Books - युगगीता (भाग-४)
Media: TEXT
Language: EN
Language: EN
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
आत्मवत् सर्वभूतेषु
जिस व्यक्ति ने योग की इस परमावस्था में जाकर यह अनुभव कर लिया कि सारा संसार ही उसका एक अंग है- वह उससे अलग नहीं है, न ही संसार के घटक उससे अलग हैं, तो फिर सारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। ‘‘सर्वत्र समदर्शनः’’ एक उच्चस्तरीय उपलब्धि है, जिसमें ध्यान योगी स्वयं को शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक भावों से ऊपर उठाकर जीवन में प्रतिक्षण यह अनुभूति करने लगता है कि उसकी आत्मा ही सबकी आत्मा है। हर जगह उसे भगवान के दर्शन होने लगते हैं। यह सिद्धि ऐसी नहीं है कि बड़ी मुश्किल से मिलती हो। बस अन्तर्जगत की व्यवस्था भर करने की देर है तो फिर हर क्षण हम चहुं ओर एकत्व भाव की अवस्था की अनुभूति कर सकते हैं। जैसे ही हमें आत्मा की समग्र एवं स्पष्ट अनुभूति हुई, हमारे आसपास संपूर्ण संसार के लिए एक महान प्रेम सागर उमड़ पड़ता है। सफल ध्यान करने वाला अपने प्रेम पूर्ण आलिंगन में सारे विश्व और स्वयं अपने आपको बाँध लेता है।
परम पूज्य गुरुदेव ने अपने साधना समर के विषय में लिखा है। वे लिखते हैं ‘‘साधना के तीसरे चरण में प्रवेश करने पर ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ की किरणें फूट पड़ीं। अपने समान सबको देखना। कहने सुनने में यह शब्द मामूली सा लगता है और सामान्यतः नागरिक कर्त्तव्य का पालन, शिष्टाचार, सद्व्यवहार की सीमा तक पहुँचकर बात पूरी हो गई दीखती है, पर वस्तुतः इस तत्त्व ज्ञान की सीमा अति विस्तृत है। उसकी परिधि वहाँ पहुँचती है, जहाँ परमात्म सत्ता के साथ घुल जाने की स्थिति आ पहुँचती है। साधना के लिए दूसरे के अन्तरंग के साथ अपना अन्तरंग जोड़ना पड़ता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता का यही मूर्तरूप है कि हम हर किसी को अपना मानें, अपने को दूसरों में और दूसरों को अपने में पिरोया हुआ- घुला हुआ अनुभव करें। इस अनुभूति की प्रतिक्रिया यह होती है कि दूसरों के सुख में अपना सुख और दूसरों के दुःख में अपना दुःख अनुभव होने लगता है। ऐसा मनुष्य अपने तक सीमित नहीं रह सकता, स्वार्थों की परिधि में आबद्ध रहना उसके लिए कठिन हो जाता है। दूसरों का दुख मिटाने और सुख बढ़ाने के प्रयास उसे बिल्कुल ऐसे लगते हैं, मानों यह सब अपने नितान्त व्यक्तिगत प्रयोजन के लिए किया जा रहा हो।’’ (‘‘सुनसान के सहचर’’- हमारे दृश्य जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ- पृष्ठ ९३- ९४)। कितनी स्पष्ट व्याख्या है गीता के इस श्लोक की। पूज्यवर ने यह जीवन जिया एवं हर साथ रहने वाले- उनसे मिलने वाले को यह अनुभूति भी हुई। गुरुदेव लिखते हैं कि उनने एक प्रयोगात्मक जीवन जिया है। आध्यात्मिक आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में तालमेल बिठाते हुए कैसे जिया जाय, यह सीखा है और अन्य भी अनुकरण कर सकें, ऐसा जीवन आचार्यश्री ने जिया।
ईक्षते समदर्शनः
