Books - नवसृजन के निमित्त महाकाल की तैयारी
Media: TEXT
Language: EN
Language: EN
प्रगति की दिशा में बढ़ते प्रयास
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इन दिनों बुद्धिमान् वही समझा जाता है, जिसने विपुल वैभव अर्जित कर लिया
हो; भले ही उसमें अवांछनीय- अनैतिक रीति- नीति का समावेश रहा हो- कहने को
तो लोग सिद्धान्त की बात भी कहते हैं और सभ्य- समझदार लोग उसका अनुमोदन भी
करते हैं, पर व्यवहार में उसी प्रक्रिया को मान्यता मिलती है। कोई ऐसे
कदाचित् ही मिलते हैं, जो न्याय और औचित्य का समर्थन भी करते हों और निजी
जीवन में उसे क्रियान्वित भी कर पाते हों। नीति- निष्ठा कहने- सुनने भर की
बात रह गई है। समझा जाता है कि वह व्यावहारिक नहीं है। यदि उसमें घाटा ही
उठाना पड़ा, तो सर्वसाधारण की दृष्टि से बेवकूफ ही बनना पड़ेगा।
लोगों की मान्यताओं और तर्कों के आधार पर उन्हें निरुत्तर किया गया हो, ऐसा प्रयत्न तो कइयों ने कई बार किया है, पर सफलता प्राप्त कर सकने में कदाचित् ही कोई सफल हुआ हो। इर्द- गिर्द बिखरे उदाहरणों की इतनी भरमार नजर आती है कि जमी हुई मान्यताओं को बदलना एकदम असम्भव तो नहीं, पर कठिन अवश्य प्रतीत होता है। जब प्रत्यक्ष उदाहरणों में एक ही बात दीख पड़ती है कि प्रचलित मान्यताओं को बरतने वाले एक प्रकार के नफे में रहते हैं, तब यह बात तो गले ही नहीं उतरती कि सिद्धान्तों को व्यवहार में भी उतारा जा सकता है।
शान्तिकुञ्ज के द्वारा प्रस्तुत किए गए उदाहरणों द्वारा अब यह प्रतिपादित एवं सिद्ध किया जा रहा है कि यह मान्यता बहुजनों के विश्वास की बात होते हुए भी वैसी नहीं है। तथ्य समझ में आ जाने पर अन्ततः: उसे स्वीकार भी किया जाता है। यही कारण है कि व्यवहार में जो दीख पड़ता है, उसे भी अमान्य ठहराने के लिए असंख्यों सहमत हो जाते हैं। ऐसे लोगों का एक बड़ा समुदाय बन जाता है, जिसमें नीति- निष्ठा और समाज- निष्ठा जैसे उच्च आदर्शों को व्यावहारिक माना जाता है। उनने अपने निजी जीवन में, सम्पर्क परिकर में प्रयोग करके यह पाया है कि उत्कृष्टता की नीति ही वस्तुतः: लाभदायक है, उसी को अपनाने से व्यक्ति अपना एवं अपनों का वास्तविक एवं स्थाई हितसाधन कर सकता है।
विचारों की हेरा- फेरी तो लाखों लोग अक्सर करते रहते हैं। तर्क, प्रतिपादन एवं विवाद कइयों को अपनी पिछली मान्यता बदलने के लिए बाध्य कर देते हैं। वकालत का पेशा ही ऐसा है, जिसमें सामने वाले की सही बात को गलत और गलत को सही सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। उसमें से जो चतुर होते हैं, उन्हें सफलता भी मिल जाती है, पर ऐसे उदाहरण कम ही देखे गए हैं कि किन्हीं ने अपनी भूलों को समझा, स्वीकारा और तदनुसार अपनी मान्यताओं में भी परिवर्तन कर लिया हो। इस सन्दर्भ में शान्तिकुञ्ज के द्वारा किए गए प्रतिपादनों ने जो सफलता पाई है, उसका अपना कीर्तिमान है। इन दिनों असत्य की जीत और सत्य की हार स्वीकार की जाती है। इतने पर भी समय के प्रतिकूल ऐसी सिद्धान्त शैली और तर्क प्रक्रिया शान्तिकुञ्ज ने प्रस्तुत की है, जिससे लोकमान्यता में असाधारण परिवर्तन होते देखे जाते हैं।
