Books - विवेक की कसौटी
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Language: HINDI
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विवेक ही सच्ची शक्ति है
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मनुष्य जीवन को सफल बुनाने और निर्वाह करने के लिए अनेक प्रकार की शक्तियों की आवश्यकता पडती है । शारीरिक बल, बुद्धि बल, अर्थ बल, समुदाय बल आदि अनेक साधनों से मिलकर मानव जीवन की समस्याओं का समाधान हो पाता है । इन्हीं बलों के द्वारा शासन, उत्पादन और निर्माण कार्य होता है और सब प्रकार की संपत्तियाँ एवं सुविधाएँ प्राप्त होती हैं । विवेक द्वारा इन सब बलों का उचित रीति से संचालन होता है, जिससे ये हमारे लिए हितकारी सिद्ध हों ।
मस्तिष्क बल और विचार बल में थोड़ा अंतर है, उसे भी हमें समझ लेना चाहिए । मस्तिष्क बल का शरीर बल से संबंध है । विद्याध्ययन, व्यापारिक कुशलता किसी कार्य व्यवस्था को निर्धारित प्रणाली के अनुसार चलाना, यह सब मस्तिष्क बल का काम है । वकील, डॉक्टर, व्यापारी, कारीगर, कलाकार आदि का काम इसी आधार पर चलता है । यह बल शरीर की आवश्यकता और इच्छा की पूर्ति के कारण उत्पन्न होता और बढ़ता है । परंतु विवेक बल आत्मा से संबंधित है । आध्यात्मिक आवश्यकता इच्छा और प्रेरणा के अनुसार विवेक जाग्रत होता है । उचित-अनुचित का भेदभाव यह विवेक ही करता है ।
मस्तिष्क बल शरीरजन्य होने के कारण उसकी नीति शारीरिक हितसाधन की होती है । इंद्रिय सुखों को प्रधानता देता हुआ वह शरीरिक को समृद्ध एवं ऐश्वर्यवान बनाने की प्रयत्न करता है । अपने इस दृष्टिकोण के आगे वह उचित- अनुचित का भेदभाव करने में बहुत दूर तक नहीं जाता । जैसे भी हो वैसे भोग ऐश्वर्य इकट्ठा करने की धुन में प्राय: लोग कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का ध्यान भूल जाते हैं, अनुचित रीति से भी स्वार्थ-साधन करते हैं ।
विवेक इससे सर्वथा भिन्न है । देखने में 'विवेक' भी मस्तिष्क बल की ही श्रेणी का प्रतीत होता है, पर वस्तुत: वह उससे सर्वथा भिन्न है । विवेक आत्मा की पुकार है, आत्मिक स्वार्थ का वह पोषक है । अंतःकरण में से सत्य प्रेम न्याय त्याग, उदारता सेवा एवं परमार्थ की जो भावनाएँ उठती हैं, उनका वह पोषण करता है । सत् तत्त्वों के रमण में उसे आनंद आता है । जैसे शरीर की भूख बुझाना मस्तिष्क बल का प्रयोजन होता है; वैसे ही आत्मा की भूख बुझाने में 'विवेक' प्रवृत्त रहता है । काम ही अहंकार की पूर्ति में बलशाली लोग सुख अनुभव करते हैं पर उससे अनेकों गुना आनंद-परमानंद विवेकवान को प्राप्त होता है ।
बल द्वारा संपत्ति और भोग-सामग्री उपार्जित होती है, परंतु इस उपार्जन का तरीका इतना संकुचित और स्वार्थमय होता है कि उसकी धुन में मनुष्य धर्म- अधर्म की परवाह नहीं करता । इसलिए केवल बल द्वारा उत्पन्न की हुई संपत्ति कलह और क्लेश उत्पन्न करने वाली दुःखदायक एवं परिणाम में विष के समान होती है । ऐसी संपत्ति का उपार्जन संसार में अशांति युद्ध, शोषण उत्पीड़न एवं प्रतिहिंसा की नारकीय अग्नि की प्रज्वलित करने में घृत का काम करता है । ऐसी स्थिति से बचने के लिए विवेक बल से शरीर बल और मस्तिष्क बल पर नियंत्रण कायम करना पड़ता है ।
