Books - प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया
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यह समय चूकने का है नहीं
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आमतौर से भक्तजन भगवान् को पुकारते और उनकी सहायता के लिये विनयपूर्वक गिड़गिड़ाते रहते हैं, पर कभी- कभी ऐसे समय भी आते हैं, जब भगवान् उन भक्त जनों से आवश्यक याचना करते हैं और बदले में उन्हें इतना महत्त्व देना पड़ता है, जो उनका अपने महत्त्व से भी बढ़- चढ़कर होता है।
हनुमान की वरिष्ठता के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने पर राम- लक्ष्मण उन्हें खोजने ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे थे और येन- केन प्रकारेण उन्हें सीता की खोज में सहायता करने के लिये सहमत किया था। गंगाघाट पार करने के लिये केवट की सहायता आवश्यक हो गई थी, इसलिये केवट को उन्होंने आग्रहपूर्वक सहायता करने के लिये किसी प्रकार मनाया। आड़े समय में काम आने वाले जटायु को छाती से लगाकर कृतज्ञता व्यक्त की, उसकी अनुभूति हर सुनने वाले को भाव- विभोर कर देती है। समुद्र का पुल बाँधने में जिन निहत्थे रीछ- वानरों ने सहायता की, उनकी उदार चेतना को हजारों- लाखों वर्ष बीत जाने पर भी कथाकारों ने भुलाया नहीं है।
महाभारत अभीष्ट था। उसकी बागडोर सँभालने के लिये अर्जुन जैसे मनस्वी की आवश्यकता थी। अर्जुन से पूछा गया तो वह अचकचाने लगा। कभी भीख माँगकर खा लेने, कभी कुटुम्बियों पर हथियार न उठाने का सिद्धान्तवाद तर्क रूप में प्रस्तुत करने लगा। भगवान् ने उसके मन की कमजोरी पढ़ी और भर्त्सनापूर्वक कटु शब्दों में दबाव डाला कि उसे उस कठोर कार्य में उद्यत होना ही चाहिये। यों भगवान् सर्व शक्तिमान् होने से महाभारत को अकेले भी जीत सकते थे, पर अर्जुन को श्रेय देना था, जो सच्ची मित्रता का तकाजा था। उसे यशस्वी भी तो बनाना था, इसलिये संग्राम के मध्य खड़े होकर अर्जुन को सुविस्तृत दर्शनशास्त्र समझाते हुए अपने प्रयोजन में भागीदार बनने के लिये सहमत करना ही पड़ा। अर्जुन घाटे में नहीं, नफे में ही रहा।
सुदामा बगल में दबी चावल की पोटली देना नहीं चाहते थे, सकुचा रहे थे, पर उन्होंने उस दुराव को बलपूर्वक छीना और चावल देने की उदारता परखने के बाद ही सुदामापुरी को द्वारिकापुरी में रूपान्तरित किया। भक्त और भगवान् के मध्यवर्ती इतिहास की परम्परा यही रही है। पात्रता जाँचने के उपरान्त ही किसी को कुछ महत्त्वपूर्ण मिला है। जो आँखें मटकाते आँसू बहाते, रामधुन की ताली बजाकर बड़े- बड़े उपहार पाना चाहते हैं, उनकी अनुदारता खाली हाथ ही लौटती है। भगवान् को ठगा नहीं जा सकता है ।। वे गोपियों तक से छाछ प्राप्त किये बिना अपने अनुग्रह का परिचय नहीं देते थे। जो गोवर्धन उठाने में सहायता करने की हिम्मत जुटा सके, वही कृष्ण के सच्चे सखाओं में गिने जा सके।
