Books - वैज्ञानिक अध्यात्म के क्रान्ति दीप
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Language: HINDI
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कार्ल जुंग ने रमण महर्षि के सान्निध्य में पाया बोध
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वैज्ञानिक अध्यात्म के मूलतत्त्व को जानने- समझने की चाहत उनमें अरसे से थी। लेकिन पिछले दिनों पॉल ब्रान्टन की पुस्तक ‘इन सर्च ऑफ सीक्रेट इण्डिया’ में महर्षि रमण की अध्यात्म विद्या की अनुसन्धान विधि के बारे में पढ़कर इसमें काफी तीव्रता आ गयी। उन्हें लगा कि महर्षि
के अध्यात्म- अन्वेषण में सच्चे वैज्ञानिक का भाव है। और वह
उनकी अध्यात्म विद्या की वैज्ञानिक जिज्ञासा का समाधान कर सकते
हैं। सुखद संयोग इन्हीं दिनों उन्हें भारत वर्ष की अंग्रेज सरकार
की ओर से भारत देश आने के लिए आमंत्रण मिला। ये सन् १९३८ ई. के प्रारंभिक दिन थे। वातावरण में पर्याप्त ठण्डक थी। वैसे भी स्विजरलैण्ड की आबो- हवा काफी ठण्डी होती है। उन्होंने अपनी पत्नी एमा रौशेन बॉक
को इस आमंत्रण के बारे में बताया। उत्तर में वह बोली कुछ नहीं
बस मुस्करा दी। इसे संयोग ही कहेंगे कि उस दिन उनके पाँचों
बच्चे अगाथा, ग्रेट, फ्रेन्ज, माराइना एवं हेलन वहीं पर थे। इन सभी ने अपने पिता की प्रसन्नता पर खुशी जाहिर की।
अपने परिवार से विदा लेकर प्रख्यात मनोविज्ञानी कार्लजुंग भारत देश के लिए निकल पड़े। यात्रा लम्बी जरूर थी, पर दीर्घकाल से प्रतीक्षित मनचाही खुशी मिलने के कारण थकान की कोई अनुभूति नहीं थी। रास्ते में वह सोच रहे थे कि पिता पॉल अचिलस एवं माता ईमाइल प्रेसबर्क की चार सन्तानों में दैव संयोग ने उन्हीं को जीवित रखा था। माता ईमाइल प्रेसबर्क के मनोरोगी होने के कारण ही शरीर चिकित्सा से मनोचिकित्सा की ओर मुड़े। चेतन व्यवहार के पीछे अदृश्य अचेतन का हाथ है, इसी विचार ने उन्हें सिगमण्ड फ्रायड की निकटता प्रदान की। पर फ्रायड का काम वासना और उसके दमन को ही सब कुछ मान लेना उन्हें कुछ ज्यादा समझ में नहीं आया। क्योंकि उनकी यह अनुभूति परक मान्यता थी कि जीवन के अचेतन की चेतना के पार कुछ उच्चस्तरीय आध्यात्मिक आयाम भी होते हैं। इसी पर फ्रायड से उनका मतभेद हुआ और साथ छूटा। इन्हीं सबके बीच उन्होंने भारत एवं भारतीय आध्यात्मिक साहित्य के बारे में काफी कुछ पढ़ा। उनमें आध्यात्मिक जिज्ञासा यदि प्रबल थी तो उनमें वैज्ञानिक अभिवृत्ति भी कम दृढ़ नहीं थी। वह आध्यात्मिक सत्यों को वैज्ञानिक रीति- नीति से अनुभव करना चाहते थे।