ध्यानयोगी गीताकार के अनुसार संपूर्ण प्राणियों में अपने स्वरूप को स्थित देखता है। हर परिवर्त्तनशील वस्तु, व्यक्ति आदि में योगी अपरिवर्त्तनशील अपने स्वरूप को ही देखता है (सर्वभूतस्थमात्मानम्)। दूसरा वह संपूर्ण प्राणियों को अपने अन्तर्गत देखता है। वह योगी संपूर्ण प्राणियों को अपने स्वरूप से ही पैदा हुए, स्वरूप में लीन होते हुए और स्वरूप में स्थित देखता है। (सर्वभूतानि चात्मनि)। वह सतत यही अनुभूति करता रहता है कि सब जगह एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही संव्याप्त है। जैसे सोने के बने विभिन्न गहनों में हम एक सोने को ही देखते हैं, ध्यान योगी तरह तरह की वस्तुओं और व्यक्तियों में समरूप से एक अपना ही स्वरूप देखता है (ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः)। यह एक विलक्षण सिद्धि है। ध्यानयोग में सतत अभ्यास करते करते इस योगी का अन्तःकरण अपने स्वरूप में परमात्मा में विलीन- तद्रूप हो जाता है (योग युक्तात्मा)। श्री भगवान ने जब यह कहा कि आवेगों और आवेशों के कलंक से छूटकर और सतत योग में लगे रहकर योगी अनायास- सुखपूर्वक ब्रह्मसंस्पर्शरूप अतिउच्चस्तरीय आनन्द को प्राप्त होता है (६/२८) तो उनका आशय उस योगी से है जिसने इस अभ्यास को करते हुए ऐकान्तिक जीवन जीते हुए सभी कर्मों का त्याग नहीं किया है।
यह रोजमर्रा के जीवन में कार्यरत योगी है, जिसकी निद्रा- आहार सभी योगयुक्त है (६/१७) अर्थात इन सब अवस्थाओं में योगी भगवान से ‘‘युक्त’’ है- उसके साथ तदाकार हो चुका है। वह जो कुछ भी करता है भगवान को ही अपनी आत्मा और ‘‘सर्वमिदं’’ तथा अपने जीवन और कर्म का आश्रय- आधार मानकर करेगा (‘‘गीता प्रबन्ध’’ पृष्ठ २५५ श्री अरविन्द)। जब योगी ब्रह्ममय हो गया, तो उसे हर कार्य को करते हुए सर्वत्र ईश्वर के- आदर्शों की सत्ता के दर्शन होते हैं। श्री भगवान कह रहे हैं कि जिस पुरुष की आत्मा योगयुक्त है- वह आत्मा को सब भूतों में देखता है और सब भूतों को आत्मा में देखता है। वह सर्वत्र समदर्शी होता है (६/२९)। जो कुछ भी वह देखता है, वह उसके लिए आत्मा है- सब भगवत् सत्तामय है। गीता इसके तुरन्त बाद आश्वासन देती है- ‘‘जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मेरे अन्दर देखता है, वह मेरे लिए नहीं खोता और न मैं उसके लिये खो जाता हूँ।’’ आइए! इसी भावार्थ वाला अगला तीसवाँ श्लोक देखते हैं।
मेरे अंदर सब कुछ, सभी ओर मैं—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ ६/३०
भावार्थ से पूर्व शब्दार्थ देखते हैं जो कि बड़ा ही सरल है-
‘‘जो योगी पुरुष (यः) मुझ परमेश्वर को (मां) सभी ओर (सर्वत्र) देखते हैं (पश्यति), समस्त भूतों को (सर्वं) मुझ में ही (च मयि) देखते हैं (पश्यति), मैं- परमेश्वर (अहं) उनके लिए (तस्य) अदृश्य नहीं होता (न प्रणश्यति) और वह भी (स च) मेरे लिये (मे) अदृश्य नहीं होते (न प्रणश्यति)।’’
भावार्थ फिर से एक बार- ‘‘जो योगी संपूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव- परमात्मा को ही संव्याप्त देखता है और संपूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत ही देखता है (अध्याय ९ श्लोक ६) उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता और न ही वह मेरे लिए अदृश्य होता है।’’
यह एक प्रकार की ब्राह्मीस्थिति का वर्णन है, जिसमें एकात्मदर्शी योगी समस्त प्राणियों की आत्मारूप आदर्शों का समुच्चय उस परमात्मा की उपासना को ही मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय मानता है। उसका परमात्मा से कभी भी विच्छेद नहीं होता। सदैव एकरसता का भाव बना रहता है। भक्तियोगी- सभी संत इनके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। जो जीवन भर कर्मयोग में लगे रहे चाहे वे कबीर हों, रैदास हों, मीरा या दादू, एकनाथ या ज्ञानेश्वर- सदैव परमात्मा में ही लीन रहे।
द्वैत से अद्वैत की ओर
