Books - महिला जागृति अभियान
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ये बंधन अब टूटने ही चाहिए
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लोकमानस में नारी के प्रति इतनी भ्रांतियाँ, इतनी मूढ़ मान्यताएँ जड़ पकड़
गई हैं कि उन्हें ऐसे कुहासे का प्रकोप कह सकते हैं, जिसमें हाथ- को नहीं
सूझता। दुर्बुद्धि, समझदारी जैसी लगती है। परिवर्तन इसी क्षेत्र में लाये
जाने की आवश्यकता है- मान्यताओं के अनुरूप चिंतन- प्रवाह चल पड़ता है,
तद्नुरूप क्रिया- कलाप और प्रचलन- व्यवहार का क्रम स्वत: बन पड़ता है। जिन
दिनों नारी की वरीयता शिरोधार्य की जाती थी, और उसे मानुषी कलेवर में देवी
की मान्यता दी जाती थी, तब वह अपनी क्षमताओं को उभारने और समूची मानव जाति
का बहुविध हित- साधन करने में समर्थ रहती थी। परिवारों को नररत्नों की खदान
बना देने का श्रेय उसी के जिम्मे आता था। पर जब उसे उस उच्च पद से हटाकर
मात्र पालतू पशु के समतुल्य समझा जाने लगा, तो स्वाभाविक ही था कि वह
अशक्त, असुरक्षित और पराधीनता के गर्त में अधिकाधिक गहराई तक गिरती चली गई।
इन दिनों नारी के प्रति जो दृष्टिकोण है, उसमें अभिभावक उसे पराये घर का कूड़ा मानकर उपेक्षा करते और लड़कों की तुलना में कहीं अधिक निचले दरजे का पक्षपात बरतते हैं। पति की दृष्टि में वह कामुकता की आग को बुझाने का एक खरीदा गया माध्यम है। उसे कामिनी, रमणी और भोग्या के रूप में ही निरखा, परखा और संतान का असह्य भार वहन करने के लिए बाध्य किया जाता है। ससुराल के समूचे परिवार की दृष्टि में वह मात्र ऐसी दासी है, जिसे दिन- रात काम में जुटे रहने और बदले में किसी अधिकार या सम्मान पाने के लिए अनधिकृत मान लिया जाता है। स्पष्ट है, इन बाध्य परिस्थितियों में रहकर कोई भी मौलिक प्रतिभा को गँवाता ही चला जा सकता है। यही इन दिनों उसकी नियति बन गई है। हेय मानसिकता ने ही उसकी वरिष्ठता का अपहरण किया और फिर से न करने के लिए माँग करने तक में असह्य- असमर्थ बना दिया है। ऐसी दशा में उसकी उपयोगिता और प्रतिभा का ह्रास होते जाना स्वाभाविक ही है। आधी जनसंख्या को ऐसी दयनीय स्थिति में पटक देने पर पुरुष भी मात्र घाटा ही सह सकता है। समस्त संसार को उनके गरिमाजन्य अनेकानेक लाभों से वंचित रहना पड़ रहा है, विशेषत: भारत जैसे पिछड़े देश के लोगों के लिए तो यह घाटा निरंतर उठाते रहना बहुत ही भारी पड़ता है।
न्याय और औचित्य को उपलब्ध करने के लिए माँग ही नहीं, संघर्ष करने वाले इस युग में नारी की यथास्थिति बनी रहे, यह हो नहीं सकता। समय ने अनेक प्रसंगों में अनेक स्तर के परिवर्तन करने के लिए बाध्य कर दिया है। वह प्रवाह नारी को यथास्थिति में यथावत पड़े नहीं रहने दे सकता है। इस परिवर्तन और उत्थान की एक छोटी झलक- झाँकी नारी के अधिकारों को कानूनी स्थिति प्रदान करने से आरम्भ हुई है और उसने सामाजिक क्षेत्र में उचित न्याय मिलने की संभावना का संकेत दिया है। पंचायत चुनाव में उनके लिए ३० प्रतिशत स्थान सुरक्षित किए गए हैं। यह स्तर प्रांतीय केंद्रीय शासन सभाओं में भी प्राप्त होगा। इस आधार पर उमड़े हुए उत्साह ने नर और नारी, दोनों को प्रभावित किया है। नारी सोचती है, उसे हर दृष्टि से शासित ही बनी रहने की विवशता को क्यों वहन करना चाहिए? जब शासन में भागीदार बनने के लिए उसे अवसर मिला है, उसे वह गँवाए क्यों? और भविष्य