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Books - सपने झूठे भी सच्चे भी

Media: TEXT
Language: HINDI
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तरह-तरह के सपने

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स्वप्नों को मोटे तौर पर तीन वर्गों में रख सकते हैं—(1) शारीरिक दशाओं से प्रभावित स्वप्न (2) मानसिक स्थिति के प्रतिक्रिया स्वरूप स्वप्न (3) आध्यात्मिक स्वप्न। अपच, उदर विकार, शीतोष्णता का आधिक्य, भूख-प्यास, शरीर में किसी वस्तु विशेष के स्पर्श, सोते समय वातावरण के विशेष परिवर्तन आदि के कारण देखे गये स्वप्न दृश्य प्रथम वर्ग के स्वप्नों की कोटि में आते हैं। इनमें अतिरंजना और विकृति का प्राधान्य होता है।

प्रायः स्वप्न किसी अन्य लोक के भेजे गये उपहार नहीं, वरन् अपनी ही वर्तमान एवं भूतकालीन स्थिति के परिचायक होते हैं। कई बार तो तात्कालिक शारीरिक अनुभूतियों एवं निकटवर्ती परिस्थितियों का ही भला-बुरा प्रभाव स्वप्नों की सृष्टि कर देता है। कई बार ऐसा भी होता है कि भूतकाल की स्मृतियों अथवा भविष्य की सम्भावनाओं का आभास उनके द्वारा मिले।

स्वप्नों पर आस-पास के वातावरण का, जिनमें व्यक्ति की दैहिक स्थिति भी सम्मिलित है, स्पष्ट प्रभाव इस तथ्य का परिचायक है कि उस समय हमारा सशक्त अवचेतन सक्रिय रहता है तथा वह अपने संस्कारों के अनुरूप उनकी अनुभूति करता है। यदि आहार ज्यादा कर लिया गया हो तो आमाशय एवं मस्तिष्क अधिक रक्त प्रवाह से उत्तेजित रहते हैं। यह उत्तेजना स्वप्नों के रूप में व्यक्त होती है और स्वप्नों का स्वरूप व्यक्ति मन के ढांचे के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है।

प्यासा आदमी स्वप्न में जलाशय की तलाश में फिरता है और शौच की इच्छा होने पर टट्टी जाने के लिए स्थान ढूंढ़ता है। वीर्य में गर्मी बढ़ जाने से काम सेवन और स्वप्न दोष होने की घटना अनेकों के साथ घटित होती है। यह शारीरिक स्थिति से सम्बन्धित स्वप्न के बढ़े-चढ़े प्रतीकात्मक रूप हैं। बालकों की तरह अचेतन मन भी बहुत कल्पनाशील होता है। जरा से इशारे पर तिल का ताड़ गढ़कर खड़ा कर लेता है।

दो महिलाओं के सोते समय एक प्रयोग के अधीन पैर के पास गर्म मोमबत्ती ले जाई गई। एक ने स्वप्न में देखा कि वह तपते रेगिस्तान में सहसा आ पड़ी है, दूसरी ने स्वप्न देखा कि उसका पैर झुलस रहा है।

एक अन्य प्रयोग में कई व्यक्तियों की हथेलियों को रूई से सहलाया गया। फलस्वरूप स्वप्न में किसी ने देखा कि वह अपनी प्रेमिका का शरीर सहला रहा है तो दूसरे ने देखा वह मालिश करवा रहा है, तीसरे ने देखा कि वह ‘स्केटिंग’ कर रहा है यानी बर्फ पर फिसल रहा है, चौथे ने देखा कि उसके शरीर से एक झबरी बिल्ली अपनी देह रगड़ रही है। एक अन्य प्रयोग में एक ही व्यक्ति के हाथ में दो बार अन्तराल में मोमबत्ती रखने पर पहली बार हाकी-स्टिक से खेलने का, दूसरी बार मुगदर घुमाने का स्वप्न देखा। स्पष्ट है कि अवचेतन का कौन-सा तार कब झंकृत हो उठा हे, यही स्वप्न-दृश्यों का आधार बनता है। स्वप्न स्थिति में भी व्यक्ति-मन का बाह्य जगत से सम्पर्क बना रहता है। यह मन चेतन न होकर अवचेतन होता है।

