’ अर्थ में प्रयोग किया गया है।
शरीर के पृष्ठ भाग के—सुषुम्ना संस्थान के षट्चक्रों की तरह काया के अग्र भाग में भी छह चक्र अवस्थिति हैं, उन्हें सूर्य-चक्र, अग्नि-चक्र, अमृत-चक्र, प्रभंजन-चक्र, तड़ित-चक्र, सोमचक्र कहा गया है।
पर्वतों में भरा जल जब एकत्रित होकर किसी स्थान विशेष से फूटता है तो उसे झरना कहते हैं। झरनों के उद्गम स्थान पर जलधारा कितनी प्रचण्ड होती है। ऊपर से नीचे गिरने पर वहां कितना कोलाहल होता है और कितनी उथल-पुथल मचती है, उसे सभी जानते हैं। चक्र संस्थानों को भंवर, चक्रवात की ही तरह एक उपमा झरना फटने की भी दी जा सकती है। ज्वालामुखी के छेद अक्सर अग्नि, धुआं या दूसरी चीजें उगलते रहते हैं। चक्रों से भी उसी प्रकार का प्रकटीकरण होता रहता है। समुद्री लहरों से असीम विद्युत शक्ति उपलब्ध करने की तैयारियां हो रही हैं। चक्र संस्थानों में उबलती शक्ति का उपयोग कर सकना जिनके लिए सम्भव होता है वे उसका ऐसा लाभ उठा सकते हैं जिसे देव क्षमता कहकर सम्बोधित किया जा सके।
हारमोन ग्रन्थियों के सम्बन्ध में खोज करने वाले शरीर शास्त्री आश्चर्य चकित हैं कि इन नन्हीं-सी ग्रन्थियों से निकलने वाले रस मात्रा में कुछ ही बूंद होते हैं, पर शारीरिक और मानसिक स्थिति को कितना अधिक प्रभावित करते हैं। अण्डकोश, गुर्दे, जिगर, तिल्ली, पौरुष ग्रन्थियां आदि को बड़ी ग्रन्थियां ही कह सकते हैं। उनका क्रिया-कलाप स्थूल होने से सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। हारमोन ग्रन्थियों का रहस्योद्घाटन इससे बहुत कठिन है और बहुत माथा-पच्ची करने के बाद भी ठीक तरह पकड़ में नहीं आ रहा है। सूक्ष्म ग्रन्थियां जिन्हें चक्र कहते हैं, इन्द्रियों एवं उपकरणों की पहुंच से बाहर है। उन्हें जागृत अन्तर्दृष्टि से ही देखा, समझा एवं प्रयोग में लाया जा सकता है। सूक्ष्म विज्ञान के आधार पर ही उनका अनुभव एवं उपयोग सम्भव होता है।
हठयोग साधना के अन्तर्गत आने वाले मेरुदण्ड को सुषुम्ना संस्थान में अवस्थित छह चक्रों के नाम हैं—
(1) मूलाधार चक्र (2) स्वाधिष्ठान चक्र (3) मणिपूर चक्र (4) अनाहत चक्र (5) विशुद्ध चक्र (6) आज्ञा चक्र।
इनमें शरीर शास्त्रियों ने चार को नाड़ी गुच्छकों के रूप में मान्यता दें दी है। मूलाधार चक्र को—पौल्विक प्लैक्सस। मणिपूर चक्र को—सोलर प्लैक्सस। अनाहत चक्र को—कार्डियल प्लैक्सस और विशुद्ध चक्र को—फैरिजियल प्लैक्सस नाम से निश्चित कर दिया गया है। शेष दो के बारे में प्राचीन व्याख्या एवं नवीन वास्तविकता में थोड़ा अन्तर एवं मत-भेद है। आशा की जानी चाहिए कि वह गुत्थी भी निकट भविष्य में सुलझ ही जायगी।
चक्र संस्थान के जागरण के फलस्वरूप मिलने वाली षट् सम्पत्तियों का वर्णन मिलता है। इन्हें आध्यात्मिक उपलब्धियां भी कह सकते हैं।
षट् सम्पत्ति यह है—
(1) शम (2) दम (3) उपरति (4) तितीक्षा (5) श्रद्धा (6) समाधान।
शम—अर्थात् शान्ति उद्वेगों का शमन। दम-इन्द्रियों का दमन करने की क्षमता। उपरति—दुष्टता से घृणा। तितीक्षा—कष्टों का धैर्यपूर्वक सहना। श्रद्धा—सन्मार्ग में प्रगाढ़ निष्ठा, विश्वास और भावना का समन्वय। समाधान—संशयों और लालसाओं से छुटकारा।
यह गुण, कर्म, स्वभाव की विशेषताएं हैं। उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व से मनुष्य ऊंचा उठता है और ब्रह्म परायण व्यक्तियों को मिलने वाले आन्तरिक सन्तोष, उल्लास और बाह्य सम्मान, सहयोग का अधिकारी बनता है।
इसके अतिरिक्त आत्मिक प्रगति के भौतिक लाभ भी कितने ही हैं। जिन्हें सिद्धियों के नाम से पुकारा गया है। आत्मिक सफलताओं के सम्पत्ति एवं विभूति दो नाम हैं। भौतिक प्रगति को समृद्धि एवं सिद्धि के नाम से सम्बोधित किया जाता है। दोनों के सम्मिलित परिणाम को अतीन्द्रिय क्षमता विकास के रूप में देखा जा सकता है।