क्रान्तियाँ वस्तुतः: ऐसी ही होती हैं। उनका आधार विवाद या शास्त्रार्थ नहीं होता। बात को अन्तराल की गहराई तक पहुँचाते और मान्यता स्तर तक पहुँचा देने से ही लोग उसे स्वीकार करने और जीवन- क्रम में उतारते हैं। यह कार्य आदर्शवादिता के सम्बन्ध में तो और भी कठिन है। लोग पूर्वाग्रहों के साथ इस बुरी तरह चिपके हैं कि व्यवहार ठीक वैसा ही बनाए रहते हैं, जिसमें कि उनकी स्वार्थ सिद्धि होती है। इन दिनों यही प्रचलन जड़ पकड़ रहा है और अपनी समर्थता सिद्ध कर रहा है, किन्तु शान्तिकुञ्ज की विचारधारा ही है, जिसने दुराग्रहियों और मात्र लाभ की बात सोचने वालों को भी यह मानने के लिए बाध्य किया है कि विजय अन्ततः: सत्य की ही होती है। झूठ के पैर नहीं होते। उसे किसी प्रकार जिता दिया जाए, तो भी उसे चिरस्थायी मान्यता नहीं मिलती। सच्चे हृदय से उसे स्वीकार नहीं किया जाता।
इस दिशा में प्रयत्न तो बहुत होते रहे हैं और उन्हें किसी प्रकार सफलता- असफलता भी मिलती रही है, किन्तु इस बुद्धिवादी युग में, प्रत्यक्ष प्रतिपादनों को ही मान्यता मिलने के जमाने में, शान्तिकुञ्ज की विचारधारा में प्रत्येक विचारशील को यह स्वीकारने के लिए बाध्य किया है कि मानवीय गरिमा के आदर्श अपनाए बिना और कोई मार्ग रह नहीं गया है।
युगपरिवर्तन की यह अनोखी पद्धति है। अब तक आध्यात्मिक तथा भावनात्मक स्तर पर तो प्रभावित किया जाता रहा है, पर यह नहीं बन पड़ता कि तर्क, तथ्य और प्रमाणों समेत नवयुग की पृष्ठभूमि को बौद्धिक आधार पर प्रतिपादित किया जा सके। इस कठिन काम को शान्तिकुञ्ज ने अपने यहाँ आरम्भ भी कर दिया है और उसका प्रतिफल यह देखा गया है कि असंख्यों ने अपना जीवन परिवर्तित कर लिया है- कुमार्ग पर चलने के दुराग्रह को छोड़कर सही और श्रेयस्कर मार्ग पर चलने के लिए अपने को सहमत कर लिया है। बौद्धिक प्रतिपादन ही नहीं, प्राण प्रक्रिया का समन्वय भी इस प्रक्रिया के साथ जुड़ा हुआ है।
पाँच दिन के प्रशिक्षण में यह व्यवस्था की गई है कि वह जनजीवन पर इतनी गहरी छाप छोड़े की व्यक्ति सहमत होकर ही लौटे। यह अपने ढंग का अनोखा प्रयोग है। यही कारण है कि धर्मोपदेशकों की इस बाढ़ के जमाने में जहाँ तदनुरूप परिवर्तनों का प्रभाव स्वल्प दिखाई पड़ता है, वहाँ शान्तिकुञ्ज की प्रशिक्षण- प्रक्रिया अनोखा प्रभाव छोड़ती है।
प्रचलित प्रवाह की धारा के विपरीत, जहाँ यह प्रतिपादन प्रस्तुत किया गया है कि इक्कीसवीं शताब्दी नारी- विशिष्टता की अवधि है, वहाँ उसे स्वीकार करने और कराने में बहुत कठिनाई भी उठानी नहीं पड़ी है। जहाँ शिक्षा का प्रचलन है, वहाँ तो इस तथ्य को बौद्धिक आधार पर भी स्वीकार कर लिया गया है, किन्तु एक अनोखा चमत्कार यह देखने को मिल रहा है कि अशिक्षित स्तर के नारी- समुदाय ने भी नवयुग के इस सन्देश को स्वीकार कर लिया है और अनेक दबावों- अवरोधों के सामने होते हुए भी प्रगति- पथ पर चल पड़ने का निश्चय कर लिया है।