मन-मस्तिष्क पर पड़ने वाले विभिन्न दबावों, इच्छाओं, वासनाओं के आघातों-प्रतिघातों से उत्पन्न स्वप्न दृश्य द्वितीय श्रेणी के स्वप्नों की कोटि में आते हैं। स्वप्न शास्त्री कार्ल—शेरनल का कथन है कि—‘‘शरीर या मन का प्रत्येक विक्षोभ एक विशिष्ट स्वप्न को उत्पन्न करता है। स्वप्न तथ्यों पर ही आधारित होते हैं, पर वे तथ्यों की सीमा में बन्धे नहीं होते। उनमें कल्पनात्मक उड़ान भी भरपूर होती है।’’

प्रख्यात वैज्ञानिक एवं मनःशास्त्री हैवलाक एलिस के अनुसार ‘‘प्रत्येक स्वप्न अतीत की अनुभूतियों और दैहिक सम्वेदनों, विकारों का संयुक्त परिणाम होता है। स्वप्न यह स्पष्ट करते हैं कि हमारा चेतन मन हमारी भावनाओं के हाथ का खिलौना मात्र है।’’

मनोविज्ञानी फ्राइड ने 1900 स्वप्न संग्रह करके उनके आधार पर एक बड़ी विवेचनात्मक पुस्तक लिखी है स्वप्नों की व्याख्या। उसने यह निष्कर्ष निकाला है कि दबी हुई इच्छायें स्वप्न बनकर उभरती हैं। सभ्यता के साथ-साथ मनुष्य की कामनायें—आकांक्षाएं, वासनाएं और लिप्साएं भी बढ़ी हैं। वे अतृप्त रहने पर विद्रोही बनती है और स्वप्नों की अपनी अलग दुनिया रचकर उन्हें चरितार्थ करने का नाटक खेलती हैं। कामनाओं की न्यूनता से स्वभाव सन्तोषी बनता है और अन्तःकरण में चैन रहता है अथवा इतनी सुविधा होनी चाहिए कि हर इच्छा तृप्त हो सके। दोनों ही बातें न बनें तो असन्तुष्ट मनःस्थिति में मानसिक ग्रन्थियां बनती हैं और ऊबड़-खाबड़ स्वप्न दिखाने से लेकर मनोविकार तक उत्पन्न करने का कारण बनती हैं।

स्वप्नों में आमतौर से इतना ही आधार रहता है कि वे मनुष्य की प्रवृत्ति और प्रकृति के अनुरूप दिशा में चलते हैं। स्वप्नों का स्तर देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यक्ति के मन पर किन विचारों में आकांक्षा अथवा घृणा के रूप में आधिपत्य जमाया हुआ है। वह क्या चाहता है और किससे डरता बचता है। सपने आमतौर से इसी पटरी पर उड़ते लुढ़कते हैं।

अनुभवी चिकित्सकों का यह कहना है कि सर्दी, ज्वर, नजला-जुकाम, फोड़े-फुन्सी जैसे शारीरिक विक्षोभों विकारों की सूचना एक दो रात पूर्व ही रोगी को सपनों द्वारा मिल जाती है। अधिक गम्भीर रोगों जैसे मिरगी, संग्रहणी आदि का पूर्वाभास स्वप्न-प्रतीकों द्वारा एक-डेढ़ सप्ताह पूर्व ही हो जाता है। तपेदिक, कैंसर जैसे जटिल रोगों के आगमन का पूर्व संकेत तो दो-तीन माह पूर्व ही स्वप्नों द्वारा मिल जाता है। पर सामान्यतः रोगी या तो इन प्रतीकों—संकेतों को समझ नहीं पाता या इनमें निहित चेतावनियों को भुला देता है।

रोग सम्बन्धी स्वप्न डरावने होते हैं। किन्तु जिस शारीरिक अवयव से सम्बन्धित रोग हों उसी अंग से सम्बन्धित स्वप्न होते हैं। जैसे आंतों के किसी रोग की सूचना स्वरूप स्वप्न में कच्चा या सड़ा-गला भोजन दिखाई पड़ सकता है। किसी श्वास रोग के रोगी को डूबते समय या कि पर्वत पर चढ़ते समय सांस फूल जाने का स्वप्न-दृश्य दिख सकता है।

ये तो हुई शारीरिक रोगों की बातें। मानसिक रोग तो पूरी तरह मन के विकार मात्र होते हैं। अतः इनका स्वप्नों द्वारा ज्ञान तो हो ही सकता है, उनकी चिकित्सा भी मुख्यतः इसी जानकारी के आधार पर होती है। मनोरोगी को मनोचिकित्सक उसके स्वप्नों की व्याख्या द्वारा ही मानसिक विकृति का स्वरूप समझा देते हैं तथा उसके आधार की भी विवेचना कर देते हैं। रोगी को जब यह ज्ञात हो जाता है कि मेरा रोग तो स्वयं मेरी विचार-विकृतियों का ही परिणाम है, तो फिर प्रयास पूर्वक उसे रोग-मुक्त होने में अधिक समय नहीं लगता।

