Books - आपत्तियों में धैर्य
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Language: HINDI
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कठिनाइयाँ हमारी उन्नति में सहायक होती हैं
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साधारण लोग कठिनाइयों को दुर्भाग्य की बात समझते हैं । जिन
लोगों ने किसी संपन्न परिवार में जन्म लिया है, वे तो हर तरह की
असुविधा से ही बहुत घबड़ाते हैं और यही अभिलाषा किया करते हैं कि
उनकी समस्त आवश्यकताएँ बिना किसी दिक्कत के यथासमय पूर्ण होती
रहें । अन्य लोग भी ऐसे व्यक्तियों को बड़ा 'भाग्यवान' समझते हैं । पर
वास्तव में बात ऐसी नहीं है । जिन लोगों ने कभी जीवन की कठोरता के
दर्शन नहीं किए हैं, वे अनेक दृष्टियों से कच्चे रह जाते हैं । इसलिए
भगवान ने जहाँ सुखों की सृष्टि की है, वहाँ दुःखों और कठिनाइयों की
रचना भी कर दी है । इनका अनुभव हुए बिना मनुष्य अपूर्ण रह जाता है
और उसका उचित विकास नहीं हो पाता ।
भगवान को दयासिंधु एवं करुणासागर कहा जाता है । उनके वात्सल्य, दान और उपकार का कोई अंत नहीं । साधारण प्राणियों का जब अपनी कृतियों पर, अपनी संतति पर इतना ममत्व होता है तो उस महान प्रभु का अपने बालकों पर कितना स्नेह होगा, इसकी कल्पना करना भी सहज नहीं है । चित्रकार अपने चित्र को, माली अपने बाग को, मूर्तिकार अपनी मूर्ति को, किसान अपने खेत को, गडरिया अपनी भेड़ों को अच्छी, उन्नत, विकसित स्थिति में रखना चाहता है । उन्हें अच्छी स्थिति में देखकर प्रसन्न होता है, फिर परमात्मा अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य को अच्छी स्थिति में न रखना चाहे, ऐसा नहीं हो सकता है । निश्चय ही प्रभु का यह प्रयत्न निरंतर रहता है कि हम सब सुखी एवं सुविकसित हों । उनकी दया और करुणा निरंतर हमारे ऊपर बरसती रहे ।
इतना होते हुए भी देखा जाता है कि कितने ही मनुष्य अत्यंत दुखी हैं । उन्हें अनेक प्रकार के कष्ट और अभाव सता रहे हैं । भय, पीड़ा वियोग, त्रास, अन्याय एवं अभाव से संत्रस्त हुए कितने ही व्यक्ति बुरी तरह दुःख के सागर में गोते लगा रहे हैं । किसी न किसी पर ऐसी आकस्मिक विपत्ति आती है कि देखने वालों का हृदय दहल जाता है । ऐसे अवसरों पर ईश्वर की दयालुता पर संदेह होने लगता है, कई बार तो कष्टों को दैवी कोप, ईश्वरीय निखुरता मान लिया जाता है । परंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । प्रभु एक क्षणभर के लिए भी रुक नहीं सकता । जिसे हम विपत्ति समझते हैं, वह भी एक प्रकार से उनकी दया ही होती है ।
माता का अपने बच्चे पर असाधारण प्यार होता है वह उसे सुखी बनाने के लिए अपनी समझ के अनुसार कोई बात उठा नहीं रखती, तो भी उसके कई कार्य ऐसे हैं जो बालक को अप्रिय होते है । बालक किसी स्वादिष्ट भोजन को बहुत अधिक मात्रा में खाना चाहता है माता जानती है कि अधिक खाने से यह बीमार पड़ जाएगा इसलिए वह बच्चे के रूठने रोने हाथ-पाँव पीटने की कुछ भी परवाह न करके उतना ही खाने देती है जितना कि आवश्यक है । आग, हथियार