Books - पवित्र जीवन
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Language: HINDI
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पवित्र जीवन
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गायत्री मंत्र का बारहवाँ अक्षर 'व' मनुष्य को पवित्र जीवन व्यतीत
करने की शिक्षा देता है-वसतां ना पवित्र: सन् बाह्यतोSभ्यन्तरस्तथा ।यत: पवित्रताया हि रिजतेSति प्रसन्नता ।
अर्थात्- ''मनुष्य को बाहर और भीतर से पवित्र रहना चाहिएक्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है ।''पवित्रता में चित्त की प्रसन्नता शीतलता शान्ति निश्चिन्तता प्रतिष्ठा और सचाई छिपी रहती है । कूड़ा-करकट मैल-विकार, पाप, गन्दगी,दुर्गन्ध सड़न अव्यवस्था और घिचपिच से मनुष्य की आन्तरिक निकृष्टताप्रकट होती है ।
आलस्य और दरिद्र पाप और पतन जहाँ रहते हैं वहीं मलिनता
या गन्दगी का निवास रहता है । जो ऐसी प्रकृति के हैं उनके वस्त्र घर
सामान शरीर मन व्यवहार वचन लेन- देन सबमें गन्दगी और अव्यवस्था
भरी रहती है । इसके विपरीत जहाँ चैतन्यता जागरूकता सुरुचि सात्विकता
होगी वहाँ सबसे पहले स्वच्छता की ओर ध्यान जायगा । सफाई सादगी
और सुव्यवस्था में ही सौन्दर्य है इसी को पवित्रता कहते हैं ।
गन्दे खाद से गुलाब के सुन्दर फूल पैदा होते हैं जिसे मलिनता
को साफ करने में हिचक न होगी वही सौन्दर्य का सच्चा उपासक कहा
जायगा । मलिनता से घृणा होनी चाहिए पर उसे हटाने या दूर करने में
तत्परता होनी चाहिए । आलसी अथवा गन्दगी की आदत वाले प्राय:
फुरसत न मिलने का बहाना करके अपनी कुरुचि पर पर्दा डाला करते हैं पवित्रता एक आध्यात्मिक गुण है । आत्मा स्वभावत: पवित्र और
सुन्दर है इसलिए आत्म परायण व्यक्ति के विचार व्यवहार तथा वस्तुएँ
भी सदा स्वच्छ एवम् सुन्दर रहते हैं । गन्दगी उसे किसी भी रूप में नहीं
सुहाती गन्दे वातावरण में उसकी साँस घुटती है, इसलिए वह सफाई के
लिए दूसरों का आसरा नहीं टटोलता अपनी समस्त वस्तुओं को स्वच्छ
बनाने के लिए वह सब से पहले अवकाश निकालता है ।
पवित्रता के कई भेद हैं । सबसे पहले शारीरिक स्वच्छता का नम्बर
आता है जिसमें वस्त्रों और निवास स्थान की सफाई भी आवश्यक होती
है । दूसरी स्वच्छता मानसिक विचारों और भावों की होती है । आर्थिक
मामलों में भी जैसे आजीविका लेन-देन आदि में शुद्ध व्यवहार करना
श्रेष्ठ गुण समझा जाता है । चौथी पवित्रता व्यावहारिक विषयों की है
जिसका आशय बातचीत और कार्यों के औचित्य से है । अन्तिम नम्बर
आध्यात्मिक विषयों की पवित्रता का है जिसके बिना हमारा धर्म-कर्म
निरर्थक हो जाता है । इन सब में शारीरिक और मानसिक पवित्रता से
लोगों का विशेष काम पड़ा करता है क्योंकि इनके होने से अन्य विषयों
में स्वयं ही पवित्र भावों का उदय होता है ।
करने की शिक्षा देता है-वसतां ना पवित्र: सन् बाह्यतोSभ्यन्तरस्तथा ।यत: पवित्रताया हि रिजतेSति प्रसन्नता ।
अर्थात्- ''मनुष्य को बाहर और भीतर से पवित्र रहना चाहिएक्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है ।''पवित्रता में चित्त की प्रसन्नता शीतलता शान्ति निश्चिन्तता प्रतिष्ठा और सचाई छिपी रहती है । कूड़ा-करकट मैल-विकार, पाप, गन्दगी,दुर्गन्ध सड़न अव्यवस्था और घिचपिच से मनुष्य की आन्तरिक निकृष्टताप्रकट होती है ।
आलस्य और दरिद्र पाप और पतन जहाँ रहते हैं वहीं मलिनता
या गन्दगी का निवास रहता है । जो ऐसी प्रकृति के हैं उनके वस्त्र घर
सामान शरीर मन व्यवहार वचन लेन- देन सबमें गन्दगी और अव्यवस्था
भरी रहती है । इसके विपरीत जहाँ चैतन्यता जागरूकता सुरुचि सात्विकता
होगी वहाँ सबसे पहले स्वच्छता की ओर ध्यान जायगा । सफाई सादगी
और सुव्यवस्था में ही सौन्दर्य है इसी को पवित्रता कहते हैं ।
गन्दे खाद से गुलाब के सुन्दर फूल पैदा होते हैं जिसे मलिनता
को साफ करने में हिचक न होगी वही सौन्दर्य का सच्चा उपासक कहा
जायगा । मलिनता से घृणा होनी चाहिए पर उसे हटाने या दूर करने में
तत्परता होनी चाहिए । आलसी अथवा गन्दगी की आदत वाले प्राय:
फुरसत न मिलने का बहाना करके अपनी कुरुचि पर पर्दा डाला करते हैं पवित्रता एक आध्यात्मिक गुण है । आत्मा स्वभावत: पवित्र और
सुन्दर है इसलिए आत्म परायण व्यक्ति के विचार व्यवहार तथा वस्तुएँ
भी सदा स्वच्छ एवम् सुन्दर रहते हैं । गन्दगी उसे किसी भी रूप में नहीं
सुहाती गन्दे वातावरण में उसकी साँस घुटती है, इसलिए वह सफाई के
लिए दूसरों का आसरा नहीं टटोलता अपनी समस्त वस्तुओं को स्वच्छ
बनाने के लिए वह सब से पहले अवकाश निकालता है ।
पवित्रता के कई भेद हैं । सबसे पहले शारीरिक स्वच्छता का नम्बर
आता है जिसमें वस्त्रों और निवास स्थान की सफाई भी आवश्यक होती
है । दूसरी स्वच्छता मानसिक विचारों और भावों की होती है । आर्थिक
मामलों में भी जैसे आजीविका लेन-देन आदि में शुद्ध व्यवहार करना
श्रेष्ठ गुण समझा जाता है । चौथी पवित्रता व्यावहारिक विषयों की है
जिसका आशय बातचीत और कार्यों के औचित्य से है । अन्तिम नम्बर
आध्यात्मिक विषयों की पवित्रता का है जिसके बिना हमारा धर्म-कर्म
निरर्थक हो जाता है । इन सब में शारीरिक और मानसिक पवित्रता से
लोगों का विशेष काम पड़ा करता है क्योंकि इनके होने से अन्य विषयों
में स्वयं ही पवित्र भावों का उदय होता है ।