आधुनिक वैज्ञानिक स्वप्न का सम्बन्ध अन्तर्मन में जमे हुए प्राचीन और नवीन संस्कारों और प्रतिदिन होने वाली नई और पुरानी घटनाओं से बतलाते हैं, जिनके सम्पर्क में हम किसी कारणवश आ जाते हैं। फ्रायड आदि वैज्ञानिकों ने उसका सम्बन्ध मन में बैठी हुई तरह-तरह की भावनाओं और कामनाओं से जोड़ा है। वे ही भिन्न-भिन्न रूपों में स्वप्न में प्रकट होती रहती हैं।

कुछ विद्वानों ने इस सम्बन्ध में बहुत कुछ विवेचना करके यह निष्कर्ष निकाला है कि स्वप्न के विषय में ये दोनों दृष्टिकोण परिस्थिति के अनुसार सत्य होते हैं। जो लोग बहुत अधिक स्वप्न देखते रहते हैं, उनका कारण प्रायः शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता होती है। कितनी ही बार हमने देखा है कि कोई बाजा बज रहा है और उसी समय हम स्वप्न में किसी प्रकार का बाजा सुन रहे हैं। वास्तव में बाजे की आवाज निद्रित अवस्था में हमारे कानों में जाती है और उसी समय हमारे मस्तिष्क में बाजे से सम्बन्धित कोई दृश्य उत्पन्न कर देती है। पर यह अवस्था दो-एक क्षण ही रहती है कि उसी समय आंख खुल जाती है। पर दस-पांच सैकिण्ड में ही ऐसा जान पड़ता है कि हमने घण्टे दो घण्टे तक चलने वाली घटना देखी हो।

स्वप्न ‘देखे’ जाते हैं और देखने के चित्रों, प्रतिमाओं, दृश्यों की विधि ही हम अपनाते हैं। हम जो भी देखते, सुनते, बोलते, छूते, सूंघते हैं, उसकी हमारे मस्तिष्क में दृष्टि, श्रवण, स्पर्श तथा गन्ध प्रतिमाएं बनती और संचित होती रहती हैं। स्वाद विशेष की स्वाद प्रतिमाएं और पीड़ा आदि भाव-सम्वेदनाओं की भी सम्वेदन प्रतिमाएं मस्तिष्क में अंकित संस्कारित होती रहती हैं। दृश्यात्मक स्वप्नों में यही प्रतिमाएं और प्रतीक चित्रवत् दिखाई पड़ते हैं।

चित्त-तल पर यदि उथल-पुथल जारी रही तो इन प्रतीकों को समझ पाना सम्भव नहीं होता। अशान्त चित्त दशा में तो व्यक्ति का दिन विवश गति-चक्र में बंधा-सा व्यतीत हो जाता है और क्रियाकलापों की विवेचना का उसे अवसर ही नहीं रहता तथा स्पष्ट स्मृति भी नहीं रहती। ऐसे में स्वप्नों की स्मृति अत्यल्प ही रहे, यह स्वाभाविक ही है। स्वप्नावस्था में नेत्र, नासिका, कर्ण, रसना आदि सचेतन ज्ञानेन्द्रियां निष्क्रिय रहती हैं। क्योंकि हमारा सचेतन मन उस समय दबा रहता है। किन्तु इन इन्द्रियों पर वातावरण के जो प्रभाव पड़ते हैं, उन्हें अवचेतन मन अनुभव करता—जानता रहता है। इसीलिए मोमबत्तियां रूई छुलाने, कान के पास तीव्र ध्वनि करने आदि का निश्चित प्रभाव उस समय के स्वप्नों पर पड़ता है। स्वप्नों के समय सक्रिय चित्त-तल का जितना अंश चेतन भाग को छूता रहता है, उतने अंश में शारीरिक प्रतिक्रियाएं भी होती हैं जैसे हंसना, रोना, बड़बड़ाना, मुट्ठियों का खुलना, भिचना, करवटें बदलना आदि। स्वप्न जब पूर्णतः अवचेतन की अनुभूतियों से सम्बन्धित होते हैं, उस समय व्यक्ति की देह शिथिल, शान्त पड़ी रहती है। व्यक्ति विशेष या कि सम्पूर्ण मानव-जाति के अतीत अथवा भविष्य के परिचायक स्वप्न व्यक्ति को सदा ऐसी ही स्थिति में आते हैं। यह स्थिति उसी प्रकार विरल होती है जैसे हमारे दैनन्दिन जीवन-क्रम में चेतन मन की जागृति विरल ही होती है।

