Books - युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग २
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जीवनी शक्ति की दृश्य चमत्कृतियाँ
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मोटर का ढाँचा लोहे का बना होता है। उसके पहियों में, रबड़, सीटों पर
रेगजीन, खिड़कियों में काँच आदि लगे होते हैं। यह बात सही होते हुए भी उसका
दौड़ना, मुड़ना, पीछे हटना आदि उस अग्नि पर, विद्युत शक्ति पर निर्भर रहता
है, जो पेट्रोल, बैटरी, डायनेमो आदि के माध्यम से बनती है। उसकी भागदौड़
आदि में भी वही निमित्त कारण बनती है। पेट्रोल चुक जाए, बैटरी फ्यूज हो
जाए, तो समझना चाहिए कि वह आकार में ज्यों- की होते हुए भी हरकत में नहीं आ
सकेगी। शरीर संरचना भी मोटर सदृश ही है। देखने में वह हाड़- माँस रक्त,
त्वचा आदि की बनी प्रतीत होती है, पर उसकी बाहरी और भीतरी हलचलें प्राण
विद्युत पर निर्भर रहती हैं।
प्राण के तिरोहित हो जाने पर अच्छा- खासा मोटा- तगड़ा शरीर भी देखते- देखते निर्जीव हो जाता है। धड़कन बंद हो जाने पर तत्काल मृत्यु हो जाती है और कुछ समय पहले तक जो शरीर प्रबल पुरुषार्थ दिखा रहा था, उसे जलाने या गाड़ने की आवश्यकता अनुभव की जाती है। उसकी अंत्येष्टि न की जाए तो थोड़े ही समय में वह अपने आप सड़ने और नष्ट होने का उपक्रम अपना लेता है। जो गिद्ध, चील, श्वान, शृंगाल जीवित व्यक्ति से सर्वथा दूर रहते थे, वे गंध पाते ही दौड़ पड़ते हैं और लाश को तेजी से उदरस्थ कर जाते हैं।
शरीर में बाहर से तो उसके हाथ- पैर कान आदि काम करते दिखाई पड़ते हैं, पर वस्तुतः: जीवन आंतरिक ऊर्जा पर निर्भर रहता है। अदृश्य ऊर्जा जीवनी शक्ति, चेतना, प्राण विद्युत आदि नामों से जानी जाती है। वही जीवन की संचालिका और विभिन्न हलचलों की अधिष्ठात्री है। स्वास्थ्य संतुलन और पुरुषार्थ पराक्रम इसी पर निर्भर रहते हैं। वह बढ़ी- चढ़ी हो तो व्यक्ति एक- से बढ़कर पराक्रम दिखा पाता है। परंतु यदि उसमें दुर्बलता, न्यूनता अथवा विकृति बढ़ने लगे तो शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोग भी व्यक्ति को देखते- देखते धर दबोचते हैं।
चिकित्सक, रोग निवारण या दुर्बलता शमन के लिए अपने- अपने ढंग से निदान और उपचार करते हैं। वैद्य वात, पित्त, कफ़ को असंतुलन का कारण बताते हैं। हकीम उसको आदी, बादी, खादी प्रकृति के नाम से पुकारते हैं। होम्योपैथी में विष- से का निवारण करते हैं। बायोकेमिक वाले अमुक लवणों की कमी को प्रधान कारण मानते हैं। क्रोमोपैथी में रंगों का असंतुलन मूल कारण है। एलोपैथी वाले विषाणुओं का आक्रमण बताते हैं। उपचार भी निदान के अनुरूप मारक या शामक औषधियों द्वारा किया जाता है। परिणाम तत्काल जादू- चमत्कार दिखाने के अतिरिक्त और कुछ होता नहीं। इन दिनों प्रशिक्षित चिकित्सकों की भी बाढ़ आ रही है। अनुभव की दुहाई देने वाले अनगढ़ उपचारकों का तो कहना ही क्या? सरकारी अस्पताल, प्राइवेट क्लीनिक, दवाखाने, अन्य उद्योगों की तुलना में अधिक तेजी से खुल रहे हैं। साथ ही रोगियों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है, मानों अब दुनिया में सर्वथा नीरोग कहे जा सकने वाले व्यक्ति रह ही न गए हों?
