Books - पवित्र जीवन
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
काम वासना विकार
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
नर और मादा में लौह-चुम्बक जैसा स्वाभाविक आकर्षण होने के
कारण दोनों जोड़े से रहना पसन्द करते हैं । जो पशु-पक्षी जितने ही
विकसित होते जाते हैं, वे यौन-आकर्षण को अनुभव करते हैं और
साथ-साथ रहते हैं । चकवा, सारस, कबूतर, तीतर, बत्तक, राजहंस आदि
पक्षी और सिंह, हिरण, भेड़िया, आदि पशु एवं साँप मगर जैसे जीव जन्तु
जोड़े से रहते हैं । जो नियमित जोड़ा चुनना नहीं जानते वे भी
समय-समय पर यौन आकर्षण के अनुसार आकर्षित होते रहते हैं और
विपरीत योनि के साथ रहना पसन्द करते हैं । प्रजा की उत्पत्ति के कार्य
को प्राणी भूल न जाय इसलिए प्रकृति ने उसमें एक विशेष आनन्द का
भी समावेश कर दिया है । इस प्रकार विकसित जीव-जन्तु जोड़े से
रहना चाहते हैं तदनुसार मनुष्य भी चाहता है । इस आकर्षण को प्रेम
के नाम से पुकारा जाता है यही रस्सी नर मादा को साथ-साथ रहने
के लिए आपस में बाँधे रहती है । तरुण पुरुष विवाह की इच्छा करे तो
यह उसका शारीरिक धर्म है इसमें हानि कुछ नहीं लाभ ही है ।
जोड़े से रहना बुरा नहीं है परन्तु प्रेम की स्वाभाविक शक्ति और गर्भाधान क्रिया के तात्कालिक आनन्द इन दोनों सात्विक वस्तुओं को जब हम काम वासना के बुरे रूप में परिणति कर देते हैं तो वह शरीर के लिए बहुत ही खतरनाक वस्तु बन जाती है । जैसे भूख स्वाभाविक है और मधुर भोजन करना भी स्वाभाविक है किन्तु इन प्राकृतिक क्रियाओं को विकृत करके जो मनुष्य चटोरा बन जाता है दिन भर तरह-तरह के भोजन का ही चिन्तन करता है । थोड़ी-थोड़ी देर पर चाट पकौड़ी, मिठाई खटाई चाटता रहता है उसकी यह विकृत आदत ही उसके सर्वनाश का कारण बन जाती है । पेट खराब होने से वह बीमार पड़ता है और शक्तिहीन होकर बहुत जल्द मर जाता है ।इसी प्रकार यौन आकर्षण की स्वाभाविक क्रिया को जब कामाग्नि के रूप में परिणत कर दिया जाता है तो यह शरीर को जलाकर भस्म कर देती है । दिन भर पंखा चलाने वाली रात भर रोशनी करने वाली आपको सब प्रकार का सुख देने वाली बिजली भी जब अनुचित रीति से छू ली जाती है तो वह एक झटके में ही प्राण ले लेती है ।
काम शक्ति जीवन शक्ति का एक चिन्ह है किन्तु उसका निर्धारित अवसर पर ही प्रयोग करना चाहिए । प्राकृतिक नियम यह है जब मादा को गर्भ धारण करने की तीव्र इच्छा हो तो नर के पास गमन करे । यही काम तृप्ति की मर्यादा है । किन्तु आजकल तो जिह्वा के चटोरपन और इन्द्रियों की लिप्सा को तृप्त करना मनुष्यों का जीवनोद्देश्य बन गया है । अमर्यादित कामोत्तेजना एक प्रकार की प्रत्यक्ष अग्नि है । कामुकता के भाव उदय होते ही शरीर की गर्मी बढ़ जाती है । श्वास गरम आने लगती है । त्वचा का तापमान बढ़ जाता है । रक्त का वेग तीव्र हो जाता है । इस गर्मी के दाह से कुछ धातुएँ पिघलने और कुछ जलने लगती हैं । शरीर के कुछ सत्व पिघल कर मूत्र के साथ स्त्रावित होने