जैसे ही योगी को अपने अंदर की परमात्मसत्ता की अनुभूति हुई- अपने आसपास के संपूर्ण संसार के लिए महान प्रेम का सागर उसके अंदर से उमड़ने लगता है। वह उस दिव्य सामंजस्य की अनुभूति करने लगता है, जिसमें अब द्वैत नहीं रहा- अद्वैत स्थापित हो जाता है। साधक- सविता एक- भक्त एक- एकत्व दोनों का- यह हमारी गुरुसत्ता का ध्यान का निर्देश सार्थक होने लगता है। अपना अहं भूल गया, राग- द्वेष से मुक्त हो गया, ऐसा साधक सार्वभौमिक दृष्टि पाकर दिव्यकर्मी बन जाता है- सच्चा ध्यानयोगी बन जाता है। वह जब आत्मा को बाहर देखता है, तो वह केवल सर्वव्यापी परमात्मा के ही दर्शन करता है एवं अहं द्वारा अनुभूति में आनेवाला यह सारा संसार सिमटकर उसकी आत्मसत्ता- अर्थात परमसत्ता में विलीन हो जाता है (सर्वं च मयि पश्यति)। एक अनन्त विराट रूपी परमात्मा की उसे समग्र- संपूर्ण अनुभूति होने लगती है।
विकास का एक नया आयाम
श्रीकृष्ण अतिकुशल चिकित्सक व शिक्षक हैं। वे बार- बार कुछ शब्दों को दुहरा देते हैं, ताकि विगत चिंतन में कोई भ्रम रह गया हो, तो वह दूर हो जाय। ऐसी ब्राह्मी स्थिति में पहुँचने के बाद योगी का जीवन के प्रति दृष्टिकोण आमूलचूल बदल जाता है। अब उसे दिव्य ब्रह्म के सिवाय और कुछ दिखाई नहीं देता। पशु- पक्षी जगत- प्रकृति के अंग- अवयव सभी सिवाय मेरे अर्थात परमात्मा के ही अंश दिखाई देते हैं (डीप इकॉलाजी की मूल अवधारणा)। यह अनुभूति क्षणमात्र के लिए नहीं होती- यह तो एकात्मता वाली स्थिति है। फिर ऐसा साधक भगवान से कभी विलग नहीं होता (तस्याहं न प्रणश्यामि) और न परमात्मा ही उससे कभी पृथक होता है (स च मे न प्रणश्यति)। यह एक प्रकार से ज्ञानी का- कर्मयोगी का- भक्तियोगी साधक का नया जन्म है- अपने आपके बारे में नूतन जागृति है और विकास का एक नया आयाम खुल चुका है जा उसे पूर्णत्व की ओर ले जा रहा है।
इस स्थिति का वर्णन करते हुए गोस्वामी जी कहते हैं- सन्मुख होहिं जीव मोहिं जबहीं, कोटि जनम अघनासहि तबहीं। जैसे ही जीव परमात्मा मय हुआ- उसका अंतःकरण निर्मल हो जाता है, उसके कोटि- कोटि जन्म के पाप कट जाते हैं।
स्वामी शिवानन्द (रामकृष्ण मिशन अपनी) बिल्ली को भी प्रणाम करते थे, क्योंकि उन्हें उसके अंदर भी परमात्मा के दर्शन होते थे। गोस्वामी जी ने ‘‘सियाराममय सब जग जानि’’ के रूप में इसी तथ्य को प्रतिपादित किया है। जब चारों ओर भगवान ही भगवान दिखाई देते हैं, तो दृष्टि निर्मल हो जाती है। साधना से- अविराम परमात्मा का चिन्तन करने से दृष्टि पारदर्शी हो जाती है। भगवान इस सृष्टि के केन्द्र में हैं- इसीलिए उनके स्थान को शाश्वत धाम कहा गया है। वहाँ काल है ही नहीं, समय है ही नहीं, इसीलिये उन्हें महाकाल कहा गया है।
पलक झपकते
श्री सुदर्शन सिंह चक्र का एक उपन्यास है ‘‘पलक झपकते’’। आपने आँख बंद की- पलक झपकायी इसे पलक झपकते कहते हैं। वे लिखते हैं कि सृष्ट का निर्माण भगवान ने पलक झपकते किया है। गोलोक में श्रीकृष्ण हैं- सभी सखा हैं- नृत्य चल रहा है। भगवान का सखा उनसे पूछता है कि कन्हाई यह सृष्टि कैसे चल रही है। भगवान कहते हैं कि पलक झपकते चल रही है। काल व देश साथ- साथ चलता है। भगवान केन्द्र में हैं, इसलये समय व्यापता नहीं। हम सब परमात्मा में विलीन हो जाते हैं। हम चारों ओर इसी परमात्मा को संव्याप्त देखें, तो हमारी दृष्टि निर्मल- परिपक्व हो जाएगी। फिर वह ‘‘अहं’’ प्रेरित बुद्धि द्वारा नहीं- अंतःकरण के श्रीकृष्ण द्वारा संचालित होगी। इस उपन्यास का आशय गीता के इन्हीं श्लोकों की व्याख्या से था।
