Books - सूर्य चिकित्सा विज्ञान
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Language: HINDI
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भिन्न-भिन्न रोगों की चिकित्सा
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ज्वर अनेक प्रकार के होते हैं। आयुर्वेदिक, यूनानी और डाक्टरी में उनके बहुत भेद बताए हैं, परंतु इन सब का वास्तविक कारण एक ही है अर्थात् शरीर में अनावश्यक गर्मी का बढ़ जाना, कारणों की भिन्नता से यह अलग-अलग प्रकार का दिखाई देता है। जब ज्वर का प्रकोप दिमाग पर अधिक होता है तो जुकाम कहा जाता है। प्रकृति की ओर बढ़ता है तो पैत्तिक कहलाता है, सर्दी-गर्मी मिलकर जो बुखार आता है, वह मलेरिया है। जिन ज्वरों में कफ सूख जाता है उन्हें इन्फ्लूएन्जा कहते हैं। जुकाम बिगड़ जाने पर अक्सर खांसी हो जाती है।
पाठकों को यह स्मरण रखना चाहिए कि पेट में, आंतों में रक्त या शरीर के अन्य किसी भाग में दूषित मल इकट्ठे हो जाते हैं, तब उनको दूर करने के लिए प्रकृति संघर्ष करती है, यही ज्वर का मूल कारण और स्पष्ट लक्षण शरीर में गर्मी बढ़ जाता है। गर्मी का रंग लाल है। हर प्रकार के ज्वरों में गर्मी बढ़ी हुई होती है। गर्मी को शांत करने के लिए शीतलता का देना आवश्यक है।
जब किसी गरम चीज को स्वाभाविक स्थिति में लाना होता है तो उसे ठंडक देते हैं। यही प्राकृतिक नियम सूर्य-चिकित्सा पर भी लागू होता है। नीला रंग ठंडा है इसलिए ज्वर की दवा नीला रंग है। हल्के रंग की बोतल में तैयार किया हुआ पानी देना चाहिए। सिर में दर्द अधिक हो तो मस्तक पर नीले कांच की रोशनी डालना उचित है। अधिक पीड़ित अंग को भी नीले रंग के शीशे की धूप देनी चाहिए।
वात-ज्वर में गहरा नीला रंग, पित्त ज्वर में आसमानी और कफ ज्वर में नारंगी रंग देना ठीक है। बड़े आदमी को ढाई तोले पानी की मात्रा दिन में 4 बार और बच्चों को एक तोले की मात्रा 2 से 3 बार देनी चाहिए। बुखार के साथ में यदि पेट में कब्ज भी हो तो पीले रंग का देना उपयोगी होता है। कुछ लक्षणों में विशेष सावधानी की जरूरत है। चेचक निकल रही हो तो नीला रंग नहीं देना चाहिए अन्यथा चेचक निकलना रुक जाएगा जो बहुत हानिकारक सिद्ध हो सकता है। यदि सन्निपात या निमोनिया आदि में एक दम शीतलता आ जाए तो भी नीला रंग ठीक न होगा, उस दशा में लाल रंग देना उचित है। बुखार की हालत में जुकाम बिगड़ा हुआ हो, कफ चिपट गया हो, कुकर खांसी हो तो हरा रंग फायदेमंद है।
अतिसार दस्तों की बीमारी की भी बुखार की तरह शाखाएं हैं। आमातिसार, रक्तातिसार पेचिश, मरोड़, संग्रहणी आदि का कारण एक ही है। आसमानी रंग सब प्रकार के दस्तों में फायदा करता है। पुराने दस्त जो बड़े-बड़े डाक्टरों के इलाज से अच्छे नहीं हो सके थे, वे नीले पानी के उपयोग से ठीक होते देखे गए हैं। नए और मामूली दस्तों में हल्के हरे रंग से फायदा हो जाता है। कब्ज सूर्य-चिकित्सा के सिद्धांतानुसार दो प्रकार के कब्ज होते हैं। एक लाल रंग के बढ़ने से, दूसरा पीले रंग के बढ़ने से, या यों कहिए कि गर्मी की अधिकता से, दूसरा सर्दी की अधिकता से। लू लग जो से, गर्मी के चले आने, तेज मिर्च-मसाले, सिरका, मांस आदि खाने, अति मैथुन करने, ज्यादा परिश्रम करने, दुःख-क्रोध-शोक करने से जो कब्ज होता है, वह गर्मी का है। इसमें प्यास अधिक लगती है, चक्कर आते हैं, मितली-सी होती हैं, पेट ज्यादा भारी नहीं होता, पर भोजन को देखते ही अरुचि होती है, दस्त पतला होता है, पेशाब पीला उतरता है शरीर दुबला हो जाता है, पित्त बढ़ जाने के कारण मुंह का जायका कड़वा रहता है, खट्टी डकारें आती हैं। नीले रंग की अधिकता अर्थात् सर्दी के कारण कब्ज उनको अधिक होता है जो दिनभर घर पर बैठे रहते हैं, शारीरिक श्रम न करने के कारण मेदा और आंतें सुस्त पड़ जाते हैं, जिससे रोगी का शरीर फूलने लगता है।
कुछ दिन में तोंद निकल आती है और चलना फिरना तक कठिन हो जाता है। अधिक घी पड़े हुए मिष्ठान या अधिक केला, मेवा आदि गरिष्ठ पदार्थ खाने से भी कब्ज होता है। निराशा, सुस्ती, जुकाम से भी कब्ज होता है। पेट भारी रहता है, मेदे में सूजन मालूम होती है, दस्त कम तादाद में फटा हुआ, छिछड़ेदार और आंव लिए हुए आता है, पेट और आंतें जकड़ी हुई से मालूम देती है और भीतर सुइयां चुभाने जैसा हलका दर्द होता रहता है। लाल रंग की अधिकता में नीला रंग और नीले रंग की अधिकता में लाल रंग देना चाहिए। नीला रंग दोनों तरह के अजीर्ण में फायदा करता है। कुछ चिकित्सक कारण के अनुसार नीला तथा लाल रंग और साथ में पीला रंग मिलाकर देते हैं।
