Books - शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म
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Language: HINDI
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संगीत की रोग निरोधक शक्ति
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पिट्सवर्ग (अमेरिका) की एक एल्युमिनियम कम्पनी (अल्कोआ) के फिल्म डाइरेक्टर राल्फ लारेन्स हाय संगीत से बड़ा प्रेम रखते हैं। वे स्वयं एक सुप्रसिद्ध वायलिन वादक और उनकी धर्मपत्नी ग्रेश्चेन अच्छी पियानो वादिका हैं। दोनों एक दिन संगीत का अभ्यास कर रहे थे। एकाएक उन्हें एक महिला की याद आई। इस परिवार से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध था पर इधर बहुत दिनों से उनकी भेंट नहीं हो सकी थी।
दूसरे दिन उन्होंने विस्तृत छान-बीन की तो पता चला कि वह महिला रुधिर नाड़ियों की किसी भयंकर बीमारी से पीड़ित, रोग शैया पर पड़ी दिन काट रही है। अगले दिन लारेन्स हांय अपनी धर्मपत्नी सहित उनसे मिलने गये। रोगिणी का उपचार करने वाले डाक्टरों से पूछ-ताछ करने पर पता चला कि रोग असाध्य हो चुका है और उसके अच्छा होने की कोई सम्भावना नहीं है।
कितने दिनों से वह इस तरह का कष्ट भुगत रही है। इस बीच उनकी आत्मा ने शायद ही कभी प्रफुल्लता अनुभव की हो। शरीर आधि-व्याधि से पीड़ित होता है तो भला यह संसार किसे अच्छा लगता है, पर एक वस्तु परमात्मा ने ऐसी भी बनाई है—लारेन्स हाँय ने विचार किया कि वह कैसे भी पीड़ित हृदय को भी प्रसन्नता प्रदान करती है। संगीत, उन्होंने सोचा—सबको आत्म-सन्तोष देता है, क्यों न आज इन्हें संगीत सुनाऊं, सम्भवतः उससे इन्हें कुछ शीतलता मिले।
पति पत्नी रोगिणी के पास बैठ गये। पति ने वायलिन उठाया, पत्नी से पियानो पर संगत दी। धीरे-धीरे संगीत लहरियां उस क्रन्दन भरे कमरे में गूंजने लगीं। रोगिणी को ऐसा लगा जैसे कष्ट पीड़ित अंगों पर कोई हलकी-हलकी मालिश कर रहा है। कर्ण-प्रिय मधुर संगीत धारा प्राण-प्रिय वस्तु की तरह मिली। मन्त्र मुग्ध की तरह वे उन स्वर लहरियों का आनन्द लेती रहीं और उसी में आत्म-विभोर होकर सो गईं। जागी आंखें खोलीं तो उन्होंने अपने मन में विलक्षण शांति और विश्राम की अनुभूति की। इस कृपा के लिये उन्होंने लारेन्स हाँय को हार्दिक धन्यवाद प्रदान किया। उन्हें रोग में भी बड़ा आराम मिला।
लारेन्स हाँय घर लौट आये। और कई दिन तक इस घटना पर विचार करते रहे। उनकी पत्नी ने सुजाया क्यों न ऐसी व्यवस्था करें कि इन्हें प्रतिदिन ऐसा संगीत सुनने को मिला जाया करे। बहुत देर तक उन्होंने विचार-विनिमय कर एक योजना बनाई। उसके अनुसार कई तरह के गीतों को विभिन्न मनमोहक ताल, स्वरों पर टेप-रिकार्ड करा लिया और सारे टेप उस महिला को भेज दिये, जो वर्षों से स्नायु रोग से पीड़ित थी। यह टेप पाकर महिला को मानो अमृत मिला। वह नियमित रूप से यह संगीत भरे टेप-रिकार्ड सुना करती और उन स्वरों में तन्मय हो जाती। जब स्वर समाप्त होते तो लगता शरीर के रोगी परमाणु शरीर से निकल गये हैं और वह हलकापन अनुभव कर रही है। सचमुच कुछ ही दिनों में वह पूर्ण स्वस्थ हो गईं। संगीत-शक्ति की यह बड़ी भारी विजय थी, जिसने भौतिक विज्ञान (डाक्टरी) को भी पछाड़ कर रख दिया।
राल्फ लारेन्स हाय इस घटना से इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने रोगियों के लिये संगीत-चिकित्सा की एक नई दिशा ही खोल दी। ‘आर फोर आर’ (रिकार्डिंग फर रिलैग्जेशन, रिफ्लेक्शन, रेस्पांस एण्ड रिकवरी) नाम से यह प्रतिष्ठान आज सारे अमेरिका और योरुप में छाई हुई है। इस संस्थान की संगीत चिकित्सा ने हजारों रोगियों को अच्छा किया है और अब वह एक अति साधन सम्पन्न संस्था की तरह विकसित होकर लोग कल्याण की दिशा में प्रवृत्त है।
प्रारम्भ में उन्होंने कुछ शास्त्रीय धुनें तैयार कीं और उन्हें पिट्स वर्ग के अस्पतालों में, जहां वृद्ध लोग रहते थे वहां तथा घायल सैनिकों के अस्पतालों में जाकर सुनाना प्रारम्भ किया। उससे रोगियों को जो शारीरिक तथा मानसिक लाभ हुआ उससे उनका उत्साह और भी बढ़ गया। इस दृष्टि से देखें तो विदेशी हम भारतीयों से हजार गुना अच्छे हैं। जो वस्तु उन्हें उपयोगी और मानवीय हित में दिखाई दी उसके प्रति निष्ठा और कार्यान्वयन का साहस हमें विदेशियों से ही सीखना होगा। उस तरह की हिम्मत हममें भी आ गई होती तो न केवल दहेज, जाति भेद, ऊंच-नीच, छुआछूत, अन्ध-विश्वास, पलायनवाद, जैसी सामाजिक बुराइयों को पूरी तरह से समाज से उखाड़ चुके होते वरन् ज्ञान-विज्ञान, भाषा, भेष, साहित्य और संस्कृति के पुनः निर्माण में भी बहुत आगे बढ़ चुके होते।