मनुष्य को सर्वत्र उन्हीं भगवान के दर्शन करने होंगे- भगवद्रूप देखना होगा- इसी साक्षात्कार की स्थिति में निवास करना पड़ेगा और इसी भाव के साथ कर्म करना होगा, फिर परमात्मा उसमें अदृश्य कैसे हो सकते हैं। योग की यह परम फल की अवस्था है। कर्मयोग की व्याख्या में भक्तियोग के समावेश का एक अद्भुत प्रयोग है। यह तीसवाँ श्लोक जिसमें वे एक अतिविलक्षण- उच्चस्तरीय आयामों तक पहुँचाने वाला आश्वासन देते हैं। ‘‘जो मुझ वासुदेव को सर्वत्र देखता है उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता, न ही वह मेरे लिए अदृश्य होता है।’’
विराट जगत के एकमात्र आधार
भगवान आगे दसवें अध्याय के आठवें श्लोक में इस रहस्य को खोलते भी हैं- ‘‘अहं सर्वस्य ऽभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते’’ (मैं वासुदेव ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हूँ और मेरे कारण यह जगत चेष्टा करता है) १०/८- जिस प्रकार आकाश बादलों के सभी अंशों में संव्याप्त है, इसी प्रकार परमेश्वर समस्त चराचर संसार में व्याप्त है। वे ही इस चराचर विश्व के एकमात्र आधार भी हैं। जिस प्रकार ब्रज की गोपियाँ अपनी आँखों से हमेशा सर्वत्र श्रीकृष्ण का दर्शन करती थीं, जैसे अर्जुन ने भगवान कृष्ण के दिव्य शरीर में (दिव्य चक्षुओं द्वारा), यशोदा ने बालक रूप श्रीकृष्ण के मुख में और परम भक्त काकभुसुण्डि ने भगवान श्रीराम के उदर में समस्त विश्व को देखा था, वैसे ही हर दिव्यकर्मी भक्त को भगवान के किसी भी स्वरूप के अन्तर्गत समस्त विश्व को देखना चाहिए।
कई बार पाठक यह नहीं समझ पाते कि भगवान अपने भक्त के लिए अदृश्य नहीं होते और भक्त उनके लिए अदृश्य नहीं होता। इसका उत्तर एक ही है कि भगवान के ऐश्वर्ययुक्त सौन्दर्य का एक बार साक्षात दर्शन हो जाने के बाद भक्त और भगवान का सदा के लिए संबंध स्थापित हो जाता है। श्रद्धा से ही यह सब हो पाता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को क्रमशः कर्मयोग से भक्तियोग की ओर ले जा रहे हैं। ऐसे में ध्यान योगी के लिये यहाँ उनने एक ऐसा संकेत किया है कि वह कभी भी उस पथ पर चलना आरंभ करके रुकेगा नहीं। इस स्थिति में दिव्य ब्रह्म के सिवाय और कुछ भी नहीं है।
किंतु क्या यह जीवित रहते- कामवासना, इच्छाओं राग- द्वेष के रहते संभव है? एक कर्मयोगी भक्त को, जो ध्यान योग में प्रतिष्ठित हो रहा है, रहना तो इसी जगत में है- जहाँ अहं- लोभ की बेड़ियाँ हैं। क्या दिव्यकर्मी इस प्रवाह को उलट सकेगा। श्रीकृष्ण अपनी अगले श्लोक में की गयी घोषणा में यह बात कह देते हैं।
स योगी मयि वर्तते
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥ ६/३१
शब्दार्थ- जो (यः) समस्त प्राणियों में अवस्थित (सर्वभूतस्थित) मुझ परमेश्वर का (मां) समान रूप से (एकत्व भाव से) अवस्थित रहकर (एकत्वं आस्थितः) भजन करते हैं (भजति), सभी स्थितियों में (सर्वथा) वर्त्तमान रहने पर भी (वर्त्तमानः अपि) वह (सः) योगी व्यक्ति (योगी) मुझमें (मयि) ही स्थित रहते हैं (वर्तते)।
भावार्थ हुआ- ‘‘जो योगीजन एकीभाव में स्थित होकर समस्त प्राणियों में अवस्थित मेरे स्वरूप की उपासना करते हैं, वह सभी प्रकार से बरतते हुए (व्यवहार करते हुए) भी (वर्तमान रहने पर भी) मुझमें ही निवास करते हैं।’’
एकत्व की प्राप्ति एक सिद्धि है। पूर्णतः जो समत्व को प्राप्त हो गया है, वही विविधता में एकता का दर्शन कर सकता है। फिर वह आत्मरूप में स्थित सच्चिदानन्दघन वासुदेव को ही सब कुछ मानकर उन्हीं की उपासना करता है। ऐसा व्यक्ति कभी कामदग्ध होकर शरीर रूप में, अहं से ग्रसित होकर मन के रूप में, दम्भपूर्वक तृष्णा भाव से बुद्धि रूप में कार्य नहीं करता। उसे अपने भीतर- आसपास सभी वस्तुओं- प्राणियों में सतत परमात्मसत्ता की ही उपस्थिति दिखाई देती है। चाहे उसका बाह्य स्वरूप कैसा भी हो- वह सदैव परमात्मा में ही निवास करता है, यह परमात्मा रूप में श्रीकृष्ण की घोषणा है।
