Books - शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म
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Language: HINDI
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स्वर से ‘‘अक्षर’’ की अनुभूति
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पुराणों में एक आख्यायिका आती है। देवर्षि नारद ने एक बार लम्बे समय तक यह जानने के लिये प्रव्रज्या की कि सृष्टि में आध्यात्मिक विकास की गति किस तरह चल रही है। वे जहां भी गये प्रायः प्रत्येक स्थान में लोगों ने एक ही शिकायत की भगवन्! परमात्मा की प्राप्ति अति कठिन है। कोई सरल उपाय बताइये जिससे उसे प्राप्त करने, उसकी अनुभूति में अधिक कष्ट साध्य-तितीक्षा का सामना न करना पड़ता हो। नारद ने इस प्रश्न का उत्तर स्वयं भगवान से पूछ कर देने का आश्वासन दिया और स्वर्ग के लिये चल पड़े।
आपको ढूंढ़ने में तप-साधना की प्रणालियां बहुत कष्ट साध्य हैं भगवन्! नारद ने वहां पहुंचकर विष्णु भगवान् से प्रश्न किया—ऐसा कोई सरल उपाय बताइये, जिससे भक्त-गण सहज ही में आपकी अनुभूति कर लिया करें? इस पर विष्णु भगवान् ने उत्तर दिया—
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वा । मद भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारदा ।। —नारद संहिता
हे नारद! न तो मैं वैकुण्ठ में रहता हूं और न योगियों के हृदय में, मैं तो वहां निवास करता हूं, जहां मेरे भक्त-जन कीर्तन करते हैं। अर्थात् संगीतमय भजनों के द्वारा ईश्वर को सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है।
इन पंक्तियों को पढ़ने से संगीत की महत्ता और भारतीय इतिहास का वह समय याद आ जाता है, जब यहां गांव-गांव प्रेरक मनोरंजन के रूप में संगीत का प्रयोग बहुलता से होता था। संगीत में केवल गाना या बजाना ही सम्मिलित नहीं था, नृत्य भी इसी कला का अंग था। कथा, कीर्तन, लोक-गायन और विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक पर्व-त्यौहार एवं उत्सवों पर अन्य कार्यक्रमों के साथ संगीत अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता था। उससे व्यक्ति और समाज दोनों के जीवन में शांति और प्रसन्नता, उल्लास और क्रियाशीलता का अभाव नहीं होने पाता था।
अक्षर परब्रह्म परमात्मा की अनुभूति के लिये वस्तुतः संगीत साधना से बढ़कर अन्य कोई अच्छा माध्यम नहीं, यही कारण रहा है कि यहां की उपासना पद्धतियों से लेकर कर्मकाण्ड तक में सर्वत्र ‘‘स्वर’’ संयोजन अनिवार्य रहा है। मंत्र भी वस्तुतः छन्द ही है। वेदों की प्रत्येक ऋचा का कोई ऋषि, कोई देवता तो होता ही है उसका कोई न कोई छन्द जैसे त्र्युष्टुप, अनुष्टुप, गायत्री आदि भी होते हैं। इसका अर्थ ही होता है कि उस मंत्र के उच्चारण की ताल, लय और गतियां भी निर्धारित हैं। अमुक फ्रीक्वेंन्सी पर बजाने से ही अमुक स्टेशन बोलेगा उसी तरह अमुक गति लय और ताल के उच्चारण से ही मंत्र सिद्धि होगी—यह उस का विज्ञान है।
कोलाहल और समस्याओं से घनीभूत संसार में यदि परमात्मा का कोई उत्तम वरदान मनुष्य को मिला है तो वह संगीत ही है। संगीत से, पीड़ित हृदय को शान्ति और सन्तोष मिलता है। संगीत से मनुष्य की सृजन-शक्ति का विकास और आत्मिक प्रफुल्लता मिलती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, शादी-विवाहोत्सव से लेकर धार्मिक समारोह तक के लिये उपयुक्त संगीत-निधि देकर परमात्मा ने मनुष्य की पीड़ा को कम किया, मानवीय गुणों से प्रेम और प्रसन्नता को बढ़ाया।