इलाज सभी करते हैं, पर कुछ दिन चमत्कार दिखाने के उपरांत सभी उपचार निरर्थक हो जाते हैं। मरीज एक से दूसरे चिकित्सक का दरवाजा खटखटाते मौत के दिन पूरे करता है। चिकित्सक भी इस स्थिति से प्रसन्न नहीं हैं। पुरानी दवाओं को कम महत्त्व की मनाकर वे नई- नई दवाएँ खोजते और उनको नए आविष्कार कहकर उत्साह भरा ढिंढोरा पीटते रहते हैं। इतने पर भी ढाक के तीन पात ही रहते हैं। पर्यवेक्षणकर्ता एक स्वर से बताते हैं, कि रोगों की किस्में, नये रोगियों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि चिकित्सा क्षेत्र के अधिष्ठाता हतप्रभ हैं और अपनी पराजय को स्वीकार करने की अपेक्षा सशक्त विषाणुओं के तूफानी आक्रमण, मौसम परिवर्तन, रोगी के असंयम आदि के ऊपर दोष मढ़कर अपनी असफलता पर परदा डालने की प्रवंचना रचते रहते हैं।
पुराने जमाने में बुखार, खाँसी, दस्त आदि सीमित रोग थे, पर अब तो उनका वर्गीकरण बढ़ी- चढ़ी रोग तालिका के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। उनकी विभीषिका भी बढ़ी- चढ़ी हैं। दमा, अल्सर, मधुमेह, उच्च रक्तचाप से लेकर एड्स और कैंसर जैसे भयानक रोगों का ज्वार बढ़ता जाता है। भाटा आने और उतार दीख पड़ने की प्रतीक्षा निराशा बनकर रह जाती है। कब्ज, जुकाम, अनिद्रा जैसे रोगों का तो कहना ही क्या? वे तो नए फैशन के रूप में एक से अनेकों पर अपना आधिपत्य जमाते देखे जाते हैं। उपचारकर्ता ,, अपनी पराजय की झेंप मिटाने और रोजगार चलाने के लिए बढ़- चढ़कर प्रशंसा करके उपचार- बचाव आदि का लबादा ओढ़ते रहते हैं, पर सच्चाई अपनी जगह पर अड़ी रहकर पूछती है कि चिकित्सा तंत्र जब तूफानी गति से बढ़ रहा है, तो सर्वसाधारण को आरोग्य रक्षा का आश्वासन क्यों नहीं मिलता?
इस असमंजस के निवारण के लिए तनिक अधिक गहराई में उतरने की जरूरत है। खोजो का अंतिम निष्कर्ष आज या कल एक ही निकलने वाला है, कि मनुष्य की जीवनी शक्ति बेतरह घट रही है एवं वही स्थिति, व्याधियों को आमंत्रित कर रही है। यह स्थिति वस्तुत: दयनीय है। रोगी को अपराधी न कहा जाए, तो कम- से अभागा तो कहा ही जाएगा। वह जीवन के वास्तविक लाभ, प्रगतिशीलता के रसास्वाद से प्राय: वंचित ही बना रहता है। स्थिति चिंताजनक है, विशेषतया तब, जब लोगों में से अधिकांश तीव्र या मंद शारीरिक रोगों से घिरे पाए जाते हैं।
भीतरी जीवनी शक्ति की दुर्बलता, घटोत्तरी एवं विकृति को यदि दुर्बलता, क्षीणता, रुग्णता का प्रमुख कारण ठहराया जाए, तो यह उचित ही होगा। इन दिनों यही उपक्रम चल रहा है और आरोग्य की दृष्टि से लोग दिन- दिन दुर्बल बनते जाते हैं। अस्वस्थता आज की सबसे बड़ी समस्या है। उसके कारण पुरुषार्थ, प्रगति करने के सत्परिणाम उपलब्ध कर सकना कठिन पड़ता है। जो स्वयं दूसरों की सहायता चाहता है, जो स्वावलम्बन तक सँजो नहीं पाता, तो वह प्रगति कैसे करेगा?