सेवा भाव और परिश्रम के साथ संगीत सत्ता के समन्वय ने एक ऐसा प्रभाव उत्पन्न किया है कि कुछ ही समय में न केवल पिट्स वर्ग वरन् अमरीका के दूसरे शहरों में भी इस संस्था की चर्चा होने लगी। एक लड़का जिसके हाथ पांव लकवे से मारे गये थे। स्वस्थ होने की कोई आशा नहीं थी। किन्तु उसे लारेन्स का शास्त्रीय संगीत सुनने का सौभाग्य मिला। उसके फलस्वरूप उसका रोग अच्छा हो गया अब वह युवक कम्पनी में टाइपिस्ट का काम करता है।
अस्पताल में एक ऐसी वृद्ध महिला प्रविष्ट की गई जिसका मस्तिष्क लगभग शून्य हो गया था। वह न तो बोलती थी और न ही चल फिर सकती थी। भीतर का कष्ट आंसुओं से ही दिखाई देता था। डॉक्टर अनुभव करते थे कि रोगों की प्रक्रिया शारीरिक ही नहीं मानसिक भी है, मानसिक ही नहीं वह आत्मिक भी है क्योंकि बाह्य परिस्थितियां ही नहीं अपने स्वभाव और संस्कार भी कई बार ऐसे कर्म करने को विवश कर देते हैं जो हमारे शरीर को रोगाणुओं से भर देते हैं। इतना सोचने पर भी चिकित्सा का कोई विकल्प उनके पास नहीं था।
डा. हाय ने कहा—तब जबकि मनुष्य का रोग सब ओर से असाध्य हो गया हो उसकी चेतना के अन्तिम स्रोत तक को संगीत की अदृश्य स्वर लहरियों से प्रभावित और ठीक किया जा सकता है। फलस्वरूप यह मामला भी उन्हें सौंपा गया। श्री हाय ने कुछ पुराने लोकप्रिय गीतों के टेप उस महिला को सुनाये। थोड़े ही समय में वह स्त्री न केवल गुनगुनाने और बोलने लगी वरन् जब भी ‘टेप’ बजाये जाते उसके पांव भी नाचने की मुद्रा में गति देने लगते।
एक और रोगी जो उठकर चल भी नहीं सकता था जिसका सर्वत्र आत्म-हत्या करने का प्रयत्न रहता था वह श्री हाय के संगीत से अच्छा हो गया। नार्वे का एक मरीज भी ऐसी ही निराशाजनक स्थिति में हाय के पास आया। दिक्कत यह थी कि डा. हाय के पास नार्वे संगीत के रिकार्ड नहीं थे फलस्वरूप उन्होंने वहां के शासनाध्यक्ष को पत्र लिखा। उस पत्र में उन्होंने संगीत की शोध सम्बन्धी उपलब्धियों का भी वर्णन किया उससे नार्वे का राजा बड़ा प्रभावित हुआ उसने अच्छे-अच्छे रिकार्ड हाय को भिजवा दिये। हाय के प्रयोग से यह रोगी भी अच्छा हो गया।
अब हाय के समक्ष एक दूसरा ही जीवन था—संगीत विद्या का प्रसार। हम में से सैकड़ों ऐसे हैं जो अपनी अमूल्य संगीत निधि के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं पर स्वार्थ, संकीर्णता और हिम्मत के अभाव में चाहते हुए भी कुछ कर नहीं पाते, लेकिन डा. ने जैसे ही यह निश्चित समझ लिया कि संगीत मनुष्य के लिए एक ईश्वरीय वरदान के समान है। उन्होंने ‘अल्कोआ’ कम्पनी के सम्मानास्पद पद से त्याग पत्र दे दिया इन दिनों वे न्यूयार्क राज्य के एक गांव ब्रेनार्ड्स विल में रहते हैं। यह स्थान शेटूगे लेक (झील) के पास है। यहां उनका सब प्रकार के आधुनिक साधनों से सज्जित आर्केस्ट्रा तथा साउण्ड रिकार्डिंग थियेटर है। एक छोटा सा आश्रम जैसा है वहीं से सब कार्यक्रमों का संचालन, पत्र व्यवहार तथा शोध कार्य सम्पन्न होता है। श्री हाय का विश्वास है कि एक दिन वह भी आयेगा जब मानवीय आदर्शों का नियमन सचमुच संगीत द्वारा होने लगेगा क्योंकि उसमें आश्चर्य जनक आकर्षण और मधुरता है।
इस कार्य में अकेले श्री हाय संलग्न हों सो बात नहीं वहां के अधिकांश लोग शास्त्रीय संगीत की महत्ता अनुभव करने लगे हैं यही कारण है कि सार्वजनिक संस्था के रूप में इस संस्थान को साधनों का कभी अभाव नहीं अखरा। न्यूयार्क फिलहार्मोनिक आर्चेंस्ट्रा प्रसिद्ध अभिनेता डैनी तथा मार्मन टैबर्नेक क्वार, जो कि अमरिका की एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त धार्मिक भजनों को गाने और प्रसार करने वाली मंडली है, ने अपने सामान और कार्यक्रमों के टेप हाय को दिये हैं। स्व. राष्ट्रपति कैनेडी ने ह्वाइट हाउस में जो भी संगीत कार्य क्रमों के टेप थे उन सबकी नकल कराके डा. हाय को भेंट कर दी। प्रसिद्ध संगीतकार जेनिस हरसांटी ने अपना स्वर बिना मूल्य हाय को मानवीय सेवाओं के लिए दिशा। नार्वें के अतिरिक्त लिस्बन (पुर्तगान) के केलूस्ट गुल्बेकियन फाउंडेशन ने भी बहुत से पुर्तगाली रिकार्ड दिये हैं। अब तक इस संस्था के पास 700 से भी अधिक टेप तथा 2000 से अधिक ऐसी संस्थाएं हैं जो इस कार्य में नियमित सहयोग देती हैं। जन सहयोग इससे भिन्न है हम भी चाहें तो अपने देश के प्रभावशील व्यक्तियों से अथवा जन-सहयोग से कोई इस तरह का आन्दोलन खड़ा करके लोक जीवन को सरस और प्राणवान् बना सकते हैं।