शास्त्रकार कहते हैं— ‘‘स्वरेण सल्लयेत योगी’’
‘‘स्वर साधना द्वारा योगी अपने को तल्लीन करते हैं’’ और एकाग्र की हुई, मनःशक्ति को विद्याध्ययन से लेकर किसी भी व्यवसाय में लगाकर चमत्कारिक सफलतायें प्राप्त की जा सकती हैं, इसलिये यह मानना पड़ेगा कि संगीत दो वर्ष के बच्चे से लेकर विद्यार्थी, व्यवसायी, किसान, मजदूर, स्त्री-पुरुष सबको उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है। उससे मनुष्य की क्रिया शक्ति बढ़ती और आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है। यह बात ऋषि-मनीषियों ने बहुत पहले अनुभव की थी और कहा था—
‘‘अभि स्वरन्ति वहवो मनीषियो राजा नमस्य भुवनस्य निंसते ।’’ —ऋग्वेद 9।85।3
अर्थात्—अनेक मनीषी विश्व के महाराजाधिराज भगवान् की ओर संगीतमय स्वर लगाते हैं और उसी के द्वारा उसे प्राप्त करते हैं।
एक अन्य मन्त्र में बताया है कि ईश्वर प्राप्ति के लिये ज्ञान और कर्मयोग मनुष्य के लिये कठिन है। भक्ति-भावनाओं से हृदय में उत्पन्न हुई अखिल-करुणा ही वह सर्व सरल मार्ग है, जिससे मनुष्य बहुत शीघ्र परमात्मा की अनुभूति कर सकता है और उस प्रयोजन में—भक्ति भावनाओं के विकास में संगीत का योगदान असाधारण है— स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उकिथनः । —ऋग्वेद 8।33।2
हे शिष्य! तुम अपने आत्मिक उत्थान की इच्छा से मेरे पास आये हो। मैं तुम्हें ईश्वर का उपदेश करता हूं, तुम उसे प्राप्त करने के लिये संगीत के साथ उसे पुकारोगे तो वह तुम्हारी हृदय गुहा में प्रकट होकर अपना प्यार प्रदान करेगा।
पौराणिक उपाख्यान है कि ब्रह्मा जी के हृदय में उल्लास जागृत हुआ तो वह गाने लगे। उसी अवस्था में उनके मुख से गायत्री छन्द प्रादुर्भूत हुआ— गायत्रीमुखादुदपत दिति च ब्राह्मणम् । —निरुक्त
गान करते समय ब्रह्मा जी के मुख से निकलने के कारण गायत्री नाम पड़ा।
संगीत के अदृश्य प्रभाव को खोजते हुए भारतीय योगियों को वह सिद्धियां और अध्यात्म का विशाल क्षेत्र उपलब्ध हुआ, जिसे वर्णन करने के लिये एक पृथक वेद की ही रचना करनी पड़ी सामवेद में भगवान् की संगीत शक्ति के ऐसे रहस्य प्रतिपादित और पिरोये हुए हैं, जिनका अवगाहन कर मनुष्य अपनी आत्मिक शक्तियों को—कितनी ही तुच्छ हों—भगवान् से मिला सकता है। अब इस सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों की मान्यतायें भी भारतीय दर्शन की पुष्टि करने लगी हैं।
विदेशों में विज्ञान की तरह ही एक शाखा विधिवत् संगीत का अनुसन्धान कर रही है और अब तक जो निष्कर्ष निकले हैं, वह मनुष्य को इस बात की प्रबल प्रेरणा देते हैं कि यदि मानवीय गुणों और आत्मिक आनन्द को जीवित रखना है तो मनुष्य अपने आपको संगीत से जोड़े रहे। संगीत की तुलना प्रेम से की है। दोनों ही समान उत्पादक शक्तियां हैं, इन दोनों का ही प्रकृति (जड़-तत्व) और जीवन (चेतन-तत्व) दोनों पर ही चमत्कारिक प्रभाव पड़ता है।
‘‘संगीत आत्मा की उन्नति का सबसे अच्छा उपाय है, इसलिये हमेशा वाद्य यन्त्र के साथ गाना चाहिये।’’ यह पाइथा गोरस की मान्यता थी पर डा. मैकफेडेन ने वाद्य की अपेक्षा गायन को ज्यादा लाभकारी बताया है। मानसिक प्रसन्नता की दृष्टि से पाइथा गोरस की बात अधिक सही लगती है। मैकफेडेन ने लगता है, केवल शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर ऐसा लिखा है। इससे भी आगे की कक्षा आत्मिक है, उस सम्बन्ध में, कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर का कथन उल्लेखनीय है, श्री टैगोर के शब्दों में—‘‘स्वर्गीय सौन्दर्य का कोई साकार रूप और सजीव प्रदर्शन है तो उसे संगीत ही होना चाहिये।’’ रस्किन ने संगीत को आत्मा के उत्थान, चरित्र की दृढ़ता, कला और सुरुचि के विकास का महत्वपूर्ण साधन माना है।