यह सत्य कोई समझे या न समझे, पर जीवट की कमी एक ऐसी विडंबना है, कि जिसके कारण मनुष्य जीवित रहते हुए भी, एक प्रकार से पूर्ण मृतक नहीं तो अर्द्ध मृतक जैसा तो निश्चित रूप से बनकर ही रहता है। शरीर देखने में सही होते हुए भी निर्जीव- निस्तेज मस्तिष्क शिक्षित होते हुए भी कठिनाइयों से उबर पाने में असमर्थ और प्रगति की इच्छा- चेष्टा करते हुए भी असफल रहता है। इसके पीछे एक ही व्यवधान काम करता है कि उस ऊर्जा का अनुपात एवं स्तर घटा हुआ रहता है, जो प्रसन्नता, प्रफुल्लता, समर्थता और सफलता की जन्मदात्री है। शरीर की कमजोरी, बीमारी, निराशा, उद्विग्नता के प्रत्यक्ष कारण जो भी हों, पर वास्तविकता यह है कि जीवट घट जाने की ही यह समस्त परिणतियाँ हैं। जब तक मूल कारण को समझा और उसका निराकरण न किया जाएगा, तब तक शरीर क्षेत्र की दुर्बलता से लेकर मानसिक खिन्नता, विपन्नता तर्क से छुटकारा पा सकना संभव न हो सकेगा। थोड़ी देर के लिए उन्हें झुठलाकर मन बहला लिया जाए तो यह दूसरी बात है।
जीवन शरीर और मन तक ही सीमित नहीं है, उसमें पग- पग पर अवरोधों से जूझना भी पड़ता है और अपने ढंग से अपनी प्रगति के लिए रास्ता खुद ही बनाना पड़ता है। इसके लिए अभीष्ट शक्ति- सामर्थ्य न हो तो कुछ करते- धरते ही नहीं बन पड़ता। किंकर्तव्यविमूढ़- हतप्रभ की तरह ज्यों- का खड़ा रह जाना पड़ता है। साँस तो लुहार की धौंकनी भी लेती रहती है। अनाज खाने और आटा नीचे निकाल देने का ढर्रा तो चक्की भी घुमाती है। कोल्हू का बैल भी किसी प्रकार पिलने और पेलने में लगा रहता है। भूत- पलीत मरघट में रहकर, एकाकी डरने- डराने का जाल- जंजाल बुनते रहते हैं, पर यह सब मनुष्य जैसे असाधारण शक्तिसम्पन्न सृष्टि का मुकुटमणि कहलाने वालों को शोभा नहीं देता। उसे कुछ ऐसा करना चाहिए जिसके साथ उठने और उठाने की, बढ़ने और बढ़ाने की प्रक्रिया जुड़ी हुई हो, जिसे अनुकरणीय और अभिनंदनीय होने का सुयोग, सौभाग्य और सम्मान मिल सके, पर ऐसी प्रगतिशीलता किसी भी क्षेत्र में मिल तभी सकती है, जब आंतरिक ऊर्जा साथ दे। जीवट की परिणति ओजस्, और वर्चस् में हो और उनके विकसित होने की व्यवस्था बन पड़े।
मानवीय सत्ता के तीन पक्ष हैं- शरीर मस्तिष्क और अंतःकरण। इन्हीं को स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर कहते हैं। इनमें काम करने वाले जीवट को ही प्राणाग्नि, लोगोस, बायो इलेक्ट्रीसिटी, जीवनी शक्ति, विद्युत् चेतना आदि नामों से जाना जाता है। यही क्रमश: ओजस्, तेजस् और वर्चस् कहलाते हैं। उनका सामान्य संतुलन आरोग्य के नाम से जाना जाता है। इसे सही स्थिति में रखे रखना ही स्वास्थ्य रक्षा, समर्थता, बलिष्ठता आदि नामों से जाना जाता है। आंतरिक स्तर पर उसका सुनियोजन ही प्रतिभा के रूप में प्रकट होता है। इसे गिरा देना, सँभाले रखना या प्रखर बनाना, पूर्णतया मनुष्य के अपने हाथ में है। यह प्रक्रिया किसी बाहरी सहायता पर निर्भर नहीं होती। भाग्य, आनुवांशिकी, शाप या वरदान इसमें हस्तक्षेप नहीं कर पाते। पिछला कर्म आज के भाग्य के रूप में सुख- दुःख भर दे सकता है। प्रतिभावान दुःख को भी विकास का आधार बना लेते हैं तथा प्रमादी सुख को भी पतन का कारण बना लेते हैं।