यही जिज्ञासु भाव उन्हें भारत भूमि की ओर लिए जा रहा था। एक अदृश्य आकर्षण की डोर उन्हें खींच रही थी। महर्षि रमण के नाम में उन्हें सघन चुम्बकत्व का अहसास हो रहा था। भारत पहुँच कर दिल्ली जाना हुआ। सरकारी काम- काज कुछ विशेष था नहीं। सो तिरूवन्नामलाई के लिए चल पड़े। महर्षि यहीं रहते थे। तिरूवन्नामलाई पहुँचते ही उन्हें दूर से अरूणाचलम् के दर्शन हुए। स्थानीय लोगों ने उन्हें बताया कि यहीं महर्षि का निवास है। इसी पवित्र पर्वत की विरूपाक्षी गुफा में उन्होंने वर्षों कठोर तप किया है। इन लोगों के सहयोग से वे महर्षि के आश्रम पहुँच गए। पवित्र पर्वत अरूणाचलम् एवं इसकी तलहटी में बना महर्षि का आश्रम दोनों ही उन्हें सुखद व सम्मोहक लगे। उन्हें लगा सम्भवतः ये उनकी जिज्ञासाओं के साकार समाधान हैं। आश्रम परिसर में कुछ लोग काम कर रहे थे। पूछने पर पता चला कि ये एच्छमा, मध्वस्वामी, रामनाथ ब्रह्मचारी एवं मुदलियर ग्रेनी हैं। इनमें से रामनाथ ब्रह्मचारी ने उनके ठहरने की व्यवस्था की और अन्नामलाई स्वामी से मिलाया।
अन्नामलाई स्वामी अच्छी अंग्रेजी जानते थे। साथ ही महर्षि के सहयोगी व सलाहकार भी थे। इन्हीं से उन्होंने अपने आगमन का मकसद कहा- कार्लगुस्ताव जुंग, अन्नामलाई स्वामी ने उन्हें उनका पूरा नाम लेकर सम्बोधित किया- महर्षि सायं बेला में मिलेंगे। शाम को अरूणाचलम की तलहटी में खुले स्थान पर महर्षि से मुलाकात हुई। महर्षि उस समय शरीर पर केवल कौपीन धारण किए हुए थे। उनके चेहरे पर हल्की दाढ़ी, होठों पर बालसुलभ निर्दोष हँसी, आँखों में आध्यात्मिक प्रकाश के साथ प्रगाढ़ अपनापन था। प्रख्यात् मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग को महर्षि अपने से लगे। हालांकि उनके मन में शंका भी उठी कि ग्रामीण जनों की तरह दिखने वाले ये महर्षि क्या उनके वैज्ञानिक मन की जिज्ञासाओं का समाधान कर पाएँगे?
उनके मन में आए इस प्रश्र के उत्तर में महर्षि ने हल्की सी मीठी हंसी के साथ कहा- भारत के प्राचीन ऋषियों की अध्यात्म विद्या सम्पूर्णतया वैज्ञानिक है। आधुनिक वैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक चिन्तन- चेतना के लिए इसे वैज्ञानिक अध्यात्म कहना ठीक रहेगा। इसके मूलतत्त्व पांच हैं- १. जिज्ञासा- इसे तुम्हारी वैज्ञानिक भाषा में शोध समस्या भी कह सकते हैं। २. प्रकृति एवं स्थिति के अनुरूप सही साधना विधि का चयन। वैज्ञानिक शब्दावली में इसे अनुसन्धान विधि भी कह सकते हैं। ३. शरीर मन की विकारविहीन प्रयोगशाला में किए जाने वाले त्रुटिहीन साधना प्रयोग। वैज्ञानिक ढंग से कहें तो नियंत्रित स्थति में की जाने वाली वह क्रिया प्रयोग है, जिसमें सतत् सर्वेक्षण किया जाता है, Experiment is observation of any action under control conditions. उन्होंने मधुर अंग्रेजी भाषा में अपने कथन को दुहराया। ४. किए जा रहे प्रयोग का निश्चित क्रम से परीक्षण एवं सतत् ऑकलन। एवं अन्तिम ५. इन सबके परिणाम में सम्यक् निष्कर्ष। महर्षि ने बड़े धीरे- धीरे सहज स्वर में अपनी बातें पूरी की। इस बीच अन्नामलाई स्वामी ने उन्हें एक गिलास पानी लाकर दिया। जिसे उन्होंने धीरे- धीरे पिया।