वयस्क महिलाओं को कभी प्रौढ़ शिक्षा की बात सुनकर शरम भी आती थी और वे इसके लिए तैयार नहीं होती थीं, पर अब शान्तिकुञ्ज परिकर की प्राय: आधी प्रौढ़ महिलाएँ आग्रह और रुचिपूर्वक यह सब सोचने लगी हैं। शिक्षण का प्रबन्ध होने पर शिक्षकों की सहायता के फलस्वरूप अब उन्होंने अध्यापन का काम भी सँभालना प्रारम्भ कर दिया है। घूँघट व परदे का रिवाज तो अब इस प्रकार छूटता जा रहा है, जैसे वह पहले कभी रहा ही न हो। नारी- प्रगति की एक हवा चल पड़ी है। जहाँ दुस्साहसपूर्ण बड़े प्रयास और आग्रह भी सफल नहीं होते थे, इस सबको देखते हुए लगता है कि इस प्रयास के पीछे कोई अदृश्य शक्ति काम कर रही है और उस लक्ष्य की ओर ले जा रही है, जहाँ नर और नारी दोनों एक स्तर तक पहुँच कर रहेंगे।
लोगों की मान्यताओं और तर्कों के आधार पर उन्हें निरुत्तर किया गया हो, ऐसा प्रयत्न तो कइयों ने कई बार किया है, पर सफलता प्राप्त कर सकने में कदाचित् ही कोई सफल हुआ हो। इर्द- गिर्द बिखरे उदाहरणों की इतनी भरमार नजर आती है कि जमी हुई मान्यताओं को बदलना एकदम असम्भव तो नहीं, पर कठिन अवश्य प्रतीत होता है। जब प्रत्यक्ष उदाहरणों में एक ही बात दीख पड़ती है कि प्रचलित मान्यताओं को बरतने वाले एक प्रकार के नफे में रहते हैं, तब यह बात तो गले ही नहीं उतरती कि सिद्धान्तों को व्यवहार में भी उतारा जा सकता है।
शान्तिकुञ्ज के द्वारा प्रस्तुत किए गए उदाहरणों द्वारा अब यह प्रतिपादित एवं सिद्ध किया जा रहा है कि यह मान्यता बहुजनों के विश्वास की बात होते हुए भी वैसी नहीं है। तथ्य समझ में आ जाने पर अन्ततः: उसे स्वीकार भी किया जाता है। यही कारण है कि व्यवहार में जो दीख पड़ता है, उसे भी अमान्य ठहराने के लिए असंख्यों सहमत हो जाते हैं। ऐसे लोगों का एक बड़ा समुदाय बन जाता है, जिसमें नीति- निष्ठा और समाज- निष्ठा जैसे उच्च आदर्शों को व्यावहारिक माना जाता है। उनने अपने निजी जीवन में, सम्पर्क परिकर में प्रयोग करके यह पाया है कि उत्कृष्टता की नीति ही वस्तुतः: लाभदायक है, उसी को अपनाने से व्यक्ति अपना एवं अपनों का वास्तविक एवं स्थाई हितसाधन कर सकता है।
विचारों की हेरा- फेरी तो लाखों लोग अक्सर करते रहते हैं। तर्क, प्रतिपादन एवं विवाद कइयों को अपनी पिछली मान्यता बदलने के लिए बाध्य कर देते हैं। वकालत का पेशा ही ऐसा है, जिसमें सामने वाले की सही बात को गलत और गलत को सही सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। उसमें से जो चतुर होते हैं, उन्हें सफलता भी मिल जाती है, पर ऐसे उदाहरण कम ही देखे गए हैं कि किन्हीं ने अपनी भूलों को समझा, स्वीकारा और तदनुसार अपनी मान्यताओं में भी परिवर्तन कर लिया हो। इस सन्दर्भ में शान्तिकुञ्ज के द्वारा किए गए प्रतिपादनों ने जो सफलता पाई है, उसका अपना कीर्तिमान है। इन दिनों असत्य की जीत और सत्य की हार स्वीकार की जाती है। इतने पर भी समय के प्रतिकूल ऐसी सिद्धान्त शैली और तर्क प्रक्रिया शान्तिकुञ्ज ने प्रस्तुत की है, जिससे लोकमान्यता में असाधारण परिवर्तन होते देखे जाते हैं।
क्रान्तियाँ वस्तुतः: ऐसी ही होती हैं। उनका आधार विवाद या शास्त्रार्थ नहीं होता। बात को अन्तराल की गहराई तक पहुँचाते और मान्यता स्तर तक पहुँचा देने से ही लोग उसे स्वीकार करने और जीवन- क्रम में उतारते हैं। यह कार्य आदर्शवादिता के सम्बन्ध में तो और भी कठिन है। लोग पूर्वाग्रहों के साथ इस बुरी तरह चिपके हैं कि व्यवहार ठीक वैसा ही बनाए रहते हैं, जिसमें कि उनकी स्वार्थ सिद्धि होती है। इन दिनों यही प्रचलन जड़ पकड़ रहा है और अपनी समर्थता सिद्ध कर रहा है, किन्तु शान्तिकुञ्ज की विचारधारा ही है, जिसने दुराग्रहियों और मात्र लाभ की बात सोचने वालों को भी यह मानने के लिए बाध्य किया है कि विजय अन्ततः: सत्य की ही होती है। झूठ के पैर नहीं होते। उसे किसी प्रकार जिता दिया जाए, तो भी उसे चिरस्थायी मान्यता नहीं मिलती। सच्चे हृदय से उसे स्वीकार नहीं किया जाता।