बारूद आदि से बच्चे को दूर रखा जाता है वह उनसे खेलना चाहे तो बलपूर्वक रोक दिया जाता है । घर के पशुओं के साथ खेलना चाहे तो भी उसे रोका जाता है ताकि उनके पैरों की चपेट में आकर कहीं कुचल न जाए । बच्चा खिड़की, छज्जों में से बाहर की ओर झुककर देखना चाहे तो उसकी स्वाधीनता को तुरंत रोक दिया जाता है । कोई अनुचित काम करने पर चपत भी लगाई जाती है और डराने के लिए कोठरी में भी बंद कर दिया जाता है । कई बार उसे मुर्गा बनाने धूप में खड़ा होने कान पकड़कर उठने-बैठने, भूखा रहने आदि की सजा दी जाती है । बीमार होने पर माता उसे कडुई दवा जबरदस्ती पिलाती है और उसके कष्ट की परवाह न करके आवश्यक होने पर इंजेक्शन या ऑपरेशन कराने के लिए भी छाती कड़ी करके तैयार हो जाती है ।
बालक समझता है कि माता बड़ी निष्ठुर है, मुझे अमुक वस्तु नहीं देती, अमुक प्रकार सताती है और अमुक कष्ट पड़ने पर भी मेरी सहायता नहीं करती । अल्पज्ञान के कारण वह माता के प्रति अपने मन में दुर्भावना ला सकता है, उस पर निष्ठुरता का दोषारोपण कर सकता है, पर निश्चय ही उसकी मान्यता भ्रमपूर्ण होती है । यदि वह माता के हृदय को देख सकता तो उसे प्रतीत होता कि उसमें कितनी अपार करुणा भरी हुई है और कितना ऊँचा वात्सल्य उसमें हिलोरें ले रहा है । यदि इतना वात्सल्य उसमें न होता तो उसके हितसाधन के लिए बच्चे के कष्ट के समय होने वाले अपने दुःख को, वह किस प्रकार छाती कड़ी करके सहन करती ?
माता के दुलार के तरीके दो प्रकार के होते हैं । एक वे जिनसे बालक प्रसन्न होता है । जब उसे मिठाई, खिलौने, बढ़िया कपड़े आदि दिए जाते हैं और सैर कराने या तमाशे दिखाने ले जाया जाता है, तो बालक प्रसन्न होता है और सोचता है कि मेरी माता कितनी अच्छी है । परंतु जब माता काजल लगाने के लिए हाथ पकड़कर जबरदस्ती करती है, जबरदस्ती नहलाती है, स्कूल जाने के लिए कमची फटकारकर विवश करती है तो बच्चा झल्लाता है और माता को कोसता है । बालबुद्धि नहीं जानती कि कभी मधुर कभी कठोर व्यवहार उसके साथ क्यों किया जाता है । वह माता के वात्सल्य पर शंका करता है, जो वस्तुस्थिति को जानते हैं उन्हें पता है कि माता बच्चे के प्रति केवल उपकार का व्यवहार ही कर सकती है । मधुर और कठोर दोनों ही व्यवहारों में वात्सल्य ''भरा होता है । प्रभु की कृपा भी दो प्रकार की होती है-एक सुख और दूसरी दुःख । दोनों में ही हमारा हित और उसका स्नेह भरा होता है । अल्पज्ञता उस वस्तुस्थिति से हमें परिचित नहीं होने देती, पर भगवान की जब कृपा होती है, सद्बुद्धि का हृदय में प्रकाश हो जाता है, तो ''कष्ट'' नाम की दुःख देने वाली कोई वस्तु शेष नहीं रहती । कठोर एवं प्रतिकूल परिस्थितियाँ एक भिन्न प्रकार का दैवी उपहार प्रतीत होती हैं और उनसे डरने या दुखी होने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता ।