में अपने वर्ग को उच्चाधिकार दिलाने का, स्वागत करने का मानस क्यों न बनाए? परिवार के पुरुष भी सोचते हैं कि हमारा कोई सदस्य यदि शासन में भागीदार बनता है, तो उस आधार पर पूरे परिवार का सम्मान और अधिकार बढ़ेगा ही। अस्तु, जहाँ सम्मान- लाभ का प्रयोग आता है, वहाँ सहज सहमति हो जाती है। वर्तमान सुधारों का सर्वत्र स्वागत ही किया गया है और प्रयास चल पड़ा है कि नारियों को अधिक सुयोग्य बनाया जाए ताकि वे जनसाधारण की दृष्टि में महत्त्वपूर्ण मानी जाएँ और उन्हें मतदान में भी सफलता मिले।
इन दिनों नारी के प्रति जो दृष्टिकोण है, उसमें अभिभावक उसे पराये घर का कूड़ा मानकर उपेक्षा करते और लड़कों की तुलना में कहीं अधिक निचले दरजे का पक्षपात बरतते हैं। पति की दृष्टि में वह कामुकता की आग को बुझाने का एक खरीदा गया माध्यम है। उसे कामिनी, रमणी और भोग्या के रूप में ही निरखा, परखा और संतान का असह्य भार वहन करने के लिए बाध्य किया जाता है। ससुराल के समूचे परिवार की दृष्टि में वह मात्र ऐसी दासी है, जिसे दिन- रात काम में जुटे रहने और बदले में किसी अधिकार या सम्मान पाने के लिए अनधिकृत मान लिया जाता है। स्पष्ट है, इन बाध्य परिस्थितियों में रहकर कोई भी मौलिक प्रतिभा को गँवाता ही चला जा सकता है। यही इन दिनों उसकी नियति बन गई है। हेय मानसिकता ने ही उसकी वरिष्ठता का अपहरण किया और फिर से न करने के लिए माँग करने तक में असह्य- असमर्थ बना दिया है। ऐसी दशा में उसकी उपयोगिता और प्रतिभा का ह्रास होते जाना स्वाभाविक ही है। आधी जनसंख्या को ऐसी दयनीय स्थिति में पटक देने पर पुरुष भी मात्र घाटा ही सह सकता है। समस्त संसार को उनके गरिमाजन्य अनेकानेक लाभों से वंचित रहना पड़ रहा है, विशेषत: भारत जैसे पिछड़े देश के लोगों के लिए तो यह घाटा निरंतर उठाते रहना बहुत ही भारी पड़ता है।
न्याय और औचित्य को उपलब्ध करने के लिए माँग ही नहीं, संघर्ष करने वाले इस युग में नारी की यथास्थिति बनी रहे, यह हो नहीं सकता। समय ने अनेक प्रसंगों में अनेक स्तर के परिवर्तन करने के लिए बाध्य कर दिया है। वह प्रवाह नारी को यथास्थिति में यथावत पड़े नहीं रहने दे सकता है। इस परिवर्तन और उत्थान की एक छोटी झलक- झाँकी नारी के अधिकारों को कानूनी स्थिति प्रदान करने से आरम्भ हुई है और उसने सामाजिक क्षेत्र में उचित न्याय मिलने की संभावना का संकेत दिया है। पंचायत चुनाव में उनके लिए ३० प्रतिशत स्थान सुरक्षित किए गए हैं। यह स्तर प्रांतीय केंद्रीय शासन सभाओं में भी प्राप्त होगा। इस आधार पर उमड़े हुए उत्साह ने नर और नारी, दोनों को प्रभावित किया है। नारी सोचती है, उसे हर दृष्टि से शासित ही बनी रहने की विवशता को क्यों वहन करना चाहिए? जब शासन में भागीदार बनने के लिए उसे अवसर मिला है, उसे वह गँवाए क्यों? और भविष्य में अपने वर्ग को उच्चाधिकार दिलाने का, स्वागत करने का मानस क्यों न बनाए? परिवार के पुरुष भी सोचते हैं कि हमारा कोई सदस्य यदि शासन में भागीदार बनता है, तो उस आधार पर पूरे परिवार का सम्मान और अधिकार बढ़ेगा ही। अस्तु, जहाँ सम्मान- लाभ का प्रयोग आता है, वहाँ सहज सहमति हो जाती है। वर्तमान सुधारों का सर्वत्र स्वागत ही किया गया है और प्रयास चल पड़ा है कि नारियों को अधिक सुयोग्य बनाया जाए ताकि वे जनसाधारण की दृष्टि में महत्त्वपूर्ण मानी जाएँ और उन्हें मतदान में भी सफलता मिले।