जीवट प्राणाग्नि के विकास की प्रक्रिया हर स्थिति में चलती रह सकती है। आरोग्य का उद्गम यही है। नस- नाड़ियों माँसपेशियों, जीव कोषों में इसी का प्रभाव काम करता देखा जाता है। रोग निरोधक शक्ति यही है। इसी को टॉनिक के समतुल्य बलवर्धक स्थिति में देखा जाता है। मस्तिष्क में बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता, क्षमता इसी के चमत्कार हैं। वरिष्ठों, साहसियों, वैज्ञानिकों, कलाकारों एवं विशिष्टजनों में इसी शक्ति को काम करते देखा जा सकता है। अन्त:करण में भाव- संवेदनाओं के रूप में भी इसी को देखा जाता है। करुणा, सहिष्णुता और आदर्शवादी सराहनीय कृत्यों में इसी की गरिमा का परिचय मिलता है। यह शरीर में कम मात्रा में हो, तो समझना चाहिए कि व्यक्ति आए दिन बीमार पड़ेगा और अशक्तता से घिरा हुआ अपने आपको दुर्बल, पीड़ित एवं आधि- व्याधियों से घिरी स्थिति में अनुभव करता और कराहता रहेगा।
मस्तिष्क में इसका अनुपात कम हो तो उसे अस्त- व्यस्त अनगढ़, असभ्य, अर्द्ध- विक्षिप्त हलके स्तर का समझा जाएगा। औंधे- सीधे स्वभाव के कारण वह गलतियों, गलतफहमियों का शिकार रहेगा। ऐसा कुछ करते कहते देखा जाएगा, जो सभ्यजनों को शोभा नहीं देता। अंतःकरण की दृष्टि से हेय स्तर वाले निष्ठुर, निर्मम, नीरस, स्वार्थी और पतित स्तर के आचरण करते और उपहास- अपमान सहते दिखाई देते हैं। जिनमें यह प्राण संपदा जितनी कम है, उन्हें उसी अनुपात में दीन- हीन पिछड़ा, दरिद्री एवं अभावग्रस्त माना जाता है।
इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि हम प्रत्यक्ष कलेवर को देखते हैं। उसके पीछे काम करने वाली अदृश्य सामर्थ्य का न मूल्यांकन कर पाते हैं और न महत्त्व ही समझ पाते हैं। माँसपेशियों की पुष्टाई देखी जाती है, पर यह भुला दिया जाता है कि बिजली ही वह शक्तिपुंज है, जो अनेक उपकरणों को चलाती और जलाती है। बिजली की धारा न बह रही हो तो बल्ब, पंखे, हीटर, कूलर आदि कितने ही सुंदर या महँगे क्यों न हों, वे अपना काम ठीक प्रकार से नहीं कर सकते। इसी प्रकार जीवट की संजीवनी के कम पड़ जाने पर शरीर, मन, अंतःकरण सभी गड़बड़ा जाते हैं। विशेषतया स्वास्थ्य तो चौपट हो ही जाता है, जैसा कि आजकल सर्वत्र दिखाई पड़ता है।
प्राण के तिरोहित हो जाने पर अच्छा- खासा मोटा- तगड़ा शरीर भी देखते- देखते निर्जीव हो जाता है। धड़कन बंद हो जाने पर तत्काल मृत्यु हो जाती है और कुछ समय पहले तक जो शरीर प्रबल पुरुषार्थ दिखा रहा था, उसे जलाने या गाड़ने की आवश्यकता अनुभव की जाती है। उसकी अंत्येष्टि न की जाए तो थोड़े ही समय में वह अपने आप सड़ने और नष्ट होने का उपक्रम अपना लेता है। जो गिद्ध, चील, श्वान, शृंगाल जीवित व्यक्ति से सर्वथा दूर रहते थे, वे गंध पाते ही दौड़ पड़ते हैं और लाश को तेजी से उदरस्थ कर जाते हैं।