आध्यात्मिक स्वप्न उन्हें कहा जाता है, जो अतीन्द्रिय अनुभूतियों से सम्बन्धित हों। इनके भी कई वर्ग हैं। सर्वसामान्य व्यक्तियों में से भी किसी को कभी-कभी ऐसी अनुभूतियां स्वप्नों में हो जाती हैं। व्यक्ति का अवचेतन मन अनन्त सम्भावनाओं और सम्वेदनाओं का भण्डार है, अतः उसे सामान्य रीति से समझना दुष्कर है। योगनिद्रा इन्हीं सम्भावनाओं की उपलब्धि का एक मार्ग है। पाठक डेनियल वेयर नाम के रूसी लेखक की कृति ‘दामेकर आव हैविनली ट्राउजर्स’ के विषय में पढ़ चुके हैं, जिसमें उन्होंने एक तिब्बती लामा की अपने द्वारा देखी गई उस सच्ची कहानी का उल्लेख किया है कि वह लोगों को योगनिद्रा में सुलाकर, उन्हें मनचाहे स्वप्न दिखलाता था। योगनिद्रा वस्तुतः अवचेतन पर से चेतन का दबाव हटा लेने की विद्या है, ऐसी स्थिति में व्यक्ति का मन अनन्त ब्रह्म-सत्ता की तरंगों की गतिविधियां देख-पकड़ पाने में समर्थ हो जाता है और तब वह अतीत अथवा भविष्य की वास्तविक घटनाओं का साक्षी बन जाता है।

जिस व्यक्ति का अन्तःकरण जितना ही शुद्ध-बुद्ध होगा और जो अपनी आन्तरिक शक्तियों को जितना ही अधिक विकसित होने देगा, उन पर से चेतन-मस्तिष्क के दबावों को हटाये रहेगा, तथा ब्रह्मांड-व्यापी चेतना से तादात्म्य का जितना प्रयास करेगा, वह आध्यात्मिक अनुभूतियों का उतना ही अधिकारी बनता चला जाएगा। स्वप्न अवचेतन की जागृति मात्र है और संस्कार शुद्ध व्यक्ति का अवचेतन भी शुद्ध होने से उसके स्वप्न यथार्थ की ही अभिव्यक्तियां होते हैं। यह यथार्थ सुदूर वर्तमान का भी हो सकता है तथा सूक्ष्म स्तर पर सुनिश्चित हो चुके भविष्य का भी।

स्वप्नावस्था में प्रशिक्षण की इन दिनों एक नवीन विधि का प्रयोग हो रहा है। उसमें शिक्षार्थी को प्रत्यक्षतः कुछ भी सिखाया समझाया नहीं जाता वरन् वातावरण में ऐसे संकेतों की गर्मी उत्पन्न की जाती है जिसका प्रभाव उस क्षेत्र के निद्रित लोगों पर पड़े और वे अनायास ही उस प्रभाव से प्रशिक्षित होने लगें। इस पद्धति का नाम—‘हिप्नोपेडिया’ है।

यूरोप—अमरीका में ‘हिप्नोपेडिया’ नाम की पद्धति का इन दिनों भरपूर उपयोग भाषा-शिक्षण अभिनय-प्रशिक्षण आदि में किया जा रहा है। शिक्षा शास्त्री इस पद्धति में गहरी रुचि ले रहे हैं और अगले कुछ ही वर्षों में यही प्रणाली शिक्षा में लोकप्रिय हो जाये, तो आश्चर्य नहीं। इस हेतु इस प्रणाली में निहित खतरों की सम्भावना को दूर करना होगा। रूस के विख्यात स्वप्न शास्त्री श्रीपावलोव एवं सोवियत आयुर्विज्ञान अकादमी के प्राध्यापक एम. सुमार-कोवा तथा ई. उशाकोवा का कथन है कि जब तक नींद की प्रत्येक अवस्था का सूक्ष्म एवं विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन नहीं हो जाता ‘हिप्नोपेडिया’ की आंशिक उपयोगिता ही रहेगी। उनका यह भी कहना है कि अप्रशिक्षित प्रयोगकर्त्ता इस विधि से जाने या अनजाने, छात्र-छात्राओं तक गलत सन्देश भेज सकता है तथा इस प्रकार विभ्रान्त कर सकता है।