यह समय युग परिवर्तन जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य का है। इसे आदर्शवादी कठोर सैनिकों के लिये परीक्षा की घड़ी कहा जाये, तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं समझी जानी चाहिये। पुराना कचरा हटता है और उसके स्थान पर नवीनता के उत्साह भरे सरंजाम जुटते हैं। यह महान् परिवर्तन की- महाक्रान्ति की वेला है। इसमें कायर, लोभी, डरपोक और भाँड़ आदि जहाँ- तहाँ छिपे हों, तो उनकी ओर घृणा, तिरस्कार की दृष्टि डालते हुए, उन्हें अनदेखा भी किया जा सकता है। यहाँ तो प्रसंग हथियारों से सुसज्जित सेना का चल रहा है। वे ही यदि समय की महत्ता, आवश्यकता को, न समझते हुए, जहाँ- तहाँ मटरगस्ती करते फिरें और समय पर हथियार न पाने के कारण समूची सेना को परास्त होना पड़े तो ऐसे व्यक्तियों पर तो हर किसी का रोष ही बरसेगा, जिनने- आपात स्थिति में भी प्रमाद बरता और अपना तथा अपने देश के गौरव को मटियामेट करके रख दिया।
जीवन्तों, जाग्रतों और प्राणवान् में से प्रत्येक को अनुभव करना चाहिये कि यह ऐसा विशेष समय है जैसा कि हजारों- लाखों वर्षों बाद कभी एक बार आता है। गाँधी के सत्याग्रही और बुद्ध के परिव्राजक बनने का श्रेय, समय निकल जाने पर अब कोई किसी भी मूल्य पर नहीं पा सकता। हनुमान और अर्जुन की भूमिका हेतु फिर से लालायित होने वाला कोई व्यक्ति कितने ही प्रयत्न करे, अब दुबारा वैसा अवसर हस्तगत नहीं कर सकता। समय की प्रतीक्षा तो की जा सकती है, पर समय किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। भगीरथ, दधीचि और हरिश्चन्द्र जैसा सौभाग्य अब उनसे भी अधिक त्याग करने पर भी पाया नहीं जा सकता ।।
समय बदल रहा है। प्रभातकाल का ब्रह्ममुहूर्त अभी है। अरुणोदय के दर्शन अभी हो सकते हैं। कुछ घण्टे ऐसे हैं उन्हें यदि प्रमाद में गँवा दिये जायें, तो अब वह गया समय लौटकर फिर किस प्रकार आ सकेगा? युग- परिवर्तन की वेला ऐतिहासिक, असाधारण अवधि है। इसमें जिनका जितना पुरुषार्थ होगा, वह उतना ही उच्च कोटि का शौर्य पदक पा सकेगा। समय निकल जाने पर, साँप निकल जाने पर लकीर को लाठियों से पीटना भर ही शेष रह जाता है।
इन दिनों मनुष्य का भाग्य और भविष्य नये सिरे से लिखा और गढ़ा जा रहा है। ऐसा विलक्षण समय कभी हजारों- लाखों वर्षों बाद आता है। इसे चूक जाने वाले सदा पछताते ही रहते हैं और जो उसका सदुपयोग कर लेते हैं, वे अपने आपको सदा- सर्वदा के लिये अजर- अमर बना लेते हैं। गोवर्धन एक बार ही उठाया गया था। समुद्र पर सेतु भी एक ही बार बना था। कोई यह सोचता रहे कि ऐसे समय तो बार- बार आते ही रहेंगे और हमारा जब भी मन करेगा, तभी उसका लाभ उठा लेंगे, तो ऐसा समझने वाले भूल ही कर रहे होंगे। इस भूल का परिमार्जन फिर कभी कदाचित् ही हो सके।
लोग अपने पुरुषार्थ से तो अपने अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करते ही रहते हैं; पर भगवान् के उपायों का श्रेय मनुष्य को अनायास ही मिल जाये, ऐसा कदाचित ही कभी होता है। अर्जुन का रथ एक बार ही कृष्ण ने चलाया था। वे उसके केवल, मात्र सारथी नहीं थे कि जब हुकुम चलाया, तभी उनसे वह काम करा लिया। भगवान् राम और लक्ष्मण को कन्धों पर उठाये- फिरने का श्रेय हनुमान को एक ही बार मिला था। वे जब चाहते तभी हनुमान हठी बनकर, उन्हें कन्धों पर बिठाते और सैर कराते; ऐसे अवसर चाहे कभी भी मिल जाते रहेंगे, ऐसी आशा सदा- सर्वदा किसी को भी नहीं करनी चाहिये।
ब्रह्मा ने सृष्टि एक बार ही रची थी। उसके बाद तो वह ढर्रा ज्यों- त्यों करके अपने ढंग से चलता ही आ रहा है। नये युग का सृजन इन्हीं दिनों हो रहा है। समुद्र- मन्थन एक बार ही हुआ और उसमें से १४ रत्न एक बार ही निकले थे। वैसी घटनायें जब मन आये तभी घटित कर दी जायेंगी, यह आशा नहीं करनी चाहिये।