शरीर में बाहर से तो उसके हाथ- पैर कान आदि काम करते दिखाई पड़ते हैं, पर वस्तुतः: जीवन आंतरिक ऊर्जा पर निर्भर रहता है। अदृश्य ऊर्जा जीवनी शक्ति, चेतना, प्राण विद्युत आदि नामों से जानी जाती है। वही जीवन की संचालिका और विभिन्न हलचलों की अधिष्ठात्री है। स्वास्थ्य संतुलन और पुरुषार्थ पराक्रम इसी पर निर्भर रहते हैं। वह बढ़ी- चढ़ी हो तो व्यक्ति एक- से बढ़कर पराक्रम दिखा पाता है। परंतु यदि उसमें दुर्बलता, न्यूनता अथवा विकृति बढ़ने लगे तो शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोग भी व्यक्ति को देखते- देखते धर दबोचते हैं।
चिकित्सक, रोग निवारण या दुर्बलता शमन के लिए अपने- अपने ढंग से निदान और उपचार करते हैं। वैद्य वात, पित्त, कफ़ को असंतुलन का कारण बताते हैं। हकीम उसको आदी, बादी, खादी प्रकृति के नाम से पुकारते हैं। होम्योपैथी में विष- से का निवारण करते हैं। बायोकेमिक वाले अमुक लवणों की कमी को प्रधान कारण मानते हैं। क्रोमोपैथी में रंगों का असंतुलन मूल कारण है। एलोपैथी वाले विषाणुओं का आक्रमण बताते हैं। उपचार भी निदान के अनुरूप मारक या शामक औषधियों द्वारा किया जाता है। परिणाम तत्काल जादू- चमत्कार दिखाने के अतिरिक्त और कुछ होता नहीं। इन दिनों प्रशिक्षित चिकित्सकों की भी बाढ़ आ रही है। अनुभव की दुहाई देने वाले अनगढ़ उपचारकों का तो कहना ही क्या? सरकारी अस्पताल, प्राइवेट क्लीनिक, दवाखाने, अन्य उद्योगों की तुलना में अधिक तेजी से खुल रहे हैं। साथ ही रोगियों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है, मानों अब दुनिया में सर्वथा नीरोग कहे जा सकने वाले व्यक्ति रह ही न गए हों?
इलाज सभी करते हैं, पर कुछ दिन चमत्कार दिखाने के उपरांत सभी उपचार निरर्थक हो जाते हैं। मरीज एक से दूसरे चिकित्सक का दरवाजा खटखटाते मौत के दिन पूरे करता है। चिकित्सक भी इस स्थिति से प्रसन्न नहीं हैं। पुरानी दवाओं को कम महत्त्व की मनाकर वे नई- नई दवाएँ खोजते और उनको नए आविष्कार कहकर उत्साह भरा ढिंढोरा पीटते रहते हैं। इतने पर भी ढाक के तीन पात ही रहते हैं। पर्यवेक्षणकर्ता एक स्वर से बताते हैं, कि रोगों की किस्में, नये रोगियों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि चिकित्सा क्षेत्र के अधिष्ठाता हतप्रभ हैं और अपनी पराजय को स्वीकार करने की अपेक्षा सशक्त विषाणुओं के तूफानी आक्रमण, मौसम परिवर्तन, रोगी के असंयम आदि के ऊपर दोष मढ़कर अपनी असफलता पर परदा डालने की प्रवंचना रचते रहते हैं।
पुराने जमाने में बुखार, खाँसी, दस्त आदि सीमित रोग थे, पर अब तो उनका वर्गीकरण बढ़ी- चढ़ी रोग तालिका के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। उनकी विभीषिका भी बढ़ी- चढ़ी हैं। दमा, अल्सर, मधुमेह, उच्च रक्तचाप से लेकर एड्स और कैंसर जैसे भयानक रोगों का ज्वार बढ़ता जाता है। भाटा आने और उतार दीख पड़ने की प्रतीक्षा निराशा बनकर रह जाती है। कब्ज, जुकाम, अनिद्रा जैसे रोगों का तो कहना ही क्या? वे तो नए फैशन के रूप में एक से अनेकों पर अपना आधिपत्य जमाते देखे जाते हैं। उपचारकर्ता ,, अपनी पराजय की झेंप मिटाने और रोजगार चलाने के लिए बढ़- चढ़कर प्रशंसा करके उपचार- बचाव आदि का लबादा ओढ़ते रहते हैं, पर सच्चाई अपनी जगह पर अड़ी रहकर पूछती है कि चिकित्सा तंत्र जब तूफानी गति से बढ़ रहा है, तो सर्वसाधारण को आरोग्य रक्षा का आश्वासन क्यों नहीं मिलता?