विभिन्न प्रकार की सम्मतियां वस्तुतः अपनी-अपनी तरह की विशेष अनुभूतियां हैं, अन्यथा संगीत में शरीर, मन और आत्मा तीनों को बलवान् बनाने वाले तत्व परिपूर्ण मात्रा में विद्यमान् हैं, इसी कारण भारतीय आचार्यों और मनीषियों ने संगीत शास्त्र पर सर्वाधिक जोर दिया। ‘साम’ वेद की स्वतन्त्र रचना उसका प्रमाण है। समस्त स्वर-ताल, लय, छन्द, गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग, नृत्य, मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं, किसी समय इस दिशा में भी भारतीयों ने योग-सिद्धि प्राप्त करके यह दिखा दिया था कि स्वर-साधना के समकक्ष संसार की और कोई दूसरी शक्ति नहीं। उसके चमत्कारिक प्रयोग भी सैकड़ों बार हुये हैं।
अकबर की राज्य-सभा में संगीत प्रतियोगिता रखी गई। प्रमुख प्रतिद्वन्दी थे तानसेन और बैजूबावरा। यह आयोजन आगरे के पास वन में किया गया। तानसेन ने ‘टोड़ी’ राग गाया और कहा जाता है कि उसकी स्वर लहरियां जैसे ही वन-खण्ड में गुंजित हुईं मृगों का एक झुण्ड वहां दौड़ता हुआ चला आया। भाव-विभोर तानसेन ने अपने गले पड़ी माला एक हरिण के गले में डाल दी। इस क्रिया से संगीत प्रवाह रुक गया और तभी सब-के-सब सम्मोहित हरिण जंगल में भाग गये।
टोड़ी राग गाकर तानसेन ने यह सिद्ध कर दिया कि संगीत मनुष्यों की ही नहीं प्राणिमात्र की आत्मिक-प्यास है, उसे सभी लोग पसन्द करते हैं। इसके बाद बैजूबावरा ने ‘मृग-रंजनी टोड़ी’ राग का अलाप किया। तब केवल एक वह मृग दौड़ता हुआ राज्य-सभा में आ गया, जिसे तानसेन ने माला पहनाई थी। इस प्रयोग से बैजूबावरा ने यह सिद्ध कर दिया कि शब्द के सूक्ष्मतम कम्पनों में कुछ ऐसी शक्ति और सम्मोहन भरा पड़ा है कि उससे किसी भी दिशा के कितनी ही दूरस्थ किसी भी प्राणी तक अपना सन्देश भेजा जा सकता है।
इसी बैजूबावरा ने अपने गुरु हरिदास की आज्ञा से चन्देरी (गुना (म.प्र.) जिले स्थित) के निवासी नरवर के कछवाह राजा राजसिंह को ‘राग पुरिया’ सुनाया था और उन्हें अनिद्रा रोग से बचाया था। दीपक राग का उपयोग बुझे हुये दीपक जला देने ‘श्री राग’ का क्षय रोग निवारण में, ‘भैरवी राग’ प्रजा की सुख-शांति वर्द्धन में, ‘शकरा राग’ द्वारा युद्ध के लिये प्रस्थान करने वाले सैनिकों में अजस्र शौर्य भर देने में आदिकाल से उपयोग होता रहा है। वर्षा ऋतु में गांव-गांव मेंघ व मल्हार राग गाया जाता था, उससे दुष्ट से दुष्ट लोगों में भी प्रेम उल्लास और आनन्द का झरना प्रवाहित होने लगता था। स्वर और लय की गति में बंधे भारतीय जीवन की सोमनस्यता जो तब थी, अब वह कल्पना मात्र रह गई है। सस्ते सिनेमा संगीत ने उन महान् शास्त्रीय उपलब्धियों को एक तरह से नष्ट करके रख दिया है।
संगीत एक प्रकार की योग साधना है, उसमें ध्वनि-कम्पन नाभि-प्रदेश से निकालकर ब्रह्म-रन्ध्र में लाये जाते हैं। यहां तालु से उन्हें पकड़कर मनोमय विद्युत का संयोग दिया जाता है, तब वह मुख द्वारा बाहर निकलता है। इस तरह नियन्त्रित स्वर पानी में भ्रमण अथवा गोलाकार चक्र के रूप में निकलता है, फिर उसका प्रयोग इच्छानुसार किसी भी प्रयोजन में हो सकता है। हर प्रयोजन के लिये अलग-अलग राग खोजे गये हैं, जो मंत्रवत् काम करते हैं। तंत्र में तो एक बुराई यह होती है कि यदि उसकी प्रतिक्रिया जो एक तेज झटके की तरह होती है, सहन न हो तो प्रयोगकर्त्ता का अनिष्ट भी कर सकती है, पर इन प्रयोगों से गायत्री उपासना, गीता के पाठ, गाय के दूध और गायत्री मंत्र के जप के समान किसी भी अवस्था में हानि की कोई भी आशंका नहीं रहती। संगीत के अभ्यास से इसीलिये कभी किसी को हानि नहीं होती, किसी भी अवस्था में लाभ ही होता है।