लगते हैं । देखा जाता है कि कामुक व्यक्तियों के पेशाब का रंग पीला होता है क्योंकि उनमें पित्त, क्षार, शर्करा आदि शरीरोपयोगी वस्तुएँ मिल जाती हैं कभी-कभी उनका पेशाब अधिक चिकना, गाढ़ा, सफेदी लिए और लसदार होता है, इसमें चर्बी एल्ब्यूमिन हड्डियों का सार भाग आदि मिल जाता है । जब अधिक गरम पेशाब आता है, तो उसमें कई फास्फोरस और लोह-सत्व जैसी अमूल्य वस्तुएँ मिली रहती हैं । इस तरह कामाग्नि से शरीर के रस पिघल-पिघल कर नीचे बहते रहते हैं और देह खोखली होती जाती है । त्वचा, स्नायु तन्तु पेशियाँ और अस्थि पिंजर उस अग्नि से जलने लगते हैं और वे मामूली रोगों से बचने की भी शक्ति को खो बैठते है ।
उष्णता के कारण पकी हुई चमड़ी खुरदरी काली और सूखी निस्तेज हो जाती है ।निकट से देखने पर उसका शरीर बिलकुल रूखा और मुर्दापन लिए हुए देखा जा सकता है । लकवा, गठिया, कम्प आदि बात सम्बन्धी रोग अक्सर अति मैथुन से होते हैं यह अग्नि मस्तिष्क के लिए तो सबसे अधिक घातक हैं स्मरण शक्ति और निश्चयात्मक शक्ति का भी लोप होने लगता है । ऐसे खण्डहर मस्तिष्क में हीन विचारों के चमगादड़ आकर इकट्ठे होने लगते हैं । यह हीन विचार उसे उद्विग्न कर देते हैं और कभी-कभी तो घर से भागकर भिखारी बन जाना पागलपन मद्य सेवन एवम् आत्महत्या जैसी प्रवृत्तियों तक ले पहुँचते हैं । कामुकता का निश्चित परिणाम आसक्ति है । निर्बलता या कमजोरी साथ में अपना एक बड़ा कुटुम्ब लेकर आती है । उसके यह बाल बच्चे शरीर के जिस कोने में जगह पाते हैं उसी में डेरा डाल लेते हैं । सिर में दर्द, रीढ़ में दर्द, पैरों में भड़कन, आँखों तले अन्धेरा, भूख न लगना उदासीनता, निराशा, मुँह कडुवा रहना ,दस्त साफ न होना, कफ गिरना, दाँतों का दर्द, खुश्की, जलन, निद्रा की कमी, यह सब रोग कमजोरी के बाल-बच्चे हैं । यह अपनी माता के साथ रहते हैं । कोई दवा-दारू इन्हें हटा नहीं सकती । दूषित काम वासना केवल शारीरिक निर्बलता ही उत्पन्न नहीं करती वरन् ऐसे गन्दे रोगों को भी पैदा करती है जो शारीरिक पवित्रता को पूर्ण रूप से नष्ट कर देते हैं ।
जोड़े से रहना बुरा नहीं है परन्तु प्रेम की स्वाभाविक शक्ति और गर्भाधान क्रिया के तात्कालिक आनन्द इन दोनों सात्विक वस्तुओं को जब हम काम वासना के बुरे रूप में परिणति कर देते हैं तो वह शरीर के लिए बहुत ही खतरनाक वस्तु बन जाती है । जैसे भूख स्वाभाविक है और मधुर भोजन करना भी स्वाभाविक है किन्तु इन प्राकृतिक क्रियाओं को विकृत करके जो मनुष्य चटोरा बन जाता है दिन भर तरह-तरह के भोजन का ही चिन्तन करता है । थोड़ी-थोड़ी देर पर चाट पकौड़ी, मिठाई खटाई चाटता रहता है उसकी यह विकृत आदत ही उसके सर्वनाश का कारण बन जाती है । पेट खराब होने से वह बीमार पड़ता है और शक्तिहीन होकर बहुत जल्द मर जाता है ।इसी प्रकार यौन आकर्षण की स्वाभाविक क्रिया को जब कामाग्नि के रूप में परिणत कर दिया जाता है तो यह शरीर को जलाकर भस्म कर देती है । दिन भर पंखा चलाने वाली रात भर रोशनी करने वाली आपको सब प्रकार का सुख देने वाली बिजली भी जब अनुचित रीति से छू ली जाती है तो वह एक झटके में ही प्राण ले लेती है ।