इस असमंजस के निवारण के लिए तनिक अधिक गहराई में उतरने की जरूरत है। खोजो का अंतिम निष्कर्ष आज या कल एक ही निकलने वाला है, कि मनुष्य की जीवनी शक्ति बेतरह घट रही है एवं वही स्थिति, व्याधियों को आमंत्रित कर रही है। यह स्थिति वस्तुत: दयनीय है। रोगी को अपराधी न कहा जाए, तो कम- से अभागा तो कहा ही जाएगा। वह जीवन के वास्तविक लाभ, प्रगतिशीलता के रसास्वाद से प्राय: वंचित ही बना रहता है। स्थिति चिंताजनक है, विशेषतया तब, जब लोगों में से अधिकांश तीव्र या मंद शारीरिक रोगों से घिरे पाए जाते हैं।
भीतरी जीवनी शक्ति की दुर्बलता, घटोत्तरी एवं विकृति को यदि दुर्बलता, क्षीणता, रुग्णता का प्रमुख कारण ठहराया जाए, तो यह उचित ही होगा। इन दिनों यही उपक्रम चल रहा है और आरोग्य की दृष्टि से लोग दिन- दिन दुर्बल बनते जाते हैं। अस्वस्थता आज की सबसे बड़ी समस्या है। उसके कारण पुरुषार्थ, प्रगति करने के सत्परिणाम उपलब्ध कर सकना कठिन पड़ता है। जो स्वयं दूसरों की सहायता चाहता है, जो स्वावलम्बन तक सँजो नहीं पाता, तो वह प्रगति कैसे करेगा?
यह सत्य कोई समझे या न समझे, पर जीवट की कमी एक ऐसी विडंबना है, कि जिसके कारण मनुष्य जीवित रहते हुए भी, एक प्रकार से पूर्ण मृतक नहीं तो अर्द्ध मृतक जैसा तो निश्चित रूप से बनकर ही रहता है। शरीर देखने में सही होते हुए भी निर्जीव- निस्तेज मस्तिष्क शिक्षित होते हुए भी कठिनाइयों से उबर पाने में असमर्थ और प्रगति की इच्छा- चेष्टा करते हुए भी असफल रहता है। इसके पीछे एक ही व्यवधान काम करता है कि उस ऊर्जा का अनुपात एवं स्तर घटा हुआ रहता है, जो प्रसन्नता, प्रफुल्लता, समर्थता और सफलता की जन्मदात्री है। शरीर की कमजोरी, बीमारी, निराशा, उद्विग्नता के प्रत्यक्ष कारण जो भी हों, पर वास्तविकता यह है कि जीवट घट जाने की ही यह समस्त परिणतियाँ हैं। जब तक मूल कारण को समझा और उसका निराकरण न किया जाएगा, तब तक शरीर क्षेत्र की दुर्बलता से लेकर मानसिक खिन्नता, विपन्नता तर्क से छुटकारा पा सकना संभव न हो सकेगा। थोड़ी देर के लिए उन्हें झुठलाकर मन बहला लिया जाए तो यह दूसरी बात है।
जीवन शरीर और मन तक ही सीमित नहीं है, उसमें पग- पग पर अवरोधों से जूझना भी पड़ता है और अपने ढंग से अपनी प्रगति के लिए रास्ता खुद ही बनाना पड़ता है। इसके लिए अभीष्ट शक्ति- सामर्थ्य न हो तो कुछ करते- धरते ही नहीं बन पड़ता। किंकर्तव्यविमूढ़- हतप्रभ की तरह ज्यों- का खड़ा रह जाना पड़ता है। साँस तो लुहार की धौंकनी भी लेती रहती है। अनाज खाने और आटा नीचे निकाल देने का ढर्रा तो चक्की भी घुमाती है। कोल्हू का बैल भी किसी प्रकार पिलने और पेलने में लगा रहता है। भूत- पलीत मरघट में रहकर, एकाकी डरने- डराने का जाल- जंजाल बुनते रहते हैं, पर यह सब मनुष्य जैसे असाधारण शक्तिसम्पन्न सृष्टि का मुकुटमणि कहलाने वालों को शोभा नहीं देता। उसे कुछ ऐसा करना चाहिए जिसके साथ उठने और उठाने की, बढ़ने और बढ़ाने की प्रक्रिया जुड़ी हुई हो, जिसे अनुकरणीय और अभिनंदनीय होने का सुयोग, सौभाग्य और सम्मान मिल सके, पर ऐसी प्रगतिशीलता किसी भी क्षेत्र में मिल तभी सकती है, जब आंतरिक ऊर्जा साथ दे। जीवट की परिणति ओजस्, और वर्चस् में हो और उनके विकसित होने की व्यवस्था बन पड़े।