जिस व्यक्ति ने योग की इस परमावस्था में जाकर यह अनुभव कर लिया कि सारा संसार ही उसका एक अंग है- वह उससे अलग नहीं है, न ही संसार के घटक उससे अलग हैं, तो फिर सारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। ‘‘सर्वत्र समदर्शनः’’ एक उच्चस्तरीय उपलब्धि है, जिसमें ध्यान योगी स्वयं को शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक भावों से ऊपर उठाकर जीवन में प्रतिक्षण यह अनुभूति करने लगता है कि उसकी आत्मा ही सबकी आत्मा है। हर जगह उसे भगवान के दर्शन होने लगते हैं। यह सिद्धि ऐसी नहीं है कि बड़ी मुश्किल से मिलती हो। बस अन्तर्जगत की व्यवस्था भर करने की देर है तो फिर हर क्षण हम चहुं ओर एकत्व भाव की अवस्था की अनुभूति कर सकते हैं। जैसे ही हमें आत्मा की समग्र एवं स्पष्ट अनुभूति हुई, हमारे आसपास संपूर्ण संसार के लिए एक महान प्रेम सागर उमड़ पड़ता है। सफल ध्यान करने वाला अपने प्रेम पूर्ण आलिंगन में सारे विश्व और स्वयं अपने आपको बाँध लेता है।
परम पूज्य गुरुदेव ने अपने साधना समर के विषय में लिखा है। वे लिखते हैं ‘‘साधना के तीसरे चरण में प्रवेश करने पर ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ की किरणें फूट पड़ीं। अपने समान सबको देखना। कहने सुनने में यह शब्द मामूली सा लगता है और सामान्यतः नागरिक कर्त्तव्य का पालन, शिष्टाचार, सद्व्यवहार की सीमा तक पहुँचकर बात पूरी हो गई दीखती है, पर वस्तुतः इस तत्त्व ज्ञान की सीमा अति विस्तृत है। उसकी परिधि वहाँ पहुँचती है, जहाँ परमात्म सत्ता के साथ घुल जाने की स्थिति आ पहुँचती है। साधना के लिए दूसरे के अन्तरंग के साथ अपना अन्तरंग जोड़ना पड़ता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता का यही मूर्तरूप है कि हम हर किसी को अपना मानें, अपने को दूसरों में और दूसरों को अपने में पिरोया हुआ- घुला हुआ अनुभव करें। इस अनुभूति की प्रतिक्रिया यह होती है कि दूसरों के सुख में अपना सुख और दूसरों के दुःख में अपना दुःख अनुभव होने लगता है। ऐसा मनुष्य अपने तक सीमित नहीं रह सकता, स्वार्थों की परिधि में आबद्ध रहना उसके लिए कठिन हो जाता है। दूसरों का दुख मिटाने और सुख बढ़ाने के प्रयास उसे बिल्कुल ऐसे लगते हैं, मानों यह सब अपने नितान्त व्यक्तिगत प्रयोजन के लिए किया जा रहा हो।’’ (‘‘सुनसान के सहचर’’- हमारे दृश्य जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ- पृष्ठ ९३- ९४)। कितनी स्पष्ट व्याख्या है गीता के इस श्लोक की। पूज्यवर ने यह जीवन जिया एवं हर साथ रहने वाले- उनसे मिलने वाले को यह अनुभूति भी हुई। गुरुदेव लिखते हैं कि उनने एक प्रयोगात्मक जीवन जिया है। आध्यात्मिक आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में तालमेल बिठाते हुए कैसे जिया जाय, यह सीखा है और अन्य भी अनुकरण कर सकें, ऐसा जीवन आचार्यश्री ने जिया।
ईक्षते समदर्शनः
ध्यानयोगी गीताकार के अनुसार संपूर्ण प्राणियों में अपने स्वरूप को स्थित देखता है। हर परिवर्त्तनशील वस्तु, व्यक्ति आदि में योगी अपरिवर्त्तनशील अपने स्वरूप को ही देखता है (सर्वभूतस्थमात्मानम्)। दूसरा वह संपूर्ण प्राणियों को अपने अन्तर्गत देखता है। वह योगी संपूर्ण प्राणियों को अपने स्वरूप से ही पैदा हुए, स्वरूप में लीन होते हुए और स्वरूप में स्थित देखता है। (सर्वभूतानि चात्मनि)। वह सतत यही अनुभूति करता रहता है कि सब जगह एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही संव्याप्त है। जैसे सोने के बने