डा. हाय को तो शोध कार्य भी करना पड़ता है हमारे शास्त्रीय संगीत में तो सब कुछ पहले से ही उपलब्ध है। टोड़ी, दीपक, मेघ, मल्हार, पचड़ा आदि राग, भेरी, शंख, बंशी, मृदंग, पटह, कलह, पणव, कोण, वीणा, सितार, किलकिला, क्रकच, स्वेड आदि वाद्ययंत्र उसके प्रमाण हैं। इनके प्रसार भर की आवश्यकता है यदि कुछ लोग शास्त्रीय संगीत की प्रतिष्ठा के लिए डा. हाय की तरह ही सेवा व्रत लेकर जुट जायें तो अपनी महान्तम लोक-कला को फिर से नया जीवन दिया जा सकता है। व्यक्तिगत रूप से तो संगीत जैसी ललित कला के प्रति अभिरुचि सभी को रखनी चाहिये।
राल्फ लारेन्स हाय इस तरह का प्रयोग करने वाले कोई प्रथम व्यक्ति नहीं है। उन्हें मिशन बद्ध काम करने में ख्याति मिली है, वैसे इनसे पूर्व डा. एडवर्ड पोडोलास्की (न्यूयार्क) भी प्रसिद्ध चिकित्सक और संगीतज्ञ हो चुके हैं उन्होंने लिखा है—गाने से रक्त संचालन बढ़ता है, शिराओं में नवजीवन संचार होता है। जो लोग गाने-बजाने और नाचने आदि किसी का भी नियमित अभ्यास करते हैं, उनमें फेफड़े और जिगर सम्बन्धी रोग बहुत कम पाये जाते हैं। शरीर के विजातीय द्रव्य और विषैले पदार्थों को निकाल कर बाहर करने में संगीत का असाधारण महत्व है यदि सहायता ली जाये तो उससे अनेक प्रकार के रोगों का उपचार किया जा सकता है।
यह शारीरिक लाभ किसी श्रद्धा या विश्वास के परिणाम हों सो बात नहीं। श्रद्धा और विश्वास से लाभ की मात्रा तो आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ती है पर यदि वह न हो तो भी लाभ मिलने का सुनिश्चित विज्ञान है, उसे समझने के लिये हमें शब्द की उत्पत्ति और उसके विज्ञान को जानना पड़ेगा।
एक वस्तु का दूसरी वस्तु से आघात होता है, तब ‘‘शब्द’’ की उत्पत्ति होती है। जिस वस्तु पर चोट की जाती है उसके परमाणुओं में कम्पन उत्पन्न होता है। वह कम्पन आस-पास की वायु को भी प्रकम्पित करता है। हवा में उत्पन्न कम्पन की लहरें मण्डलाकार गति से फैलती हैं और कुछ ही समय में सारे संसार में छहर जाती हैं। यही कम्पन कान के पर्दे से टकराते हैं तो कान की भीतरी झिल्ली समानुपाती गति से हिलने-डुलने लगती है। और विद्युत चुम्बकीय तरंगों के रूप में कान की नसों से होती हुई मस्तिष्क के श्रवण-केन्द्र तक जा पहुंचती है।
हम जानते हैं कि शरीर में नाड़ियों की संख्या और बुनावट इतनी अधिक और सघन है कि प्रत्येक अवयव का सम्बन्ध शरीर के रत्ती-रत्ती भर स्थान से है। कभी कान में कोई पतली लकड़ी या और कोई वस्तु चली जाती है। तो सारे शरीर में विद्युत आवेश दौड़ जाने की तरह की सिरहर होती है। वाह्याघात से परमाणुओं के कम्पन जब मस्तिष्क के श्रवण-केन्द्र तक पहुंचते हैं, तब वे इसी सिद्धान्त के आधार पर शरीर के सम्पूर्ण परमाणुओं में थिरकन उत्पन्न कर देते हैं। पर यह थिरकन, कम्पन्न या सिरहन शब्द के ताल-सुर और गति पर अवलम्बित होती हैं, इसीलिये प्रत्येक शब्द का एक-सा प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता वरन् जो कुछ भी बोला और सुना जाता है, उसका भिन्न-भिन्न तरह का प्रभाव शरीर पर पड़ता है।
शरीर की सम्वेदनशीलता परमाणुओं में स्थित सबसे कोमल भाग में कम्पन के कारण होती है। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि शब्द के 45000 बार तक के कम्पन्न को हम सुन सकते हैं, उससे अधिक और 14 कम्पनों से कम के शब्द को हम नहीं सुन सकते। इस बीच की ध्वनि में दो तरंगों के बीच में जितना समय लगता है, ध्वनि तरंगें यदि उसी समय को स्थिर रखकर बराबर प्रवाहित होती रहें तो शरीर स्थित परमाणुओं के कोमल तन्तुओं का आकुंचन-प्रकुंचन (फैलना और सिमटना) होता है, उससे उन कोशों में स्थित भारी अणु अर्थात् रोग और गन्दगी के कीटाणु निकलने लगते हैं। समान समय वाले यह कम्पन्न ही संगीत में स्वर कहे जाते हैं। उनका जीवन विज्ञान से घनिष्ठतम सम्बन्ध माना गया है। यदि कोई प्रतिदिन मधुर संगीत सुनता, बजाता, गाता अथवा ताल और गति के साथ नृत्य करता है तो उसका शरीर अपने दूषित तत्व बराबर निकालता रहता है, इस तरह रोगों के कीटाणु भी धुल जाते हैं और शरीर भी स्वस्थ बना रहता है। मन को विश्राम और प्रसन्नता मिलना शरीर के हलकेपन का ही दूसरा नाम है, अर्थात् यही ध्वनि-कम्पन्न आत्मा तक को प्रभावित करने का काम करते हैं।
अमेरिका के पथरी के एक रोगी पर डा. पोडोलास्की ने प्रयोग करके देखा कि संगीत की सूक्ष्म ध्वनि-तरंगों के आघात से पथरी के कुछ कण प्रतिदिन टूटकर उससे अलग हो जाते और मूत्र के साथ मिलकर बाहर निकल आते हैं। प्रयोग के दौरान प्रतिदिन मूत्र का परीक्षण किया जाता रहा। देखा गया कि जिस दिन संगीत का प्रयोग थोड़ी देर हुआ, उस दिन थोड़ी मात्रा में ही पथरी टूटी जबकि जिस दिन संगीत बिलकुल नहीं बजा उस दिन के मूत्र-परीक्षण में पथरी का एक भी टुकड़ा नहीं मिला। इसके बाद यह क्रम बीच में कभी बन्द नहीं किया गया उससे पथरी घुलकर पूरी की पूरी घुल गई।