बल के ऊपर विवेक का नियंत्रण कायम रहना अत्यंत आवश्यक है बिना इसके संसार में सुख-शांति कायम नहीं रह सकती । बल अंधा है और विवेक पंगा है । केवल बल की प्रधानता रहे तो उससे अनर्थ अत्याचार एवं पाप की उत्पत्ति होगी बल के अभिमान में मनुष्य अंधा हो जाता है विवेक नेत्र स्वरूप है वह सत्पथ का प्रदर्शन करता है किंतु अकेला विवेक क्रियारहित हो जाता है । अनेकों एकांतवासी विवेकशील विद्वान एक कोने में पड़े अपनी निरुपयोगिता सिद्ध करते रहते हैं । जब विवेक और बल दोनों का सामंजस्य हो जाता है तो उसी प्रकार सब व्यवस्था ठीक हो जाती है जैसे एक बार अंधे की पीठ पर पंगा आदमी बैठ गया था और वे आपसी सहयोग के कारण जलते हुए गाँव में से बचकर भाग गए थे । यदि दोनों सहयोग न करते तो दोनों का ही जल मरना निश्चित था ।
धर्मशास्त्रों ने बल के ऊपर विवेक का शासन स्थापित किया है । भौतिक जगत में भी यही प्रथा और परिपाटी कायम की गई है । कला-कौशल बल, धन और शरीर बल इन तीनों बलों के प्रतिनिधि स्वरूप शूद्र, वैश्य एवं क्षत्रिय पर विवेक के प्रतिनिधि ब्राह्मण का शासन कायम किया गया है । हम प्राचीन इतिहास में देखते हैं कि हर एक राजा की शासन प्रणाली राजगुरु के आदेशानुसार चलती थी । तीनों वर्णो का पथ-प्रदर्शन ब्राह्मण करते थे ।
ऐतरेय ब्राह्मण ७-४-८ में एक श्रुति आती है- 'अर्द्धात्मोहक एथ क्षत्रियस्थ यत्पुरोहित: ।' अर्थात क्षत्रिय की आधी आत्मा पुरोहित है । पुरोहित के अभाव में क्षत्रिय आधा आत्मा मात्र है । हम देखते हैं कि जनता के आंदोलनों का समुचित लाभ प्राप्त होना नेताओं की सुयोग्यताओं पर निर्भर है । विवेकशील सुयोग्य नेताओं के नेतृत्व में अल्प जनबल से भी महत्त्वपूर्ण सफलता मिल जाती है । नेपोलियन के पास थोडे से सिपाही थे, पर वह अपने बुद्धि-कौशल द्वारा इस थोड़ी सी शक्ति से ही महान सफलताएँ प्राप्त करने में समर्थ हुआ ।
जो विवेकवान व्यक्ति पथ प्रदर्शन एवं नेतृत्व कर सकने योग्य क्षमता रखते हैं उन पुरोहितों का उत्तरदायित्व महान है । एतरेय ब्राह्मण के ८-५-२ में ऐसे पुरोहितों की 'राष्ट्र गोप' अर्थात राष्ट्र की रक्षा करने वाला कहा है । यदि देश समाज एवं व्यक्तियों का बल अनुचित दिशा में प्रवृत्त होता था तो उसका दोष पुरोहितों पर पड़ता था । तांड्य ब्राह्मण के १३-३ -१३ में एक कथा आती है कि इक्ष्वाकुवंशीय अरुण नामक एक राजा की अहंकारिता और उदंडता सीमा से बाहर बढ़ गई । एक बार उस राजा की लापरवाही से रथ चलाने के कारण एक व्यक्ति को चोट लग गई । वह व्यक्ति अरुण के पुरोहित 'वृक्ष' के पास गया और उनकी भर्त्सना करते हुए कहा- आपने राजा को उचित शिक्षा नहीं दी है । आपने अपने गौरवास्पद पुरोहित पद के कर्त्तव्य का भलीभांति पालन नहीं किया है । यदि किया होता तो राजा इस प्रकार का आचरण न करता । उस व्यक्ति के यह वचन सुनकर 'वृक्ष' बहुत लज्जित हुए । उनसे कुछ कहते न बन पड़ा, उन्होंने उस व्यक्ति को अपने आश्रम में रखा और जब तक उसकी चोट अच्छी न हो गई तब तक उसकी चिकित्सा की ।