काम शक्ति जीवन शक्ति का एक चिन्ह है किन्तु उसका निर्धारित अवसर पर ही प्रयोग करना चाहिए । प्राकृतिक नियम यह है जब मादा को गर्भ धारण करने की तीव्र इच्छा हो तो नर के पास गमन करे । यही काम तृप्ति की मर्यादा है । किन्तु आजकल तो जिह्वा के चटोरपन और इन्द्रियों की लिप्सा को तृप्त करना मनुष्यों का जीवनोद्देश्य बन गया है । अमर्यादित कामोत्तेजना एक प्रकार की प्रत्यक्ष अग्नि है । कामुकता के भाव उदय होते ही शरीर की गर्मी बढ़ जाती है । श्वास गरम आने लगती है । त्वचा का तापमान बढ़ जाता है । रक्त का वेग तीव्र हो जाता है । इस गर्मी के दाह से कुछ धातुएँ पिघलने और कुछ जलने लगती हैं । शरीर के कुछ सत्व पिघल कर मूत्र के साथ स्त्रावित होने लगते हैं । देखा जाता है कि कामुक व्यक्तियों के पेशाब का रंग पीला होता है क्योंकि उनमें पित्त, क्षार, शर्करा आदि शरीरोपयोगी वस्तुएँ मिल जाती हैं कभी-कभी उनका पेशाब अधिक चिकना, गाढ़ा, सफेदी लिए और लसदार होता है, इसमें चर्बी एल्ब्यूमिन हड्डियों का सार भाग आदि मिल जाता है । जब अधिक गरम पेशाब आता है, तो उसमें कई फास्फोरस और लोह-सत्व जैसी अमूल्य वस्तुएँ मिली रहती हैं । इस तरह कामाग्नि से शरीर के रस पिघल-पिघल कर नीचे बहते रहते हैं और देह खोखली होती जाती है । त्वचा, स्नायु तन्तु पेशियाँ और अस्थि पिंजर उस अग्नि से जलने लगते हैं और वे मामूली रोगों से बचने की भी शक्ति को खो बैठते है ।
उष्णता के कारण पकी हुई चमड़ी खुरदरी काली और सूखी निस्तेज हो जाती है ।निकट से देखने पर उसका शरीर बिलकुल रूखा और मुर्दापन लिए हुए देखा जा सकता है । लकवा, गठिया, कम्प आदि बात सम्बन्धी रोग अक्सर अति मैथुन से होते हैं यह अग्नि मस्तिष्क के लिए तो सबसे अधिक घातक हैं स्मरण शक्ति और निश्चयात्मक शक्ति का भी लोप होने लगता है । ऐसे खण्डहर मस्तिष्क में हीन विचारों के चमगादड़ आकर इकट्ठे होने लगते हैं । यह हीन विचार उसे उद्विग्न कर देते हैं और कभी-कभी तो घर से भागकर भिखारी बन जाना पागलपन मद्य सेवन एवम् आत्महत्या जैसी प्रवृत्तियों तक ले पहुँचते हैं । कामुकता का निश्चित परिणाम आसक्ति है । निर्बलता या कमजोरी साथ में अपना एक बड़ा कुटुम्ब लेकर आती है । उसके यह बाल बच्चे शरीर के जिस कोने में जगह पाते हैं उसी में डेरा डाल लेते हैं । सिर में दर्द, रीढ़ में दर्द, पैरों में भड़कन, आँखों तले अन्धेरा, भूख न लगना उदासीनता, निराशा, मुँह कडुवा रहना ,दस्त साफ न होना, कफ गिरना, दाँतों का दर्द, खुश्की, जलन, निद्रा की कमी, यह सब रोग कमजोरी के बाल-बच्चे हैं । यह अपनी माता के साथ रहते हैं । कोई दवा-दारू इन्हें हटा नहीं सकती । दूषित काम वासना केवल शारीरिक निर्बलता ही उत्पन्न नहीं करती वरन् ऐसे गन्दे रोगों को भी पैदा करती है जो शारीरिक पवित्रता को पूर्ण रूप से नष्ट कर देते हैं ।