कैलिफोर्निया के एक व्यक्ति की जबान बन्द हो गई थी। वह कुछ भी बोल नहीं सकता था। चिकित्सकों ने उसे ‘मनोरोगी’ कहकर असाध्य ठहरा दिया था पर ऊपर अमेरिका की जिस संस्था का नाम दिया गया है, एक स्वयं-सेविका ने उसके रिकार्ड दो वर्ष तक लगातार इस व्यक्ति को सुनाये और एक दिन सब लोग यह देखकर आश्चर्य चकित रह गये कि संगीत-ध्वनि के कारण वह इतना आह्लादित हो उठा कि एकाएक उसकी जबान फूट पड़ी और धीरे-धीरे वह सब की तरह खूब अच्छी तरह बोलने और बात-चीत करने लगा। गायन से फेफड़ों की जो हलकी-हलकी मालिश होती है वह किसी भी परिश्रम वाले काम की अपेक्षा बहुत कोमल और लाभदायक होती है। दौड़-कुश्ती और कृषि आदि के कामों से भी फेफड़ों का व्यायाम होता है, पर उनमें थकावट होती है, प्रसन्नता नहीं।
डा. बर्नर मैकफेडेन ने लिखा है—‘‘गाने से शरीर में जो हलचल उत्पन्न होती है, उससे रक्त-संचार में वृद्धि होती है, पाचन क्रिया में सुधार, उदर और वक्षस्थल की मांस पेशियों का प्रसार होता है। गाने में कण्ठ-नलिकायें और फेफड़े को अनिवार्य रूप से फैलना सिकुड़ना पड़ता है, इसलिये उस समय इन अंगों की नियमित कसरत अवश्य होगी। कसरत कोई भी हो उस स्थान की गन्दगी ही निकालती और उस स्थान की सक्रियता ही बढ़ाती है, इसलिये गायन को बहुत अच्छा व्यायाम कहना चाहिये। गाना प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये, उससे वस्ति प्रदेश के सभी अंगों, अवयवों को स्फूर्ति प्रोत्साहन एवं मालिश का लाभ मिलता है।
लन्दन के कुछ अनुभवी डॉक्टर गर्भस्थ शिशु के लिये संगीत की धुनें बजाकर यह पता लगाने की चेष्टा कर रहे हैं कि गर्भस्थ शिशु की श्रवण शक्ति का विकास किस प्रकार होता है और मधुर ध्वनियों से स्नायविक प्रणाली पर क्या प्रभाव होता है।
अनेक गर्भवती स्त्रियों को संगीत की ध्वनियां सुना कर परीक्षण किये गये। 290 में से 284 बच्चे ऐसे निकले जो सामान्य बच्चों से अधिक स्वस्थ वजनदार और प्रसन्न मुख थे। जन्म लेने से 14 सप्ताह पूर्व गर्भस्थ शिशु की श्रवण शक्ति का विकास हो जाता है और तब वह संगीत ध्वनियों से अधिक तेजी से प्रभावित होता है। इसलिये वहां के डाक्टरों का यह कथन है कि गर्भवती स्त्रियों को संगीत का अभ्यास अथवा रसास्वादन अवश्य करना चाहिये। जो गा-बजा नहीं सकतीं उन्हें अच्छे भजन-कीर्तन, भक्ति, करुणा, प्रेम, दया और सेवा के प्रेरक गीत सुनने के लिये कोई साधन अवश्य बनाना चाहिये।
आजकल प्रातःकाल प्रायः सभी भारतीय रेडियो स्टेशनों से भक्ति-भावना से ओत-प्रोत भजन प्रसारित किये जाते हैं, जिन घरों में रेडियो, ट्रांजिस्टर हों उन घरों में प्रातःकाल यह भजन अवश्य सुने जाने चाहिये। उससे कार्य क्षमता भी घटती नहीं एकाग्रचित्त होने के कारण दूसरे काम भी तेजी से होते हैं और कानों से स्वर लहरियों का आनन्द भी मिलता रहता है।
देखा गया है कि शरीर में प्रातःकाल और सायंकाल ही अधिक शिथिलता रहती है, उसका कारण प्रोटोप्लाज्मा की शक्ति का ह्रास है। यों प्रातःकाल शरीर थकावट रहित होता है पर पिछले दिन की थकावट का प्रभाव आलस्य के रूप में उभरा हुआ रहता है। प्रोटोप्लाज्मा जिससे जीवित शरीर की रचना होती है, इन दोनों समयों में अस्त-व्यस्त हो जाता है, उस समय यदि भारी काम करें तो शिथिलता के कारण शरीर पर भारी दबाव पड़ता है और मानसिक खीझ और उद्विग्नता बढ़ती है। थकावट में ऐसा हर किसी को होता है। यदि कोई कर्म-गर्म पदार्थ खाये तो कुछ क्षण के लिये प्रोटोप्लाज्मा के अणु तरंगायित तो होते हैं, पर वह तरंग उस तूफान की तरह तेज होती है, जो थोड़ी देर के लिये सारे पेड़-पौधों को झकझोर कर रख देती है। उसके बाद चारों ओर सुनसान भयानकता-सी छा जाती है, उत्तेजक पदार्थों के सेवन से दिन में बुद्धि विभ्रम और रात में दुःस्वप्न शारीरिक प्रोटोप्लाज्मा प्रकृति में इसी तरह के तूफान का प्रभाव होता है, इसलिये उसे समय नशापान स्वास्थ्य को बुरी तरह चौपट करने वाला होता है।
संगीत की लहरियां शिथिल हुए प्रोटोप्लाज्मा की उस तरह की हल्की मालिश करती हैं, जिस तरह किसी बहुत प्रियजन के समीप आने पर हृदय में मस्ती और सुहावनापन झलकता है, इसलिये प्रातःकाल का संगीत जहां शरीर को स्फूर्ति और बल प्रदान करता है, हृदय, स्नायुओं, मन और भावनाओं को भी स्निग्धता से आप्लावित कर देता है। इसलिये प्रातःकाल और सायंकाल दो समय तो प्रत्येक व्यक्ति को गाना, प्रार्थना पुकारना अवश्य चाहिये। सामूहिक कीर्तन और भजन बन पड़ें तो और अच्छा अन्यथा किसी भी माध्यम से सरस और भाव प्रदान गीत तो इस समय अवश्य ही सुनना चाहिये।