श्री आद्य शंकराचार्य ने आठ सिद्धियां यह गिनाई हैं—(1) जन्म सिद्धि (2) शब्द ज्ञान सिद्धि (3) शास्त्रज्ञान सिद्धि (4) आधिदैविक ताप सहन शक्ति (5) आध्यात्मिक ताप सहन शक्ति (6) आधिभौतिक ताप सहन शक्ति (7) विज्ञान सिद्धि (8) विद्या शक्ति।
जन्म सिद्धि का अर्थ है पूर्व जन्मों की स्थिति का आभास पूर्व जन्मों के सम्बन्धियों के प्रति सहज आकर्षण और उनके साथ अपने पूर्व सम्बन्धों की जानकारी।
शब्द सिद्धि का अर्थ है—शब्दों के साथ जुड़ी हुई भावना का आभास। शब्दों की शक्ति बड़ी सीमित है और उससे कुछ का कुछ—उलटा-सीधा—अप्रासंगिक अर्थ भी निकल सकता है। कहने वाले की भावना का सही अनुमान वही लगा सकता है जिसका अन्तःकरण पवित्र हो।
शास्त्र सिद्धि का तात्पर्य है—शास्त्रकार की मूल भावना को समझना और यह जानना कि यह प्रतिपादन किस देश, काल, पात्र को ध्यान में रखकर किया गया है। कोई सिद्धान्त या प्रतिपादन सार्वभौम या सर्वकालीन नहीं होता। यह शास्त्र वचन किस प्रकार प्रयुक्त करना चाहिए, यह सूक्ष्म ज्ञान होना ही शब्द की सिद्धि है।
आधिदैविक ताप सहन शक्ति का अर्थ है—दैवी प्रकोप अथवा प्रारब्ध जन्म योग के कारण, आकस्मिक अनायास विपत्तियां उत्पन्न हो जाने, प्रियजनों के कारण विछोह आदि के अवसर उपस्थित हो जाने पर उन शोक सम्वेदनाओं का धैर्यपूर्वक सहन।
आध्यात्मिक ताप सहन शक्ति का तात्पर्य है—काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद-मत्सर, ईर्ष्या आदि उद्वेगों को नियन्त्रण में रखना। इन्द्रियों के अमर्यादित योग को छूट न देना, मन को उच्छृंखल न होने देना। इस अवरोध से भीतर जो असन्तोष उत्पन्न होता है उसको हंसते हुए टाल देना।
विज्ञान शक्ति का अर्थ है—शुद्ध अन्तःकरण, निर्मल चरित्र, सन्तुलित मन, सौम्य स्वभाव और हंस मुख प्रकृति, निरालस्यता स्फूर्तिवान और नियम-पालन की तत्परता, कर्त्तव्य-पालन में प्रगाढ़ निष्ठा, उदार व्यवहार में सन्तोष।
विद्या शक्ति अर्थात्—आत्मा के स्वरूप, उद्देश्य तथा कर्त्तव्य पर भावना और विश्वास भरी निष्ठा, ईश्वर पर विश्वास, आत्मा को सर्वव्यापी समझ कर सबको अपना ही समझना और आत्मीयता भरा व्यवहार करना, प्रेम भावनाओं का उभार, उद्वेग और आवेशों से निवृत्ति।
अतिवादी या अति उच्चस्तरीय अपवाद रूप में कहीं-कहीं, कभी-कभी सुनी, देखी जाने वाली सिद्धियों में
(1) अणिमा (2) महिमा (3) गरिमा (4) लघिमा (5) प्राप्ति (6) प्राकाम्य (7) ईशत्व (8) वशित्व का वर्णन मिलता है।
अणिमा अर्थात्—शरीर को अणु के समान सूक्ष्म बना लेना। महिमा अर्थात्—बहुत बड़ा कर लेना। गरिमा—बहुत भारीपन। लघिमा—बहुत हलकापन। प्राप्ति—दूरस्थ वस्तु की समीपता। प्राकाम्य—मनोरथों की पूर्ति। ईशत्व—स्वामित्व, अभीष्ट वस्तु व्यक्ति या परिस्थिति पर अधिकार। वशित्व—वशवर्ती बना लेना।
अष्ट सिद्धियों का दूसरा वर्णन एक और भी मिलता है—
(1) परकाया प्रवेश (2) जलादि में असंग (3) उत्क्रान्ति (4) ज्वलन (5) दिव्य श्रवण (6) आकाश गमन (7) प्रकाश आवरण क्षय (8) भूत जय।
इस प्रकार के चमत्कार इन दिनों देखे नहीं जाते। जो दीखते हैं उनमें छल की मात्रा ही प्रमुख होती है। ऐसी दशा में हमें अनुभव में न आने वाली सिद्धियों पर ध्यान देने की अपेक्षा इतना ही सोचना है कि चक्र वेधन जैसी योग-साधनाओं का आश्रय लेकर हम सहज ही अपनी आत्मिक और भौतिक सामर्थ्यों जगा सकते हैं और उस दिशा में मिलने वाली सफलता का इतना लाभ ले सकते हैं, जितना सामान्य पुरुषार्थ से सम्भव नहीं हो सकता।