ऊपर दी हुई घटनायें तो बहुत दिनों पूर्व की हैं, अभी कुछ दिन पूर्व ही होशियारपुर (पंजाब) जिले के प्रसिद्ध संगीतज्ञ श्री पं. गुज्जरराम वासुदेव जी रागी का चिन्तपूर्णी देवी के पर्वत शिखर पर गायन हुआ। भगवती चिन्तपूर्णी की भक्ति में विह्वल होकर श्री रागी जी ने मेघ राग का आलाप किया। इस समय तक आकाश में बादलों की चित्ती तक न थी। कड़ाके की धूप पड़ रही थी, पर जैसे ही उन्होंने ‘मेघ राग’ गाना प्रारम्भ किया, आकाश में बादल छाने लगे। थोड़ी ही देर में सूर्य बादलों से ढंग गया और घन गरज के साथ वृष्टि प्रारम्भ हो गई। लोगों ने अनुभव किया कि शास्त्रीय संगीत स्वर-विज्ञान के उन रहस्यों से ओत-प्रोत है जो, प्राकृतिक परमाणुओं में भयंकर हलचल उत्पन्न करके उनसे इच्छित कार्य करा सकते हैं।
रामपुर के नवाब साहब लकवे से बीमार थे। उस्ताद सूरज खां के कहने से उन्हें भारतीय संगीत पर श्रद्धा जम गई। सूरजखां सिद्ध वीणा वादक थे। उन्होंने राग ‘जैजैवन्ती’ के प्रयोग के लकवे से पीड़ित नवाब साहब को कुछ ही दिन में अच्छा कर दिया।
अपनी ही संस्कृति की यह महान् उपलब्धियां आज हमारे ही लिये किंवदन्तियां बन गईं। हम उन पर विश्वास नहीं करते या हमारी उन पर श्रद्धा नहीं रही। ऐसा न होता तो सिनेमाओं में प्रयुक्त सस्ते संगीत की अपेक्षा शास्त्रीय संगीत को महत्व दिया जाता। कुछ ऐसे प्रभावशील और साधन सम्पन्न व्यक्ति भी निकलते जो संगीत-कला को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये अपने साधनों एवं प्रभाव का उपयोग स्थान-स्थान पर शास्त्रीय-संगीत खोलने बालक-बालिकाओं को उनमें प्रशिक्षण लेने के लिये प्रोत्साहित करने में करते। और नहीं तो कम से कम कीर्तन और भंजन-मंडलियां और सर्वसुलभ, गुण प्रेरक नौटंकियां तो गांव-गांव स्थापित होनी चाहियें, ताकि हमारा लोक-जीवन नीरस और आत्मिक सौन्दर्य से रहित न होने पाये।
किसी समय नृत्य भारतीय जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग था। भगवान् शंकर ‘नटराज’ कहे जाते हैं, वे स्वयं नृत्य विशेषज्ञ थे। नृत्य रास, मणिपुर, कत्थककली, भारत-नाट्यम् आदि नृत्य और नृत्य-नाटिकाओं का आज भी अपना विशिष्ट महत्व है पर गांव-गांव रचे जाने वाले लोक-नृत्यों का अपना महत्व था। पं. जवाहरलाल नेहरू ऐसे नृत्य देखकर थिरक उठते थे। वह कहते थे—‘लोक-नृत्यों से हमें उल्लास मिलता है और यह शिक्षा मिलती है कि जीवन का आनन्द केवल भौतिक पदार्थों की उपलब्धि में ही नहीं है।’’ तो भी यह कलायें हमारे लोक-जीवन से हटती जा रही हैं। हमें इन्हें फिर से अपनाना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ गाना, कुछ न कुछ बजाना और नृत्य करना सीखना चाहिये, उससे लोक-जीवन में प्रसन्नता, प्रफुल्लता, आनन्द और उल्लास का ही विकास होगा।
खेद की बात है कि जो भारतवर्ष कभी संगीत-कला विशेषज्ञ माना जाता था, आज वह तो अपनी इस विशेषता से रिक्त होता जा रहा है, जबकि दूसरे देशों में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ रही है। लोग उससे बहुमूल्य लाभ ले रहे हैं।