सुख से मनुष्य को कई लाभ हैं, चित्त प्रसन्न रहता है, इंद्रियाँ तृप्त होती हैं, मन में उत्साह रहता है, उन्नति करने में सुविधा रहती है, मित्र बढ़ जाते हैं, साहस बढ़ता है, मान-बड़ाई के अवसर मिलते हैं । इस प्रकार के और भी लाभ सुख में होते हैं, परंतु दुःख के लाभ भी कम लाभ नहीं हैं । दुःख से मनुष्य की सोई हुई प्रतिभा का विकास होता है, कष्ट से त्राण पाने के लिए मन के सब कलपुरजे बड़ी तत्परता से क्रियाशील होते हैं, शरीर भी आलस्य छोड़कर कर्मनिष्ठ हो जाता है । घोड़े को अच्छी चाल सिखाने वाले सईस उसके पुट्ठे पर हंटर फटकारते हैं जिससे घोड़ा उत्तेजित होकर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता है, इसी समय लगाम के इशारे से उसे बढ़िया चाल चलाने का अभ्यास कराया जाता है । दुःख, एक प्रकार का हंटर है जो हमारी शिथिल हुई शारीरिक और मानसिक शक्तियों को भड़काकर क्रियाशील बनाता है और साथ ही धर्माचरण की शिक्षा देकर सही चाल चलना सिखाता है ।
फोड़ा चिर जाने से उसमें भरा हुआ मवाद निकल जाता है, दस्त हो जाने से पेट में संचित मल की शुद्धि हो जाती है, लंघन हो जाने से कोष्ठ गत दोषों का शमन हो जाता है । दुःख आ जाने से संचित पाप का भार उतर जाता है और अंतश्चेतना बड़ी शुद्ध, निर्मल एवं हलकी हो जाती है । सोने को अग्नि में डालने से उसके साथ चिपटे हुए दूषित पदार्थ छूट जाते हैं और कांतिमय तथा तपा हुआ शुद्ध स्वर्ण प्रत्यक्ष हो जाता है । मनुष्य की कितनी ही बुराइयाँ बुरी आदतें, दूषित भावनाएँ और विचारधाराएँ तब तक नहीं छूटती जब तक वह किसी विपत्ति में नहीं पड़ता । कुदरत का एक बड़ा तमाचा खाकर उस बेहोश को होश आता है और तब वह उस बेढंगी चाल को सँभालता है । जो ज्ञान बड़े-बड़े उपदेशों, प्रवचनों और कथाओं के सुनने से नहीं होता, वह विपत्ति की एक दुलत्ती खा लेने पर बड़ी, सरलता से हृदयंगम हो जाता है, इस प्रकार कई बार काल दंड का एक आघात, हजार ज्ञानी गुरुओं से अधिक शिक्षा दे जाता है ।
सुख में जहाँ अनेक अच्छाइयाँ हैं, वहाँ यह एक भारी बुराई भी है कि मनुष्य उन सुख-साधनों को सत्कर्म बढ़ाने में लगाने सदुपयोग भूलकर, ऐश उड़ाने, अहंकार में डूब जाने, अधिक जोड़ने के कुचक्र में पड़ जाता है । उसके समय का अधिकांश भाग तुच्छ स्वार्थों में लगा रहता है । परमार्थ की ओर से वह प्राय: पीठ ही फेर लेता है । इस बुरी स्थिति से अपने पुत्र को बचाने के लिए ईश्वर उसकी धन-छीन लेते हैं, पढ़ने से जी चुराकर हर घड़ी खिलौने से उलझे रहने वाले बालक के खिलौने जैसे माता छीनकर छिपा देती है वैसे ही धन, संतान, स्त्री, वैभव आदि के खेल-खिलोने को छीनकर ईश्वर हमें यह प्रेरणा देता है कि इस झंझट की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य आपके लिए करने को पड़ा हुआ है । ''खेल छोड़ो और स्कूल जाओ'' की शिक्षा के लिए कई बार हानि का, आपत्ति का दैवी आयोजन होता है ।