अवांछनीयता के पलायन का, औचित्य की संस्थापना का ब्रह्म मुहूर्त, यह एक बार ही आया है। फिर कभी हम लोग इसी मनुष्य जन्म में ऐसा देख सकेंगे, इसकी आशा करना एक प्रकार से अवांछनीय ही होगा। अच्छा यही हो कि ऐसी पुण्य वेला का लाभ उठाने में आज के विचारशील तो चूक करें ही नहीं।
हनुमान की वरिष्ठता के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने पर राम- लक्ष्मण उन्हें खोजने ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे थे और येन- केन प्रकारेण उन्हें सीता की खोज में सहायता करने के लिये सहमत किया था। गंगाघाट पार करने के लिये केवट की सहायता आवश्यक हो गई थी, इसलिये केवट को उन्होंने आग्रहपूर्वक सहायता करने के लिये किसी प्रकार मनाया। आड़े समय में काम आने वाले जटायु को छाती से लगाकर कृतज्ञता व्यक्त की, उसकी अनुभूति हर सुनने वाले को भाव- विभोर कर देती है। समुद्र का पुल बाँधने में जिन निहत्थे रीछ- वानरों ने सहायता की, उनकी उदार चेतना को हजारों- लाखों वर्ष बीत जाने पर भी कथाकारों ने भुलाया नहीं है।
महाभारत अभीष्ट था। उसकी बागडोर सँभालने के लिये अर्जुन जैसे मनस्वी की आवश्यकता थी। अर्जुन से पूछा गया तो वह अचकचाने लगा। कभी भीख माँगकर खा लेने, कभी कुटुम्बियों पर हथियार न उठाने का सिद्धान्तवाद तर्क रूप में प्रस्तुत करने लगा। भगवान् ने उसके मन की कमजोरी पढ़ी और भर्त्सनापूर्वक कटु शब्दों में दबाव डाला कि उसे उस कठोर कार्य में उद्यत होना ही चाहिये। यों भगवान् सर्व शक्तिमान् होने से महाभारत को अकेले भी जीत सकते थे, पर अर्जुन को श्रेय देना था, जो सच्ची मित्रता का तकाजा था। उसे यशस्वी भी तो बनाना था, इसलिये संग्राम के मध्य खड़े होकर अर्जुन को सुविस्तृत दर्शनशास्त्र समझाते हुए अपने प्रयोजन में भागीदार बनने के लिये सहमत करना ही पड़ा। अर्जुन घाटे में नहीं, नफे में ही रहा।
सुदामा बगल में दबी चावल की पोटली देना नहीं चाहते थे, सकुचा रहे थे, पर उन्होंने उस दुराव को बलपूर्वक छीना और चावल देने की उदारता परखने के बाद ही सुदामापुरी को द्वारिकापुरी में रूपान्तरित किया। भक्त और भगवान् के मध्यवर्ती इतिहास की परम्परा यही रही है। पात्रता जाँचने के उपरान्त ही किसी को कुछ महत्त्वपूर्ण मिला है। जो आँखें मटकाते आँसू बहाते, रामधुन की ताली बजाकर बड़े- बड़े उपहार पाना चाहते हैं, उनकी अनुदारता खाली हाथ ही लौटती है। भगवान् को ठगा नहीं जा सकता है ।। वे गोपियों तक से छाछ प्राप्त किये बिना अपने अनुग्रह का परिचय नहीं देते थे। जो गोवर्धन उठाने में सहायता करने की हिम्मत जुटा सके, वही कृष्ण के सच्चे सखाओं में गिने जा सके।
यह समय युग परिवर्तन जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य का है। इसे आदर्शवादी कठोर सैनिकों के लिये परीक्षा की घड़ी कहा जाये, तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं समझी जानी चाहिये। पुराना कचरा हटता है और उसके स्थान पर नवीनता के उत्साह भरे सरंजाम जुटते हैं। यह महान् परिवर्तन की- महाक्रान्ति की वेला है। इसमें कायर, लोभी, डरपोक और भाँड़ आदि जहाँ- तहाँ छिपे हों, तो उनकी ओर घृणा, तिरस्कार की दृष्टि डालते हुए, उन्हें अनदेखा भी किया जा सकता है। यहाँ तो प्रसंग हथियारों से सुसज्जित सेना का चल रहा है। वे ही यदि समय की महत्ता, आवश्यकता को, न समझते हुए, जहाँ- तहाँ मटरगस्ती करते फिरें और समय पर हथियार न पाने के कारण समूची सेना को परास्त होना पड़े तो ऐसे व्यक्तियों पर तो हर किसी का रोष ही बरसेगा, जिनने- आपात स्थिति में भी प्रमाद बरता और अपना तथा अपने देश के गौरव को मटियामेट करके रख दिया।