इसी के साथ वह उठ खड़े हुए। कार्लजुंग भी उन्हीं के साथ उठे। उनके मुख के भावों से लग रहा था कि वह सन्तुष्ट हैं। अब महर्षि धीमे कदमों से वहीं टहलने लगे। टहलते- टहलते उन्होंने कहा- मेरे आध्यात्मिक प्रयोग की वैज्ञानिक जिज्ञासा थी- मैं कौन हूँ? इसके समाधान के लिए मैंने मनन एवं ध्यान की अनुसन्धान विधि का चयन किया। इसी अरूणाचलम पर्वत की विरूपाक्षी गुफा में शरीर व मन की प्रयोगशाला में मेरे प्रयोग चलते हैं। इन प्रयोगों के परिणाम में अपरिष्कृत अचेतन परिष्कृत होता गया। चेतना की नयी- नयी परतें खुलती गयी। इनका मैंने निश्चित कालक्रम में परीक्षण एवं ऑकलन किया। और अन्त में मैं निष्कर्ष पर पहुँचा, मेरा अहं आत्मा में विलीन हो गया। बाद में आत्मा- परमात्मा से एकाकार हो गयी। अहं के आत्मा में स्थानान्तरण ने मनुष्य को भगवान् में रूपान्तरित कर दिया।
महर्षि की इन बातों को सुनते हुए कार्ल जुंग ने दाहिने हाथ से अपनी आँखों का चश्मा निकाला और रूमाल से उसे साफ कर फिर आँखों में लगा लिया। उनके चेहरे पर पूर्ण प्रसन्नता और गहरी सन्तुष्टि के भाव थे। कुछ ऐसे जैसे कि उनकी दृष्टि का धुंधलका मिटकर सब कुछ साफ- साफ हो गया हो। अब सब कुछ स्पष्ट था। वैज्ञानिक अध्यात्म के मूल तत्त्व उन्हें समझ में आ चुके थे। महर्षि रमण से इस भेंट के बाद वह भारत से वापस लौटे। और फिर इसी वर्ष १९३८ ई. में उन्होंने येले विश्वविद्यालय में अपना व्याख्यान दिया ‘मनोविज्ञान एवं धर्म’। इसमें उनके नवीन दृष्टिकोण का परिचय था। बाद के वर्षों में उन्होंने ‘श्री रमण एण्ड हिज़ मैसेज टु माडर्न मैन’ के प्राक्कथन में अपनी ओर से लिखा- श्री रमन भारत भूमि के सच्चे पुत्र हैं। वह अध्यात्म की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति के प्रकाशपूर्ण स्तम्भ हैं और साथ में कुछ अद्भुत भी। उनके जीवन एवं शिक्षा में हमें पवित्रतम् भारत के दर्शन होते हैं, जो समूची मानवता को वैज्ञानिक अध्यात्म के मूलमन्त्र का सन्देश दे रहा है।
