Books - युगगीता (भाग-४)
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द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना
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गीताजी का ज्ञान हर युग, हर काल में हर व्यक्ति के लिए
मार्गदर्शन देता रहा है। गीतामृत का जो भी पान करता है, वह
कालजयी बन जाता है। जीवन की किसी भी समस्या का समाधान गीता के श्लोकों
में कूट- कूट कर भरा पड़ा है। आवश्यकता उसका मर्म समझने एवं
जीवन में उतारने की है। धर्मग्रन्थों में, हमारे आर्ष वाङ्मय में
सर्वाधिक लोकप्रिय गीताजी हुई है। गीताप्रेस-
गोरखपुर ने इसके अगणित संस्करण निकाल डाले हैं। घर- घर में गीता
पहुँची हैं, पर क्या इसका लाभ जन साधारण ले पाता है? सामान्य
धारणा यही है कि यह बड़ी कठिन है। इसका ज्ञान तो किसी को
संन्यासी बना सकता है, इसलिये सामान्य व्यक्ति को इसे नहीं पढ़ना
चाहिए। साक्षात् पारस सामने होते हुए भी मना कर देना कि इसे
स्पर्श करने से खतरा है, इससे बड़ी नादानी और क्या हो सकती है।
गीता एक अवतारी सत्ता द्वारा सद्गुरु रूप में योग में स्थित
होकर युद्ध क्षेत्र में कही गयी है। फिर यह बार बार कर्त्तव्यों की याद दिलाती है, तो यह किसी को अकर्मण्य कैसे बना सकती है। यह सोचा जाना चाहिए और इस ज्ञान को आत्मसात किया जाना चाहिए।
गीता और युगगीता में क्या अंतर है, यह प्रश्र किसी के भी मन में आ सकता है। गीता एक शाश्वत जीवन्त चेतना का प्रवाह है, जो हर युग में हर व्यक्ति के लिए समाधान देता है। श्रीकृष्ण रूपी आज की प्रज्ञावतार की सत्ता ‘‘परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य’’ को एक सद्गुरु- चिन्तक मनीषी के रूप में हम सभी ने देखा है। एक विराट् परिवार उनसे लाभान्वित हुआ एवं अगले दिनों होने जा रहा है। सतयुग की वापसी के लिए संकल्पित पूज्यवर ने समय- समय पर जो कहा,लिखा या जिया, वह गीता के परिप्रेक्ष्य में स्थान- स्थान पर प्रस्तुत किया गया है। निवेदक का प्रयास यही रहा है कि अतिमानस के प्रतीक उसके सद्गुरु, जिनने आज के युग की हर समस्या का समाधान हम सबके समक्ष रखा, गीता के परिप्रेक्ष्य में बोलते हुए दिखाई दें। स्थान- स्थान पर गीता की विस्तृत व्याख्या और भी महापुरुषों के संदर्भ में की गई है, पर मूलतः सारा चिन्तन गुरुवर को ही केन्द्र में रखकर प्रस्तुत किया गया है, क्योंकि लिखते समय निवेदक के प्रेरणा स्रोत वे ही थे। मात्र लिखते समय ही क्यों? हर पल, हर श्वास में वे ही तो विद्यमान रहते हैं। अखिल विश्व गायत्री परिवार के संरक्षक- संस्थापक विराट् संगठन के अभिभावक आचार्यश्री का मार्गदर्शन इस खण्ड में गीता के चौथे अध्याय के संदर्भ में प्रस्तुत हुआ है।
गीता जी का चौथा अध्याय बड़ा विलक्षण है। इसमें भगवान अपने स्वरूप को पहली बार अर्जुन के समक्ष वाणी द्वारा प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि यह ज्ञान, जो लुप्त हो गया था, सबसे पहले उनके (भगवान के) द्वारा सूर्य को दिया गया था, किन्तु अब वे युगों बाद द्वापर में उसे दे रहे हैं। अर्जुन भ्रमित हो जाता है कि भगवान् का जन्म तो अभी का है, वे देवकी पुत्र वासुकीनन्दन के रूप में जन्मे हैं जबकि सूर्य तो अति प्राचीन है। लौकिक संबंध ही उसे समझ में आते हैं, तब भगवान उसे जवाब देते हैं कि अर्जुन के व उनके अनेकानेक जन्म हो चुके हैं, जिन्हें वह नहीं जानता पर भगवान् जानते हैं। जब- जब भी धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब- तब भगवान् धर्म की स्थापना करने के लिए, लीलावतार के रूप में युग- युग में प्रकट होते रहे हैं। इसी अध्याय में सुप्रसिद्ध श्लोक है- ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिः भवति भारत.............संभवामि युगे- युगे’’ (अध्याय ४/७- ८)जो हर काल में, हर युग में पीड़ित मानव जाति के लिए एक प्रत्यक्ष आश्वासन है- अवतार के प्रकटीकरण का- उनके अवतरण का। भगवान् अपने जन्म व कर्म को दिव्य बताते हैं और इस ज्ञान की महत्ता बताते हैं कि जो इसे तत्त्व से जान लेता है, वह भगवत्ता को ही प्राप्त होता है।