कई डॉक्टर सर्दी के कब्ज में नारंगी और गर्मी की अधिकता में हरा रंग देना फायदेमंद बताते हैं। जिन स्त्रियों को गर्भ के कारण कब्ज रहता हो उन्हें नीले रंग का पानी देते रहना ही उचित है। पुराने कब्जों में जब पित्त विकृत हो जाता है तो कलेजा बढ़ने लगता है और उसमें जलन रहती है, ऐसी दशा में हल्का नीला रंग उस इकट्ठे हुए विष का शोधन कर देता है और रोगी शीघ्र ही अच्छा हो जाता है। सिर का दर्द अक्सर कमजोरी, पेट की खराबी या आकस्मिक आघात से सिर में दर्द होता है। केवल मस्तिष्क की बीमारी के कारण दर्द होने वाले मरीज बहुत कम देखने में आते हैं। चूंकि मस्तिष्क के ज्ञान तंतु समस्त शरीर में फैले हुए हैं, इसलिए किसी भी अंग में पीड़ा हो मस्तिष्क में उसकी झंकार अवश्य पहुंचती है।
बहुत समय तक शरीर के अन्य अंगों की पीड़ा की लगातार सूचना पाते रहने से सिर के भीतर के तंतु उत्तेजित हो जाते हैं और सिर में दर्द होने लगता है। अपच के कारण पेट में जो जहरीली गैस बनती है, वह मस्तिष्क तक प्रभाव पहुंचाकर सिर में पीड़ा उत्पन्न करती है। जिन लोगों को बहुत कमजोरी है वे थोड़ा ही शारीरिक या मानसिक परिश्रम करने से थक जाते हैं और थकान सिर शूल की शक्ल में दिखाई देती है। सर्दी या गर्मी का अचानक झटका लगने या माथे पर चोट लग जाने से भी दर्द होता है। बुखार और जुकाम में सिर दर्द होना प्रसिद्ध है।
जिस कारण से सिर में दर्द हो रहा हो उसे जानकर स्थानीय इलाज करना चाहिए। सर्दी के कारण सिर दर्द है, तो नारंगी और गर्मी के कारण दर्द है तो हल्का नीला रंग देना चाहिए। इन रंगों का पानी पिलाना तथा उसी रंग के पानी में भीगा कपड़ा सिर पर रखना चाहिए। हरे कांच द्वारा मस्तिष्क पर धूप देनी चाहिए। इस प्रयोग से दर्द बहुत जल्दी अच्छा हो जाता है। खांसी खांसी दो प्रकार की होती है—एक सूखी, दूसरी गीली। जिस खांसी से गले में खुजली उठे, बार-बार खांसना पड़े किंतु कफ न आए उसे सूखी खांसी और जिसमें कफ आए उसे गीली खांसी कहते हैं। कई बार खांसी दूसरे रोगों से संबंधित होती है। पुराना बुखार, तपेदिक आदि बीमारियों में भी खांसी होती है। गहरे नीले रंग की बोतल का पानी खांसी के लिए बहुत फायदेमंद है। इससे सूखा हुआ कफ गीला होकर निकलने लगता है जिससे रोगी को शांति मिलती है। यदि कफ सूखकर फेफड़ों में जमा हो गया हो या पसली से चिपट कर दर्द कर रहा हो तो नारंगी रंग देना चाहिए। खांसी देर में अच्छा होने वाला रोग है। यदि यह अन्य रोग से संबंधित है, तब तो और भी अधिक समय लेगी।
इसलिए धैर्यपूर्वक चिकित्सा करते जाना चाहिए। गले की एक दूसरी बीमारी स्वर भंग है। इसे गला बैठना भी कहते हैं। इसके होने के कई कारण हैं। अधिक बोलना, रात को जागना, अधिक परिश्रम करना, सर्दी लगना या तीक्ष्ण चीजें खा लेने से आवाज बैठ जाती है और ऐसी तरह के शब्द मुंह से निकलते हैं जैसे किसी ने गले को दबा दिया हो, इस बीमारी में नीला रंग फायदेमंद है। एक-एक छोटा चम्मच पानी आधे-आधे घंटे बाद पीना चाहिए। अगर मामूली शिकायत हो तो तीन बार सुबह और तीन बार शाम को एक-एक तोले की खुराक लेनी चाहिए। इस इलाज से अक्सर एक दो दिन में ही गला खुल जाता है। स्वांस नली की जलन एक स्वतंत्र बीमारी है। इसमें गले में बड़ी जलन और खुजली-सी मालूम पड़ती है।
कान भी खुजलाते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि खांसी आवेगी पर वह आती नहीं। जलन की वजह से प्यास भी मालूम पड़ती है, पर थोड़ा-सा पानी पीने के बाद पेट पानी के लिए मना कर देता है। इस बीमारी का इलाज भी बिल्कुल स्वरभंग की तरह है। आधे-आधे घंटे बाद छह-छह माशे नीला पानी देने से जलन बहुत जल्दी दूर हो जाती है। कभी-कभी गले के भीतर फोड़ा उठ आता है, इसे ‘हलक फुड़िया’ भी कहते हैं। भोजन करना तो दूर पानी पीने में भी कष्ट होता है, बोला नहीं जाता, दर्द होता है और गला सूज जाता है। अधिक बढ़ जाने पर यह प्राणघातक भी हो सकता है। इस मर्ज में थोड़ा-थोड़ा करके जल्दी-जल्दी हल्के नीले रंग की खुराकें देना चाहिए और इसी पानी से दो-दो घंटे बाद कुल्ले कराने चाहिए।