वैज्ञानिक इन खतरों के प्रति सावधान हैं तथा उनसे बचे रहने की दिशा में खोज-कार्य कर रहे हैं।

सपनों द्वारा अध्यापन के प्रयोग रूस में भी जोरों से चल रहे हैं। अमरीका में भी इस पद्धति का प्रचलन बढ़ रहा है। ‘हिप्नोपेडिया’ की एक पद्धति में आत्म-सम्मोहन का अभ्यास किया जाता है, दूसरी में सामान्य शिक्षण विधि का। आत्मसम्मोहन वाली पद्धति में छात्र-छात्राओं को स्वप्नावस्था में आत्मनिर्देश सुनाये जाते हैं। एक स्कूल के बीस छात्र-छात्राओं को नाखून कुतरने की आदत थी। मानसशास्त्री डॉ. लारेन्स लोशन ने उनकी आदत छुड़वाने का दायित्व ओढ़ा। इन सबको सोने के बाद, ‘हिप्नोपेडिया’ पद्धति से एक रिकार्ड सुनवाया जाता था। रिकार्ड में इस एक ही पंक्ति का निरन्तर दुहराव होता था कि ‘‘मेरे नाखून बहुत कड़वे हैं।’’ कुछ ही दिनों में सभी छात्र-छात्राओं पर इसका समुचित प्रभाव पड़ा और उन्होंने अपनी वह आदत छोड़ दी।

चेकोस्लोवाकिया में अंग्रेजी-शिक्षण हेतु ‘हिप्नोपेडिया’ की दूसरी पद्धति अपनाई गई है। लगभग इस हजार छात्र-छात्राओं के घर वायरलैस (बेतार के तार) द्वारा रेडियो स्टेशन से जुड़े हैं। पाठ्यक्रम दस पाठों में विभाजित है एक पाठ की अवधि बाहर घन्टे है। दो-दो सप्ताह के अन्तर से एक-एक पाठ सिखाया जाता है पांच माह में पूरे दस पाठ याद करा दिये जाते हैं।

रात्रि आठ बजे से रेडियो-स्टेशन से पाठ का प्रसारण प्रारम्भ होता है। तीन घन्टे तक यह प्रसारण चलता है। इस अवधि में ही छात्र-छात्रा चुपचाप अपना खाना भी खा सकते हैं, आराम-कुर्सी पर विश्राम भी कर सकते हैं। एक ही नियम है कि ध्यान प्रसारित पाठ की ओर ही केन्द्रित रहे, ग्यारह बजे से रेडियो स्टेशन से लोरी ‘रिले’ होने लगती है और छात्र-छात्राओं को सुला दिया जाता है। फिर दो बजे तक वही पाठ लोरी के स्वर में धीरे-धीरे दुहराया जाता है। बाह्य मन निष्क्रिय बना रहता है, पर चेतन मस्तिष्क के वे अंश जो दिन की थकान से श्रान्त हो चुकते हैं, नींद के बाद खुलकर नई स्फूर्ति के साथ दी जा रही सूचनाएं संग्रहीत करते रहते हैं।