कितनी ही उच्च आत्माएँ तप रूपी कष्ट को अपना परम मित्र और विश्व-कल्याण का मूल समझकर उसे स्वेच्छापूर्वक छाती से लगाती हैं । इससे उनकी कीर्ति अजर-अमर हो जाती है और उस तप की अग्नि युग- युगांतरों तक जनता को प्रकाश देती रहती है । हरिश्चंद्र, प्रह्लाद, शिवि, मोरध्वज, दधीचि प्रताप, शिवाजी हकीकतराय, वंदावैरगी, भगीरथ, गौतम बुद्ध, ईसा मसीह आदि ने जो कष्ट सहे, वे उनने स्वेच्छापूर्वक शिरोधार्य किए थे । यदि वे अपनी गतिविधि में थोड़ा सा परिवर्तन कर लेते तो उन आपत्तियों से सहज ही बच सकते थे । पर उनने देखा कि यह कष्ट या हानि उस महान लाभ की तुलना में तुच्छ है इसलिए उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपने कष्टसाध्य मार्ग पर दृढ़ रहना उचित समझा । दूसरे लोग यह कल्पना कर सकते हैं कि उन्होंने बड़े कष्ट सहे, पर यदि उनकी मनोभूमि का कोई ठीक प्रकार परिचय प्राप्त कर सकेगा तो उसे प्रतीत होगा कि उनकी अंतरात्मा प्रसन्नतापूर्वक उस सबको सहन कर रही थी ।
भगवान जिसे अपनी शरण में लेते हैं, जिसे बंधन-मुक्त करना चाहते हैं, उसके अनिवार्य कर्म भोगों को जल्दी-जल्दी भुगतवाकर उसे ऐसा ऋण मुक्त बना देते हैं कि भविष्य के लिए कोई बंधन शेष न रहे और भक्त को फिर जन्म-मरण के चक्र में न जाना पड़े । एक ओर तो विपत्ति द्वारा प्रारब्ध भोग समाप्त हो जाते हैं दूसरी ओर उसकी आंतरिक पवित्रता बहुत बढ़ती है । इन उभयपक्षीय लाभों से वह बड़ी गति से परम लक्ष्य की ओर प्रगति करता है । तपस्वी लोग ऐसे कष्टों को प्रयत्नपूर्वक अपने ऊपर आमंत्रित करते हैं ताकि उनकी लक्ष्य यात्रा शीघ्र पूरी हो जाए ।
साधारणतः: अनेक सद्गुणों के विकास के लिए भगवान समय- समय पर अनेक कटु अनुभव कराते हैं बच्चे की मृत्यु होने पर उसके शोक में ''वात्सल्य'' का हृदयगत परम सात्विक तत्त्व उमड़ता है जिसके कारण वह अन्य बालकों पर अधिक प्रेम करना सीखता है । देखा गया है कि जिसकी पहली पत्नी गुजर जाती है, वह अपनी दूसरी पत्नी से अधिक सद्व्यवहार करता है क्योंकि एक पत्नी खो देने के कारण जो भावोद्रेक मन में हुआ उसके कारण दांपत्य कर्तव्यों का उसे ज्ञान हुआ है और अपने प्रथम दांपत्य की अपेक्षा दूसरे दांपत्य जीवन में अधिक सफल सिद्ध होता है, एक वियोग उसे उस खोई हुई वस्तु के महत्त्व को भली प्रकार हृदयंगम करा देता है । धन खोकर मनुष्य यह सीखता है कि धन का सदुपयोग किस प्रकार किया जाना चाहिए ? रोगी हो जाने पर आदमी यह जान पाता है कि संयत आहार-विहार का क्या महत्त्व है ? गाली देने पर जिसका मुँह पिट जाता है उसी को यह अक्ल आती है कि गाली देना बुरी बात है । जिसको अत्याचार सहना पड़ा है वही जानता है कि दूसरों पर यदि जुल्म करूँ तो उन्हें कितना कष्ट होगा ? जब हम आपत्तिग्रस्त होकर दूसरों की सहायता के लिए हाथ पसारते हैं और दीन नेत्रों से दूसरों की ओर ताकते हैं, तब यह पता चलता है कि दूसरे दुखियों की सहायता करना हमारे लिए भी कितना आवश्यक कर्तव्य है ?
भगवान को दयासिंधु एवं करुणासागर कहा जाता है । उनके वात्सल्य, दान और उपकार का कोई अंत नहीं । साधारण प्राणियों का जब अपनी कृतियों पर, अपनी संतति पर इतना ममत्व होता है तो उस महान प्रभु का अपने बालकों पर कितना स्नेह होगा, इसकी कल्पना करना भी सहज नहीं है । चित्रकार अपने चित्र को, माली अपने बाग को, मूर्तिकार अपनी मूर्ति को, किसान अपने खेत को, गडरिया अपनी भेड़ों को अच्छी, उन्नत, विकसित स्थिति में रखना चाहता है । उन्हें अच्छी स्थिति में देखकर प्रसन्न होता है, फिर परमात्मा अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य को अच्छी स्थिति में न रखना चाहे, ऐसा नहीं हो सकता है । निश्चय ही प्रभु का यह प्रयत्न निरंतर रहता है कि हम सब सुखी एवं सुविकसित हों । उनकी दया और करुणा निरंतर हमारे ऊपर बरसती रहे ।