अमर कहानीकार मुन्शी प्रेमचन्द्र ने इसी तथ्य को व्यक्त करते हुए लिखा है—‘‘मनोव्यथा जब असह्य हो जाती और अपार हो जाती है, जब उसे कहीं त्राण नहीं मिलता, जब वह रुदन और क्रन्दन की गोद में भी आश्रय नहीं पाती तो वह संगीत के चरणों में जा गिरती है।’’
संगीत मनुष्य की आत्मा है, उसे अपने जीवन में अभिन्न न करें तो आत्मोत्थान के स्वर्गीय सुख से भी हम कभी वंचित न हों। शास्त्रों में शब्द और नाद का ब्रह्म कहा है। निःसन्देह स्वर साधना एक दिन अक्षर ब्रह्म तक पहुंचा देती है।
आपको ढूंढ़ने में तप-साधना की प्रणालियां बहुत कष्ट साध्य हैं भगवन्! नारद ने वहां पहुंचकर विष्णु भगवान् से प्रश्न किया—ऐसा कोई सरल उपाय बताइये, जिससे भक्त-गण सहज ही में आपकी अनुभूति कर लिया करें? इस पर विष्णु भगवान् ने उत्तर दिया—
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वा । मद भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारदा ।। —नारद संहिता
हे नारद! न तो मैं वैकुण्ठ में रहता हूं और न योगियों के हृदय में, मैं तो वहां निवास करता हूं, जहां मेरे भक्त-जन कीर्तन करते हैं। अर्थात् संगीतमय भजनों के द्वारा ईश्वर को सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है।
इन पंक्तियों को पढ़ने से संगीत की महत्ता और भारतीय इतिहास का वह समय याद आ जाता है, जब यहां गांव-गांव प्रेरक मनोरंजन के रूप में संगीत का प्रयोग बहुलता से होता था। संगीत में केवल गाना या बजाना ही सम्मिलित नहीं था, नृत्य भी इसी कला का अंग था। कथा, कीर्तन, लोक-गायन और विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक पर्व-त्यौहार एवं उत्सवों पर अन्य कार्यक्रमों के साथ संगीत अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता था। उससे व्यक्ति और समाज दोनों के जीवन में शांति और प्रसन्नता, उल्लास और क्रियाशीलता का अभाव नहीं होने पाता था।
अक्षर परब्रह्म परमात्मा की अनुभूति के लिये वस्तुतः संगीत साधना से बढ़कर अन्य कोई अच्छा माध्यम नहीं, यही कारण रहा है कि यहां की उपासना पद्धतियों से लेकर कर्मकाण्ड तक में सर्वत्र ‘‘स्वर’’ संयोजन अनिवार्य रहा है। मंत्र भी वस्तुतः छन्द ही है। वेदों की प्रत्येक ऋचा का कोई ऋषि, कोई देवता तो होता ही है उसका कोई न कोई छन्द जैसे त्र्युष्टुप, अनुष्टुप, गायत्री आदि भी होते हैं। इसका अर्थ ही होता है कि उस मंत्र के उच्चारण की ताल, लय और गतियां भी निर्धारित हैं। अमुक फ्रीक्वेंन्सी पर बजाने से ही अमुक स्टेशन बोलेगा उसी तरह अमुक गति लय और ताल के उच्चारण से ही मंत्र सिद्धि होगी—यह उस का विज्ञान है।
कोलाहल और समस्याओं से घनीभूत संसार में यदि परमात्मा का कोई उत्तम वरदान मनुष्य को मिला है तो वह संगीत ही है। संगीत से, पीड़ित हृदय को शान्ति और सन्तोष मिलता है। संगीत से मनुष्य की सृजन-शक्ति का विकास और आत्मिक प्रफुल्लता मिलती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, शादी-विवाहोत्सव से लेकर धार्मिक समारोह तक के लिये उपयुक्त संगीत-निधि देकर परमात्मा ने मनुष्य की पीड़ा को कम किया, मानवीय गुणों से प्रेम और प्रसन्नता को बढ़ाया।
शास्त्रकार कहते हैं— ‘‘स्वरेण सल्लयेत योगी’’
‘‘स्वर साधना द्वारा योगी अपने को तल्लीन करते हैं’’ और एकाग्र की हुई, मनःशक्ति को विद्याध्ययन से लेकर किसी भी व्यवसाय में लगाकर चमत्कारिक सफलतायें प्राप्त की जा सकती हैं, इसलिये यह मानना पड़ेगा कि संगीत दो वर्ष के बच्चे से लेकर विद्यार्थी, व्यवसायी, किसान, मजदूर, स्त्री-पुरुष सबको उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है। उससे मनुष्य की क्रिया शक्ति बढ़ती और आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है। यह बात ऋषि-मनीषियों ने बहुत पहले अनुभव की थी और कहा था—