अमेरिका के प्रसिद्ध मानस चिकित्सक डा. जार्ज स्टीवेन्सन और डा. विन्सेन्ट पील ने स्नायविक तनाव दूर करने के लिये जो चार उपाय बताये हैं, उनमें चौथा इस प्रकार है—‘‘इन तीन उपायों (1. क्रोध आये तो शारीरिक श्रम में लग जाना, 2. विपरीत परिणाम या असफलता के समय स्वाध्याय, 3. व्यायाम) की सार्थकता संगीत से सम्पन्न होती है, इसलिये संगीत साधना को हम सभी मानसिक तनावों के निराकरण की अचूक औषधि भी कहते हैं। संगीत के अभ्यास और श्रवण काल दोनों में मन को विश्रान्ति ही नहीं, आत्म प्रसाद भी प्राप्त होता है।
दूसरे दिन उन्होंने विस्तृत छान-बीन की तो पता चला कि वह महिला रुधिर नाड़ियों की किसी भयंकर बीमारी से पीड़ित, रोग शैया पर पड़ी दिन काट रही है। अगले दिन लारेन्स हांय अपनी धर्मपत्नी सहित उनसे मिलने गये। रोगिणी का उपचार करने वाले डाक्टरों से पूछ-ताछ करने पर पता चला कि रोग असाध्य हो चुका है और उसके अच्छा होने की कोई सम्भावना नहीं है।
कितने दिनों से वह इस तरह का कष्ट भुगत रही है। इस बीच उनकी आत्मा ने शायद ही कभी प्रफुल्लता अनुभव की हो। शरीर आधि-व्याधि से पीड़ित होता है तो भला यह संसार किसे अच्छा लगता है, पर एक वस्तु परमात्मा ने ऐसी भी बनाई है—लारेन्स हाँय ने विचार किया कि वह कैसे भी पीड़ित हृदय को भी प्रसन्नता प्रदान करती है। संगीत, उन्होंने सोचा—सबको आत्म-सन्तोष देता है, क्यों न आज इन्हें संगीत सुनाऊं, सम्भवतः उससे इन्हें कुछ शीतलता मिले।
पति पत्नी रोगिणी के पास बैठ गये। पति ने वायलिन उठाया, पत्नी से पियानो पर संगत दी। धीरे-धीरे संगीत लहरियां उस क्रन्दन भरे कमरे में गूंजने लगीं। रोगिणी को ऐसा लगा जैसे कष्ट पीड़ित अंगों पर कोई हलकी-हलकी मालिश कर रहा है। कर्ण-प्रिय मधुर संगीत धारा प्राण-प्रिय वस्तु की तरह मिली। मन्त्र मुग्ध की तरह वे उन स्वर लहरियों का आनन्द लेती रहीं और उसी में आत्म-विभोर होकर सो गईं। जागी आंखें खोलीं तो उन्होंने अपने मन में विलक्षण शांति और विश्राम की अनुभूति की। इस कृपा के लिये उन्होंने लारेन्स हाँय को हार्दिक धन्यवाद प्रदान किया। उन्हें रोग में भी बड़ा आराम मिला।
लारेन्स हाँय घर लौट आये। और कई दिन तक इस घटना पर विचार करते रहे। उनकी पत्नी ने सुजाया क्यों न ऐसी व्यवस्था करें कि इन्हें प्रतिदिन ऐसा संगीत सुनने को मिला जाया करे। बहुत देर तक उन्होंने विचार-विनिमय कर एक योजना बनाई। उसके अनुसार कई तरह के गीतों को विभिन्न मनमोहक ताल, स्वरों पर टेप-रिकार्ड करा लिया और सारे टेप उस महिला को भेज दिये, जो वर्षों से स्नायु रोग से पीड़ित थी। यह टेप पाकर महिला को मानो अमृत मिला। वह नियमित रूप से यह संगीत भरे टेप-रिकार्ड सुना करती और उन स्वरों में तन्मय हो जाती। जब स्वर समाप्त होते तो लगता शरीर के रोगी परमाणु शरीर से निकल गये हैं और वह हलकापन अनुभव कर रही है। सचमुच कुछ ही दिनों में वह पूर्ण स्वस्थ हो गईं। संगीत-शक्ति की यह बड़ी भारी विजय थी, जिसने भौतिक विज्ञान (डाक्टरी) को भी पछाड़ कर रख दिया।
राल्फ लारेन्स हाय इस घटना से इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने रोगियों के लिये संगीत-चिकित्सा की एक नई दिशा ही खोल दी। ‘आर फोर आर’ (रिकार्डिंग फर रिलैग्जेशन, रिफ्लेक्शन, रेस्पांस एण्ड रिकवरी) नाम से यह प्रतिष्ठान आज सारे अमेरिका और योरुप में छाई हुई है। इस संस्थान की संगीत चिकित्सा ने हजारों रोगियों को अच्छा किया है और अब वह एक अति साधन सम्पन्न संस्था की तरह विकसित होकर लोग कल्याण की दिशा में प्रवृत्त है।
प्रारम्भ में उन्होंने कुछ शास्त्रीय धुनें तैयार कीं और उन्हें पिट्स वर्ग के अस्पतालों में, जहां वृद्ध लोग रहते थे वहां तथा घायल सैनिकों के अस्पतालों में जाकर सुनाना प्रारम्भ किया। उससे रोगियों को जो शारीरिक तथा मानसिक लाभ हुआ उससे उनका उत्साह और भी बढ़ गया। इस दृष्टि से देखें तो विदेशी हम भारतीयों से हजार गुना अच्छे हैं। जो वस्तु उन्हें उपयोगी और मानवीय हित में दिखाई दी उसके प्रति निष्ठा और कार्यान्वयन का साहस हमें विदेशियों से ही सीखना होगा। उस तरह की हिम्मत हममें भी आ गई होती तो न केवल दहेज, जाति भेद, ऊंच-नीच, छुआछूत, अन्ध-विश्वास, पलायनवाद, जैसी सामाजिक बुराइयों को पूरी तरह से समाज से उखाड़ चुके होते वरन् ज्ञान-विज्ञान, भाषा, भेष, साहित्य और संस्कृति के पुनः निर्माण में भी बहुत आगे बढ़ चुके होते।
सेवा भाव और परिश्रम के साथ संगीत सत्ता के समन्वय ने एक ऐसा प्रभाव उत्पन्न किया है कि कुछ ही समय में न केवल पिट्स वर्ग वरन् अमरीका के दूसरे शहरों में भी इस संस्था की चर्चा होने लगी। एक लड़का जिसके हाथ पांव लकवे से मारे गये थे। स्वस्थ होने की कोई आशा नहीं थी। किन्तु उसे लारेन्स का शास्त्रीय संगीत सुनने का सौभाग्य मिला। उसके फलस्वरूप उसका रोग अच्छा हो गया अब वह युवक कम्पनी में टाइपिस्ट का काम करता है।