उपरोक्त कथा इस सत्य को प्रदर्शित करती हैं कि राज्य के प्रति पुरोहित का कितना उत्तरदायित्व है ? बल को उचित दिशा में प्रयोजित करने की 'विवेक' की कितनी बड़ी जिम्मेदारी है ? आज पुरोहित-तत्त्व और राज्य- तत्त्व दो पृथक दिशाओं में चल रहे हैं, एक ने दूसरे का सहयोग कम कर दिया है । फलस्वरूप हमारी राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक और शारीरिक सुव्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट हो रही है । जब तक पुरोहित-तत्त्व अपने उचित स्थान को ग्रहण न करेगा, तब तक हमारे बाह्य और भीतरी जीवन में शांति भी स्थापित न होगी । विवेक का शरीर, समाज और राष्ट्र के ऊपर समुचित शासन होनी चाहिए ।
जनता को अज्ञानांधकार से छुड़ाकर ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर करना पुरोहित का कार्य है । जो व्यक्ति ज्ञानवान हैं, जाग्रत है, पथ-प्रदर्शन करने की क्षमता रखते हैं, उन पुरोहितों का कर्त्तव्य है कि जनता को जाग्रत करते रहें । सामाजिक राष्ट्रीय, शारीरिक एवं आर्थिक खतरों से सजग रखना और कठिनाइयों को हल करने का मार्ग प्रदर्शित करना पुरोहित का प्रधान कर्त्तव्य है । अंतःकरण में रहने वाले पुरोहित का कर्त्तव्य है कि वह विवेक द्वारा शक्तियों पर नियंत्रण करें और उन्हें कुमार्ग से बचाकर सन्मार्ग पर लगावें ।
हे पुरोहित! जाग, राष्ट्र के बारे में जागरूक रह । वेदपुरुष कहता है- 'वयं राष्ट्रे जागृयाम् पुरोहिता ।' पुरोहित राष्ट्र के संबंध में जागते रहें, सोएँ नहीं । हमारे अंतःकरण में बैठे हुए हे विवेक पुरोहित! जागता रह! ताकि हमारा बल 'क्षत्रिय' अनुचित दिशा में प्रवृत्त न हो । हमारे देश और जाति का नेतृत्व कर सकने की क्षमता रखने वाले सामाजिक शक्तियों का अनुचित आधार पर अपव्यय न हो । हे पुरोहित! जाग, हमारे बल पर शासन कर, ताकि हम पुन: अपने अतीत गौरव की झाँकी कर सकें ।
मस्तिष्क बल और विचार बल में थोड़ा अंतर है, उसे भी हमें समझ लेना चाहिए । मस्तिष्क बल का शरीर बल से संबंध है । विद्याध्ययन, व्यापारिक कुशलता किसी कार्य व्यवस्था को निर्धारित प्रणाली के अनुसार चलाना, यह सब मस्तिष्क बल का काम है । वकील, डॉक्टर, व्यापारी, कारीगर, कलाकार आदि का काम इसी आधार पर चलता है । यह बल शरीर की आवश्यकता और इच्छा की पूर्ति के कारण उत्पन्न होता और बढ़ता है । परंतु विवेक बल आत्मा से संबंधित है । आध्यात्मिक आवश्यकता इच्छा और प्रेरणा के अनुसार विवेक जाग्रत होता है । उचित-अनुचित का भेदभाव यह विवेक ही करता है ।
मस्तिष्क बल शरीरजन्य होने के कारण उसकी नीति शारीरिक हितसाधन की होती है । इंद्रिय सुखों को प्रधानता देता हुआ वह शरीरिक को समृद्ध एवं ऐश्वर्यवान बनाने की प्रयत्न करता है । अपने इस दृष्टिकोण के आगे वह उचित- अनुचित का भेदभाव करने में बहुत दूर तक नहीं जाता । जैसे भी हो वैसे भोग ऐश्वर्य इकट्ठा करने की धुन में प्राय: लोग कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का ध्यान भूल जाते हैं, अनुचित रीति से भी स्वार्थ-साधन करते हैं ।