‘‘अभि स्वरन्ति वहवो मनीषियो राजा नमस्य भुवनस्य निंसते ।’’ —ऋग्वेद 9।85।3
अर्थात्—अनेक मनीषी विश्व के महाराजाधिराज भगवान् की ओर संगीतमय स्वर लगाते हैं और उसी के द्वारा उसे प्राप्त करते हैं।
एक अन्य मन्त्र में बताया है कि ईश्वर प्राप्ति के लिये ज्ञान और कर्मयोग मनुष्य के लिये कठिन है। भक्ति-भावनाओं से हृदय में उत्पन्न हुई अखिल-करुणा ही वह सर्व सरल मार्ग है, जिससे मनुष्य बहुत शीघ्र परमात्मा की अनुभूति कर सकता है और उस प्रयोजन में—भक्ति भावनाओं के विकास में संगीत का योगदान असाधारण है— स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उकिथनः । —ऋग्वेद 8।33।2
हे शिष्य! तुम अपने आत्मिक उत्थान की इच्छा से मेरे पास आये हो। मैं तुम्हें ईश्वर का उपदेश करता हूं, तुम उसे प्राप्त करने के लिये संगीत के साथ उसे पुकारोगे तो वह तुम्हारी हृदय गुहा में प्रकट होकर अपना प्यार प्रदान करेगा।
पौराणिक उपाख्यान है कि ब्रह्मा जी के हृदय में उल्लास जागृत हुआ तो वह गाने लगे। उसी अवस्था में उनके मुख से गायत्री छन्द प्रादुर्भूत हुआ— गायत्रीमुखादुदपत दिति च ब्राह्मणम् । —निरुक्त
गान करते समय ब्रह्मा जी के मुख से निकलने के कारण गायत्री नाम पड़ा।
संगीत के अदृश्य प्रभाव को खोजते हुए भारतीय योगियों को वह सिद्धियां और अध्यात्म का विशाल क्षेत्र उपलब्ध हुआ, जिसे वर्णन करने के लिये एक पृथक वेद की ही रचना करनी पड़ी सामवेद में भगवान् की संगीत शक्ति के ऐसे रहस्य प्रतिपादित और पिरोये हुए हैं, जिनका अवगाहन कर मनुष्य अपनी आत्मिक शक्तियों को—कितनी ही तुच्छ हों—भगवान् से मिला सकता है। अब इस सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों की मान्यतायें भी भारतीय दर्शन की पुष्टि करने लगी हैं।
विदेशों में विज्ञान की तरह ही एक शाखा विधिवत् संगीत का अनुसन्धान कर रही है और अब तक जो निष्कर्ष निकले हैं, वह मनुष्य को इस बात की प्रबल प्रेरणा देते हैं कि यदि मानवीय गुणों और आत्मिक आनन्द को जीवित रखना है तो मनुष्य अपने आपको संगीत से जोड़े रहे। संगीत की तुलना प्रेम से की है। दोनों ही समान उत्पादक शक्तियां हैं, इन दोनों का ही प्रकृति (जड़-तत्व) और जीवन (चेतन-तत्व) दोनों पर ही चमत्कारिक प्रभाव पड़ता है।
‘‘संगीत आत्मा की उन्नति का सबसे अच्छा उपाय है, इसलिये हमेशा वाद्य यन्त्र के साथ गाना चाहिये।’’ यह पाइथा गोरस की मान्यता थी पर डा. मैकफेडेन ने वाद्य की अपेक्षा गायन को ज्यादा लाभकारी बताया है। मानसिक प्रसन्नता की दृष्टि से पाइथा गोरस की बात अधिक सही लगती है। मैकफेडेन ने लगता है, केवल शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर ऐसा लिखा है। इससे भी आगे की कक्षा आत्मिक है, उस सम्बन्ध में, कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर का कथन उल्लेखनीय है, श्री टैगोर के शब्दों में—‘‘स्वर्गीय सौन्दर्य का कोई साकार रूप और सजीव प्रदर्शन है तो उसे संगीत ही होना चाहिये।’’ रस्किन ने संगीत को आत्मा के उत्थान, चरित्र की दृढ़ता, कला और सुरुचि के विकास का महत्वपूर्ण साधन माना है।