अपने परिवार से विदा लेकर प्रख्यात मनोविज्ञानी कार्लजुंग भारत देश के लिए निकल पड़े। यात्रा लम्बी जरूर थी, पर दीर्घकाल से प्रतीक्षित मनचाही खुशी मिलने के कारण थकान की कोई अनुभूति नहीं थी। रास्ते में वह सोच रहे थे कि पिता पॉल अचिलस एवं माता ईमाइल प्रेसबर्क की चार सन्तानों में दैव संयोग ने उन्हीं को जीवित रखा था। माता ईमाइल प्रेसबर्क के मनोरोगी होने के कारण ही शरीर चिकित्सा से मनोचिकित्सा की ओर मुड़े। चेतन व्यवहार के पीछे अदृश्य अचेतन का हाथ है, इसी विचार ने उन्हें सिगमण्ड फ्रायड की निकटता प्रदान की। पर फ्रायड का काम वासना और उसके दमन को ही सब कुछ मान लेना उन्हें कुछ ज्यादा समझ में नहीं आया। क्योंकि उनकी यह अनुभूति परक मान्यता थी कि जीवन के अचेतन की चेतना के पार कुछ उच्चस्तरीय आध्यात्मिक आयाम भी होते हैं। इसी पर फ्रायड से उनका मतभेद हुआ और साथ छूटा। इन्हीं सबके बीच उन्होंने भारत एवं भारतीय आध्यात्मिक साहित्य के बारे में काफी कुछ पढ़ा। उनमें आध्यात्मिक जिज्ञासा यदि प्रबल थी तो उनमें वैज्ञानिक अभिवृत्ति भी कम दृढ़ नहीं थी। वह आध्यात्मिक सत्यों को वैज्ञानिक रीति- नीति से अनुभव करना चाहते थे।
यही जिज्ञासु भाव उन्हें भारत भूमि की ओर लिए जा रहा था। एक अदृश्य आकर्षण की डोर उन्हें खींच रही थी। महर्षि रमण के नाम में उन्हें सघन चुम्बकत्व का अहसास हो रहा था। भारत पहुँच कर दिल्ली जाना हुआ। सरकारी काम- काज कुछ विशेष था नहीं। सो तिरूवन्नामलाई के लिए चल पड़े। महर्षि यहीं रहते थे। तिरूवन्नामलाई पहुँचते ही उन्हें दूर से अरूणाचलम् के दर्शन हुए। स्थानीय लोगों ने उन्हें बताया कि यहीं महर्षि का निवास है। इसी पवित्र पर्वत की विरूपाक्षी गुफा में उन्होंने वर्षों कठोर तप किया है। इन लोगों के सहयोग से वे महर्षि के आश्रम पहुँच गए। पवित्र पर्वत अरूणाचलम् एवं इसकी तलहटी में बना महर्षि का आश्रम दोनों ही उन्हें सुखद व सम्मोहक लगे। उन्हें लगा सम्भवतः ये उनकी जिज्ञासाओं के साकार समाधान हैं। आश्रम परिसर में कुछ लोग काम कर रहे थे। पूछने पर पता चला कि ये एच्छमा, मध्वस्वामी, रामनाथ ब्रह्मचारी एवं मुदलियर ग्रेनी हैं। इनमें से रामनाथ ब्रह्मचारी ने उनके ठहरने की व्यवस्था की और अन्नामलाई स्वामी से मिलाया।
अन्नामलाई स्वामी अच्छी अंग्रेजी जानते थे। साथ ही महर्षि के सहयोगी व सलाहकार भी थे। इन्हीं से उन्होंने अपने आगमन का मकसद कहा- कार्लगुस्ताव जुंग, अन्नामलाई स्वामी ने उन्हें उनका पूरा नाम लेकर सम्बोधित किया- महर्षि सायं बेला में मिलेंगे। शाम को अरूणाचलम की तलहटी में खुले स्थान पर महर्षि से मुलाकात हुई। महर्षि उस समय शरीर पर केवल कौपीन धारण किए हुए थे। उनके चेहरे पर हल्की दाढ़ी, होठों पर बालसुलभ निर्दोष हँसी, आँखों में आध्यात्मिक प्रकाश के साथ प्रगाढ़ अपनापन था। प्रख्यात् मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग को महर्षि अपने से लगे। हालांकि उनके मन में शंका भी उठी कि ग्रामीण जनों की तरह दिखने वाले ये महर्षि क्या उनके वैज्ञानिक मन की जिज्ञासाओं का समाधान कर पाएँगे?