श्वांस जब दमे का दौरा हो तो पंद्रह-पंद्रह मिनट बाद एक-एक तोले नारंगी रंग का पानी देना चाहिए। पांच-छह खुराकें लगातार देने के बाद परिणाम देखने के लिए दो-तीन घंटा ठहरना चाहिए और फिर उसकी मात्रा शुरू कर देनी चाहिए। इससे दौरा शांत हो जाएगा। जिन लोगों को दमे का पुराना मर्ज है, उन्हें भोजन के बाद नारंगी रंग की एक मात्रा लेते रहना चाहिए। इससे भोजन हजम होता है और श्वांस रोग को लाभ पहुंचता है। क्षय तपैदिक या पुराने बुखारों में दो-दो तोले नीले पानी की खुराकें दिन में चार बार देनी चाहिए और फेफड़ों पर नीले कांच का प्रकाश डालना चाहिए। यदि रोगी बहुत ही निर्बल हो गया हो और उसकी स्नायु असमर्थ होती जा रही हों तो तीसरे चौथे दिन नारंगी रंग की भी एक खुराक देनी चाहिए। दांतों के रोग दांतों में कीड़ा लग जाने से वह भीतर ही भीतर खोखले हो जाते हैं, जड़ें ढीली हो जाने के कारण दांत हिलने लगते हैं, कब्ज के कारण मसूड़े फूलते हैं, इन सब दशाओं में दर्द होता है, भोजन के समय तकलीफ होती है, ज्यादा ठण्डा पानी भी नहीं पिया जाता।
दांतों के ऊपर चढ़ा रहने वाला मसाला जब कमजोर हो जाता है तो खट्टी चीज खाते ही दांत झूंठे पड़ जाते हैं और उनसे फिर चीज कुचली नहीं जाती। मामूली शिकायतों में आसमानी रंग के पानी से दिन में पांच-छह बार कुल्ले करने चाहिए। अगर दर्द ज्यादा हो रहा हो या मसूड़े फूल रहे हों तो नारंगी रंग के पानी से कुल्ले करने चाहिए। मसूड़ों में कभी-कभी फुंसियां उठ आती हैं या सारे मुंह, होंठ, जबान, गले आदि में छोटे-छोटे छाले उठ आते हैं, उस दशा में भी नीले रंग के पानी के कुल्ले बहुत फायदेमंद होते हैं। दांत निकलने के समय छोटे बच्चों को बहुत पीड़ा होती है। शरीर में गर्मी बढ़ जाने के कारण बच्चों को दस्त होने लगते हैं, आंखें फूल जाती हैं, बुखार आता है, दूध पटकते हैं तथा बहुत रोते हैं।
इन सब बीमारियों में बच्चों को नीले शीशे का प्रकाश देना बहुत ही लाभदायक है। बीमारी बढ़ी हुई हो तो नीले रंग का थोड़ा-सा पानी भी दिया जा सकता है, परंतु जहां तक हो सके नीले रंग के प्रकाश का ही उपयोग करना चाहिए। बच्चों के लिए यही उपाय बहुत सरल और बिना जोखिम का है। कान के रोग ठंड लग जाने से कान के भीतरी पर्दे सुन्न हो जाते हैं। भीतर मैल होने पर भी तकलीफ होती है। कभी-कभी फुंसियां उठ आती हैं तब तो बड़ा दर्द होता है और कान सूज जाता है। भीतरी पर्दों में जख्म हो जाने से सड़न पैदा हो जाती है और पीब बहता रहता है। पर्दे तथा ज्ञान के तंतुओं के कठोर हो जाने से कम सुनाई देता है। कान की जड़ की नसों में विजातीय द्रव्य इकट्ठा हो जाने से कान के नीचे का भाग तथा जबड़े के आस-पास की जगह सूज जाती है।
इन सब व्याधियों में उनके कारण को देखते हुए इलाज करना चाहिए। यदि ठंड लगने का दर्द हो तो लाल रंग की बोतल में तैयार किया हुआ तेल दो-दो बूंद कान में डाल सकते हैं। मैल जमा हो तो उसे आहिस्ता–आहिस्ता निकाल देने के बाद नीले रंग का तेल डालना चाहिए। फुड़ियां हों तो नीले रंग के पानी की पिचकारी लगा कर उसे धोना चाहिए और नीले ही तेल की बूंदें डाल कर रुई लगा देनी चाहिए। बहरेपन के लिए हरे रंग की रोशनी कान और सिर पर डालनी चाहिए तथा कान की जड़ में सूजन होने पर नीले रंग की रोशनी देनी चाहिए। कानों की बीमारियों का अक्सर पेट से भी संबंध रहता है, इसलिए पेट में कब्ज न होने पाए इसका भी ध्यान रखना चाहिए। नेत्रों के रोग पेट में कब्ज होने पर आंखों के अधिकांश रोग होते हैं। इसलिए स्थिति को देखते हुए यदि उचित हो तो आरंभ में रोगी को कुछ दस्त करा देने चाहिए।
आंखों का दुखना, रोहे पड़ जाना, लाली रहना, धुंधला दिखाई देना, पानी बहना, कीचड़ आना, पलकों के कोने कटना, इन सब बीमारियों में नीला रंग बहुत ही फायदेमंद है। स्वच्छ, ताला और छना हुआ जल नीले रंग की बोतल में तैयार करके उसकी दो-दो बूंद आंखों में डालनी चाहिए तथा नीले रंग का प्रकाश आंखों तथा समस्त चेहरे पर डालना चाहिए। इससे थोड़े ही समय में बीमारी दूर हो जाती है। तेज धूप और धूल से बचने के लिए यदि नीले कांच का चश्मा लगाया जाए तो भी बहुत मदद मिलती है। मस्तिष्क के रोग पागलपन, निराशा, चित्त में उद्विग्नता, मृगी, भयंकर स्वप्न देखना, स्मरण शक्ति की कमी, चिड़चिड़ापन, पूरे या आधे सिर में दर्द होना, डर लगना, चित्त न जमना, किसी की बात से तुरंत प्रभावित हो जाना।