जीवन्तों, जाग्रतों और प्राणवान् में से प्रत्येक को अनुभव करना चाहिये कि यह ऐसा विशेष समय है जैसा कि हजारों- लाखों वर्षों बाद कभी एक बार आता है। गाँधी के सत्याग्रही और बुद्ध के परिव्राजक बनने का श्रेय, समय निकल जाने पर अब कोई किसी भी मूल्य पर नहीं पा सकता। हनुमान और अर्जुन की भूमिका हेतु फिर से लालायित होने वाला कोई व्यक्ति कितने ही प्रयत्न करे, अब दुबारा वैसा अवसर हस्तगत नहीं कर सकता। समय की प्रतीक्षा तो की जा सकती है, पर समय किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। भगीरथ, दधीचि और हरिश्चन्द्र जैसा सौभाग्य अब उनसे भी अधिक त्याग करने पर भी पाया नहीं जा सकता ।।
समय बदल रहा है। प्रभातकाल का ब्रह्ममुहूर्त अभी है। अरुणोदय के दर्शन अभी हो सकते हैं। कुछ घण्टे ऐसे हैं उन्हें यदि प्रमाद में गँवा दिये जायें, तो अब वह गया समय लौटकर फिर किस प्रकार आ सकेगा? युग- परिवर्तन की वेला ऐतिहासिक, असाधारण अवधि है। इसमें जिनका जितना पुरुषार्थ होगा, वह उतना ही उच्च कोटि का शौर्य पदक पा सकेगा। समय निकल जाने पर, साँप निकल जाने पर लकीर को लाठियों से पीटना भर ही शेष रह जाता है।
इन दिनों मनुष्य का भाग्य और भविष्य नये सिरे से लिखा और गढ़ा जा रहा है। ऐसा विलक्षण समय कभी हजारों- लाखों वर्षों बाद आता है। इसे चूक जाने वाले सदा पछताते ही रहते हैं और जो उसका सदुपयोग कर लेते हैं, वे अपने आपको सदा- सर्वदा के लिये अजर- अमर बना लेते हैं। गोवर्धन एक बार ही उठाया गया था। समुद्र पर सेतु भी एक ही बार बना था। कोई यह सोचता रहे कि ऐसे समय तो बार- बार आते ही रहेंगे और हमारा जब भी मन करेगा, तभी उसका लाभ उठा लेंगे, तो ऐसा समझने वाले भूल ही कर रहे होंगे। इस भूल का परिमार्जन फिर कभी कदाचित् ही हो सके।
लोग अपने पुरुषार्थ से तो अपने अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करते ही रहते हैं; पर भगवान् के उपायों का श्रेय मनुष्य को अनायास ही मिल जाये, ऐसा कदाचित ही कभी होता है। अर्जुन का रथ एक बार ही कृष्ण ने चलाया था। वे उसके केवल, मात्र सारथी नहीं थे कि जब हुकुम चलाया, तभी उनसे वह काम करा लिया। भगवान् राम और लक्ष्मण को कन्धों पर उठाये- फिरने का श्रेय हनुमान को एक ही बार मिला था। वे जब चाहते तभी हनुमान हठी बनकर, उन्हें कन्धों पर बिठाते और सैर कराते; ऐसे अवसर चाहे कभी भी मिल जाते रहेंगे, ऐसी आशा सदा- सर्वदा किसी को भी नहीं करनी चाहिये।
ब्रह्मा ने सृष्टि एक बार ही रची थी। उसके बाद तो वह ढर्रा ज्यों- त्यों करके अपने ढंग से चलता ही आ रहा है। नये युग का सृजन इन्हीं दिनों हो रहा है। समुद्र- मन्थन एक बार ही हुआ और उसमें से १४ रत्न एक बार ही निकले थे। वैसी घटनायें जब मन आये तभी घटित कर दी जायेंगी, यह आशा नहीं करनी चाहिये।
अवांछनीयता के पलायन का, औचित्य की संस्थापना का ब्रह्म मुहूर्त, यह एक बार ही आया है। फिर कभी हम लोग इसी मनुष्य जन्म में ऐसा देख सकेंगे, इसकी आशा करना एक प्रकार से अवांछनीय ही होगा। अच्छा यही हो कि ऐसी पुण्य वेला का लाभ उठाने में आज के विचारशील तो चूक करें ही नहीं।