विभिन्न गहनों में हम एक सोने को ही देखते हैं, ध्यान योगी तरह तरह की वस्तुओं और व्यक्तियों में समरूप से एक अपना ही स्वरूप देखता है (ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः)। यह एक विलक्षण सिद्धि है। ध्यानयोग में सतत अभ्यास करते करते इस योगी का अन्तःकरण अपने स्वरूप में परमात्मा में विलीन- तद्रूप हो जाता है (योग युक्तात्मा)। श्री भगवान ने जब यह कहा कि आवेगों और आवेशों के कलंक से छूटकर और सतत योग में लगे रहकर योगी अनायास- सुखपूर्वक ब्रह्मसंस्पर्शरूप अतिउच्चस्तरीय आनन्द को प्राप्त होता है (६/२८) तो उनका आशय उस योगी से है जिसने इस अभ्यास को करते हुए ऐकान्तिक जीवन जीते हुए सभी कर्मों का त्याग नहीं किया है।
यह रोजमर्रा के जीवन में कार्यरत योगी है, जिसकी निद्रा- आहार सभी योगयुक्त है (६/१७) अर्थात इन सब अवस्थाओं में योगी भगवान से ‘‘युक्त’’ है- उसके साथ तदाकार हो चुका है। वह जो कुछ भी करता है भगवान को ही अपनी आत्मा और ‘‘सर्वमिदं’’ तथा अपने जीवन और कर्म का आश्रय- आधार मानकर करेगा (‘‘गीता प्रबन्ध’’ पृष्ठ २५५ श्री अरविन्द)। जब योगी ब्रह्ममय हो गया, तो उसे हर कार्य को करते हुए सर्वत्र ईश्वर के- आदर्शों की सत्ता के दर्शन होते हैं। श्री भगवान कह रहे हैं कि जिस पुरुष की आत्मा योगयुक्त है- वह आत्मा को सब भूतों में देखता है और सब भूतों को आत्मा में देखता है। वह सर्वत्र समदर्शी होता है (६/२९)। जो कुछ भी वह देखता है, वह उसके लिए आत्मा है- सब भगवत् सत्तामय है। गीता इसके तुरन्त बाद आश्वासन देती है- ‘‘जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मेरे अन्दर देखता है, वह मेरे लिए नहीं खोता और न मैं उसके लिये खो जाता हूँ।’’ आइए! इसी भावार्थ वाला अगला तीसवाँ श्लोक देखते हैं।
मेरे अंदर सब कुछ, सभी ओर मैं—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ ६/३०
भावार्थ से पूर्व शब्दार्थ देखते हैं जो कि बड़ा ही सरल है-
‘‘जो योगी पुरुष (यः) मुझ परमेश्वर को (मां) सभी ओर (सर्वत्र) देखते हैं (पश्यति), समस्त भूतों को (सर्वं) मुझ में ही (च मयि) देखते हैं (पश्यति), मैं- परमेश्वर (अहं) उनके लिए (तस्य) अदृश्य नहीं होता (न प्रणश्यति) और वह भी (स च) मेरे लिये (मे) अदृश्य नहीं होते (न प्रणश्यति)।’’
भावार्थ फिर से एक बार- ‘‘जो योगी संपूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव- परमात्मा को ही संव्याप्त देखता है और संपूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत ही देखता है (अध्याय ९ श्लोक ६) उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता और न ही वह मेरे लिए अदृश्य होता है।’’
यह एक प्रकार की ब्राह्मीस्थिति का वर्णन है, जिसमें एकात्मदर्शी योगी समस्त प्राणियों की आत्मारूप आदर्शों का समुच्चय उस परमात्मा की उपासना को ही मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय मानता है। उसका परमात्मा से कभी भी विच्छेद नहीं होता। सदैव एकरसता का भाव बना रहता है। भक्तियोगी- सभी संत इनके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। जो जीवन भर कर्मयोग में लगे रहे चाहे वे कबीर हों, रैदास हों, मीरा या दादू, एकनाथ या ज्ञानेश्वर- सदैव परमात्मा में ही लीन रहे।
द्वैत से अद्वैत की ओर