आदि रोग मस्तिष्क की निर्बलता और उसमें गर्मी अधिक बढ़ जाने के कारण होते हैं। इन रोगों में समूचे मस्तिष्क पर नीले रंग का प्रकाश डालना चाहिए। यदि रोग बढ़ा हुआ हो तो नीले पानी में भिगोकर कपड़े या रुई की गद्दी सिर पर रखनी चाहिए। मृगी में नारंगी रंग का पानी देना और सिर पर हरे रंग का प्रकाश डालना उचित है। चित्त भ्रम, भूत आदि की आशंका होने पर पीला देना और इसी रंग का प्रकाश डालना हितकर होता है। नसों के रोग नसों की निर्बलता या शक्तिहीनता के कारण कई रोग पैदा होते हैं। जोड़ों का दर्द, गठिया, गांठों में दर्द या सूजन, नसों में अकड़न, खिंचाव, लकवा, आधा शरीर मारा जाना, कोई अंग कांपने लगना, भड़कन, कमर, पीठ, हाथ, पांव या किसी और अंग में सूखा दर्द, मांसपेशियों में झनझनाहट, रीढ़ का दर्द, किसी हिस्से का संज्ञाहीन हो जाना, उसमें सुई चुभाने का भी ज्ञान न होना, यह सब नसों की बीमारियां हैं।
जब शरीर के विष बाहर न निकल कर भीतर ही जमा होने लगते हैं, तब प्रायः नसों के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इन बीमारियों में लाल रंग बहुत उपयोगी है। पीड़ित स्थान तथा छाती, फेफड़े और पेट पर लाल रंग की रोशनी प्रतिदिन 4-5 मिनट डालनी चाहिए। दिन में एक बार लाल रंग का पानी और दो बार नीले रंग का पिलाना चाहिए। यदि लाल रंग के सेवन से रोगी को घबराहट होने लगे तो उसकी छाती पर नीले रंग का कपड़ा डालना उचित है इससे थोड़ी ही देर में घबराहट बंद हो जाएगी। लाल रंग उसी दशा में देना चाहिए जब रोगी को विशेष कष्ट हो अन्यथा पीले या नारंगी रंग का उपयोग करना चाहिए। यह बात ध्यान रखने की है कि सिर में किसी भी प्रकार का दर्द क्यों न हो वहां लाल रंग का उपयोग नहीं किया जाता क्योंकि इससे मस्तिष्क में गर्मी बढ़ जाने से अन्य रोग उठ खड़े होने की आशंका है। यही बात रीढ़ के दर्द के बारे में है। उस पर भी पीले या नारंगी रंग का ही प्रयोग करना चाहिए।
दर्दों की दशा में नियत रंग की बोतलों में तैयार की हुई शक्कर में से तीन-तीन माशे की मात्रा देकर ऊपर से उसी रंग का पानी दो तोला पिलाना चाहिए। मूत्रेन्द्रिय के रोग स्वप्नदोष, प्रमेह, नपुंसकता, शीघ्रपतन, सूजाक, आतिशक, मधुमेह, पेशाब पीला होना, मूत्र में एल्ब्यूमिन, चूना, चर्बी या मांस आदि का आना, पथरी, मूत्र नाली में दाह आदि मूत्रेन्द्रिय में कई प्रकार के रोग होते हैं। कारणों को देखते हुए इनकी चिकित्सा करनी चाहिए। स्वप्नदोष के लिए रीढ़ पर नीले रंग का प्रकाश डालना और नीले रंग का जप पिलाना लाभदायक है। प्रमेह के लिए नीले तेल की समस्त शरीर पर मालिश करना, नीले रंग का दूध बनाकर देना, नीला पानी सुबह और शाम पिलाना, रीढ़ पर नीला प्रकाश डालना उचित है। यदि पेशाब में शकर आती हो तो रीढ़ पर नीले रंग का तेज प्रकाश पंद्रह मिनट और तदुपरांत एक मिनट बैंगनी रंग का प्रकाश डालना चाहिए, प्रातःकाल पीला और शाम को नीला पानी देना चाहिए तथा पीले तेल की मालिश भी करनी चाहिए। नपुंसकता के लिए मूत्रेन्द्रिय पर लाल रंग का प्रकाश डालना और नारंगी तेल की मालिश करना लाभप्रद है।
सुजाक में नीले रंग का पानी सुबह शाम देना चाहिए और मूत्रेन्द्रिय पर नीला प्रकाश डालना चाहिए। नीले रंग का दूध देना भी हितकर है। गुर्दे की सूजन, मूत्राशय की जलन में पीला रंग हितकर है। पथरी के लिए तीन मिनट नारंगी रंग का प्रकाश पेड़ू पर देना चाहिए और दिन में चार बार नारंगी रंग का पानी पिलाना चाहिए। आतिशक में समस्त शरीर पर दिन में दो बार नीला प्रकाश देना चाहिए। समस्त शरीर पर नीला प्रकाश देने के बाद दो मिनट तक रीढ़ पर प्रकाश देना चाहिए। हरे रंग का मक्खन मरहम की तरह जख्मों पर लगाना चाहिए तथा दिन में चार बार नीले रंग का पानी देना उचित है।
जख्म जख्म होने के अनेक कारण हैं। चाहे जिस प्रकार घाव (जख्म) हो, उसे अच्छा करने का एक ही तरीका है। हरे रंग के पानी से जख्म को धोना, 5 मिनट हरी रोशनी डालना और रहे रंग के तेल में रुई का टुकड़ा भिगोकर उस पर रखना। जहां मरहम की जरूरत हो वहां हरे रंग का मक्खन लगाया जा सकता है। यदि शरीर में फोड़े या फुन्सियां उठ रही हों तो भी उन पर हरे रंग का प्रयोग उपरोक्त प्रकार से करना चाहिए तथा सुबह-शाम हरा पानी पिलाना चाहिए। खुजली दो प्रकार की होती है—एक सूखी, दूसरी गीली। सूखी में खुजली खूब चलती है, गीली में पीली-पीली फुन्सियां भी उठती हैं।