इतना होते हुए भी देखा जाता है कि कितने ही मनुष्य अत्यंत दुखी हैं । उन्हें अनेक प्रकार के कष्ट और अभाव सता रहे हैं । भय, पीड़ा वियोग, त्रास, अन्याय एवं अभाव से संत्रस्त हुए कितने ही व्यक्ति बुरी तरह दुःख के सागर में गोते लगा रहे हैं । किसी न किसी पर ऐसी आकस्मिक विपत्ति आती है कि देखने वालों का हृदय दहल जाता है । ऐसे अवसरों पर ईश्वर की दयालुता पर संदेह होने लगता है, कई बार तो कष्टों को दैवी कोप, ईश्वरीय निखुरता मान लिया जाता है । परंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । प्रभु एक क्षणभर के लिए भी रुक नहीं सकता । जिसे हम विपत्ति समझते हैं, वह भी एक प्रकार से उनकी दया ही होती है ।
माता का अपने बच्चे पर असाधारण प्यार होता है वह उसे सुखी बनाने के लिए अपनी समझ के अनुसार कोई बात उठा नहीं रखती, तो भी उसके कई कार्य ऐसे हैं जो बालक को अप्रिय होते है । बालक किसी स्वादिष्ट भोजन को बहुत अधिक मात्रा में खाना चाहता है माता जानती है कि अधिक खाने से यह बीमार पड़ जाएगा इसलिए वह बच्चे के रूठने रोने हाथ-पाँव पीटने की कुछ भी परवाह न करके उतना ही खाने देती है जितना कि आवश्यक है । आग, हथियार बारूद आदि से बच्चे को दूर रखा जाता है वह उनसे खेलना चाहे तो बलपूर्वक रोक दिया जाता है । घर के पशुओं के साथ खेलना चाहे तो भी उसे रोका जाता है ताकि उनके पैरों की चपेट में आकर कहीं कुचल न जाए । बच्चा खिड़की, छज्जों में से बाहर की ओर झुककर देखना चाहे तो उसकी स्वाधीनता को तुरंत रोक दिया जाता है । कोई अनुचित काम करने पर चपत भी लगाई जाती है और डराने के लिए कोठरी में भी बंद कर दिया जाता है । कई बार उसे मुर्गा बनाने धूप में खड़ा होने कान पकड़कर उठने-बैठने, भूखा रहने आदि की सजा दी जाती है । बीमार होने पर माता उसे कडुई दवा जबरदस्ती पिलाती है और उसके कष्ट की परवाह न करके आवश्यक होने पर इंजेक्शन या ऑपरेशन कराने के लिए भी छाती कड़ी करके तैयार हो जाती है ।
बालक समझता है कि माता बड़ी निष्ठुर है, मुझे अमुक वस्तु नहीं देती, अमुक प्रकार सताती है और अमुक कष्ट पड़ने पर भी मेरी सहायता नहीं करती । अल्पज्ञान के कारण वह माता के प्रति अपने मन में दुर्भावना ला सकता है, उस पर निष्ठुरता का दोषारोपण कर सकता है, पर निश्चय ही उसकी मान्यता भ्रमपूर्ण होती है । यदि वह माता के हृदय को देख सकता तो उसे प्रतीत होता कि उसमें कितनी अपार करुणा भरी हुई है और कितना ऊँचा वात्सल्य उसमें हिलोरें ले रहा है । यदि इतना वात्सल्य उसमें न होता तो उसके हितसाधन के लिए बच्चे के कष्ट के समय होने वाले अपने दुःख को, वह किस प्रकार छाती कड़ी करके सहन करती ?