अस्पताल में एक ऐसी वृद्ध महिला प्रविष्ट की गई जिसका मस्तिष्क लगभग शून्य हो गया था। वह न तो बोलती थी और न ही चल फिर सकती थी। भीतर का कष्ट आंसुओं से ही दिखाई देता था। डॉक्टर अनुभव करते थे कि रोगों की प्रक्रिया शारीरिक ही नहीं मानसिक भी है, मानसिक ही नहीं वह आत्मिक भी है क्योंकि बाह्य परिस्थितियां ही नहीं अपने स्वभाव और संस्कार भी कई बार ऐसे कर्म करने को विवश कर देते हैं जो हमारे शरीर को रोगाणुओं से भर देते हैं। इतना सोचने पर भी चिकित्सा का कोई विकल्प उनके पास नहीं था।
डा. हाय ने कहा—तब जबकि मनुष्य का रोग सब ओर से असाध्य हो गया हो उसकी चेतना के अन्तिम स्रोत तक को संगीत की अदृश्य स्वर लहरियों से प्रभावित और ठीक किया जा सकता है। फलस्वरूप यह मामला भी उन्हें सौंपा गया। श्री हाय ने कुछ पुराने लोकप्रिय गीतों के टेप उस महिला को सुनाये। थोड़े ही समय में वह स्त्री न केवल गुनगुनाने और बोलने लगी वरन् जब भी ‘टेप’ बजाये जाते उसके पांव भी नाचने की मुद्रा में गति देने लगते।
एक और रोगी जो उठकर चल भी नहीं सकता था जिसका सर्वत्र आत्म-हत्या करने का प्रयत्न रहता था वह श्री हाय के संगीत से अच्छा हो गया। नार्वे का एक मरीज भी ऐसी ही निराशाजनक स्थिति में हाय के पास आया। दिक्कत यह थी कि डा. हाय के पास नार्वे संगीत के रिकार्ड नहीं थे फलस्वरूप उन्होंने वहां के शासनाध्यक्ष को पत्र लिखा। उस पत्र में उन्होंने संगीत की शोध सम्बन्धी उपलब्धियों का भी वर्णन किया उससे नार्वे का राजा बड़ा प्रभावित हुआ उसने अच्छे-अच्छे रिकार्ड हाय को भिजवा दिये। हाय के प्रयोग से यह रोगी भी अच्छा हो गया।
अब हाय के समक्ष एक दूसरा ही जीवन था—संगीत विद्या का प्रसार। हम में से सैकड़ों ऐसे हैं जो अपनी अमूल्य संगीत निधि के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं पर स्वार्थ, संकीर्णता और हिम्मत के अभाव में चाहते हुए भी कुछ कर नहीं पाते, लेकिन डा. ने जैसे ही यह निश्चित समझ लिया कि संगीत मनुष्य के लिए एक ईश्वरीय वरदान के समान है। उन्होंने ‘अल्कोआ’ कम्पनी के सम्मानास्पद पद से त्याग पत्र दे दिया इन दिनों वे न्यूयार्क राज्य के एक गांव ब्रेनार्ड्स विल में रहते हैं। यह स्थान शेटूगे लेक (झील) के पास है। यहां उनका सब प्रकार के आधुनिक साधनों से सज्जित आर्केस्ट्रा तथा साउण्ड रिकार्डिंग थियेटर है। एक छोटा सा आश्रम जैसा है वहीं से सब कार्यक्रमों का संचालन, पत्र व्यवहार तथा शोध कार्य सम्पन्न होता है। श्री हाय का विश्वास है कि एक दिन वह भी आयेगा जब मानवीय आदर्शों का नियमन सचमुच संगीत द्वारा होने लगेगा क्योंकि उसमें आश्चर्य जनक आकर्षण और मधुरता है।
इस कार्य में अकेले श्री हाय संलग्न हों सो बात नहीं वहां के अधिकांश लोग शास्त्रीय संगीत की महत्ता अनुभव करने लगे हैं यही कारण है कि सार्वजनिक संस्था के रूप में इस संस्थान को साधनों का कभी अभाव नहीं अखरा। न्यूयार्क फिलहार्मोनिक आर्चेंस्ट्रा प्रसिद्ध अभिनेता डैनी तथा मार्मन टैबर्नेक क्वार, जो कि अमरिका की एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त धार्मिक भजनों को गाने और प्रसार करने वाली मंडली है, ने अपने सामान और कार्यक्रमों के टेप हाय को दिये हैं। स्व. राष्ट्रपति कैनेडी ने ह्वाइट हाउस में जो भी संगीत कार्य क्रमों के टेप थे उन सबकी नकल कराके डा. हाय को भेंट कर दी। प्रसिद्ध संगीतकार जेनिस हरसांटी ने अपना स्वर बिना मूल्य हाय को मानवीय सेवाओं के लिए दिशा। नार्वें के अतिरिक्त लिस्बन (पुर्तगान) के केलूस्ट गुल्बेकियन फाउंडेशन ने भी बहुत से पुर्तगाली रिकार्ड दिये हैं। अब तक इस संस्था के पास 700 से भी अधिक टेप तथा 2000 से अधिक ऐसी संस्थाएं हैं जो इस कार्य में नियमित सहयोग देती हैं। जन सहयोग इससे भिन्न है हम भी चाहें तो अपने देश के प्रभावशील व्यक्तियों से अथवा जन-सहयोग से कोई इस तरह का आन्दोलन खड़ा करके लोक जीवन को सरस और प्राणवान् बना सकते हैं।
डा. हाय को तो शोध कार्य भी करना पड़ता है हमारे शास्त्रीय संगीत में तो सब कुछ पहले से ही उपलब्ध है। टोड़ी, दीपक, मेघ, मल्हार, पचड़ा आदि राग, भेरी, शंख, बंशी, मृदंग, पटह, कलह, पणव, कोण, वीणा, सितार, किलकिला, क्रकच, स्वेड आदि वाद्ययंत्र उसके प्रमाण हैं। इनके प्रसार भर की आवश्यकता है यदि कुछ लोग शास्त्रीय संगीत की प्रतिष्ठा के लिए डा. हाय की तरह ही सेवा व्रत लेकर जुट जायें तो अपनी महान्तम लोक-कला को फिर से नया जीवन दिया जा सकता है। व्यक्तिगत रूप से तो संगीत जैसी ललित कला के प्रति अभिरुचि सभी को रखनी चाहिये।