सूखी खुजली के स्थान को नीले पानी से धोना चाहिए और नीला प्रकाश डालना चाहिए। सिर में खुजली चलती हो, खुरण्ट जमा होते हों, बाल उड़ते हों, चमड़ी फटती हो तो नीला प्रकाश डालना चाहिए और नीले तेल की मालिश करनी चाहिए।
पाठकों को यह स्मरण रखना चाहिए कि पेट में, आंतों में रक्त या शरीर के अन्य किसी भाग में दूषित मल इकट्ठे हो जाते हैं, तब उनको दूर करने के लिए प्रकृति संघर्ष करती है, यही ज्वर का मूल कारण और स्पष्ट लक्षण शरीर में गर्मी बढ़ जाता है। गर्मी का रंग लाल है। हर प्रकार के ज्वरों में गर्मी बढ़ी हुई होती है। गर्मी को शांत करने के लिए शीतलता का देना आवश्यक है।
जब किसी गरम चीज को स्वाभाविक स्थिति में लाना होता है तो उसे ठंडक देते हैं। यही प्राकृतिक नियम सूर्य-चिकित्सा पर भी लागू होता है। नीला रंग ठंडा है इसलिए ज्वर की दवा नीला रंग है। हल्के रंग की बोतल में तैयार किया हुआ पानी देना चाहिए। सिर में दर्द अधिक हो तो मस्तक पर नीले कांच की रोशनी डालना उचित है। अधिक पीड़ित अंग को भी नीले रंग के शीशे की धूप देनी चाहिए।
वात-ज्वर में गहरा नीला रंग, पित्त ज्वर में आसमानी और कफ ज्वर में नारंगी रंग देना ठीक है। बड़े आदमी को ढाई तोले पानी की मात्रा दिन में 4 बार और बच्चों को एक तोले की मात्रा 2 से 3 बार देनी चाहिए। बुखार के साथ में यदि पेट में कब्ज भी हो तो पीले रंग का देना उपयोगी होता है। कुछ लक्षणों में विशेष सावधानी की जरूरत है। चेचक निकल रही हो तो नीला रंग नहीं देना चाहिए अन्यथा चेचक निकलना रुक जाएगा जो बहुत हानिकारक सिद्ध हो सकता है। यदि सन्निपात या निमोनिया आदि में एक दम शीतलता आ जाए तो भी नीला रंग ठीक न होगा, उस दशा में लाल रंग देना उचित है। बुखार की हालत में जुकाम बिगड़ा हुआ हो, कफ चिपट गया हो, कुकर खांसी हो तो हरा रंग फायदेमंद है।
अतिसार दस्तों की बीमारी की भी बुखार की तरह शाखाएं हैं। आमातिसार, रक्तातिसार पेचिश, मरोड़, संग्रहणी आदि का कारण एक ही है। आसमानी रंग सब प्रकार के दस्तों में फायदा करता है। पुराने दस्त जो बड़े-बड़े डाक्टरों के इलाज से अच्छे नहीं हो सके थे, वे नीले पानी के उपयोग से ठीक होते देखे गए हैं। नए और मामूली दस्तों में हल्के हरे रंग से फायदा हो जाता है। कब्ज सूर्य-चिकित्सा के सिद्धांतानुसार दो प्रकार के कब्ज होते हैं। एक लाल रंग के बढ़ने से, दूसरा पीले रंग के बढ़ने से, या यों कहिए कि गर्मी की अधिकता से, दूसरा सर्दी की अधिकता से। लू लग जो से, गर्मी के चले आने, तेज मिर्च-मसाले, सिरका, मांस आदि खाने, अति मैथुन करने, ज्यादा परिश्रम करने, दुःख-क्रोध-शोक करने से जो कब्ज होता है, वह गर्मी का है। इसमें प्यास अधिक लगती है, चक्कर आते हैं, मितली-सी होती हैं, पेट ज्यादा भारी नहीं होता, पर भोजन को देखते ही अरुचि होती है, दस्त पतला होता है, पेशाब पीला उतरता है शरीर दुबला हो जाता है, पित्त बढ़ जाने के कारण मुंह का जायका कड़वा रहता है, खट्टी डकारें आती हैं। नीले रंग की अधिकता अर्थात् सर्दी के कारण कब्ज उनको अधिक होता है जो दिनभर घर पर बैठे रहते हैं, शारीरिक श्रम न करने के कारण मेदा और आंतें सुस्त पड़ जाते हैं, जिससे रोगी का शरीर फूलने लगता है।
कुछ दिन में तोंद निकल आती है और चलना फिरना तक कठिन हो जाता है। अधिक घी पड़े हुए मिष्ठान या अधिक केला, मेवा आदि गरिष्ठ पदार्थ खाने से भी कब्ज होता है। निराशा, सुस्ती, जुकाम से भी कब्ज होता है। पेट भारी रहता है, मेदे में सूजन मालूम होती है, दस्त कम तादाद में फटा हुआ, छिछड़ेदार और आंव लिए हुए आता है, पेट और आंतें जकड़ी हुई से मालूम देती है और भीतर सुइयां चुभाने जैसा हलका दर्द होता रहता है। लाल रंग की अधिकता में नीला रंग और नीले रंग की अधिकता में लाल रंग देना चाहिए। नीला रंग दोनों तरह के अजीर्ण में फायदा करता है। कुछ चिकित्सक कारण के अनुसार नीला तथा लाल रंग और साथ में पीला रंग मिलाकर देते हैं।