जैसे ही योगी को अपने अंदर की परमात्मसत्ता की अनुभूति हुई- अपने आसपास के संपूर्ण संसार के लिए महान प्रेम का सागर उसके अंदर से उमड़ने लगता है। वह उस दिव्य सामंजस्य की अनुभूति करने लगता है, जिसमें अब द्वैत नहीं रहा- अद्वैत स्थापित हो जाता है। साधक- सविता एक- भक्त एक- एकत्व दोनों का- यह हमारी गुरुसत्ता का ध्यान का निर्देश सार्थक होने लगता है। अपना अहं भूल गया, राग- द्वेष से मुक्त हो गया, ऐसा साधक सार्वभौमिक दृष्टि पाकर दिव्यकर्मी बन जाता है- सच्चा ध्यानयोगी बन जाता है। वह जब आत्मा को बाहर देखता है, तो वह केवल सर्वव्यापी परमात्मा के ही दर्शन करता है एवं अहं द्वारा अनुभूति में आनेवाला यह सारा संसार सिमटकर उसकी आत्मसत्ता- अर्थात परमसत्ता में विलीन हो जाता है (सर्वं च मयि पश्यति)। एक अनन्त विराट रूपी परमात्मा की उसे समग्र- संपूर्ण अनुभूति होने लगती है।
विकास का एक नया आयाम
श्रीकृष्ण अतिकुशल चिकित्सक व शिक्षक हैं। वे बार- बार कुछ शब्दों को दुहरा देते हैं, ताकि विगत चिंतन में कोई भ्रम रह गया हो, तो वह दूर हो जाय। ऐसी ब्राह्मी स्थिति में पहुँचने के बाद योगी का जीवन के प्रति दृष्टिकोण आमूलचूल बदल जाता है। अब उसे दिव्य ब्रह्म के सिवाय और कुछ दिखाई नहीं देता। पशु- पक्षी जगत- प्रकृति के अंग- अवयव सभी सिवाय मेरे अर्थात परमात्मा के ही अंश दिखाई देते हैं (डीप इकॉलाजी की मूल अवधारणा)। यह अनुभूति क्षणमात्र के लिए नहीं होती- यह तो एकात्मता वाली स्थिति है। फिर ऐसा साधक भगवान से कभी विलग नहीं होता (तस्याहं न प्रणश्यामि) और न परमात्मा ही उससे कभी पृथक होता है (स च मे न प्रणश्यति)। यह एक प्रकार से ज्ञानी का- कर्मयोगी का- भक्तियोगी साधक का नया जन्म है- अपने आपके बारे में नूतन जागृति है और विकास का एक नया आयाम खुल चुका है जा उसे पूर्णत्व की ओर ले जा रहा है।
इस स्थिति का वर्णन करते हुए गोस्वामी जी कहते हैं- सन्मुख होहिं जीव मोहिं जबहीं, कोटि जनम अघनासहि तबहीं। जैसे ही जीव परमात्मा मय हुआ- उसका अंतःकरण निर्मल हो जाता है, उसके कोटि- कोटि जन्म के पाप कट जाते हैं।
स्वामी शिवानन्द (रामकृष्ण मिशन अपनी) बिल्ली को भी प्रणाम करते थे, क्योंकि उन्हें उसके अंदर भी परमात्मा के दर्शन होते थे। गोस्वामी जी ने ‘‘सियाराममय सब जग जानि’’ के रूप में इसी तथ्य को प्रतिपादित किया है। जब चारों ओर भगवान ही भगवान दिखाई देते हैं, तो दृष्टि निर्मल हो जाती है। साधना से- अविराम परमात्मा का चिन्तन करने से दृष्टि पारदर्शी हो जाती है। भगवान इस सृष्टि के केन्द्र में हैं- इसीलिए उनके स्थान को शाश्वत धाम कहा गया है। वहाँ काल है ही नहीं, समय है ही नहीं, इसीलिये उन्हें महाकाल कहा गया है।
पलक झपकते
श्री सुदर्शन सिंह चक्र का एक उपन्यास है ‘‘पलक झपकते’’। आपने आँख बंद की- पलक झपकायी इसे पलक झपकते कहते हैं। वे लिखते हैं कि सृष्ट का निर्माण भगवान ने पलक झपकते किया है। गोलोक में श्रीकृष्ण हैं- सभी सखा हैं- नृत्य चल रहा है। भगवान का सखा उनसे पूछता है कि कन्हाई यह सृष्टि कैसे चल रही है। भगवान कहते हैं कि पलक झपकते चल रही है। काल व देश साथ- साथ चलता है। भगवान केन्द्र में हैं, इसलये समय व्यापता नहीं। हम सब परमात्मा में विलीन हो जाते हैं। हम चारों ओर इसी परमात्मा को संव्याप्त देखें, तो हमारी दृष्टि निर्मल- परिपक्व हो जाएगी। फिर वह ‘‘अहं’’ प्रेरित बुद्धि द्वारा नहीं- अंतःकरण के श्रीकृष्ण द्वारा संचालित होगी। इस उपन्यास का आशय गीता के इन्हीं श्लोकों की व्याख्या से था।
मनुष्य को सर्वत्र उन्हीं भगवान के दर्शन करने होंगे- भगवद्रूप देखना होगा- इसी साक्षात्कार की स्थिति में निवास करना पड़ेगा और इसी भाव के साथ कर्म करना होगा, फिर परमात्मा उसमें अदृश्य कैसे हो सकते हैं। योग की यह परम फल की अवस्था है। कर्मयोग की व्याख्या में भक्तियोग के समावेश का एक अद्भुत प्रयोग है। यह तीसवाँ श्लोक जिसमें वे एक अतिविलक्षण- उच्चस्तरीय आयामों तक पहुँचाने वाला आश्वासन देते हैं। ‘‘जो मुझ वासुदेव को सर्वत्र देखता है उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता, न ही वह मेरे लिए अदृश्य होता है।’’