राल्फ लारेन्स हाय इस तरह का प्रयोग करने वाले कोई प्रथम व्यक्ति नहीं है। उन्हें मिशन बद्ध काम करने में ख्याति मिली है, वैसे इनसे पूर्व डा. एडवर्ड पोडोलास्की (न्यूयार्क) भी प्रसिद्ध चिकित्सक और संगीतज्ञ हो चुके हैं उन्होंने लिखा है—गाने से रक्त संचालन बढ़ता है, शिराओं में नवजीवन संचार होता है। जो लोग गाने-बजाने और नाचने आदि किसी का भी नियमित अभ्यास करते हैं, उनमें फेफड़े और जिगर सम्बन्धी रोग बहुत कम पाये जाते हैं। शरीर के विजातीय द्रव्य और विषैले पदार्थों को निकाल कर बाहर करने में संगीत का असाधारण महत्व है यदि सहायता ली जाये तो उससे अनेक प्रकार के रोगों का उपचार किया जा सकता है।
यह शारीरिक लाभ किसी श्रद्धा या विश्वास के परिणाम हों सो बात नहीं। श्रद्धा और विश्वास से लाभ की मात्रा तो आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ती है पर यदि वह न हो तो भी लाभ मिलने का सुनिश्चित विज्ञान है, उसे समझने के लिये हमें शब्द की उत्पत्ति और उसके विज्ञान को जानना पड़ेगा।
एक वस्तु का दूसरी वस्तु से आघात होता है, तब ‘‘शब्द’’ की उत्पत्ति होती है। जिस वस्तु पर चोट की जाती है उसके परमाणुओं में कम्पन उत्पन्न होता है। वह कम्पन आस-पास की वायु को भी प्रकम्पित करता है। हवा में उत्पन्न कम्पन की लहरें मण्डलाकार गति से फैलती हैं और कुछ ही समय में सारे संसार में छहर जाती हैं। यही कम्पन कान के पर्दे से टकराते हैं तो कान की भीतरी झिल्ली समानुपाती गति से हिलने-डुलने लगती है। और विद्युत चुम्बकीय तरंगों के रूप में कान की नसों से होती हुई मस्तिष्क के श्रवण-केन्द्र तक जा पहुंचती है।
हम जानते हैं कि शरीर में नाड़ियों की संख्या और बुनावट इतनी अधिक और सघन है कि प्रत्येक अवयव का सम्बन्ध शरीर के रत्ती-रत्ती भर स्थान से है। कभी कान में कोई पतली लकड़ी या और कोई वस्तु चली जाती है। तो सारे शरीर में विद्युत आवेश दौड़ जाने की तरह की सिरहर होती है। वाह्याघात से परमाणुओं के कम्पन जब मस्तिष्क के श्रवण-केन्द्र तक पहुंचते हैं, तब वे इसी सिद्धान्त के आधार पर शरीर के सम्पूर्ण परमाणुओं में थिरकन उत्पन्न कर देते हैं। पर यह थिरकन, कम्पन्न या सिरहन शब्द के ताल-सुर और गति पर अवलम्बित होती हैं, इसीलिये प्रत्येक शब्द का एक-सा प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता वरन् जो कुछ भी बोला और सुना जाता है, उसका भिन्न-भिन्न तरह का प्रभाव शरीर पर पड़ता है।
शरीर की सम्वेदनशीलता परमाणुओं में स्थित सबसे कोमल भाग में कम्पन के कारण होती है। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि शब्द के 45000 बार तक के कम्पन्न को हम सुन सकते हैं, उससे अधिक और 14 कम्पनों से कम के शब्द को हम नहीं सुन सकते। इस बीच की ध्वनि में दो तरंगों के बीच में जितना समय लगता है, ध्वनि तरंगें यदि उसी समय को स्थिर रखकर बराबर प्रवाहित होती रहें तो शरीर स्थित परमाणुओं के कोमल तन्तुओं का आकुंचन-प्रकुंचन (फैलना और सिमटना) होता है, उससे उन कोशों में स्थित भारी अणु अर्थात् रोग और गन्दगी के कीटाणु निकलने लगते हैं। समान समय वाले यह कम्पन्न ही संगीत में स्वर कहे जाते हैं। उनका जीवन विज्ञान से घनिष्ठतम सम्बन्ध माना गया है। यदि कोई प्रतिदिन मधुर संगीत सुनता, बजाता, गाता अथवा ताल और गति के साथ नृत्य करता है तो उसका शरीर अपने दूषित तत्व बराबर निकालता रहता है, इस तरह रोगों के कीटाणु भी धुल जाते हैं और शरीर भी स्वस्थ बना रहता है। मन को विश्राम और प्रसन्नता मिलना शरीर के हलकेपन का ही दूसरा नाम है, अर्थात् यही ध्वनि-कम्पन्न आत्मा तक को प्रभावित करने का काम करते हैं।
अमेरिका के पथरी के एक रोगी पर डा. पोडोलास्की ने प्रयोग करके देखा कि संगीत की सूक्ष्म ध्वनि-तरंगों के आघात से पथरी के कुछ कण प्रतिदिन टूटकर उससे अलग हो जाते और मूत्र के साथ मिलकर बाहर निकल आते हैं। प्रयोग के दौरान प्रतिदिन मूत्र का परीक्षण किया जाता रहा। देखा गया कि जिस दिन संगीत का प्रयोग थोड़ी देर हुआ, उस दिन थोड़ी मात्रा में ही पथरी टूटी जबकि जिस दिन संगीत बिलकुल नहीं बजा उस दिन के मूत्र-परीक्षण में पथरी का एक भी टुकड़ा नहीं मिला। इसके बाद यह क्रम बीच में कभी बन्द नहीं किया गया उससे पथरी घुलकर पूरी की पूरी घुल गई।
कैलिफोर्निया के एक व्यक्ति की जबान बन्द हो गई थी। वह कुछ भी बोल नहीं सकता था। चिकित्सकों ने उसे ‘मनोरोगी’ कहकर असाध्य ठहरा दिया था पर ऊपर अमेरिका की जिस संस्था का नाम दिया गया है, एक स्वयं-सेविका ने उसके रिकार्ड दो वर्ष तक लगातार इस व्यक्ति को सुनाये और एक दिन सब लोग यह देखकर आश्चर्य चकित रह गये कि संगीत-ध्वनि के कारण वह इतना आह्लादित हो उठा कि एकाएक उसकी जबान फूट पड़ी और धीरे-धीरे वह सब की तरह खूब अच्छी तरह बोलने और बात-चीत करने लगा। गायन से फेफड़ों की जो हलकी-हलकी मालिश होती है वह किसी भी परिश्रम वाले काम की अपेक्षा बहुत कोमल और लाभदायक होती है। दौड़-कुश्ती और कृषि आदि के कामों से भी फेफड़ों का व्यायाम होता है, पर उनमें थकावट होती है, प्रसन्नता नहीं।