माता के दुलार के तरीके दो प्रकार के होते हैं । एक वे जिनसे बालक प्रसन्न होता है । जब उसे मिठाई, खिलौने, बढ़िया कपड़े आदि दिए जाते हैं और सैर कराने या तमाशे दिखाने ले जाया जाता है, तो बालक प्रसन्न होता है और सोचता है कि मेरी माता कितनी अच्छी है । परंतु जब माता काजल लगाने के लिए हाथ पकड़कर जबरदस्ती करती है, जबरदस्ती नहलाती है, स्कूल जाने के लिए कमची फटकारकर विवश करती है तो बच्चा झल्लाता है और माता को कोसता है । बालबुद्धि नहीं जानती कि कभी मधुर कभी कठोर व्यवहार उसके साथ क्यों किया जाता है । वह माता के वात्सल्य पर शंका करता है, जो वस्तुस्थिति को जानते हैं उन्हें पता है कि माता बच्चे के प्रति केवल उपकार का व्यवहार ही कर सकती है । मधुर और कठोर दोनों ही व्यवहारों में वात्सल्य ''भरा होता है । प्रभु की कृपा भी दो प्रकार की होती है-एक सुख और दूसरी दुःख । दोनों में ही हमारा हित और उसका स्नेह भरा होता है । अल्पज्ञता उस वस्तुस्थिति से हमें परिचित नहीं होने देती, पर भगवान की जब कृपा होती है, सद्बुद्धि का हृदय में प्रकाश हो जाता है, तो ''कष्ट'' नाम की दुःख देने वाली कोई वस्तु शेष नहीं रहती । कठोर एवं प्रतिकूल परिस्थितियाँ एक भिन्न प्रकार का दैवी उपहार प्रतीत होती हैं और उनसे डरने या दुखी होने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता ।
सुख से मनुष्य को कई लाभ हैं, चित्त प्रसन्न रहता है, इंद्रियाँ तृप्त होती हैं, मन में उत्साह रहता है, उन्नति करने में सुविधा रहती है, मित्र बढ़ जाते हैं, साहस बढ़ता है, मान-बड़ाई के अवसर मिलते हैं । इस प्रकार के और भी लाभ सुख में होते हैं, परंतु दुःख के लाभ भी कम लाभ नहीं हैं । दुःख से मनुष्य की सोई हुई प्रतिभा का विकास होता है, कष्ट से त्राण पाने के लिए मन के सब कलपुरजे बड़ी तत्परता से क्रियाशील होते हैं, शरीर भी आलस्य छोड़कर कर्मनिष्ठ हो जाता है । घोड़े को अच्छी चाल सिखाने वाले सईस उसके पुट्ठे पर हंटर फटकारते हैं जिससे घोड़ा उत्तेजित होकर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता है, इसी समय लगाम के इशारे से उसे बढ़िया चाल चलाने का अभ्यास कराया जाता है । दुःख, एक प्रकार का हंटर है जो हमारी शिथिल हुई शारीरिक और मानसिक शक्तियों को भड़काकर क्रियाशील बनाता है और साथ ही धर्माचरण की शिक्षा देकर सही चाल चलना सिखाता है ।
फोड़ा चिर जाने से उसमें भरा हुआ मवाद निकल जाता है, दस्त हो जाने से पेट में संचित मल की शुद्धि हो जाती है, लंघन हो जाने से कोष्ठ गत दोषों का शमन हो जाता है । दुःख आ जाने से संचित पाप का भार उतर जाता है और अंतश्चेतना बड़ी शुद्ध, निर्मल एवं हलकी हो जाती है । सोने को अग्नि में डालने से उसके साथ चिपटे हुए दूषित पदार्थ छूट जाते हैं और कांतिमय तथा तपा हुआ शुद्ध स्वर्ण प्रत्यक्ष हो जाता है । मनुष्य की कितनी ही बुराइयाँ बुरी आदतें, दूषित भावनाएँ और विचारधाराएँ तब तक नहीं छूटती जब तक वह किसी विपत्ति में नहीं पड़ता । कुदरत का एक बड़ा तमाचा खाकर उस बेहोश को होश आता है और तब वह उस बेढंगी चाल को सँभालता है । जो ज्ञान बड़े-बड़े उपदेशों, प्रवचनों और कथाओं के सुनने से नहीं होता, वह विपत्ति की एक दुलत्ती खा लेने पर बड़ी, सरलता से हृदयंगम हो जाता है, इस प्रकार कई बार काल दंड का एक आघात, हजार ज्ञानी गुरुओं से अधिक शिक्षा दे जाता है ।