कई डॉक्टर सर्दी के कब्ज में नारंगी और गर्मी की अधिकता में हरा रंग देना फायदेमंद बताते हैं। जिन स्त्रियों को गर्भ के कारण कब्ज रहता हो उन्हें नीले रंग का पानी देते रहना ही उचित है। पुराने कब्जों में जब पित्त विकृत हो जाता है तो कलेजा बढ़ने लगता है और उसमें जलन रहती है, ऐसी दशा में हल्का नीला रंग उस इकट्ठे हुए विष का शोधन कर देता है और रोगी शीघ्र ही अच्छा हो जाता है। सिर का दर्द अक्सर कमजोरी, पेट की खराबी या आकस्मिक आघात से सिर में दर्द होता है। केवल मस्तिष्क की बीमारी के कारण दर्द होने वाले मरीज बहुत कम देखने में आते हैं। चूंकि मस्तिष्क के ज्ञान तंतु समस्त शरीर में फैले हुए हैं, इसलिए किसी भी अंग में पीड़ा हो मस्तिष्क में उसकी झंकार अवश्य पहुंचती है।
बहुत समय तक शरीर के अन्य अंगों की पीड़ा की लगातार सूचना पाते रहने से सिर के भीतर के तंतु उत्तेजित हो जाते हैं और सिर में दर्द होने लगता है। अपच के कारण पेट में जो जहरीली गैस बनती है, वह मस्तिष्क तक प्रभाव पहुंचाकर सिर में पीड़ा उत्पन्न करती है। जिन लोगों को बहुत कमजोरी है वे थोड़ा ही शारीरिक या मानसिक परिश्रम करने से थक जाते हैं और थकान सिर शूल की शक्ल में दिखाई देती है। सर्दी या गर्मी का अचानक झटका लगने या माथे पर चोट लग जाने से भी दर्द होता है। बुखार और जुकाम में सिर दर्द होना प्रसिद्ध है।
जिस कारण से सिर में दर्द हो रहा हो उसे जानकर स्थानीय इलाज करना चाहिए। सर्दी के कारण सिर दर्द है, तो नारंगी और गर्मी के कारण दर्द है तो हल्का नीला रंग देना चाहिए। इन रंगों का पानी पिलाना तथा उसी रंग के पानी में भीगा कपड़ा सिर पर रखना चाहिए। हरे कांच द्वारा मस्तिष्क पर धूप देनी चाहिए। इस प्रयोग से दर्द बहुत जल्दी अच्छा हो जाता है। खांसी खांसी दो प्रकार की होती है—एक सूखी, दूसरी गीली। जिस खांसी से गले में खुजली उठे, बार-बार खांसना पड़े किंतु कफ न आए उसे सूखी खांसी और जिसमें कफ आए उसे गीली खांसी कहते हैं। कई बार खांसी दूसरे रोगों से संबंधित होती है। पुराना बुखार, तपेदिक आदि बीमारियों में भी खांसी होती है। गहरे नीले रंग की बोतल का पानी खांसी के लिए बहुत फायदेमंद है। इससे सूखा हुआ कफ गीला होकर निकलने लगता है जिससे रोगी को शांति मिलती है। यदि कफ सूखकर फेफड़ों में जमा हो गया हो या पसली से चिपट कर दर्द कर रहा हो तो नारंगी रंग देना चाहिए। खांसी देर में अच्छा होने वाला रोग है। यदि यह अन्य रोग से संबंधित है, तब तो और भी अधिक समय लेगी।
इसलिए धैर्यपूर्वक चिकित्सा करते जाना चाहिए। गले की एक दूसरी बीमारी स्वर भंग है। इसे गला बैठना भी कहते हैं। इसके होने के कई कारण हैं। अधिक बोलना, रात को जागना, अधिक परिश्रम करना, सर्दी लगना या तीक्ष्ण चीजें खा लेने से आवाज बैठ जाती है और ऐसी तरह के शब्द मुंह से निकलते हैं जैसे किसी ने गले को दबा दिया हो, इस बीमारी में नीला रंग फायदेमंद है। एक-एक छोटा चम्मच पानी आधे-आधे घंटे बाद पीना चाहिए। अगर मामूली शिकायत हो तो तीन बार सुबह और तीन बार शाम को एक-एक तोले की खुराक लेनी चाहिए। इस इलाज से अक्सर एक दो दिन में ही गला खुल जाता है। स्वांस नली की जलन एक स्वतंत्र बीमारी है। इसमें गले में बड़ी जलन और खुजली-सी मालूम पड़ती है।
कान भी खुजलाते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि खांसी आवेगी पर वह आती नहीं। जलन की वजह से प्यास भी मालूम पड़ती है, पर थोड़ा-सा पानी पीने के बाद पेट पानी के लिए मना कर देता है। इस बीमारी का इलाज भी बिल्कुल स्वरभंग की तरह है। आधे-आधे घंटे बाद छह-छह माशे नीला पानी देने से जलन बहुत जल्दी दूर हो जाती है। कभी-कभी गले के भीतर फोड़ा उठ आता है, इसे ‘हलक फुड़िया’ भी कहते हैं। भोजन करना तो दूर पानी पीने में भी कष्ट होता है, बोला नहीं जाता, दर्द होता है और गला सूज जाता है। अधिक बढ़ जाने पर यह प्राणघातक भी हो सकता है। इस मर्ज में थोड़ा-थोड़ा करके जल्दी-जल्दी हल्के नीले रंग की खुराकें देना चाहिए और इसी पानी से दो-दो घंटे बाद कुल्ले कराने चाहिए।