विवेक इससे सर्वथा भिन्न है । देखने में 'विवेक' भी मस्तिष्क बल की ही श्रेणी का प्रतीत होता है, पर वस्तुत: वह उससे सर्वथा भिन्न है । विवेक आत्मा की पुकार है, आत्मिक स्वार्थ का वह पोषक है । अंतःकरण में से सत्य प्रेम न्याय त्याग, उदारता सेवा एवं परमार्थ की जो भावनाएँ उठती हैं, उनका वह पोषण करता है । सत् तत्त्वों के रमण में उसे आनंद आता है । जैसे शरीर की भूख बुझाना मस्तिष्क बल का प्रयोजन होता है; वैसे ही आत्मा की भूख बुझाने में 'विवेक' प्रवृत्त रहता है । काम ही अहंकार की पूर्ति में बलशाली लोग सुख अनुभव करते हैं पर उससे अनेकों गुना आनंद-परमानंद विवेकवान को प्राप्त होता है ।
बल द्वारा संपत्ति और भोग-सामग्री उपार्जित होती है, परंतु इस उपार्जन का तरीका इतना संकुचित और स्वार्थमय होता है कि उसकी धुन में मनुष्य धर्म- अधर्म की परवाह नहीं करता । इसलिए केवल बल द्वारा उत्पन्न की हुई संपत्ति कलह और क्लेश उत्पन्न करने वाली दुःखदायक एवं परिणाम में विष के समान होती है । ऐसी संपत्ति का उपार्जन संसार में अशांति युद्ध, शोषण उत्पीड़न एवं प्रतिहिंसा की नारकीय अग्नि की प्रज्वलित करने में घृत का काम करता है । ऐसी स्थिति से बचने के लिए विवेक बल से शरीर बल और मस्तिष्क बल पर नियंत्रण कायम करना पड़ता है ।
बल के ऊपर विवेक का नियंत्रण कायम रहना अत्यंत आवश्यक है बिना इसके संसार में सुख-शांति कायम नहीं रह सकती । बल अंधा है और विवेक पंगा है । केवल बल की प्रधानता रहे तो उससे अनर्थ अत्याचार एवं पाप की उत्पत्ति होगी बल के अभिमान में मनुष्य अंधा हो जाता है विवेक नेत्र स्वरूप है वह सत्पथ का प्रदर्शन करता है किंतु अकेला विवेक क्रियारहित हो जाता है । अनेकों एकांतवासी विवेकशील विद्वान एक कोने में पड़े अपनी निरुपयोगिता सिद्ध करते रहते हैं । जब विवेक और बल दोनों का सामंजस्य हो जाता है तो उसी प्रकार सब व्यवस्था ठीक हो जाती है जैसे एक बार अंधे की पीठ पर पंगा आदमी बैठ गया था और वे आपसी सहयोग के कारण जलते हुए गाँव में से बचकर भाग गए थे । यदि दोनों सहयोग न करते तो दोनों का ही जल मरना निश्चित था ।
धर्मशास्त्रों ने बल के ऊपर विवेक का शासन स्थापित किया है । भौतिक जगत में भी यही प्रथा और परिपाटी कायम की गई है । कला-कौशल बल, धन और शरीर बल इन तीनों बलों के प्रतिनिधि स्वरूप शूद्र, वैश्य एवं क्षत्रिय पर विवेक के प्रतिनिधि ब्राह्मण का शासन कायम किया गया है । हम प्राचीन इतिहास में देखते हैं कि हर एक राजा की शासन प्रणाली राजगुरु के आदेशानुसार चलती थी । तीनों वर्णो का पथ-प्रदर्शन ब्राह्मण करते थे ।
ऐतरेय ब्राह्मण ७-४-८ में एक श्रुति आती है- 'अर्द्धात्मोहक एथ क्षत्रियस्थ यत्पुरोहित: ।' अर्थात क्षत्रिय की आधी आत्मा पुरोहित है । पुरोहित के अभाव में क्षत्रिय आधा आत्मा मात्र है । हम देखते हैं कि जनता के आंदोलनों का समुचित लाभ प्राप्त होना नेताओं की सुयोग्यताओं पर निर्भर है । विवेकशील सुयोग्य नेताओं के नेतृत्व में अल्प जनबल से भी महत्त्वपूर्ण सफलता मिल जाती है । नेपोलियन के पास थोडे से सिपाही थे, पर वह अपने बुद्धि-कौशल द्वारा इस थोड़ी सी शक्ति से ही महान सफलताएँ प्राप्त करने में समर्थ हुआ ।