इस दिशा में प्रयत्न तो बहुत होते रहे हैं और उन्हें किसी प्रकार सफलता- असफलता भी मिलती रही है, किन्तु इस बुद्धिवादी युग में, प्रत्यक्ष प्रतिपादनों को ही मान्यता मिलने के जमाने में, शान्तिकुञ्ज की विचारधारा में प्रत्येक विचारशील को यह स्वीकारने के लिए बाध्य किया है कि मानवीय गरिमा के आदर्श अपनाए बिना और कोई मार्ग रह नहीं गया है।
युगपरिवर्तन की यह अनोखी पद्धति है। अब तक आध्यात्मिक तथा भावनात्मक स्तर पर तो प्रभावित किया जाता रहा है, पर यह नहीं बन पड़ता कि तर्क, तथ्य और प्रमाणों समेत नवयुग की पृष्ठभूमि को बौद्धिक आधार पर प्रतिपादित किया जा सके। इस कठिन काम को शान्तिकुञ्ज ने अपने यहाँ आरम्भ भी कर दिया है और उसका प्रतिफल यह देखा गया है कि असंख्यों ने अपना जीवन परिवर्तित कर लिया है- कुमार्ग पर चलने के दुराग्रह को छोड़कर सही और श्रेयस्कर मार्ग पर चलने के लिए अपने को सहमत कर लिया है। बौद्धिक प्रतिपादन ही नहीं, प्राण प्रक्रिया का समन्वय भी इस प्रक्रिया के साथ जुड़ा हुआ है।
पाँच दिन के प्रशिक्षण में यह व्यवस्था की गई है कि वह जनजीवन पर इतनी गहरी छाप छोड़े की व्यक्ति सहमत होकर ही लौटे। यह अपने ढंग का अनोखा प्रयोग है। यही कारण है कि धर्मोपदेशकों की इस बाढ़ के जमाने में जहाँ तदनुरूप परिवर्तनों का प्रभाव स्वल्प दिखाई पड़ता है, वहाँ शान्तिकुञ्ज की प्रशिक्षण- प्रक्रिया अनोखा प्रभाव छोड़ती है।
प्रचलित प्रवाह की धारा के विपरीत, जहाँ यह प्रतिपादन प्रस्तुत किया गया है कि इक्कीसवीं शताब्दी नारी- विशिष्टता की अवधि है, वहाँ उसे स्वीकार करने और कराने में बहुत कठिनाई भी उठानी नहीं पड़ी है। जहाँ शिक्षा का प्रचलन है, वहाँ तो इस तथ्य को बौद्धिक आधार पर भी स्वीकार कर लिया गया है, किन्तु एक अनोखा चमत्कार यह देखने को मिल रहा है कि अशिक्षित स्तर के नारी- समुदाय ने भी नवयुग के इस सन्देश को स्वीकार कर लिया है और अनेक दबावों- अवरोधों के सामने होते हुए भी प्रगति- पथ पर चल पड़ने का निश्चय कर लिया है।
वयस्क महिलाओं को कभी प्रौढ़ शिक्षा की बात सुनकर शरम भी आती थी और वे इसके लिए तैयार नहीं होती थीं, पर अब शान्तिकुञ्ज परिकर की प्राय: आधी प्रौढ़ महिलाएँ आग्रह और रुचिपूर्वक यह सब सोचने लगी हैं। शिक्षण का प्रबन्ध होने पर शिक्षकों की सहायता के फलस्वरूप अब उन्होंने अध्यापन का काम भी सँभालना प्रारम्भ कर दिया है। घूँघट व परदे का रिवाज तो अब इस प्रकार छूटता जा रहा है, जैसे वह पहले कभी रहा ही न हो। नारी- प्रगति की एक हवा चल पड़ी है। जहाँ दुस्साहसपूर्ण बड़े प्रयास और आग्रह भी सफल नहीं होते थे, इस सबको देखते हुए लगता है कि इस प्रयास के पीछे कोई अदृश्य शक्ति काम कर रही है और उस लक्ष्य की ओर ले जा रही है, जहाँ नर और नारी दोनों एक स्तर तक पहुँच कर रहेंगे।