श्वांस जब दमे का दौरा हो तो पंद्रह-पंद्रह मिनट बाद एक-एक तोले नारंगी रंग का पानी देना चाहिए। पांच-छह खुराकें लगातार देने के बाद परिणाम देखने के लिए दो-तीन घंटा ठहरना चाहिए और फिर उसकी मात्रा शुरू कर देनी चाहिए। इससे दौरा शांत हो जाएगा। जिन लोगों को दमे का पुराना मर्ज है, उन्हें भोजन के बाद नारंगी रंग की एक मात्रा लेते रहना चाहिए। इससे भोजन हजम होता है और श्वांस रोग को लाभ पहुंचता है। क्षय तपैदिक या पुराने बुखारों में दो-दो तोले नीले पानी की खुराकें दिन में चार बार देनी चाहिए और फेफड़ों पर नीले कांच का प्रकाश डालना चाहिए। यदि रोगी बहुत ही निर्बल हो गया हो और उसकी स्नायु असमर्थ होती जा रही हों तो तीसरे चौथे दिन नारंगी रंग की भी एक खुराक देनी चाहिए। दांतों के रोग दांतों में कीड़ा लग जाने से वह भीतर ही भीतर खोखले हो जाते हैं, जड़ें ढीली हो जाने के कारण दांत हिलने लगते हैं, कब्ज के कारण मसूड़े फूलते हैं, इन सब दशाओं में दर्द होता है, भोजन के समय तकलीफ होती है, ज्यादा ठण्डा पानी भी नहीं पिया जाता।
दांतों के ऊपर चढ़ा रहने वाला मसाला जब कमजोर हो जाता है तो खट्टी चीज खाते ही दांत झूंठे पड़ जाते हैं और उनसे फिर चीज कुचली नहीं जाती। मामूली शिकायतों में आसमानी रंग के पानी से दिन में पांच-छह बार कुल्ले करने चाहिए। अगर दर्द ज्यादा हो रहा हो या मसूड़े फूल रहे हों तो नारंगी रंग के पानी से कुल्ले करने चाहिए। मसूड़ों में कभी-कभी फुंसियां उठ आती हैं या सारे मुंह, होंठ, जबान, गले आदि में छोटे-छोटे छाले उठ आते हैं, उस दशा में भी नीले रंग के पानी के कुल्ले बहुत फायदेमंद होते हैं। दांत निकलने के समय छोटे बच्चों को बहुत पीड़ा होती है। शरीर में गर्मी बढ़ जाने के कारण बच्चों को दस्त होने लगते हैं, आंखें फूल जाती हैं, बुखार आता है, दूध पटकते हैं तथा बहुत रोते हैं।
इन सब बीमारियों में बच्चों को नीले शीशे का प्रकाश देना बहुत ही लाभदायक है। बीमारी बढ़ी हुई हो तो नीले रंग का थोड़ा-सा पानी भी दिया जा सकता है, परंतु जहां तक हो सके नीले रंग के प्रकाश का ही उपयोग करना चाहिए। बच्चों के लिए यही उपाय बहुत सरल और बिना जोखिम का है। कान के रोग ठंड लग जाने से कान के भीतरी पर्दे सुन्न हो जाते हैं। भीतर मैल होने पर भी तकलीफ होती है। कभी-कभी फुंसियां उठ आती हैं तब तो बड़ा दर्द होता है और कान सूज जाता है। भीतरी पर्दों में जख्म हो जाने से सड़न पैदा हो जाती है और पीब बहता रहता है। पर्दे तथा ज्ञान के तंतुओं के कठोर हो जाने से कम सुनाई देता है। कान की जड़ की नसों में विजातीय द्रव्य इकट्ठा हो जाने से कान के नीचे का भाग तथा जबड़े के आस-पास की जगह सूज जाती है।
इन सब व्याधियों में उनके कारण को देखते हुए इलाज करना चाहिए। यदि ठंड लगने का दर्द हो तो लाल रंग की बोतल में तैयार किया हुआ तेल दो-दो बूंद कान में डाल सकते हैं। मैल जमा हो तो उसे आहिस्ता–आहिस्ता निकाल देने के बाद नीले रंग का तेल डालना चाहिए। फुड़ियां हों तो नीले रंग के पानी की पिचकारी लगा कर उसे धोना चाहिए और नीले ही तेल की बूंदें डाल कर रुई लगा देनी चाहिए। बहरेपन के लिए हरे रंग की रोशनी कान और सिर पर डालनी चाहिए तथा कान की जड़ में सूजन होने पर नीले रंग की रोशनी देनी चाहिए। कानों की बीमारियों का अक्सर पेट से भी संबंध रहता है, इसलिए पेट में कब्ज न होने पाए इसका भी ध्यान रखना चाहिए। नेत्रों के रोग पेट में कब्ज होने पर आंखों के अधिकांश रोग होते हैं। इसलिए स्थिति को देखते हुए यदि उचित हो तो आरंभ में रोगी को कुछ दस्त करा देने चाहिए।
आंखों का दुखना, रोहे पड़ जाना, लाली रहना, धुंधला दिखाई देना, पानी बहना, कीचड़ आना, पलकों के कोने कटना, इन सब बीमारियों में नीला रंग बहुत ही फायदेमंद है। स्वच्छ, ताला और छना हुआ जल नीले रंग की बोतल में तैयार करके उसकी दो-दो बूंद आंखों में डालनी चाहिए तथा नीले रंग का प्रकाश आंखों तथा समस्त चेहरे पर डालना चाहिए। इससे थोड़े ही समय में बीमारी दूर हो जाती है। तेज धूप और धूल से बचने के लिए यदि नीले कांच का चश्मा लगाया जाए तो भी बहुत मदद मिलती है। मस्तिष्क के रोग पागलपन, निराशा, चित्त में उद्विग्नता, मृगी, भयंकर स्वप्न देखना, स्मरण शक्ति की कमी, चिड़चिड़ापन, पूरे या आधे सिर में दर्द होना, डर लगना, चित्त न जमना, किसी की बात से तुरंत प्रभावित हो जाना।