विभिन्न प्रकार की सम्मतियां वस्तुतः अपनी-अपनी तरह की विशेष अनुभूतियां हैं, अन्यथा संगीत में शरीर, मन और आत्मा तीनों को बलवान् बनाने वाले तत्व परिपूर्ण मात्रा में विद्यमान् हैं, इसी कारण भारतीय आचार्यों और मनीषियों ने संगीत शास्त्र पर सर्वाधिक जोर दिया। ‘साम’ वेद की स्वतन्त्र रचना उसका प्रमाण है। समस्त स्वर-ताल, लय, छन्द, गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग, नृत्य, मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं, किसी समय इस दिशा में भी भारतीयों ने योग-सिद्धि प्राप्त करके यह दिखा दिया था कि स्वर-साधना के समकक्ष संसार की और कोई दूसरी शक्ति नहीं। उसके चमत्कारिक प्रयोग भी सैकड़ों बार हुये हैं।
अकबर की राज्य-सभा में संगीत प्रतियोगिता रखी गई। प्रमुख प्रतिद्वन्दी थे तानसेन और बैजूबावरा। यह आयोजन आगरे के पास वन में किया गया। तानसेन ने ‘टोड़ी’ राग गाया और कहा जाता है कि उसकी स्वर लहरियां जैसे ही वन-खण्ड में गुंजित हुईं मृगों का एक झुण्ड वहां दौड़ता हुआ चला आया। भाव-विभोर तानसेन ने अपने गले पड़ी माला एक हरिण के गले में डाल दी। इस क्रिया से संगीत प्रवाह रुक गया और तभी सब-के-सब सम्मोहित हरिण जंगल में भाग गये।
टोड़ी राग गाकर तानसेन ने यह सिद्ध कर दिया कि संगीत मनुष्यों की ही नहीं प्राणिमात्र की आत्मिक-प्यास है, उसे सभी लोग पसन्द करते हैं। इसके बाद बैजूबावरा ने ‘मृग-रंजनी टोड़ी’ राग का अलाप किया। तब केवल एक वह मृग दौड़ता हुआ राज्य-सभा में आ गया, जिसे तानसेन ने माला पहनाई थी। इस प्रयोग से बैजूबावरा ने यह सिद्ध कर दिया कि शब्द के सूक्ष्मतम कम्पनों में कुछ ऐसी शक्ति और सम्मोहन भरा पड़ा है कि उससे किसी भी दिशा के कितनी ही दूरस्थ किसी भी प्राणी तक अपना सन्देश भेजा जा सकता है।
इसी बैजूबावरा ने अपने गुरु हरिदास की आज्ञा से चन्देरी (गुना (म.प्र.) जिले स्थित) के निवासी नरवर के कछवाह राजा राजसिंह को ‘राग पुरिया’ सुनाया था और उन्हें अनिद्रा रोग से बचाया था। दीपक राग का उपयोग बुझे हुये दीपक जला देने ‘श्री राग’ का क्षय रोग निवारण में, ‘भैरवी राग’ प्रजा की सुख-शांति वर्द्धन में, ‘शकरा राग’ द्वारा युद्ध के लिये प्रस्थान करने वाले सैनिकों में अजस्र शौर्य भर देने में आदिकाल से उपयोग होता रहा है। वर्षा ऋतु में गांव-गांव मेंघ व मल्हार राग गाया जाता था, उससे दुष्ट से दुष्ट लोगों में भी प्रेम उल्लास और आनन्द का झरना प्रवाहित होने लगता था। स्वर और लय की गति में बंधे भारतीय जीवन की सोमनस्यता जो तब थी, अब वह कल्पना मात्र रह गई है। सस्ते सिनेमा संगीत ने उन महान् शास्त्रीय उपलब्धियों को एक तरह से नष्ट करके रख दिया है।
संगीत एक प्रकार की योग साधना है, उसमें ध्वनि-कम्पन नाभि-प्रदेश से निकालकर ब्रह्म-रन्ध्र में लाये जाते हैं। यहां तालु से उन्हें पकड़कर मनोमय विद्युत का संयोग दिया जाता है, तब वह मुख द्वारा बाहर निकलता है। इस तरह नियन्त्रित स्वर पानी में भ्रमण अथवा गोलाकार चक्र के रूप में निकलता है, फिर उसका प्रयोग इच्छानुसार किसी भी प्रयोजन में हो सकता है। हर प्रयोजन के लिये अलग-अलग राग खोजे गये हैं, जो मंत्रवत् काम करते हैं। तंत्र में तो एक बुराई यह होती है कि यदि उसकी प्रतिक्रिया जो एक तेज झटके की तरह होती है, सहन न हो तो प्रयोगकर्त्ता का अनिष्ट भी कर सकती है, पर इन प्रयोगों से गायत्री उपासना, गीता के पाठ, गाय के दूध और गायत्री मंत्र के जप के समान किसी भी अवस्था में हानि की कोई भी आशंका नहीं रहती। संगीत के अभ्यास से इसीलिये कभी किसी को हानि नहीं होती, किसी भी अवस्था में लाभ ही होता है।