उनके मन में आए इस प्रश्र के उत्तर में महर्षि ने हल्की सी मीठी हंसी के साथ कहा- भारत के प्राचीन ऋषियों की अध्यात्म विद्या सम्पूर्णतया वैज्ञानिक है। आधुनिक वैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक चिन्तन- चेतना के लिए इसे वैज्ञानिक अध्यात्म कहना ठीक रहेगा। इसके मूलतत्त्व पांच हैं- १. जिज्ञासा- इसे तुम्हारी वैज्ञानिक भाषा में शोध समस्या भी कह सकते हैं। २. प्रकृति एवं स्थिति के अनुरूप सही साधना विधि का चयन। वैज्ञानिक शब्दावली में इसे अनुसन्धान विधि भी कह सकते हैं। ३. शरीर मन की विकारविहीन प्रयोगशाला में किए जाने वाले त्रुटिहीन साधना प्रयोग। वैज्ञानिक ढंग से कहें तो नियंत्रित स्थति में की जाने वाली वह क्रिया प्रयोग है, जिसमें सतत् सर्वेक्षण किया जाता है, Experiment is observation of any action under control conditions. उन्होंने मधुर अंग्रेजी भाषा में अपने कथन को दुहराया। ४. किए जा रहे प्रयोग का निश्चित क्रम से परीक्षण एवं सतत् ऑकलन। एवं अन्तिम ५. इन सबके परिणाम में सम्यक् निष्कर्ष। महर्षि ने बड़े धीरे- धीरे सहज स्वर में अपनी बातें पूरी की। इस बीच अन्नामलाई स्वामी ने उन्हें एक गिलास पानी लाकर दिया। जिसे उन्होंने धीरे- धीरे पिया।
इसी के साथ वह उठ खड़े हुए। कार्लजुंग भी उन्हीं के साथ उठे। उनके मुख के भावों से लग रहा था कि वह सन्तुष्ट हैं। अब महर्षि धीमे कदमों से वहीं टहलने लगे। टहलते- टहलते उन्होंने कहा- मेरे आध्यात्मिक प्रयोग की वैज्ञानिक जिज्ञासा थी- मैं कौन हूँ? इसके समाधान के लिए मैंने मनन एवं ध्यान की अनुसन्धान विधि का चयन किया। इसी अरूणाचलम पर्वत की विरूपाक्षी गुफा में शरीर व मन की प्रयोगशाला में मेरे प्रयोग चलते हैं। इन प्रयोगों के परिणाम में अपरिष्कृत अचेतन परिष्कृत होता गया। चेतना की नयी- नयी परतें खुलती गयी। इनका मैंने निश्चित कालक्रम में परीक्षण एवं ऑकलन किया। और अन्त में मैं निष्कर्ष पर पहुँचा, मेरा अहं आत्मा में विलीन हो गया। बाद में आत्मा- परमात्मा से एकाकार हो गयी। अहं के आत्मा में स्थानान्तरण ने मनुष्य को भगवान् में रूपान्तरित कर दिया।
महर्षि की इन बातों को सुनते हुए कार्ल जुंग ने दाहिने हाथ से अपनी आँखों का चश्मा निकाला और रूमाल से उसे साफ कर फिर आँखों में लगा लिया। उनके चेहरे पर पूर्ण प्रसन्नता और गहरी सन्तुष्टि के भाव थे। कुछ ऐसे जैसे कि उनकी दृष्टि का धुंधलका मिटकर सब कुछ साफ- साफ हो गया हो। अब सब कुछ स्पष्ट था। वैज्ञानिक अध्यात्म के मूल तत्त्व उन्हें समझ में आ चुके थे। महर्षि रमण से इस भेंट के बाद वह भारत से वापस लौटे। और फिर इसी वर्ष १९३८ ई. में उन्होंने येले विश्वविद्यालय में अपना व्याख्यान दिया ‘मनोविज्ञान एवं धर्म’। इसमें उनके नवीन दृष्टिकोण का परिचय था। बाद के वर्षों में उन्होंने ‘श्री रमण एण्ड हिज़ मैसेज टु माडर्न मैन’ के प्राक्कथन में अपनी ओर से लिखा- श्री रमन भारत भूमि के सच्चे पुत्र हैं। वह अध्यात्म की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति के प्रकाशपूर्ण स्तम्भ हैं और साथ में कुछ अद्भुत भी। उनके जीवन एवं शिक्षा में हमें पवित्रतम् भारत के दर्शन होते हैं, जो समूची मानवता को वैज्ञानिक अध्यात्म के मूलमन्त्र का सन्देश दे रहा है।