योग साधना में शिथिलता, शून्यावस्था, समाधि, शबासन आदि को बहुत महत्व दिया जाता है। यह अर्ध तन्द्रा की स्थितियां हैं। इन्हें योगनिद्रा कहा जाता है। स्नायु संस्थान पर से तनाव, दबाव हटाकर यदि उसे शान्त, विश्रान्त, सौम्य, मनःस्थिति को एक प्रकार से जागृत निद्रा के समतुल्य माना जा सकता है। धारणा और ध्यान के चरण पूरे करते हुए समाधि स्थिति पर पहुंचना साधना विज्ञान की चरम प्रक्रिया है। स्वप्नावस्था में तो मनुष्य का अपने ऊपर नियन्त्रण नहीं रहता और स्वसंकेत देना एवं अपने बलबूते अपने को इच्छित दिशा में मोड़ सकना सम्भव नहीं। इसलिए आवश्यक समझा गया कि कृत्रिम योगनिद्रा की स्थिति लाने का अभ्यास किया जाय इस स्थिति में मन और बुद्धि तो तंद्राग्रस्त हो जाते हैं पर चित्त में संकल्प ज्वलन्त रखे जा सकते हैं। इन संकल्पों से अचेतन मन को प्रभावित एवं प्रशिक्षित किया जाता है। आत्म परिष्कार की प्रधान योग साधना इसी प्रकार संभव होती है। मन्त्र जप में—ध्यान तन्मयता में—चित्त में उच्चस्तरीय संकल्प जागृत रखे जाते हैं। जो अन्तःकरण को परिष्कृत करने के लिए आवश्यक हैं। इन प्रयोगों को यदि सही उद्देश्य समझकर सही रीति से कार्यान्वित किया जाय तो परिणाम निश्चित रूप से अतीव आशाजनक होते हैं। निद्रित स्थिति में प्रेरणात्मक स्वप्नों का इन दिनों विज्ञान क्षेत्र में उत्साह के साथ प्रयोग किया जा रहा है। यह स्वप्न सृजन दृश्यों के रूप में सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि अन्तर्मन बहुत हठी है जब वह अपनी पर उतरा होता है तो बाहरी अंकुश मानने के लिए सहज ही तैयार नहीं होता। वैज्ञानिकों को स्वप्न सृजन के लिए जानकारियों, मान्यताओं, आदतों एवं इच्छाओं में हेर-फेर करने की गुंजाइश दीखी है सो वे स्वप्न प्रशिक्षण की गतिविधियां इसी आधार पर विनिर्मित कर रहे हैं। भारतीय तत्ववेत्ताओं ने इस संदर्भ में एवं समाधि के विभिन्न स्तर—सामान्य-असामान्य लोगों की मनोभूमि में खप सकने योग्य बनाये हैं। इनमें सचेतन को तन्द्रित करने—चित्त में संकल्प जीवित रखने और अन्तर्मन को प्रशिक्षण करने के तीनों ही उद्देश्य पूरे होते हैं। इस दिशा में जितनी सफलता मिलती है उतने ही सामान्य स्वप्नों में भी अति महत्वपूर्ण ऐसी जानकारियां मिलने लगती हैं जिन्हें सूक्ष्म दर्शन एवं अतीन्द्रिय प्रतिभा के नाम पुकारा जा सके।

मनोवैज्ञानिक फ्रायड की स्वप्न सम्बन्धी वे मान्यताएं अब पुरानी पड़ चुकी हैं, जिनके अनुसार व्यक्ति के अवचेतन को किन्हीं सामान्य और संकीर्ण ‘फार्मूलों’ द्वारा समझ सकने का दावा किया जाता था और उन्हें अतृप्त इच्छाओं की अभिव्यक्ति मात्र माना जाता था। फ्रायड ने पहले जिन स्वप्नों को ‘इडीपुस काम्प्लेक्स’ के द्वारा प्रेरित और दमित इच्छाओं का प्रतीक कहा था, वही स्वप्न अब अतीन्द्रिय अनुभूतियों के आधार सिद्ध हो रहे हैं। विभिन्न अनुसंधानों, प्रयोगों से यह भली-भांति स्पष्ट हो चुका है कि स्वप्न मात्र दमित यौन-आकांक्षाओं अथवा कल्पित क्लिष्ट यौन-विकृतियों के दायरे में नहीं समेटे जा सकते। उनके विविध वर्ग एवं स्तर हैं।

सात्विक आचरण द्वारा व्यक्ति का चेतना-स्तर ज्यों-ज्यों बढ़ता है, उसका अवचेतन भी उसी रूप में प्रखर एवं उत्कृष्ट बनता जाता है। सामान्यतः तो हम मूर्च्छना की स्थिति में जीवन व्यतीत कर देते हैं। नर-वानर की इस चित्त-दशा में अवचेतन की अठखेलियों का अर्थ भी समझ में नहीं आ पाता और स्वप्न-संकेत व्यर्थ चले जाते हैं।

यदि स्वप्न विज्ञान पर शास्त्रीय ढंग से विचार किया जाय और उनके आधार पर मिलने वाली जानकारियों के सहारे आन्तरिक स्तर को सुधारने, संभालने का प्रयत्न किया जाय तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। उसे शारीरिक स्वास्थ्य सुधार एवं सम्वर्धन में भी अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जा सकता है क्योंकि शरीर से मस्तिष्क की क्षमता अधिक है। मस्तिष्क में भी शक्ति केन्द्र अन्तर्मन है। स्वप्न हमें उसी क्षेत्र का परिचय देते हैं और चेतनात्मक परिष्कार का द्वार खोलते हैं।
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