चतुर्वर्ण की रचना और कर्म, अकर्म, विकर्म संबंधी चर्चा इसी अध्याय में आयी है। यही अध्याय पण्डित को परिभाषित करता है कि वही सच्चा ज्ञानी व पण्डित है, जिसके सभी कर्म ज्ञानरूपी अग्रि द्वारा भस्म हो गये हैं। कर्मयोग- ज्ञानयोग का विलक्षण सम्मिश्रण भक्तियोग के साथ इस अध्याय में है, जिसे हम ‘‘ज्ञान- कर्म संन्यासयोग’’ नाम से जानते हैं। विभिन्न यज्ञों की व्याख्या एवं उसमें स्वाध्यायरूपी ज्ञानयज्ञ की महिमा योगेश्वर इसमें अर्जुन को समझाते हैं। कर्म बन्धन से मुक्त होना हो, तो साधक को अपने संपूर्ण कर्मों को ज्ञान में विलीन कर देना चाहिए, ऐसा कहकर श्रीकृष्ण इस अध्याय को पराकाष्ठा पर ले जाते हैं। वे कहते हैं कि पापी व्यक्ति चाहे उसने कितने ही घोर पाप किए हों, ज्ञानरूपी नौका द्वारा तर सकता है। ज्ञान से ज्यादा पवित्र इस धरती पर कुछ भी नहीं है, इसे बताते हुए श्रीकृष्ण कर्मयोगी को दिव्य कर्मी बनने, श्रद्धा अपने अंदर विकसित करने और जितेन्द्रिय होने का उपदेश देते हैं। श्रद्धावान को ही ज्ञान मिलता है। संशयात्मा का तो विनाश ही होता है। अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं—अपने विवेक को जागृत कर समस्त संशयों को नष्ट कर अपने कर्मों को परमात्मा में अर्पित कर समत्व रूपी योग में हर व्यक्ति को स्थित हो जाना चाहिए। यही इस युग की- हर युग की आवश्यकता है।
ज्ञान गीता का है, शाश्वत है एवं स्वयं भगवान् के श्रीमुख से निकला- वेदव्यास द्वारा लिपिबद्ध किया हुआ है। निवेदक ने मात्र यही प्रयास किया है कि इस ज्ञान को परम पूज्य गुरुदेव के चिन्तन के संदर्भ में आज हम कैसे दैनंदिन जीवन में लागू करें, यह व्यावहारिक मार्गदर्शन इस खण्ड की विस्तृत व्याख्या द्वारा प्राप्त हो। युगगीता का प्रथम खण्ड पहले तीन अध्याय की व्याख्या के रूप में प्रकाशित हुआ। उस समय मन सिकोड़ने का था, पर क्रमशः अब चौथे अध्याय तक आते- आते यह पूरा खण्ड ही इसकी व्याख्या में नियोजित हो गया। यही प्रभु की इच्छा रही होगी। सद्गुरु को गुरुपूर्णिमा की पावन वेला में एवं साधक संजीवनी के सृजेता- सनातन धर्म के संरक्षक, शताधिक वर्ष तक अपनी ज्ञान- सुधा का पान कराने वाले पं० श्रीरामसुखदास जी को उनके महाप्रयाण की वेला में श्रद्धासुमनों सहित यह खण्ड समर्पित है।
— डॉ० प्रणव पण्ड्या
गीता और युगगीता में क्या अंतर है, यह प्रश्र किसी के भी मन में आ सकता है। गीता एक शाश्वत जीवन्त चेतना का प्रवाह है, जो हर युग में हर व्यक्ति के लिए समाधान देता है। श्रीकृष्ण रूपी आज की प्रज्ञावतार की सत्ता ‘‘परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य’’ को एक सद्गुरु- चिन्तक मनीषी के रूप में हम सभी ने देखा है। एक विराट् परिवार उनसे लाभान्वित हुआ एवं अगले दिनों होने जा रहा है। सतयुग की वापसी के लिए संकल्पित पूज्यवर ने समय- समय पर जो कहा,लिखा या जिया, वह गीता के परिप्रेक्ष्य में स्थान- स्थान पर प्रस्तुत किया गया है। निवेदक का प्रयास यही रहा है कि अतिमानस के प्रतीक उसके सद्गुरु, जिनने आज के युग की हर समस्या का समाधान हम सबके समक्ष रखा, गीता के परिप्रेक्ष्य में बोलते हुए दिखाई दें। स्थान- स्थान पर गीता की विस्तृत व्याख्या और भी महापुरुषों के संदर्भ में की गई है, पर मूलतः सारा चिन्तन गुरुवर को ही केन्द्र में रखकर प्रस्तुत किया गया है, क्योंकि लिखते समय निवेदक के प्रेरणा स्रोत वे ही थे। मात्र लिखते समय ही क्यों? हर पल, हर श्वास में वे ही तो विद्यमान रहते हैं। अखिल विश्व गायत्री परिवार के संरक्षक- संस्थापक विराट् संगठन के अभिभावक आचार्यश्री का मार्गदर्शन इस खण्ड में गीता के चौथे अध्याय के संदर्भ में प्रस्तुत हुआ है।