आदि रोग मस्तिष्क की निर्बलता और उसमें गर्मी अधिक बढ़ जाने के कारण होते हैं। इन रोगों में समूचे मस्तिष्क पर नीले रंग का प्रकाश डालना चाहिए। यदि रोग बढ़ा हुआ हो तो नीले पानी में भिगोकर कपड़े या रुई की गद्दी सिर पर रखनी चाहिए। मृगी में नारंगी रंग का पानी देना और सिर पर हरे रंग का प्रकाश डालना उचित है। चित्त भ्रम, भूत आदि की आशंका होने पर पीला देना और इसी रंग का प्रकाश डालना हितकर होता है। नसों के रोग नसों की निर्बलता या शक्तिहीनता के कारण कई रोग पैदा होते हैं। जोड़ों का दर्द, गठिया, गांठों में दर्द या सूजन, नसों में अकड़न, खिंचाव, लकवा, आधा शरीर मारा जाना, कोई अंग कांपने लगना, भड़कन, कमर, पीठ, हाथ, पांव या किसी और अंग में सूखा दर्द, मांसपेशियों में झनझनाहट, रीढ़ का दर्द, किसी हिस्से का संज्ञाहीन हो जाना, उसमें सुई चुभाने का भी ज्ञान न होना, यह सब नसों की बीमारियां हैं।
जब शरीर के विष बाहर न निकल कर भीतर ही जमा होने लगते हैं, तब प्रायः नसों के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इन बीमारियों में लाल रंग बहुत उपयोगी है। पीड़ित स्थान तथा छाती, फेफड़े और पेट पर लाल रंग की रोशनी प्रतिदिन 4-5 मिनट डालनी चाहिए। दिन में एक बार लाल रंग का पानी और दो बार नीले रंग का पिलाना चाहिए। यदि लाल रंग के सेवन से रोगी को घबराहट होने लगे तो उसकी छाती पर नीले रंग का कपड़ा डालना उचित है इससे थोड़ी ही देर में घबराहट बंद हो जाएगी। लाल रंग उसी दशा में देना चाहिए जब रोगी को विशेष कष्ट हो अन्यथा पीले या नारंगी रंग का उपयोग करना चाहिए। यह बात ध्यान रखने की है कि सिर में किसी भी प्रकार का दर्द क्यों न हो वहां लाल रंग का उपयोग नहीं किया जाता क्योंकि इससे मस्तिष्क में गर्मी बढ़ जाने से अन्य रोग उठ खड़े होने की आशंका है। यही बात रीढ़ के दर्द के बारे में है। उस पर भी पीले या नारंगी रंग का ही प्रयोग करना चाहिए।
दर्दों की दशा में नियत रंग की बोतलों में तैयार की हुई शक्कर में से तीन-तीन माशे की मात्रा देकर ऊपर से उसी रंग का पानी दो तोला पिलाना चाहिए। मूत्रेन्द्रिय के रोग स्वप्नदोष, प्रमेह, नपुंसकता, शीघ्रपतन, सूजाक, आतिशक, मधुमेह, पेशाब पीला होना, मूत्र में एल्ब्यूमिन, चूना, चर्बी या मांस आदि का आना, पथरी, मूत्र नाली में दाह आदि मूत्रेन्द्रिय में कई प्रकार के रोग होते हैं। कारणों को देखते हुए इनकी चिकित्सा करनी चाहिए। स्वप्नदोष के लिए रीढ़ पर नीले रंग का प्रकाश डालना और नीले रंग का जप पिलाना लाभदायक है। प्रमेह के लिए नीले तेल की समस्त शरीर पर मालिश करना, नीले रंग का दूध बनाकर देना, नीला पानी सुबह और शाम पिलाना, रीढ़ पर नीला प्रकाश डालना उचित है। यदि पेशाब में शकर आती हो तो रीढ़ पर नीले रंग का तेज प्रकाश पंद्रह मिनट और तदुपरांत एक मिनट बैंगनी रंग का प्रकाश डालना चाहिए, प्रातःकाल पीला और शाम को नीला पानी देना चाहिए तथा पीले तेल की मालिश भी करनी चाहिए। नपुंसकता के लिए मूत्रेन्द्रिय पर लाल रंग का प्रकाश डालना और नारंगी तेल की मालिश करना लाभप्रद है।
सुजाक में नीले रंग का पानी सुबह शाम देना चाहिए और मूत्रेन्द्रिय पर नीला प्रकाश डालना चाहिए। नीले रंग का दूध देना भी हितकर है। गुर्दे की सूजन, मूत्राशय की जलन में पीला रंग हितकर है। पथरी के लिए तीन मिनट नारंगी रंग का प्रकाश पेड़ू पर देना चाहिए और दिन में चार बार नारंगी रंग का पानी पिलाना चाहिए। आतिशक में समस्त शरीर पर दिन में दो बार नीला प्रकाश देना चाहिए। समस्त शरीर पर नीला प्रकाश देने के बाद दो मिनट तक रीढ़ पर प्रकाश देना चाहिए। हरे रंग का मक्खन मरहम की तरह जख्मों पर लगाना चाहिए तथा दिन में चार बार नीले रंग का पानी देना उचित है।
जख्म जख्म होने के अनेक कारण हैं। चाहे जिस प्रकार घाव (जख्म) हो, उसे अच्छा करने का एक ही तरीका है। हरे रंग के पानी से जख्म को धोना, 5 मिनट हरी रोशनी डालना और रहे रंग के तेल में रुई का टुकड़ा भिगोकर उस पर रखना। जहां मरहम की जरूरत हो वहां हरे रंग का मक्खन लगाया जा सकता है। यदि शरीर में फोड़े या फुन्सियां उठ रही हों तो भी उन पर हरे रंग का प्रयोग उपरोक्त प्रकार से करना चाहिए तथा सुबह-शाम हरा पानी पिलाना चाहिए। खुजली दो प्रकार की होती है—एक सूखी, दूसरी गीली। सूखी में खुजली खूब चलती है, गीली में पीली-पीली फुन्सियां भी उठती हैं।
सूखी खुजली के स्थान को नीले पानी से धोना चाहिए और नीला प्रकाश डालना चाहिए। सिर में खुजली चलती हो, खुरण्ट जमा होते हों, बाल उड़ते हों, चमड़ी फटती हो तो नीला प्रकाश डालना चाहिए और नीले तेल की मालिश करनी चाहिए।