जो विवेकवान व्यक्ति पथ प्रदर्शन एवं नेतृत्व कर सकने योग्य क्षमता रखते हैं उन पुरोहितों का उत्तरदायित्व महान है । एतरेय ब्राह्मण के ८-५-२ में ऐसे पुरोहितों की 'राष्ट्र गोप' अर्थात राष्ट्र की रक्षा करने वाला कहा है । यदि देश समाज एवं व्यक्तियों का बल अनुचित दिशा में प्रवृत्त होता था तो उसका दोष पुरोहितों पर पड़ता था । तांड्य ब्राह्मण के १३-३ -१३ में एक कथा आती है कि इक्ष्वाकुवंशीय अरुण नामक एक राजा की अहंकारिता और उदंडता सीमा से बाहर बढ़ गई । एक बार उस राजा की लापरवाही से रथ चलाने के कारण एक व्यक्ति को चोट लग गई । वह व्यक्ति अरुण के पुरोहित 'वृक्ष' के पास गया और उनकी भर्त्सना करते हुए कहा- आपने राजा को उचित शिक्षा नहीं दी है । आपने अपने गौरवास्पद पुरोहित पद के कर्त्तव्य का भलीभांति पालन नहीं किया है । यदि किया होता तो राजा इस प्रकार का आचरण न करता । उस व्यक्ति के यह वचन सुनकर 'वृक्ष' बहुत लज्जित हुए । उनसे कुछ कहते न बन पड़ा, उन्होंने उस व्यक्ति को अपने आश्रम में रखा और जब तक उसकी चोट अच्छी न हो गई तब तक उसकी चिकित्सा की ।
उपरोक्त कथा इस सत्य को प्रदर्शित करती हैं कि राज्य के प्रति पुरोहित का कितना उत्तरदायित्व है ? बल को उचित दिशा में प्रयोजित करने की 'विवेक' की कितनी बड़ी जिम्मेदारी है ? आज पुरोहित-तत्त्व और राज्य- तत्त्व दो पृथक दिशाओं में चल रहे हैं, एक ने दूसरे का सहयोग कम कर दिया है । फलस्वरूप हमारी राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक और शारीरिक सुव्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट हो रही है । जब तक पुरोहित-तत्त्व अपने उचित स्थान को ग्रहण न करेगा, तब तक हमारे बाह्य और भीतरी जीवन में शांति भी स्थापित न होगी । विवेक का शरीर, समाज और राष्ट्र के ऊपर समुचित शासन होनी चाहिए ।
जनता को अज्ञानांधकार से छुड़ाकर ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर करना पुरोहित का कार्य है । जो व्यक्ति ज्ञानवान हैं, जाग्रत है, पथ-प्रदर्शन करने की क्षमता रखते हैं, उन पुरोहितों का कर्त्तव्य है कि जनता को जाग्रत करते रहें । सामाजिक राष्ट्रीय, शारीरिक एवं आर्थिक खतरों से सजग रखना और कठिनाइयों को हल करने का मार्ग प्रदर्शित करना पुरोहित का प्रधान कर्त्तव्य है । अंतःकरण में रहने वाले पुरोहित का कर्त्तव्य है कि वह विवेक द्वारा शक्तियों पर नियंत्रण करें और उन्हें कुमार्ग से बचाकर सन्मार्ग पर लगावें ।
हे पुरोहित! जाग, राष्ट्र के बारे में जागरूक रह । वेदपुरुष कहता है- 'वयं राष्ट्रे जागृयाम् पुरोहिता ।' पुरोहित राष्ट्र के संबंध में जागते रहें, सोएँ नहीं । हमारे अंतःकरण में बैठे हुए हे विवेक पुरोहित! जागता रह! ताकि हमारा बल 'क्षत्रिय' अनुचित दिशा में प्रवृत्त न हो । हमारे देश और जाति का नेतृत्व कर सकने की क्षमता रखने वाले सामाजिक शक्तियों का अनुचित आधार पर अपव्यय न हो । हे पुरोहित! जाग, हमारे बल पर शासन कर, ताकि हम पुन: अपने अतीत गौरव की झाँकी कर सकें ।