ऊपर दी हुई घटनायें तो बहुत दिनों पूर्व की हैं, अभी कुछ दिन पूर्व ही होशियारपुर (पंजाब) जिले के प्रसिद्ध संगीतज्ञ श्री पं. गुज्जरराम वासुदेव जी रागी का चिन्तपूर्णी देवी के पर्वत शिखर पर गायन हुआ। भगवती चिन्तपूर्णी की भक्ति में विह्वल होकर श्री रागी जी ने मेघ राग का आलाप किया। इस समय तक आकाश में बादलों की चित्ती तक न थी। कड़ाके की धूप पड़ रही थी, पर जैसे ही उन्होंने ‘मेघ राग’ गाना प्रारम्भ किया, आकाश में बादल छाने लगे। थोड़ी ही देर में सूर्य बादलों से ढंग गया और घन गरज के साथ वृष्टि प्रारम्भ हो गई। लोगों ने अनुभव किया कि शास्त्रीय संगीत स्वर-विज्ञान के उन रहस्यों से ओत-प्रोत है जो, प्राकृतिक परमाणुओं में भयंकर हलचल उत्पन्न करके उनसे इच्छित कार्य करा सकते हैं।
रामपुर के नवाब साहब लकवे से बीमार थे। उस्ताद सूरज खां के कहने से उन्हें भारतीय संगीत पर श्रद्धा जम गई। सूरजखां सिद्ध वीणा वादक थे। उन्होंने राग ‘जैजैवन्ती’ के प्रयोग के लकवे से पीड़ित नवाब साहब को कुछ ही दिन में अच्छा कर दिया।
अपनी ही संस्कृति की यह महान् उपलब्धियां आज हमारे ही लिये किंवदन्तियां बन गईं। हम उन पर विश्वास नहीं करते या हमारी उन पर श्रद्धा नहीं रही। ऐसा न होता तो सिनेमाओं में प्रयुक्त सस्ते संगीत की अपेक्षा शास्त्रीय संगीत को महत्व दिया जाता। कुछ ऐसे प्रभावशील और साधन सम्पन्न व्यक्ति भी निकलते जो संगीत-कला को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये अपने साधनों एवं प्रभाव का उपयोग स्थान-स्थान पर शास्त्रीय-संगीत खोलने बालक-बालिकाओं को उनमें प्रशिक्षण लेने के लिये प्रोत्साहित करने में करते। और नहीं तो कम से कम कीर्तन और भंजन-मंडलियां और सर्वसुलभ, गुण प्रेरक नौटंकियां तो गांव-गांव स्थापित होनी चाहियें, ताकि हमारा लोक-जीवन नीरस और आत्मिक सौन्दर्य से रहित न होने पाये।
किसी समय नृत्य भारतीय जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग था। भगवान् शंकर ‘नटराज’ कहे जाते हैं, वे स्वयं नृत्य विशेषज्ञ थे। नृत्य रास, मणिपुर, कत्थककली, भारत-नाट्यम् आदि नृत्य और नृत्य-नाटिकाओं का आज भी अपना विशिष्ट महत्व है पर गांव-गांव रचे जाने वाले लोक-नृत्यों का अपना महत्व था। पं. जवाहरलाल नेहरू ऐसे नृत्य देखकर थिरक उठते थे। वह कहते थे—‘लोक-नृत्यों से हमें उल्लास मिलता है और यह शिक्षा मिलती है कि जीवन का आनन्द केवल भौतिक पदार्थों की उपलब्धि में ही नहीं है।’’ तो भी यह कलायें हमारे लोक-जीवन से हटती जा रही हैं। हमें इन्हें फिर से अपनाना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ गाना, कुछ न कुछ बजाना और नृत्य करना सीखना चाहिये, उससे लोक-जीवन में प्रसन्नता, प्रफुल्लता, आनन्द और उल्लास का ही विकास होगा।
खेद की बात है कि जो भारतवर्ष कभी संगीत-कला विशेषज्ञ माना जाता था, आज वह तो अपनी इस विशेषता से रिक्त होता जा रहा है, जबकि दूसरे देशों में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ रही है। लोग उससे बहुमूल्य लाभ ले रहे हैं।
अमर कहानीकार मुन्शी प्रेमचन्द्र ने इसी तथ्य को व्यक्त करते हुए लिखा है—‘‘मनोव्यथा जब असह्य हो जाती और अपार हो जाती है, जब उसे कहीं त्राण नहीं मिलता, जब वह रुदन और क्रन्दन की गोद में भी आश्रय नहीं पाती तो वह संगीत के चरणों में जा गिरती है।’’
संगीत मनुष्य की आत्मा है, उसे अपने जीवन में अभिन्न न करें तो आत्मोत्थान के स्वर्गीय सुख से भी हम कभी वंचित न हों। शास्त्रों में शब्द और नाद का ब्रह्म कहा है। निःसन्देह स्वर साधना एक दिन अक्षर ब्रह्म तक पहुंचा देती है।