गीता जी का चौथा अध्याय बड़ा विलक्षण है। इसमें भगवान अपने स्वरूप को पहली बार अर्जुन के समक्ष वाणी द्वारा प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि यह ज्ञान, जो लुप्त हो गया था, सबसे पहले उनके (भगवान के) द्वारा सूर्य को दिया गया था, किन्तु अब वे युगों बाद द्वापर में उसे दे रहे हैं। अर्जुन भ्रमित हो जाता है कि भगवान् का जन्म तो अभी का है, वे देवकी पुत्र वासुकीनन्दन के रूप में जन्मे हैं जबकि सूर्य तो अति प्राचीन है। लौकिक संबंध ही उसे समझ में आते हैं, तब भगवान उसे जवाब देते हैं कि अर्जुन के व उनके अनेकानेक जन्म हो चुके हैं, जिन्हें वह नहीं जानता पर भगवान् जानते हैं। जब- जब भी धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब- तब भगवान् धर्म की स्थापना करने के लिए, लीलावतार के रूप में युग- युग में प्रकट होते रहे हैं। इसी अध्याय में सुप्रसिद्ध श्लोक है- ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिः भवति भारत.............संभवामि युगे- युगे’’ (अध्याय ४/७- ८)जो हर काल में, हर युग में पीड़ित मानव जाति के लिए एक प्रत्यक्ष आश्वासन है- अवतार के प्रकटीकरण का- उनके अवतरण का। भगवान् अपने जन्म व कर्म को दिव्य बताते हैं और इस ज्ञान की महत्ता बताते हैं कि जो इसे तत्त्व से जान लेता है, वह भगवत्ता को ही प्राप्त होता है।
चतुर्वर्ण की रचना और कर्म, अकर्म, विकर्म संबंधी चर्चा इसी अध्याय में आयी है। यही अध्याय पण्डित को परिभाषित करता है कि वही सच्चा ज्ञानी व पण्डित है, जिसके सभी कर्म ज्ञानरूपी अग्रि द्वारा भस्म हो गये हैं। कर्मयोग- ज्ञानयोग का विलक्षण सम्मिश्रण भक्तियोग के साथ इस अध्याय में है, जिसे हम ‘‘ज्ञान- कर्म संन्यासयोग’’ नाम से जानते हैं। विभिन्न यज्ञों की व्याख्या एवं उसमें स्वाध्यायरूपी ज्ञानयज्ञ की महिमा योगेश्वर इसमें अर्जुन को समझाते हैं। कर्म बन्धन से मुक्त होना हो, तो साधक को अपने संपूर्ण कर्मों को ज्ञान में विलीन कर देना चाहिए, ऐसा कहकर श्रीकृष्ण इस अध्याय को पराकाष्ठा पर ले जाते हैं। वे कहते हैं कि पापी व्यक्ति चाहे उसने कितने ही घोर पाप किए हों, ज्ञानरूपी नौका द्वारा तर सकता है। ज्ञान से ज्यादा पवित्र इस धरती पर कुछ भी नहीं है, इसे बताते हुए श्रीकृष्ण कर्मयोगी को दिव्य कर्मी बनने, श्रद्धा अपने अंदर विकसित करने और जितेन्द्रिय होने का उपदेश देते हैं। श्रद्धावान को ही ज्ञान मिलता है। संशयात्मा का तो विनाश ही होता है। अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं—अपने विवेक को जागृत कर समस्त संशयों को नष्ट कर अपने कर्मों को परमात्मा में अर्पित कर समत्व रूपी योग में हर व्यक्ति को स्थित हो जाना चाहिए। यही इस युग की- हर युग की आवश्यकता है।
ज्ञान गीता का है, शाश्वत है एवं स्वयं भगवान् के श्रीमुख से निकला- वेदव्यास द्वारा लिपिबद्ध किया हुआ है। निवेदक ने मात्र यही प्रयास किया है कि इस ज्ञान को परम पूज्य गुरुदेव के चिन्तन के संदर्भ में आज हम कैसे दैनंदिन जीवन में लागू करें, यह व्यावहारिक मार्गदर्शन इस खण्ड की विस्तृत व्याख्या द्वारा प्राप्त हो। युगगीता का प्रथम खण्ड पहले तीन अध्याय की व्याख्या के रूप में प्रकाशित हुआ। उस समय मन सिकोड़ने का था, पर क्रमशः अब चौथे अध्याय तक आते- आते यह पूरा खण्ड ही इसकी व्याख्या में नियोजित हो गया। यही प्रभु की इच्छा रही होगी। सद्गुरु को गुरुपूर्णिमा की पावन वेला में एवं साधक संजीवनी के सृजेता- सनातन धर्म के संरक्षक, शताधिक वर्ष तक अपनी ज्ञान- सुधा का पान कराने वाले पं० श्रीरामसुखदास जी को उनके महाप्रयाण की वेला में श्रद्धासुमनों सहित यह खण्ड समर्पित है।
— डॉ० प्रणव पण्ड्या