मानवीय सत्ता के तीन पक्ष हैं- शरीर मस्तिष्क और अंतःकरण। इन्हीं को स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर कहते हैं। इनमें काम करने वाले जीवट को ही प्राणाग्नि, लोगोस, बायो इलेक्ट्रीसिटी, जीवनी शक्ति, विद्युत् चेतना आदि नामों से जाना जाता है। यही क्रमश: ओजस्, तेजस् और वर्चस् कहलाते हैं। उनका सामान्य संतुलन आरोग्य के नाम से जाना जाता है। इसे सही स्थिति में रखे रखना ही स्वास्थ्य रक्षा, समर्थता, बलिष्ठता आदि नामों से जाना जाता है। आंतरिक स्तर पर उसका सुनियोजन ही प्रतिभा के रूप में प्रकट होता है। इसे गिरा देना, सँभाले रखना या प्रखर बनाना, पूर्णतया मनुष्य के अपने हाथ में है। यह प्रक्रिया किसी बाहरी सहायता पर निर्भर नहीं होती। भाग्य, आनुवांशिकी, शाप या वरदान इसमें हस्तक्षेप नहीं कर पाते। पिछला कर्म आज के भाग्य के रूप में सुख- दुःख भर दे सकता है। प्रतिभावान दुःख को भी विकास का आधार बना लेते हैं तथा प्रमादी सुख को भी पतन का कारण बना लेते हैं।
जीवट प्राणाग्नि के विकास की प्रक्रिया हर स्थिति में चलती रह सकती है। आरोग्य का उद्गम यही है। नस- नाड़ियों माँसपेशियों, जीव कोषों में इसी का प्रभाव काम करता देखा जाता है। रोग निरोधक शक्ति यही है। इसी को टॉनिक के समतुल्य बलवर्धक स्थिति में देखा जाता है। मस्तिष्क में बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता, क्षमता इसी के चमत्कार हैं। वरिष्ठों, साहसियों, वैज्ञानिकों, कलाकारों एवं विशिष्टजनों में इसी शक्ति को काम करते देखा जा सकता है। अन्त:करण में भाव- संवेदनाओं के रूप में भी इसी को देखा जाता है। करुणा, सहिष्णुता और आदर्शवादी सराहनीय कृत्यों में इसी की गरिमा का परिचय मिलता है। यह शरीर में कम मात्रा में हो, तो समझना चाहिए कि व्यक्ति आए दिन बीमार पड़ेगा और अशक्तता से घिरा हुआ अपने आपको दुर्बल, पीड़ित एवं आधि- व्याधियों से घिरी स्थिति में अनुभव करता और कराहता रहेगा।
मस्तिष्क में इसका अनुपात कम हो तो उसे अस्त- व्यस्त अनगढ़, असभ्य, अर्द्ध- विक्षिप्त हलके स्तर का समझा जाएगा। औंधे- सीधे स्वभाव के कारण वह गलतियों, गलतफहमियों का शिकार रहेगा। ऐसा कुछ करते कहते देखा जाएगा, जो सभ्यजनों को शोभा नहीं देता। अंतःकरण की दृष्टि से हेय स्तर वाले निष्ठुर, निर्मम, नीरस, स्वार्थी और पतित स्तर के आचरण करते और उपहास- अपमान सहते दिखाई देते हैं। जिनमें यह प्राण संपदा जितनी कम है, उन्हें उसी अनुपात में दीन- हीन पिछड़ा, दरिद्री एवं अभावग्रस्त माना जाता है।
इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि हम प्रत्यक्ष कलेवर को देखते हैं। उसके पीछे काम करने वाली अदृश्य सामर्थ्य का न मूल्यांकन कर पाते हैं और न महत्त्व ही समझ पाते हैं। माँसपेशियों की पुष्टाई देखी जाती है, पर यह भुला दिया जाता है कि बिजली ही वह शक्तिपुंज है, जो अनेक उपकरणों को चलाती और जलाती है। बिजली की धारा न बह रही हो तो बल्ब, पंखे, हीटर, कूलर आदि कितने ही सुंदर या महँगे क्यों न हों, वे अपना काम ठीक प्रकार से नहीं कर सकते। इसी प्रकार जीवट की संजीवनी के कम पड़ जाने पर शरीर, मन, अंतःकरण सभी गड़बड़ा जाते हैं। विशेषतया स्वास्थ्य तो चौपट हो ही जाता है, जैसा कि आजकल सर्वत्र दिखाई पड़ता है।