विराट जगत के एकमात्र आधार
भगवान आगे दसवें अध्याय के आठवें श्लोक में इस रहस्य को खोलते भी हैं- ‘‘अहं सर्वस्य ऽभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते’’ (मैं वासुदेव ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हूँ और मेरे कारण यह जगत चेष्टा करता है) १०/८- जिस प्रकार आकाश बादलों के सभी अंशों में संव्याप्त है, इसी प्रकार परमेश्वर समस्त चराचर संसार में व्याप्त है। वे ही इस चराचर विश्व के एकमात्र आधार भी हैं। जिस प्रकार ब्रज की गोपियाँ अपनी आँखों से हमेशा सर्वत्र श्रीकृष्ण का दर्शन करती थीं, जैसे अर्जुन ने भगवान कृष्ण के दिव्य शरीर में (दिव्य चक्षुओं द्वारा), यशोदा ने बालक रूप श्रीकृष्ण के मुख में और परम भक्त काकभुसुण्डि ने भगवान श्रीराम के उदर में समस्त विश्व को देखा था, वैसे ही हर दिव्यकर्मी भक्त को भगवान के किसी भी स्वरूप के अन्तर्गत समस्त विश्व को देखना चाहिए।
कई बार पाठक यह नहीं समझ पाते कि भगवान अपने भक्त के लिए अदृश्य नहीं होते और भक्त उनके लिए अदृश्य नहीं होता। इसका उत्तर एक ही है कि भगवान के ऐश्वर्ययुक्त सौन्दर्य का एक बार साक्षात दर्शन हो जाने के बाद भक्त और भगवान का सदा के लिए संबंध स्थापित हो जाता है। श्रद्धा से ही यह सब हो पाता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को क्रमशः कर्मयोग से भक्तियोग की ओर ले जा रहे हैं। ऐसे में ध्यान योगी के लिये यहाँ उनने एक ऐसा संकेत किया है कि वह कभी भी उस पथ पर चलना आरंभ करके रुकेगा नहीं। इस स्थिति में दिव्य ब्रह्म के सिवाय और कुछ भी नहीं है।
किंतु क्या यह जीवित रहते- कामवासना, इच्छाओं राग- द्वेष के रहते संभव है? एक कर्मयोगी भक्त को, जो ध्यान योग में प्रतिष्ठित हो रहा है, रहना तो इसी जगत में है- जहाँ अहं- लोभ की बेड़ियाँ हैं। क्या दिव्यकर्मी इस प्रवाह को उलट सकेगा। श्रीकृष्ण अपनी अगले श्लोक में की गयी घोषणा में यह बात कह देते हैं।
स योगी मयि वर्तते
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥ ६/३१
शब्दार्थ- जो (यः) समस्त प्राणियों में अवस्थित (सर्वभूतस्थित) मुझ परमेश्वर का (मां) समान रूप से (एकत्व भाव से) अवस्थित रहकर (एकत्वं आस्थितः) भजन करते हैं (भजति), सभी स्थितियों में (सर्वथा) वर्त्तमान रहने पर भी (वर्त्तमानः अपि) वह (सः) योगी व्यक्ति (योगी) मुझमें (मयि) ही स्थित रहते हैं (वर्तते)।
भावार्थ हुआ- ‘‘जो योगीजन एकीभाव में स्थित होकर समस्त प्राणियों में अवस्थित मेरे स्वरूप की उपासना करते हैं, वह सभी प्रकार से बरतते हुए (व्यवहार करते हुए) भी (वर्तमान रहने पर भी) मुझमें ही निवास करते हैं।’’
एकत्व की प्राप्ति एक सिद्धि है। पूर्णतः जो समत्व को प्राप्त हो गया है, वही विविधता में एकता का दर्शन कर सकता है। फिर वह आत्मरूप में स्थित सच्चिदानन्दघन वासुदेव को ही सब कुछ मानकर उन्हीं की उपासना करता है। ऐसा व्यक्ति कभी कामदग्ध होकर शरीर रूप में, अहं से ग्रसित होकर मन के रूप में, दम्भपूर्वक तृष्णा भाव से बुद्धि रूप में कार्य नहीं करता। उसे अपने भीतर- आसपास सभी वस्तुओं- प्राणियों में सतत परमात्मसत्ता की ही उपस्थिति दिखाई देती है। चाहे उसका बाह्य स्वरूप कैसा भी हो- वह सदैव परमात्मा में ही निवास करता है, यह परमात्मा रूप में श्रीकृष्ण की घोषणा है।