डा. बर्नर मैकफेडेन ने लिखा है—‘‘गाने से शरीर में जो हलचल उत्पन्न होती है, उससे रक्त-संचार में वृद्धि होती है, पाचन क्रिया में सुधार, उदर और वक्षस्थल की मांस पेशियों का प्रसार होता है। गाने में कण्ठ-नलिकायें और फेफड़े को अनिवार्य रूप से फैलना सिकुड़ना पड़ता है, इसलिये उस समय इन अंगों की नियमित कसरत अवश्य होगी। कसरत कोई भी हो उस स्थान की गन्दगी ही निकालती और उस स्थान की सक्रियता ही बढ़ाती है, इसलिये गायन को बहुत अच्छा व्यायाम कहना चाहिये। गाना प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये, उससे वस्ति प्रदेश के सभी अंगों, अवयवों को स्फूर्ति प्रोत्साहन एवं मालिश का लाभ मिलता है।
लन्दन के कुछ अनुभवी डॉक्टर गर्भस्थ शिशु के लिये संगीत की धुनें बजाकर यह पता लगाने की चेष्टा कर रहे हैं कि गर्भस्थ शिशु की श्रवण शक्ति का विकास किस प्रकार होता है और मधुर ध्वनियों से स्नायविक प्रणाली पर क्या प्रभाव होता है।
अनेक गर्भवती स्त्रियों को संगीत की ध्वनियां सुना कर परीक्षण किये गये। 290 में से 284 बच्चे ऐसे निकले जो सामान्य बच्चों से अधिक स्वस्थ वजनदार और प्रसन्न मुख थे। जन्म लेने से 14 सप्ताह पूर्व गर्भस्थ शिशु की श्रवण शक्ति का विकास हो जाता है और तब वह संगीत ध्वनियों से अधिक तेजी से प्रभावित होता है। इसलिये वहां के डाक्टरों का यह कथन है कि गर्भवती स्त्रियों को संगीत का अभ्यास अथवा रसास्वादन अवश्य करना चाहिये। जो गा-बजा नहीं सकतीं उन्हें अच्छे भजन-कीर्तन, भक्ति, करुणा, प्रेम, दया और सेवा के प्रेरक गीत सुनने के लिये कोई साधन अवश्य बनाना चाहिये।
आजकल प्रातःकाल प्रायः सभी भारतीय रेडियो स्टेशनों से भक्ति-भावना से ओत-प्रोत भजन प्रसारित किये जाते हैं, जिन घरों में रेडियो, ट्रांजिस्टर हों उन घरों में प्रातःकाल यह भजन अवश्य सुने जाने चाहिये। उससे कार्य क्षमता भी घटती नहीं एकाग्रचित्त होने के कारण दूसरे काम भी तेजी से होते हैं और कानों से स्वर लहरियों का आनन्द भी मिलता रहता है।
देखा गया है कि शरीर में प्रातःकाल और सायंकाल ही अधिक शिथिलता रहती है, उसका कारण प्रोटोप्लाज्मा की शक्ति का ह्रास है। यों प्रातःकाल शरीर थकावट रहित होता है पर पिछले दिन की थकावट का प्रभाव आलस्य के रूप में उभरा हुआ रहता है। प्रोटोप्लाज्मा जिससे जीवित शरीर की रचना होती है, इन दोनों समयों में अस्त-व्यस्त हो जाता है, उस समय यदि भारी काम करें तो शिथिलता के कारण शरीर पर भारी दबाव पड़ता है और मानसिक खीझ और उद्विग्नता बढ़ती है। थकावट में ऐसा हर किसी को होता है। यदि कोई कर्म-गर्म पदार्थ खाये तो कुछ क्षण के लिये प्रोटोप्लाज्मा के अणु तरंगायित तो होते हैं, पर वह तरंग उस तूफान की तरह तेज होती है, जो थोड़ी देर के लिये सारे पेड़-पौधों को झकझोर कर रख देती है। उसके बाद चारों ओर सुनसान भयानकता-सी छा जाती है, उत्तेजक पदार्थों के सेवन से दिन में बुद्धि विभ्रम और रात में दुःस्वप्न शारीरिक प्रोटोप्लाज्मा प्रकृति में इसी तरह के तूफान का प्रभाव होता है, इसलिये उसे समय नशापान स्वास्थ्य को बुरी तरह चौपट करने वाला होता है।
संगीत की लहरियां शिथिल हुए प्रोटोप्लाज्मा की उस तरह की हल्की मालिश करती हैं, जिस तरह किसी बहुत प्रियजन के समीप आने पर हृदय में मस्ती और सुहावनापन झलकता है, इसलिये प्रातःकाल का संगीत जहां शरीर को स्फूर्ति और बल प्रदान करता है, हृदय, स्नायुओं, मन और भावनाओं को भी स्निग्धता से आप्लावित कर देता है। इसलिये प्रातःकाल और सायंकाल दो समय तो प्रत्येक व्यक्ति को गाना, प्रार्थना पुकारना अवश्य चाहिये। सामूहिक कीर्तन और भजन बन पड़ें तो और अच्छा अन्यथा किसी भी माध्यम से सरस और भाव प्रदान गीत तो इस समय अवश्य ही सुनना चाहिये।
अमेरिका के प्रसिद्ध मानस चिकित्सक डा. जार्ज स्टीवेन्सन और डा. विन्सेन्ट पील ने स्नायविक तनाव दूर करने के लिये जो चार उपाय बताये हैं, उनमें चौथा इस प्रकार है—‘‘इन तीन उपायों (1. क्रोध आये तो शारीरिक श्रम में लग जाना, 2. विपरीत परिणाम या असफलता के समय स्वाध्याय, 3. व्यायाम) की सार्थकता संगीत से सम्पन्न होती है, इसलिये संगीत साधना को हम सभी मानसिक तनावों के निराकरण की अचूक औषधि भी कहते हैं। संगीत के अभ्यास और श्रवण काल दोनों में मन को विश्रान्ति ही नहीं, आत्म प्रसाद भी प्राप्त होता है।