सुख में जहाँ अनेक अच्छाइयाँ हैं, वहाँ यह एक भारी बुराई भी है कि मनुष्य उन सुख-साधनों को सत्कर्म बढ़ाने में लगाने सदुपयोग भूलकर, ऐश उड़ाने, अहंकार में डूब जाने, अधिक जोड़ने के कुचक्र में पड़ जाता है । उसके समय का अधिकांश भाग तुच्छ स्वार्थों में लगा रहता है । परमार्थ की ओर से वह प्राय: पीठ ही फेर लेता है । इस बुरी स्थिति से अपने पुत्र को बचाने के लिए ईश्वर उसकी धन-छीन लेते हैं, पढ़ने से जी चुराकर हर घड़ी खिलौने से उलझे रहने वाले बालक के खिलौने जैसे माता छीनकर छिपा देती है वैसे ही धन, संतान, स्त्री, वैभव आदि के खेल-खिलोने को छीनकर ईश्वर हमें यह प्रेरणा देता है कि इस झंझट की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य आपके लिए करने को पड़ा हुआ है । ''खेल छोड़ो और स्कूल जाओ'' की शिक्षा के लिए कई बार हानि का, आपत्ति का दैवी आयोजन होता है ।
कितनी ही उच्च आत्माएँ तप रूपी कष्ट को अपना परम मित्र और विश्व-कल्याण का मूल समझकर उसे स्वेच्छापूर्वक छाती से लगाती हैं । इससे उनकी कीर्ति अजर-अमर हो जाती है और उस तप की अग्नि युग- युगांतरों तक जनता को प्रकाश देती रहती है । हरिश्चंद्र, प्रह्लाद, शिवि, मोरध्वज, दधीचि प्रताप, शिवाजी हकीकतराय, वंदावैरगी, भगीरथ, गौतम बुद्ध, ईसा मसीह आदि ने जो कष्ट सहे, वे उनने स्वेच्छापूर्वक शिरोधार्य किए थे । यदि वे अपनी गतिविधि में थोड़ा सा परिवर्तन कर लेते तो उन आपत्तियों से सहज ही बच सकते थे । पर उनने देखा कि यह कष्ट या हानि उस महान लाभ की तुलना में तुच्छ है इसलिए उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपने कष्टसाध्य मार्ग पर दृढ़ रहना उचित समझा । दूसरे लोग यह कल्पना कर सकते हैं कि उन्होंने बड़े कष्ट सहे, पर यदि उनकी मनोभूमि का कोई ठीक प्रकार परिचय प्राप्त कर सकेगा तो उसे प्रतीत होगा कि उनकी अंतरात्मा प्रसन्नतापूर्वक उस सबको सहन कर रही थी ।
भगवान जिसे अपनी शरण में लेते हैं, जिसे बंधन-मुक्त करना चाहते हैं, उसके अनिवार्य कर्म भोगों को जल्दी-जल्दी भुगतवाकर उसे ऐसा ऋण मुक्त बना देते हैं कि भविष्य के लिए कोई बंधन शेष न रहे और भक्त को फिर जन्म-मरण के चक्र में न जाना पड़े । एक ओर तो विपत्ति द्वारा प्रारब्ध भोग समाप्त हो जाते हैं दूसरी ओर उसकी आंतरिक पवित्रता बहुत बढ़ती है । इन उभयपक्षीय लाभों से वह बड़ी गति से परम लक्ष्य की ओर प्रगति करता है । तपस्वी लोग ऐसे कष्टों को प्रयत्नपूर्वक अपने ऊपर आमंत्रित करते हैं ताकि उनकी लक्ष्य यात्रा शीघ्र पूरी हो जाए ।
साधारणतः: अनेक सद्गुणों के विकास के लिए भगवान समय- समय पर अनेक कटु अनुभव कराते हैं बच्चे की मृत्यु होने पर उसके शोक में ''वात्सल्य'' का हृदयगत परम सात्विक तत्त्व उमड़ता है जिसके कारण वह अन्य बालकों पर अधिक प्रेम करना सीखता है । देखा गया है कि जिसकी पहली पत्नी गुजर जाती है, वह अपनी दूसरी पत्नी से अधिक सद्व्यवहार करता है क्योंकि एक पत्नी खो देने के कारण जो भावोद्रेक मन में हुआ उसके कारण दांपत्य कर्तव्यों का उसे ज्ञान हुआ है और अपने प्रथम दांपत्य की अपेक्षा दूसरे दांपत्य जीवन में अधिक सफल सिद्ध होता है, एक वियोग उसे उस खोई हुई वस्तु के महत्त्व को भली प्रकार हृदयंगम करा देता है । धन खोकर मनुष्य यह सीखता है कि धन का सदुपयोग किस प्रकार किया जाना चाहिए ? रोगी हो जाने पर आदमी यह जान पाता है कि संयत आहार-विहार का क्या महत्त्व है ? गाली देने पर जिसका मुँह पिट जाता है उसी को यह अक्ल आती है कि गाली देना बुरी बात है । जिसको अत्याचार सहना पड़ा है वही जानता है कि दूसरों पर यदि जुल्म करूँ तो उन्हें कितना कष्ट होगा ? जब हम आपत्तिग्रस्त होकर दूसरों की सहायता के लिए हाथ पसारते हैं और दीन नेत्रों से दूसरों की ओर ताकते हैं, तब यह पता चलता है कि दूसरे दुखियों की सहायता करना हमारे लिए भी कितना आवश्यक कर्तव्य है ?